*कभी ठंडा, कभी गरम*
ठान लिया था, पूरी तरह से। सोच लिया था कि आज चाहे जो कुछ हो जाए मैं ये जंग जीत के रहूँगा। हथियार तैयार थे। गीजर चालू था। गरम पानी, बाल्टी में भभकता हुआ गिर रहा था। जमीन ठंडी थी, दीवारें आर्कटिक की बर्फीली चट्टानों की तरह ठिठुर रही थी। जब गरम पानी को छुआ, तब पता चला ये तो अंतिम संस्कार की चिता की तरह धधक रहा है। फिर क्या? ठंडा पानी मिलाया। जैसे दूधवाला, दूध में तौल-मोल कर पानी मिलाता है, वैसे ही मैं गरम पानी में ठंडा पानी मिला रहा था। जब ठंडा मिलाऊँ, तो पानी ठंडा हो जाए। जब उसमें वापस ठंडा पानी मिलाऊँ तो पानी वापस गरम हो जाए। मैं बाथरूम में बैठे-बैठे कब वैज्ञानिक बन गया था, मुझे पता ही नहीं चला।
जीवन भी उस बाल्टी की तरह है दोस्तों, कभी ठंडा-कभी गरम। गरम बोले तो दुख और ठंडा - सुख। जब दुख हद से ज्यादा हो जाता है, तभी समय हमारी जीवन की बाल्टी में सुख यानी ठंडा पानी डालता है। फिर समय को पता चलता है, अरे! सुरेश को तो हद से ज्यादा सुख दे दिया। फिर सुरेश की जीवन की बाल्टी में समय वापस दुख यानी गरम पानी मिलाता है। ये सिलसिला चलता रहता है। ऐसा करते-करते, एक दिन बाल्टी पूरी भर जाती है और हमारी आत्मा चली जाती है।कहाँ? किसी और बाथरूम यानी दुनिया में नहाने के लिए। पर क्या वो नहा पाती है? नहीं, आत्मा को नहाने कहाँ जरूरत है?
मुझे बस इतना कहना है कि हो सकता है अभी तुम्हारी जीवन की बाल्टी में ज्यादा दुख होगा, लेकिन समय पर भरोसा रखना, समय एक दिन उस बाल्टी में ठंडा पानी यानी सुख जरूर मिलाएगा। और जब तक नहीं मिलाता, तब तक क्या करेंगे आप? गाते रहिए, गुनगुनाते रहिए और जीते रहिए - "मेरे सामने वाली खिड़की में, एक चाँद सा.."
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