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दिनांक - -२५ नवम्बर २०२४ ईस्वी

 🕉️🙏ओ३म् सादर नमस्ते जी 🙏🕉️

🌷🍃 आपका दिन शुभ हो 🍃🌷



दिनांक  - -२५ नवम्बर २०२४ ईस्वी


दिन  - - सोमवार 


  🌘 तिथि -- दशमी ( २५:०१ तक तत्पश्चात  एकादशी )


🪐 नक्षत्र - -  उत्तराफाल्गुन ( २५:२४ तक तत्पश्चात  हस्त )

 

पक्ष  - -  कृष्ण 

मास  - -  मार्गशीर्ष 

ऋतु  - - हेमन्त 

सूर्य  - -  दक्षिणायन 


🌞 सूर्योदय  - - प्रातः ६:५२ पर  दिल्ली में 

🌞 सूर्यास्त  - - सायं १७:२४ पर 

 🌘चन्द्रोदय  --  २६:२१ पर 

 🌘 चन्द्रास्त  - - १४:०० पर 


 सृष्टि संवत्  - - १,९६,०८,५३,१२५

कलयुगाब्द  - - ५१२५

विक्रम संवत्  - -२०८१

शक संवत्  - - १९४६

दयानंदाब्द  - - २००


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 आर्य: 🚩‼️ओ३म्‼️🚩


  🔥 क्या कोई मनुष्य कभी ईश्वर या ईश्वर-तुल्य हो सकता है ? मनुष्य तथा ईश्वर के मौलिक भेद को समझना चाहिए -

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  ईश्वर (जिसे परमात्मा, परमेश्वर, भगवान्, ब्रह्म आदि विविध नामों से वर्णित किया जाता या पुकारा जाता है) एक है -  दो-तीन-चार या अधिक ईश्वर नहीं है ।  सम्पूर्ण संसार का, समस्त मानव जाति का एक ही ईश्वर है । सूर्य, पृथ्वी, आकाशगंगा आदि समस्त ब्रह्माण्ड तथा मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग तथा स्थावर (वृक्ष, वनस्पति आदि) के अर्थात् जीवों की सभी योनियों के शरीरों का निर्माण वही एक ईश्वर करता है ।


     ईश्वर एक है, सर्वव्यापक है, निराकार है । उसे कोई आंखों से नहीं देख सकता । जिस पदार्थ में रूप (Form, dimension, figure, shape, colour etc) गुण (attribute, characteristic or property) न हो उसे कोई आंखों से नहीं देख पाता । ईश्वर एक ऐसा ही निराकार (Formless) पदार्थ है, अतः उसे कोई आंखों से नहीं देख सकता । वस्तुतः उसे आंखों से देखने की इच्छा करना ही अज्ञानता का सूचक है । 


     ईश्वर अनन्त है, सर्वशक्तिमान् है । अपने समस्त कार्य वह स्वयं करता है, किसी की सहायता नहीं लेता । इसीलिए तो उसे ‘सर्वशक्तिमान्’ कहते हैं । 


    ईश्वर सर्वज्ञ है, सब कुछ जानता है – उसका ज्ञान सदैव भ्रान्ति रहित, एकरस (न बढ़ता है, न घटता है) होता है । 


    मनुष्य की बात भिन्न है । मनुष्य का आत्मा (जिसे जीवात्मा या जीव भी कहा जाता है) ईश्वर से भिन्न सत्ता है । आत्मा चेतन और निराकार तो है, परन्तु वह ईश्वर जैसा सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, निर्भ्रान्त, सर्वव्यापक नहीं है । आत्मा अपने कर्म तथा ईश्वर की न्याय-व्यवस्था अनुसार विविध प्रकार के शरीर धारण करता है, सुख-दुःख का अनुभव करता है ।


   ईश्वर और आत्मा का भेद समझना आवश्यक है । 


   कोई भी मनुष्य कभी भी ईश्वर या ईश्वर-तुल्य नहीं हो सकता । विशुद्ध ज्ञान-कर्म-उपासना के द्वारा मनुष्य विद्वान्, गुरु, आचार्य, धर्मात्मा, उपदेशक, योगी, मन्त्रदृष्टा ऋषि-महर्षि, जीवन-मुक्त आदि तो हो सकता है, परन्तु वह कभी ईश्वर या ईश्वर-तुल्य नहीं हो सकता । यह विवेक होना अत्यन्त आवश्यक है । जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही समझना सत्य है । 


   एक अल्प ज्ञान तथा सामर्थ्य युक्त मनुष्य को भगवान् (ईश्वर, परमात्मा आदि) मान लेना मिथ्या ज्ञान अथवा अविद्या है ।


   मनुष्य (या आत्मा) का ज्ञान, विद्या, बल, सामर्थ्य – सब कुछ मर्यादित होता है । मुक्ति या मोक्ष की स्थिति में भी आत्मा का ज्ञान, बल, आनन्द आदि सीमित (limited) ही रहता है । 


