🙏 *आज का वैदिक भजन* 🙏 1330
*ओ३म् प्र॒जाप॑तिश्च॒रति॒ गर्भे॑ अ॒न्तरजा॑यमानो बहु॒धा वि जा॑यते ।*
*तस्य॒ योनिं॒ परि॑ पश्यन्ति॒ धीरा॒स्तस्मि॑न् ह तस्थु॒र्भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ।। १९ ।।*
यजुर्वेद 31/19
ओ३म् ओ३म् ओ३म् ही ओ३म्
डोलो झूमो, गाओ ओ३म्
ओ३म् नाम का अमृत सोम
घोले चित्त रोम रोम
ओ३म् नाम का अक्षर अनवर
जिसमें छाया विस्तृत व्योम
भूतों-भुवनों का वो स्वामी
प्रजापति सबका कौन?
जो कुछ पाते हम संसारी
ओ३म् ही देता होके मौन
ओ३म् ओ३म् ओ३म् ही ओ३म्
नित्य नूतन सृष्टि सर्जन
नित्य पालन नित्य रक्षण
है त्रिलोकी आत्मा द्योतित
पाले स्थावर और जंगम
सर्वव्यापक वह अजन्मा
उसकी सत्ता वही प्रमाण
सबकी आत्मा सबकी ज्योति
उसी विधाता का है विधान
उसको हर कोई चाहे पाना
इसीलिए उसे ढूंढे ज़माना
देख उसे पाते ध्यानीजन
उसका हर शै मैं हैं ठिकाना
ध्यानी रमाते उसकी धुन
दिव्य शक्ति से लेते सुन
आशुतोष प्रभु उनके बनते
प्रेम से पिघले जैसे मोम
ओ३म् ओ३म् ओ३म् ही ओ३म्
हर दिशाओं विदिशाओं में
विराजमान है वो
विद्यमान है सदा से सिद्ध
प्रसिद्ध सर्वदा जो
काल ऐसा है ना कोई
ईश्वर जिसमें रहता ना हो
ना पड़े वो बन्धनों में
है अजन्मा सदा से वो
कौन सी ऐसी जगह है
विद्यमान जिसमें ना वो
हम सब लोग हैं उसकी प्रजा
और प्रजापति है सबका वो
चाहेगा जो प्रजापति को
मानव कर्म करे ना विलोम
ध्यानी के शुभ कर्म में होगा
ध्यान प्रभु का ओ३म् ही ओ३म्
ओ३म् ओ३म् ओ३म् ही ओ३म्
डोलो झूमो, गाओ ओ३म्
ओ३म् ओ३म् ओ३म् ही ओ३म्
ओ३म् ओ३म् ओ३म् ही ओ३म्
*रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई*
*रचना दिनाँक :-- *
*राग :- जोग*
गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर, ताल कहरवा ८ मात्रा
*शीर्षक :- अजन्मा प्रजापति*
वैदिक भजन ८८७ वां
*तर्ज :- *
0233-833
शब्दार्थ :-
अनवर = श्रेष्ठ
विस्तृत = फैला हुआ
भूत = पदार्थ
भुवन = लोक
द्योतित = प्रकाशित
स्थावर-जंगम = चर- अचर
शै = वस्तु
आशुतोष = शीघ्र पिघलने वाला (दयालु)
विलोम = उलटा, नीतिविरुद्ध
*प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇*
अजन्मा प्रजापति
संसार का उत्पन्न करने वाला कहां रहता है, उसके स्थान का अनुसंधान हो रहा है। कोई उसे कहीं बताता है और कोई कहीं। वेद कहता है--प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्त:=
प्रजापति गर्भ के भीतर रहता है अर्थात् वह प्रत्येक पदार्थ के अन्तस्तल में विराजमान है। कहीं यह भ्रम ना हो जाए कि जब वह गर्भ में विचरता है तो किसी दिन जन्म भी लेगा, इसका उत्तर दिया है--अजायमान:=जन्म न लेता हुआ। तब उसका ज्ञान मनुष्य को कैसे हो, इसका समाधान करने के लिए कहा'बहुधा विजायते'=नाना प्रकार से प्रकट होता है। नित्य नूतन सृष्टि का सर्जन, नित्य संहार, नित्य पालन, विचित्र उपायों से रक्षण, भगवान की सत्ता के प्रमाण हैं।
प्रकृतजन कहता है, हमें झमेले में मत डालो, हमें उसका ठिकाना बताओ, हम उससे मिलना चाहते हैं। इसके उत्तर में कहा--तस्य योनिं परिपश्यन्ति धीरा:=ध्यानी जन उसका ठिकाना सर्वत्र देखते हैं अर्थात् भगवान ध्यान गम्य है। आंख,नाक,कान उसको नहीं देख पाते।
ध्यान से उसके स्थान का सर्वत्र भान होता है अर्थात् वह किसी स्थान विशेष में नहीं रहता, प्रत्युत सब जगह रहता है। संध्या में नित्य पढ़ते ही हैं--आप्रा ध्यावापृथ्वी अन्तरिक्षं सूर्य्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च'
=स्थावर जंगम का आत्मा, सबका गति- दाता भगवान त्रिलोकी में भरपूर समा रहा है। केवल इतना ही नहीं कि वह सब में समा रहा है, वरन्--तस्मिन्ह तस्तुर्भूवनानि विश्वा=उसमें सब भुवन स्थित हैं। यजु•३२/४में पुरुष=व्यापक भगवान के सम्बन्ध में क्या ही सुंदर कहता है--
एषो ह देव: प्रदिशोऽनु सर्वा: पूर्वो है जात:
से उ गर्भे अन्त:।
स एव जात: स जनिष्यमाण: प्रत्यङ् जनातिष्ठति सर्वतोमुख:।।
यह भगवान सब दिशाओं- विदिशाओं में विराजमान है, वह सब से पूर्व विद्यमान था, वह गहराइयों में है। वह प्रसिद्ध था और होगा। प्रत्येक पदार्थ में रहता हुआ वह सर्वतोमुख है अर्थात् कोई स्थान ऐसा नहीं, जहां भगवान नहीं। कोई काल ऐसा नहीं, जब भगवान ना हों; सब स्थानों और सब कामों में रहने वाला एक स्थान या काल के बन्धन में कैसे आए!
🎧887वां वैदिक भजन🕉️👏🏽
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