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पुत्रों को चाहिये कि शुभगुणों में वे अपने माता -पिता से भी श्रेष्ठ बनें

 *पुत्रों को चाहिये कि शुभगुणों में वे अपने माता -पिता से भी श्रेष्ठ बनें*

य इह पितरो जीवा इह वयं स्मः । अस्माँस्ते अनु वयं तेषां श्रेष्ठाः भूयास्म।।


अथर्ववेद  - १८/४/८७।।

(ये) जो (इह) यहां अर्थात् इस गृहस्थाश्रम में (जीवाः) जीवित (पितरः) पितर अर्थात् माता पिता हैं (ते) वे (अस्मान्) हमारे (अनु) पीछे रहें [गुणों में] और जो (इह) यहां (वयम्) हम [उन के पुत्र] (स्मः) हैं, (ते) वे (वयम्) हम (तेषाम्) उनमें (श्रेष्ठः) श्रेष्ठ (भूयास्म) हो जावें ॥७३॥


(१) प्रत्येक पुत्र की यह अभिलाषा तथा दृढ़ इच्छा होनी चाहिये कि *वह सद्गुणों और शुभकर्मों में अपने माता पिता से अधिक श्रेष्ठ बने।* यत्न यह होना चाहिये कि अपने माता पिता के जीवनकाल में ही पुत्र उन से श्रेष्ठ बन जावें। 

मन्त्र में "जीवाः" पद के प्रयोग का यही अभिप्राय है।


(२) श्रेष्ठ बनने के लिये यह आवश्यक है कि जो श्रेष्ठ बनना चाहता है, *उसके चित्त में श्रेष्ठ बनने की उत्कट इच्छा हो।* यह इच्छा ही सदाचार का मूल है।


(३) यह भी ध्यान देना चाहिये कि मन्त्र में "वयं स्मः" "श्रेष्ठाः भूयास्म," आदि स्थलों में बहुवचन दिया है। जिससे यह भी अभिप्राय सूचित होता है कि *पुत्र मिलकर अपनी श्रेष्ठता के लिये यत्न करें।* अर्थात् 

ऐसे पुत्र-संघ या पुत्रसभाएं अथवा कुमारसभाएं होनी चाहिये जिनमें कि पुत्र इकट्ठे होकर अपनी श्रेष्ठता के साधनों का अभ्यास किया करें। यदि पुत्र यह इच्छा करें कि हमने अपने माता पिता की अपेक्षा गुणों में श्रेष्ठ बनना है और *पौत्रादि भी इसी प्रकार इच्छाएं करते जाये तो संसार में श्रेष्ठता का शीघ्र प्रसार हो सकता है।*

