॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
न व्याधयो नापि यमः प्राप्तुं श्रेयः प्रतीक्षते ।
यावदेव भवेत्कल्पस्तावच्छ्रे यः समाचरेत् ॥ महाभारतम् - सभापर्व - ५६।१०।।
न रोग प्रतीक्षा करते हैं और न यम (अन्तक, मृत्यु) प्रतीक्षा करता है कि इसने अपना कल्याण साधा है या नहीं । अत: जब तक समर्थ (स्वस्थ हो तब तक श्रेय (धर्म) का आचरण करे ।
धर्म एव प्लवो नान्यः स्वर्ग द्रौपदि गच्छताम् । महाभारतम् - वनपर्व - ३१।२४ ।
हे द्रुपद पुत्री ! स्वर्ग को जाना चाहते हुए लोगों के लिये धर्म के सिवाय दूसरा तरण- साधन (नाव) नहीं है ।
न धर्मफलमवाप्नोति यो धर्मदोग्धुमिच्छति ।
यश्चैनं शङ्कते कृत्वा नारितक्यात्पापचेतनः ।। महाभारतम् - वनपर्व - ३१।६।
जो धर्म को दोहना चाहता है (धर्माचरण द्वारा नाना प्रयोजनों को सिद्ध करना चाहता है) वह धर्म के फल (पुण्य) को प्राप्त नहीं होता और जो कुबुद्धि धर्म करके श्रद्धा के न होने से शङ्का करता है, वह भी ॥
धर्मो यो बाधते धर्मो न स धर्मः कुवर्त्म तत् । महाभारतम् - वनपर्व - १३१।१०।
जो एक धर्म दूसरे धर्म का विरोधी हो (उसके पालन में रुकावट करे) वह धर्म नहीं, कुमार्ग है ।
अविरोधात्तु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रम । महाभारतम् - वनपर्व - १३१ । ११ ।
हे सच्चे वीर ! जहां एक धर्म का दूसरे से विरोध न हो वही धर्म है ।
आरम्भो न्याययुक्तो यः स हि धर्म इति स्मृतः । महाभारतम् - वनपर्व - २०७ । ७७ ।
जो आचरण न्याय युक्त है वह धर्म है ऐसा स्मृतिकार कहते हैं ।
आनृशंस्यं परो धर्मः । महाभारतम् - वनपर्व - २१३ ।३०।
दया परम धर्म है ।
भवन्ति मेदा ज्ञातीनां कलहाश्च वृकोदर ।
प्रसक्तानि च वैराणि कुलधर्मो न नश्यति ॥ महाभारतम् - वनपर्व - २४३।२ ।
हे भीम, भाई बन्धुओं में फूट भी होती है, लड़ाई झगड़ा भी होता है, लगातार वैर भी होता है, पर समान कुलाचार बना रहता है ।
धर्मनित्यास्तु ये के चिन्न ते सीदन्ति कर्हिचित् । महाभारतम् - वनपर्व - २६३।४४ ।
जो धर्म परायण हैं वे संकट को नहीं प्राप्त होते ।
अर्थसिद्धिं परामिच्छन् धर्ममेवादितश्चरेत् ।
नहि धर्मादपैत्यर्थः स्वर्गलोकादिवामृतम् ।। महाभारतम्
अर्थ सिद्धि को चाहने वाला पहले धर्म को ही करे । धर्म से अर्थ जुदा नहीं रह सकता, जैसे स्वर्ग को छोड़कर अमृत ।
धारणाद्धर्म इत्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः ।
यत्स्याद् धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः ।। महाभारतम् - कर्णपर्व - ६६।५८ ।
धर्म प्रजाओं को धारण करता है, इसीलिये उसे धर्म कहते हैं । जो भी कर्म (कड़ी से कड़ी विपत्ति में) धारण करने की (डिगने से बचाने की) शक्ति रखता है, वह धर्म है । ऐसा निश्चय है ।
