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विचारों की श्रृंखला

 विचारों की श्रृंखला


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भारत......भूमि वीरों की 

इतिहास को जानना बहुत ही आवश्यक है, क्योंकि हम इतिहास पढ़ कर ही भविष्य की योजनाओं पर बेहतरीन काम कर सकते हैं, सही मायनों में इतिहास ही हमें बताता है कि क्या क्या ग़लतियां हमसे पूर्व में हुईं थीं, जिन्हें हमें दोहराना नहीं है और अच्छी बातें क्या क्या हुईं, जिनका हमें अनुसरण करना है! 

हम विषयान्तर नहीं करेंगें, आज भी 1947 -48 के युद्ध के महान योद्धाओं की ही बात करेंगें, लेकिन उससे पहले कुछ और बातें करते हैं, जिनसे बहुत से लोग अनभिज्ञ हैं!

दरअसल, मैं, 1857 की क्रांति को, देश की क्रांति मानता ही नहीं ! 

क्योंकि इतिहास बताता है 1857 से पहले अंग्रेज़ों नें, राजाओं, नवाबों और ज़मींदारों पर टैक्स कई गुना बढ़ा दिया था और साथ ही ये क़ानून भी बना दिया था कि केवल ख़ुद की संतान को ही राजा अपना उत्तराधिकारी बना सकता था, किसी अन्य को नहीं,  इसके अलावा भी कई ऐसी बातें थीं जो कि राजे -रजवाड़ों के हित में नहीं थीं!

इसीलिए, दिल्ली दरबार में मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर के साथ, कुछ रियासतें मिलीं जिन्होंने मिलकर 1857 का विद्रोह किया ! इससे पता चलता है कि वो लड़ाई सम्पूर्ण भारत वर्ष के हित में नहीं लड़ी गई, यानि देश की जनता के हितों के लिये नहीं लड़ी गई, सच्चाई यह है कि सभी राजा रजवाड़े, अपने अपने हितों के लिये अंग्रेज़ों से लड़ रहे थे!

दूसरी बात यह है कि, इस विद्रोह के समय इन राजाओं  नवाबों और रजवाड़ों में एकता की कमी, आपसी वैमनस्य्ता तो थी ही, साथ ही समाज भी जाति पाति और धार्मिक अंधता से ग्रस्त था, शिक्षा का अभाव था और सबसे बड़ी और प्रमुख बात ये थी कि भारतीय समाज में युद्ध लड़ने का भी अधिकार कुछ ही जातियों को दिया गया था यानि क्षत्रिय, ब्राह्मण, सिख और मुसलमान ही सिपाही बन कर सेना में शामिल हो सकते थे, क्योंकि उनका वर्ग अलग था, वे मार्शल कहलाते थे! लेकिन पिछड़ा वर्ग और वैश्य समाज नॉन मार्शल कहलाता, इसलिये योद्धा यानि लड़ाके इनके पास कम ही थे!

दूसरी ओर अंग्रेज़ों नें जाति धर्म का कोई भेद नहीं रखा! उन्होंने प्रलोभन देकर, निचले पीड़ित वर्ग को जमकर ईसाई बनाया, जो ईसाई नहीं बने, उसका भी कोई मलाल किये बिना, उन्हें भी बेझिझक अपने साथ मिलाया और अपनी सेना मज़बूत की, और हम जाति, सम्प्रदाय आदि में उलझे रहे! 

इसके अलावा, अंग्रेज़ों नें सैनिकों को अनुशासन सिखाया, एक दूसरे के साथ कोई भेदभाव न हो, इसका बहुत ख़्याल रखा, जिसका बड़ा गहरा असर हुआ!

भारतीय समाज में, जाति और क्षेत्रियता के आधार पर श्रेष्ठता साबित करने की होड़ थी, इस बात को भाँपते हुये, उन्होंने जाति विशेष और क्षेत्र विशेष के नाम से रेजिमैंट्स का नामकरण करना शुरू किया! सिख रेजिमेंट, बलोच रेजिमेंट, मद्रास रेजिमेंट, गोरखा रेजिमेंट, महार रेजिमेंट, राजपूत रेजिमेंट आदि आदि ....