वेदालोक से साभार

🙏 *आज का वैदिक भजन* 🙏 0731

*ओ३म्  विश्वा॑नि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परा॑ सुव ।*

*यद्भ॒द्रं तन्न॒ आ सु॑व ।। ३ ।।*

यजुर्वेद 30/3


हे प्रभो !! दुर्गण मेरे - हर लीजिये 

जो भी शुभ हो - वो कृपा कर दीजिये 


सर्व-मङ्गल के लिए - शुभ भावना 

हो मेरा हर कृत्य और हर कामना 

बुद्धि को शुभ ज्ञान का वर दीजिये 

हे प्रभो !! दुर्गण मेरे - हर लीजिये 


शुभ घटित हो देव !! जीवन में मेरे 

शुभ उठे संकल्प,  इस मन में मेरे 

मन की वीणा को भी शुभ-स्वर दीजिये 

हे प्रभो !! दुर्गण मेरे - हर लीजिये 


दो प्रभो !!  आशीष मैं ऐसा बनूँ 

शुभ करूँ, शुभ ही बनूँ, शुभ ही गुनूँ 

मेरे जीवन का तमस हर लीजिये 

हे प्रभो !! दुर्गण मेरे - हर लीजिये 

जो भी शुभ हो वो कृपा कर दीजिये 

हे प्रभो !! दुर्गण मेरे - हर लीजिये 


*रचनाकार व स्वर :- डॉ करुणा जी - हरिद्वार*

*मानो तो देव, नहीं तो पत्थर !*

*मानो तो गंगा मां हूँ, ना मानो तो बहता पानी !*

आस्था और भावना की भी हिंदु समाज में बड़ी ही विचित्र युक्ति है, जिसे आप सर्वत्र सुनेगें । जो वस्तु जैसी है, उसे वैसे ही मानना और जानना 'भाव और भावना है, इससे भिन्न जानना और मानना 'अभावना' है । भावना के साथ "सत्य" का होना भी आवश्यक है । भावना मात्र से किसी वस्तु की वास्तविकता नहीं बदली जा सकती । 

चूने के पानी में, यदि दूध की भावना कर ली जाये, तो क्या उससे मक्खन निकल सकता है ? बालू या फिटकरी में, मिश्री की भावना करने से क्या मुंह मीठा हो जायेगा ? जल में अग्नि की भी भावना करने से शीत कभी दूर नहीं हो सकता है ? 

ठीक इसी प्रकार, पत्थर की मूर्ति में भगवान की भावना करने पर भी वह पत्थर की मूर्ति ही रहेगी और जड़ पत्थर की मूर्ति की उपासना और पूजा करने से उपासक और पुजारी की बुद्धि भी जड़ ही बनती चली जायेगी । 

संसार का प्रत्येक मनुष्य सुख की भावना करता है, दुख की भावना कभी कोई नहीं करता है, परन्तु लोग फिर भी दुखी दिखाई पड़ते हैं । प्रायः देखा जाता है कि बहुत से रोगी भूल से अपने रोग की औषधि के स्थान पर अन्य औषधि ले लेते हैं और इसका परिणाम उन्हें भुगतना पड़ता है । औषधि में उनकी भावना स्वस्थ होने की थी, परंतु वे फिर भी अस्वस्थ रहे । अतः प्रत्येक वस्तु का गुण- दोष विपरीत भावना करने पर भी उससे दूर नहीं होता । देश के लाखों मन्दिरों और मूर्ति का विध्वंस इसका जीता जागता उदाहरण है । समस्त हिंदू समाज की यह भावना थी कि ये हमारे देवता हैं और हमारी रक्षा करेगें । परन्तु परिणाम इसके विपरीत निकला । मूर्ति तोड़ी गई, मन्दिर लूटे गये और फिर जो दशा हुई, उसका इतिहास साक्षी है । उनकी पत्थर की मूर्ति के प्रति झूठी ईश्वर भावना और विश्वास ने कुछ भी सहायता नहीं की । अतः जो वस्तु जैसी है, उसे वैसा ही जानने और मानने का नाम भावना है । जैसे अग्नि में अग्नि की और जल में जल की भावना तो ठीक है, परन्तु जल में अग्नि की और अग्नि में जल की भावना नहीं, अभावना और कोरा अंधविश्वास है । यदि पत्थर की मूर्ति में ईश्वर की भावना कर लेने और झूंठमूंठ की प्राण प्रतिष्ठा कर लेने मात्र से ईश्वर चक्कर और धोखे में आ सकता तो संसार में सभी कार्य मनुष्य के पुरुषार्थ किए बिना ही संभव हो जाते । मूर्तियां चेतन अवस्था में आकर स्वयं शत्रुओं का नाश कर देती !

अतः सिद्ध हुआ कि मिथ्या भावना कर लेने से वस्तु के गुणों में परिवर्तन नहीं हो सकता । जैसे अंधेरे में पड़ी रस्सी को सांप समझने से उसमें विष व्याप्त नहीं होता, ठीक इसी प्रकार पत्थर की जड़ मूर्ति को ईश्वर समझ लेने से वह ईश्वर नहीं हो सकती !

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