स एव धर्मः सोऽधर्मे देशकाले प्रतिष्ठितः ।
आदानमनृतं हिंसा धर्मो ह्यावस्थिकः स्मृतः ॥ महाभारतम् - शान्तिपर्व -३६ ११ ॥
जो धर्म है वही देश काल के भेद से अधर्म हो जाता है, ऐसे ही चोरी झूठ और हिंसा अधर्म होते हुए भी धर्म बन जाते हैं । धर्म अवस्था के अनुसार बदलता है ॥
सत्येन हि स्थितो धर्म उपपत्त्या तथाऽपरे ।
साध्वाचारतया के चित्तयैवौपयिकादपि ।। महाभारतम् - शान्तिपर्व -१००।२।
सत्य के बल पर (= क्षात्र धर्म के सहारे) धर्म ठहरता है । दूसरों का मत है कि उपपत्ति (= मृत्यु विषयक निश्चय) पर धर्म आधृत है । कोई धर्म को सदाचार पर ठहरा मानते हैं और दूसरे कोई भय के कारण जो प्रवृत्ति होती है उसे धर्म कहते हैं ।
अहेरिय हि धर्मस्य पदं दुःखं गवेषितुम् । महाभारतम् - शान्तिपर्व -१३२/२०१
साँप के पाओं की तरह धर्मं का पद (स्वरूप) ढूंढना मुश्किल है ।
लोकयात्रामिहैके तु धर्ममाहुर्मनीषिणः । महाभारतम् - शान्तिपर्व -१४२।१६।
कोई विचारशील लोग जीवन निर्वाह के साधन को धर्म कहते हैं ।
पुलाका इव धान्येषु पुत्तिका इव पक्षिषु ।
तद्विधास्ते मनुष्याणां येषां धर्मो न कारणम् ।। महाभारतम् - शान्तिपर्व -१८१।७ ॥
जो सुखादि के हेतुभूत धर्म का सेवन नहीं करते धान्यों में पुलाक (- दाना जो भूमि के अन्दर की गर्मी से सूख जाता है) की तरह व्यर्थ हैं अथवा कीट- पतङ्गों में मच्छर की तरह निष्प्रयोजन हैं ।
मानसं सर्वभूतानां धर्ममाहुर्मनीषिणः ।
तस्मात्सर्वभूतेषु मनसा शिवमाचरेत् ॥
सब प्राणियों का मन धर्म का उत्पत्ति स्थान है । अत: सब प्राणियों का मन से शुभ चिन्तन करे ॥
एक एव चरेद् धर्मं नास्ति धर्मे सहायता । महाभारतम् - शान्तिपर्व - १६३।३२।
अकेला ही धर्म का आचरण करे । धर्म में कोई साथी नहीं होता ।
द्वाविमावथ पन्थानौ यत्र वेदाः प्रतिष्ठिताः ।
प्रवृत्तिलक्षणो धर्मो निवृत्तिश्च विभाषितः ।। महाभारतम् - शान्तिपर्व - २४१।६।
दो ही मार्ग हैं जहाँ वेद प्रतिष्ठित हैं (जमे हुए हैं) जिन की निश्चित रूप से स्थापना करते हैं - धर्म जिस का स्वरूप प्रवृत्ति है (वेदविहित कर्मों का अनुष्ठान), दूसरा वह जो आत्मज्ञान होने पर कर्म - निवृत्ति (कर्म - त्याग) - रूप है ॥
न धर्मः परिपाठेन शक्यो भारत वेदितुम् । महाभारतम् - शान्तिपर्व - २६०।३।
केवल वेद पाठ से धर्म का स्वरूप नहीं जाना जाता ।
कारणाद् धर्ममन्विच्छेन्न लोकचरितं चरेत् । महाभारतम् - शान्तिपर्व - २६२/५३ ।
हेतु से (जिससे प्राणियों को अभय प्राप्त हो) धर्म को जाने । लोकाचार का अन्धाधुन्ध अनुसरण न करे ।
न धर्मात् परो लाभः । महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १०६ । ६५ ।
धर्म से बड़ा लाभ नहीं है ।
धर्म एकोऽनुगच्छति ....