इस तरह अंग्रेज़, चालाकियों से, हमें चंगुल में फंसाते गये और हमारे समाज के बड़े वर्ग, ग़लतियां करते गये!

इसी तरह की ऐतिहासिक ग़लतियों का ख़ामियाज़ा हमारे पूर्वजों को भुगतना पड़ा और अंग्रेज़ी सरकार नें आसानी से, 1857के विद्रोह को कुचल दिया!

इस विद्रोह के बाद, अंग्रेज़ी हुकूमत के चरणों में सारे राजे रजवाड़े और बड़े बड़े नवाब, नत मस्तक हो गये! 

इसके बाद अंग्रेज़ों से निकटता होना, भाग्य उदय होना समझा जानें लगा!यही कारण है कि प्रथम विश्व युद्ध में राजाओं के बीच अपनी अपनी सेनाएं, अंग्रेज़ी सरकार के चरणों में पेश करने की होड़ सी लग गई, जो कि चाटुकारिता की, कभीना भुलाई जाने वाली, एक बहुत बड़ी मिसाल है!  जिसके कारण भारत के अनेक इलाकों के दस लाख सैनिकों नें, देश के बाहर जाकर, ब्रिटिश हुकूमत यानि ब्रिटेन की महारानी के ताज की सलामती के लिये, अनेक देशों से युद्ध लड़ा और उसके लिये अपने प्राण गँवाए....

एक बात मुझे याद आई, जो इस लेख में लिखना चाहूँगा!

1980 में सर रिचर्ड एटेन्बरो की फ़िल्म *गाँधी* का जलियांवाला बाग़ का दृश्य, ज़ाकिर हुसैन कॉलेज में फिल्माया था जिसमें मैं भी उस भीड़ का हिस्सा बना था, जिस पर जनरल डायर गोलियां चलवाता है! गोली चलते ही भीड़ भागती थी और मुझे भागते हुये एक छोटे से कूएँ में कूदना था!

हालांकि, मेरी उम्र तब 14 साल ही थी और शूटिंग का रोमांच भी था लेकिन इतनी छोटी उम्र में भी, मैं समझ पा रहा था कि अंग्रेज़ों नें हम पर क्या क्या ज़ुल्म किये होंगे, वो दर्द, वो तकलीफ़ जो हमारे पूर्वजो नें सहे थे, उन्हें मैं गहराई से महसूस कर पा रहा था!

लेकिन, एक बात जो मन को कचोटती थी कि उस नरसंहार के लिये ऑर्डर देने वाला केवल अफ़सर जनरल डायर ही वहाँ एक अंग्रेज़ था बाक़ी गोली चलाने वाले सारे सिपाही भारतीय ही थे.....

सोचिये, आपसी फूट, जाति पाति के भेद, धार्मिक उन्माद और क्षेत्रीयता के मोह में हम न जकड़े होते, हम केवल भारतीय सिर्फ़ भारतीय ही होते,  तो क्या, अंग्रेज़ इतना ज़ुल्म हम पर कर पाते?

बहरहाल, एक अच्छा काम भी हुआ 1932 में , वो ये कि भारतीय सैनिकों को सेना में अफ़सर बनने का अधिकार मिला और ब्रिटिश मिलिट्री एकेडेमी का गठन हुआ, जो कि बाद मे इंडियन मिलिट्री एकेडेमी बनी, जिसनें फील्ड मार्शल करियप्पा और फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ जैसे महान सेनाध्यक्ष, भारत वर्ष को दिये!

1947 -48 के युद्ध पर ही आते हैं! 

