*मानवीय जीवन में दो स्थितियां हैं जीवन के संचालन की :-*
*प्रथम - सुख को सहेजने की चेष्टा और*
*द्वितीय- समस्त दुःखों से छूटने का प्रयत्न ।*
*प्रथम - सुख को एकत्रित करने के लिए अधिकांश लोग निर्बाध रूप से परिश्रम करते हैं..... इन्हें बहुत से सुख प्राप्त भी होते हैं, तथापि इन प्राप्त लघु सुखों को ये संग्रहकर्ता जी भरकर जीने के स्थान पर उससे बडे सुख को पाने की लालसा में आगे बढते जाते हैं......*
*गाढे परिश्रम से बहुत से बडे सुख इन्हें प्राप्त भी होते हैं किन्तु वह मानों एक सौ रुपये हैं और प्रतिदिन एक रूपया खर्च करने पर सौ दिनों के पश्चात ये पुनः वैसा का वैसा..... आतुर, लालायित, पिपासु, अतृप्त, अशान्त, क्लेशित और अन्य अनेकों विघ्नों में जकडा हुआ ।*
*द्वितीय - दूसरे जो समस्त दुःखों का कारण क्या है यह जानने का यत्न करते हुए उन दुःखों के कारण को नष्ट कैसे किया जाए.....? "कारणाभावात् कार्याभाव:"*
*लौकिक दृष्टि से यह बेचारा, असहाय और सहानुभूति का पात्र माना जाने वाला वास्तव में तो सुदीर्घ काल पर्यन्त सुखी आनन्दित रहने का समूचा उपक्रम सिद्ध कर लेता है ।*
*क्योंकि समस्त दुःख हटने पर जो स्थिति है वह चेतना की निज मांग है अर्थात निरालम्बन विशेष सुखद अनुभूति है।*
*इस प्रकार सुखों का एकत्रीकरण "प्रेय मार्ग" की ओर ले जाता है जबकि दुःखों से छूटने का उपाय "श्रेय मार्ग" की ओर ।*
*"श्रेयोऽहि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते - उपनिषद् "*
*अर्थात धीर विवेकशील ही प्रेय मार्ग को तज श्रेय मार्ग का वरण करता है ।*
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know