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रामायण काल में ईश्वर की पूजा, आराधना और उपासना का प्रकार -

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 🚩‼️ओ३म्‼️🚩


   🔥रामायण काल में ईश्वर की पूजा, आराधना और उपासना का प्रकार -

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   रामायण काल में लोग किस विधि या प्रकार से ईश्वर की पूजा करते थे। इससे सम्बन्धित वाल्मीकि रामायण के उद्धरणों से स्थिति बहुत स्पष्ट होती है।


   १.अयोध्याकाण्ड के उस प्रकरण में जब श्रीराम वनवास का समाचार व वनगमन की आज्ञा लेने माता कौशल्या के पास जाते हैं तब वहाँ वर्णन आता है कि माता कौशल्या अग्निहोत्र कर रहीं थीं।

ददर्श मातरं तत्र हावयन्ती हुताशनम्।।

२०\१६

अर्थात् श्रीराम ने देखा कि वे हवन कर रही हैं।


   २.वनवास जाते हुए जब श्रीराम गंगातट पर पहुँचते हैं  तब वे गुह से मिलने के पश्चात  वहाँ सन्ध्योपासना करते हैं -

ततश्चीरोत्तरासङ्गः सन्ध्यामनवास्य पश्चिमाम्।

जलमेवाददे भोज्यं लक्ष्मणे नाहृतं स्वयं।।

अयोध्या काण्ड  ५०\५८

अर्थात् बल्कल का दुपट्टा ओढ़े हुए श्रीराम ने सन्ध्योपासना की और लक्ष्मण का लाया जल व भोजन का सेवन किया।


   ३.श्रीराम के वनवास जाने से अत्यन्त दुखी थीं तब उन्होंने श्रीभरत से कहा कि

अथवा स्वयमेवाहं सुमित्रानुचरा सुखम्।

अग्निहोत्रं पुरस्कृत्य प्रस्थास्ये यत्र राघवः।।  

अयोध्या काण्ड ७५\१४

अर्थात् अथवा मैं स्वयं ही सुमित्रा को अपने साथ लिए और अग्निहोत्र की अग्नि के साथ वहाँ चली जाऊंगी जहाँ मेरे श्रीराम हैं।


   ४. जब श्रीभरत  श्रीराम से मिलने वन गए और उनके साथ माता कौशल्या व माता सुमित्रा भी गई तो दोनों माताओं ने मन्दाकिनी के तट पर वह स्थान देखा जहाँ श्रीराम ,श्रीलक्ष्मण और माता सीता सन्ध्योपासना व अग्निहोत्र आदि करते थे।


  ५. बालकाण्ड सर्ग ३५ श्लोक २ व ३ ।

बालकाण्ड सर्ग २९ श्लोक ३१ ।।

युद्धकाण्ड सर्ग ५ श्लोक २३  ।।

सुन्दर काण्ड सर्ग ४  श्लोक ३२ व ३३

 भी  श्रीराम व श्री लक्ष्मण जी व माता सीता के सन्ध्या के द्वारा ईश्वर आराधना का साक्ष्य देते हैं।


   ६. जैसा सभी को पता है महर्षि विश्वामित्र श्रीराम और श्रीलक्ष्मण को लेकर ही यज्ञ=हवन=अग्निहोत्र की रक्षा के लिए गए थे।

रामायण के इन कुछ आन्तःसाक्ष्यों से स्पष्ट है कि श्रीराम के समय ईश्वर आराधना के लिए अग्निहोत्र और सन्ध्या की वैदिक विधि ही प्रचलित थी। जड़पूजा का चिह्न भी न था।

इनके अतिरिक्त अन्य भी साक्ष्य मिलने की सम्भावना है ।


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 🕉️🚩आज का वेद मन्त्र, 🕉️🚩


   🌷ओ३म् एवश्छन्दो वरिवश्छन्द: शम्भूश्छन्द: परिभूश्छन्दऽआच्छच्छन्दो मनश्छन्दो व्यचश्छन्द: सिन्धुश्छन्द: समुद्रश्छन्द: सरिरं छन्द: ककुप् छन्दस्त्रककुप् छन्द: काव्यं छन्दोऽअङ्कुपं छन्दोऽक्षरपङ्क्तिश्छन्द: पदपङ्क्तिश्छन्दो विष्टारपङ्क्तिश्छन्द: क्षुरश्छन्दो भ्रजश्छन्द:॥ यजुर्वेद १५-४॥


   💐 अर्थ  हे मनुष्य, तुम उस प्रभु की कृपा से ज्ञान प्राप्त करो। उस ज्ञान का प्रयोग दूसरे लोगों के कल्याण के लिए करो। तुम लोगों के जीवन में सुख, शांति और सामंजस्य लाओ। यदि तुम लोगों के जीवन में आनंद लाने का पुरूषार्थ करते हो, तो ऐसा पुरुषार्थ तुम्हें दोषों से मुक्त रखेगा। उत्तम कर्म तुम्हारे मन को शांति प्रदान करेंगे। तुम नदी की तरह स्वभाविक कर्म की वृति वाले बनो। तुम्हारे मन की गहराई समुंद्र की तरह हो। बहते हुए जल की तरह तुम शांत होने की कामना करो। तुम्हारा शरीर मन और बुद्धि तुम्हें शिखर पर ले जायें।तुम्हारी ज्ञानेंद्रियां सभी वस्तुओं में उस प्रभु को देखें और तुम्हारी कर्मेंद्रियां तुम्हें धर्म मार्ग पर ले जाऐं। सूर्य तुम्हें ज्ञान का प्रकाश दें और ऐसा प्रकाश तुम्हारे जीवन में सुख लाए। 


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