सन 47 में सिर्फ़ देश ही नहीं बंटा, बल्कि सेना भी दो टुकड़ों में बंट गयी और हास्यास्पद रूप से धर्म के आधार पर ही बांटी गई! जिसके कारण 90 परसेंट मुस्लिम सैनिक और अफ़सरों नें पाकिस्तान की ओर रुख़ किया लेकिन जो भारत माँ के सच्चे सपूत थे, उन्होंने किसी धर्म को आधार न मानते हुये, भारत माँ की सेवा में ही रहना स्वीकार किया!

बहरहाल, बंटवारे के बाद, अंग्रेज़ी हुकूमत नें देश के साथ साथ सेना के भी दो टुकड़े करने के बावजूद, दोनों तरफ़ की सेनाओं का नियंत्रण भी अपने पास ही रखा, जिसका तर्क ये दिया गया कि अभी नये नये बने दोनों देशों के, किसी भी अफ़सर में ये काबिलियत नहीं है कि वे इतनी बड़ी सेनाओं का नेतृत्व कर सकें!

परिस्थिति वश, अंग्रेज़ी हुकूमत के इस तर्क को भारत और पाकिस्तान, दोनों की नव गठित अंतरिम सरकार नें स्वीकार किया!

जिसका परिणाम ये हुआ कि भारत और पाकिस्तान, दोनों देशों की सेनाओं का एक ही सुप्रीम कमांडर बनाया गया और ये जिम्मेदारी अंग्रेज़ अफ़सर फील्ड मार्शल सर क्लाउड ऑशिनलेक को सौंपी गई!

इसके साथ ही भारत के लिये कमांडर इन चीफ के पद पर अंग्रेज अफ़सर जनरल रॉबर्ट लॉकहर्ट को सौंपा गया और  जनरल फ्रैंक मैसर्वि पाकिस्तान के कमांडर इन चीफ बनें!

अब सोचिये, कि कितना कमीनापन अंग्रेजी हुकूमत नें किया कि जाते जाते देश के दो टुकड़े किये, दुनियां के सामने सत्ता का हस्तान्तरण भी किया लेकिन दोनों देशों की सेनाओं पर, नियंत्रण पूरा अपने ही हाथों में रखा!

बहरहाल, जब कश्मीर के शासक राजा हरि सिंह के घर की दहलीज तक पाकिस्तानी पहुंचने वाले थे तब उन्हें एहसास हुआ कि अब उनके प्राण, भारत की सेना ही बचा सकती है!

हालांकि वो अपनी सत्ता के मद में भारत सरकार के द्वारा विलय प्रस्ताव पर ध्यान नहीं दे रहे थे लेकिन जब पानी सिर के ऊपर हुआ और पाक सेना नें पश्तूनों के साथ श्री नगर और आसपास के इलाकों में भयंकर मारकाट मचाई, लोगों के घर लूट लिये और कश्मीर की डोगरा सेना को पराजित किया तब महाराजा हरि सिंह नें प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और उप प्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के सामने गुहार लगाई कि कृपया भारतीय सेना भेजकर उनकी रक्षा की जाये अन्यथा वे स्वयं को गोली मार लेंगे!

उनके संदेश के बाद सरकार नें भारत में कश्मीर का विलय किया!

इसके साथ ही 27 अक्टूबर 1947 को सुबह डकोटा विमान से सिख रेजिमेंट की दो टुकड़ियाँ अमर शहीद महावीर चक्र विजेता कर्नल दीवान रंजीत राय के नेतृत्व में श्री नगर पहुंची!

पाक सेना और कबायलियों के साथ सिख रेजिमेंट के जवानों नें भयंकर युद्ध लड़ा! लेफ्टिंनेंट कर्नल दीवान रंजीत राय के अतुलनीय साहस और कुशल नेतृत्व की बदौलत पाकिस्तानी श्री नगर की हवाई पट्टी पर नियंत्रण हासिल नहीं कर सके!