   आत्मा जन्म-मरण तथा बन्ध-मोक्ष की शृंखला में आबद्ध होता है । ईश्वर सदैव मुक्त रहता है । न कभी जन्म लेता है और न ही मृत्यु ।  न कभी बद्ध होता है, न कभी मुक्त होता है, बल्कि नित्य मुक्त बना रहता है ।


   अतः किसी भी मनुष्य को कभी भी ईश्वर नहीं समझ लेना चाहिए ।


   हां, जिस मनुष्य में जितनी मात्रा में अच्छे गुण पाए जाते हो, उतनी मात्रा में उसका सम्मान, आदर-सत्कार, सेवा आदि करना चाहिए ।


    सुयोग्य मनुष्यों का यथायोग्य मान-सम्मान, आदर-सत्कार करना चाहिए, परन्तु उन्हें ईश्वर या भगवान् मानकर उनकी पूजा-उपासना या भक्ति नहीं करनी चाहिए । 


   अज्ञान, अविवेक, अन्ध विश्वास आदि से बचकर रहना चाहिए ।


   योग दर्शन में महर्षि पतंजलि जी ने ईश्वर को ही परम गुरु (स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनान्वच्छेदात् । - सूत्रः १.२६) माना है । सर्व सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सब का आदि मूल ईश्वर ही है ।


   अयोग्य व्यक्तिओं को ईश्वर या ईश्वर तुल्य मान लेने से समाज में अस्वस्थ गुरु-भक्ति – गुरुडम फैलता है, निर्दोष भोले लोगों का शोषण किया जाता है, कई अधार्मिक, स्वार्थी, अयोग्य लोग स्वयं को बड़ा सिद्ध या गुरु के रूप में स्थापित कर लोगों का बहुविध शोषण करते हैं, उन्हें अपनी पूजा-सेवा में लगाते हैं और अनेकानेक उपायों से उनका धनहरण करते हैं, सच्चे ईश्वर और सच्चे धर्म से अपने भक्तों को दूर ही रखते हैं । इसलिए हमें मनुष्य तथा ईश्वर के मौलिक भेद का ज्ञान होना चाहिए ।


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 🚩‼️आज का वेद मन्त्र, ‼️🚩


🌷ओ३म्  मर्माणि ते वर्मणा छादयामि सोमस्त्वा राजामृतेनानु वस्ताम्।

उरोर्वरीयो वरुणस्ते कृणोतु जयन्तं त्वानु देवा मदन्तु॥ यजुर्वेद १७-४९॥


🌷हे विद्वान योद्धा, विलासितापूर्ण इच्छाओं के साथ संग्राम में जहां सभी दिशाओं से आप के ऊपर आक्रमण किए जा रहे हो। तुम्हारा ज्ञान तुम्हारा कवच बना रहे और तुम्हारा ज्ञान और अधिक शक्तिशाली बने। ईश्वर तुम्हें सदैव शांति दे और विजयी बनाए। 


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 🔥विश्व के एकमात्र वैदिक  पञ्चाङ्ग के अनुसार👇

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 🙏 🕉🚩आज का संकल्प पाठ 🕉🚩🙏


(सृष्ट्यादिसंवत्-संवत्सर-अयन-ऋतु-मास-तिथि -नक्षत्र-लग्न-मुहूर्त)       🔮🚨💧🚨 🔮


ओ३म् तत्सत् श्रीब्रह्मणो द्वितीये प्रहरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे 【एकवृन्द-षण्णवतिकोटि-अष्टलक्ष-त्रिपञ्चाशत्सहस्र- पञ्चर्विंशत्युत्तरशततमे ( १,९६,०८,५३,१२५ ) सृष्ट्यब्दे】【 एकाशीत्युत्तर-द्विसहस्रतमे ( २०८१) वैक्रमाब्दे 】 【 द्विशतीतमे ( २००) दयानन्दाब्दे, काल -संवत्सरे,  रवि- दक्षिणायने , हेमन्त -ऋतौ, मार्गशीर्ष - मासे, कृष्ण पक्षे,दशम्यां

 तिथौ, उत्तराफाल्गुन 

 नक्षत्रे, सोमवासरे

 , शिव -मुहूर्ते, भूर्लोके जम्बूद्वीपे, आर्यावर्तान्तर गते, भारतवर्षे भरतखंडे...प्रदेशे.... जनपदे...नगरे... गोत्रोत्पन्न....श्रीमान .( पितामह)... (पिता)...पुत्रोऽहम् ( स्वयं का नाम)...अद्य प्रातः कालीन वेलायाम् सुख शांति समृद्धि हितार्थ,  आत्मकल्याणार्थ,रोग,शोक,निवारणार्थ च यज्ञ कर्मकरणाय भवन्तम् वृणे


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