*अघमर्षण ( अघ = पाप, मर्षण = निवृत्ति) अर्थात पाप का नाश, यानी समूचे पाप आचारण से पूर्णतया छूटना ||*
*श्रेष्ठ आचार ही शिष्टाचार है और जो भी उत्तम आचरण वाला होता जायेगा वही अघमर्षण को सिद्ध करता जायेगा अर्थात शिष्टाचार ही वह तप है जिससे समस्त मल भस्म हो जाते हैं ।*
*परमशक्ति की न्याय-व्यवस्था में जब पाप आदि कर्मों का फल मिलने पर जो रुदन अर्थात दुःख मिलता है....."यथा पूर्वमकल्पयत्"*
*इस का बारम्बार चिन्तन करते हुए ईश्वर के गुणों का स्तवन अर्थात सामर्थ्यों का चिन्तन करते हुए साधक पाता है कि मेरे नाथ के अनन्त गुण हैं,अनन्त सामर्थ्य है और वह सब दूसरों के लिए ही है स्वयं के लिए किञ्चिन्मात्र भी नहीं.....*
*ऐसा जानकर वह प्रार्थना अर्थात जगदीश्वर की सन्निधि में प्रतिज्ञा करता है कि मैं भी अपने परमपिता की सदृश परोपकारी हो रहा हूं.....*
*और तब डूब जाता है उस परम दिव्य आनन्द में, निमग्न हो जाता है प्रेम में और स्वयं को आज्ञाकारी पुत्र की भांति समर्पित कर देता है...यहाँ से उपासना घटित होने लगती है.....*
*सृष्टि सृजन का हेतु अथवा कारण जीवों के पाप पुण्य आदि कर्म हैं ना कि केवल मात्र ब्रह्मेच्छा....यह मुख्य कारण है सभी के शुद्ध आचरण का शिष्टाचार का ।*
*केवल मात्र दिखावे के लिए मन्त्र, श्लोक, स्तोत्र आदि का पाठ नहीं अपितु भीतर धारण करते हुए उस विशिष्ट स्पन्दन को जी भरकर जीने वाला वास्तव में भक्त है ।
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