सिख रेजिमेंट उसी तरह बहादुरी से लड़ी, जिसके लिये वो पूरी दुनियां में विख्यात है! विकट परिस्थिति में, अपने जवानों का कुशल नेतृत्व करते हुये 

कर्नल दीवान रंजीत राय, वीरगति को प्राप्त हुये, लेकिन मरते दम तक दुश्मन को उन्होंने आगे बढ़ने नहीं दिया! उनके इस पराक्रम के लिये उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया!

एक बात का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहता हूँ कि जब भारत पाकिस्तान का ये युद्ध भयंकर रूप से लड़ा जा रहा था तब दोनों देशों का सुप्रीम कमांडर और भारत पाकिस्तान के कमांडर इन चीफ, इस युद्ध में मरते हुये सैनिकों को देख कर ख़ुशी मनाते थे, क्योंकि वे चाहते थे कि हम सब यूँ ही लड़ते रहें, मरते रहें,  वाक़ई बहुत बड़ा कमीनापन था ये....

हद की बात तो ये थी हमारी सेना कोई सीक्रेट प्लान बनाती तो कमांडर इन चीफ, उसे पाकिस्तान को लीक कर देता था! 

बहरहाल, हमारे अफ़सर और हमारे जवान, उनकी इस चाल को भी समझ गये थे, इसलिये अनेक विषमताओं के बावजूद, हमारी सेना नें, धैर्य नहीं खोया! 

ये युद्ध कई महीने चला, कश्मीर के कई मोर्चों पर लड़ते लड़ते, एक से बढ़कर एक योद्धाओं नें अपने प्राणों की आहुतियां दीं!

शहीद महावीर चक्र ब्रिगेडियर उस्मान के विषय में कल थोड़ा सा बताया ही था, उनके अतिरिक्त अमर शहीद ब्रिगेडियर राजेंद्रसिंह जामवाल की शौर्य गाथा भी किसी दिन विस्तार से करेंगें, जिन्हें उनके अदम्य साहस के लिये मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया! 

इस युद्ध की इतनी कहानियां हैं कि उन्हें, पूरी तरह बयां कर नें के लिये शब्दों की कमी सी होगी, लेकिन मैं ऐसा अवश्य चाहूंगा की  परमवीर चक्र, महावीर चक्र और वीर चक्र से सम्मानित होने वाले, शूरवीरों की गाथाएँ अवश्य लिखूं, ईश्वर नें की कृपा रही तो जल्दी ही उनकी गाथा लिखूंगा और आपके साथ साझा करूँगा!

आज इस लेख को यहीं समाप्त करने से पहले, कुछ ऐसे नाम अवश्य शामिल करना चाहूंगा, जिनके रक्त की बूंदो से भारत माँ का आँचल सुर्ख़ अवश्य हुआ था, लेकिन उनके रक्त की बूंदो नें भारत माँ का शीश, झुकने नहीं दिया था .....

भारत के सबसे पहले परमवीर चक्र विजेता शहीद, मेजर सोमनाथ शर्मा, 

परमवीर चक्र विजेता शहीद, सेकण्ड लेफ्टिनेंट रामा राघोबा राणे 

परम वीर चक्र विजेता शहीद, कम्पनी हवलदार मेजर पीरू सिंह, 

परम वीर चक्र विजेता शहीद, नायक जददूनाथ 

वीर चक्र विजेता शहीद, सूबेदार भीम चंद, आदि ऐसे वीर योद्धा हुये जिनके अप्रतिम साहस, कर्तव्य निष्ठा और सर्वोच्च बलिदान की गाथा, भारत के इतिहास के पन्नों पर, हमेशा के लिये अंकित हो गई है! मैं इन सभी अमर शहीदों के चरणों में कोटि कोटि नमन करता हूँ......

अगले अंक में ज़ोजिला पास पर हुये युद्ध की चर्चा करेंगें उसके बाद 1962 भारत चीन युद्ध को थोड़ा जानने की कोशिश करेंगे!

जय हिन्द....... जय हिन्द की सेना 


कोपी पेस्ट 

सुरेन्द्र पहलवान

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