तस्माद् धर्मः सहायश्च सेवितव्यः सदा नृभिः ॥ महाभारतम् - अनुशासनपर्व - १११।१४ - १५ ।
धर्म ही अकेला साथ जाता है अतः पुरुष साथी चाहता हुआ नित्य धर्म का सेवन करे ।
यो हि यस्मिन् रतो धर्मे स तं पूजयते सदा ।
तेन नोऽविहिता बुद्धिर्मनश्च बहुलीकृतम् ॥ महाभारतम् - आश्वमेधिकपर्व - ४६।१४-१५ ।।
जिस धर्म में जो रम रहा है वह उस को बहुत मानता है । इस कारण हमारी अशिक्षित बुद्धि और मन (धर्म के स्वरूप के विषय में) कुछ निश्चय नहीं कर पाते अर्थात् नाना विकल्प उठते हैं ।।
ऊर्ध्वबाहुवरौम्येष न च कश्चिच्छृणोति मे ।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थ न सेव्यते ।। महाभारतम् - स्वर्गारोहणपर्व - ५। ६२॥
एक एव सुहृद्धों, निधनेऽप्यनुयाति यः ।
शरीरेण समं नाशं, सर्वमन्यद्धि गच्छति ।। (मनुस्मृतिः -८.१७)
धर्म ही एकमात्र सच्चा मित्र है, जो मृत्यु के पश्चात् भी मनुष्य के साथ जाता है । अन्य सब कुछ तो शरीर के साथ ही नष्ट हो जाता है ।
को हि जानाति कस्याद्य, मृत्युकालो भविष्यति ।
युवैव धर्मशीलः स्यादनित्यं खलु जीवितम् ।। (महाभा.शा. १७५.१६)
कौन जानता है कि आज किसकी मृत्यु का समय उपस्थित होगा। अतः मनुष्य युवावस्था से ही धार्मिक बने, क्योंकि यह जीवन निश्चय ही अनित्य है ।
धर्म शनैः सञ्चिनुयाद्, वल्मीकमिव पुत्तिकाः ।
परलोकसहायार्थ, सर्वभूतान्यपीडयन् ।।
परलोक में सहायता के लिये, किसी भी प्राणी को पीड़ा न पहुँचाते हुए उसी प्रकार धीरे-धीरे धर्म का सञ्चय करे, जैसे दीमक अपनी बांबी को धीरे-धीरे बनाती है ।
नामुत्र हि सहायार्थं, पिता माता च तिष्ठतः ।
न पुत्रदारा न ज्ञातिर्धर्मस्तिष्ठति केवलः ।। (मनुस्मृतिः - ४.२३८,२३९)
परलोक में सहायता के लिये न माता-पिता उपस्थित होते हैं और न पुत्र, स्त्री तथा सगे सम्बन्धी; अपितु केवल मात्र अपना धर्म ही सहायतार्थ उपस्थित रहता है ।
धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे, नारी गृहद्वारि जनाः श्मशाने ।
देहश्चितायां परलोकमार्गे, धर्मानुगो गच्छति जीव एकः ।।
मृत्यु के समय धन भूमि में गड़े रह जाते हैं, पशु स्वस्थान में और पत्नी गृह-द्वार पर ही रुक जाती है और दाहकर्ता लोग श्मशान तक मृत शरीर के साथ जाते हैं । तथा मृतदेह भी चिता में भस्म हो जाता है । (इनमें से कोई साथ नहीं जाता) परलोक के मार्ग में तो जीवात्मा को अकेले ही जाना पड़ता है । केवल धर्म उसके साथ जाता है ।
मृतं शरीरमुत्सृज्य, काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ ।
विमुखा बान्धवा यान्ति, धर्मस्तमनु गच्छति ।।
मृत्यु होने पर बन्धुबान्धव मृतक के शरीर को काठ अथवा पाषाण के समान श्मशान - भूमि में त्यागकर मुख फेरकर अपने घर चले जाते हैं, केवल धर्म ही उस मृतक के आत्मा का अनुगमन करता है ।
तस्माद्धर्म सहायार्थ, नित्यं सञ्चिनुयाच्छनैः ।
धर्मेण हि सहायेन, तमस्तरति दुस्तरम् ।। (मनुस्मृतिः - ४.२४१,२४२)
इसलिये मनुष्य अपने साहाय्य के लिये प्रतिदिन शनैः शनैः धर्म का सञ्चय करे । धर्म रूपी सहायक के द्वारा मनुष्य दुस्तर अविद्या-अन्धकार से पार हो जाता है ।
चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणाश्चलं जीवितयौवनम् ।
चलाऽचले च संसारे, धर्म एको हि निश्चलः ।। (वैराग्यशतकम् - ११९)
यह धन सम्पत्ति चञ्चल है और प्राण, जीवन तथा यौवन भी चञ्चल हैं । इस चल तथा अचल वस्तुओं वाले संसार में, एक धर्म ही निश्चल है ।
इदं च त्वां सर्वपरं ब्रवीमि, पुण्यं पदं तात महाविशिष्टम् ।
न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्, धर्म जह्याज्जीवितस्यापि हेतोः ।।
नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये, जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः ।
त्यक्त्वा ऽनित्यं प्रतितिष्ठस्व नित्ये, सन्तुष्य त्वं तोषपरो हि लाभः ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - ४०.१२,१३)
हे प्रिय ! मैं तुम्हें इस अतिविशिष्ट, सबसे श्रेष्ठ और पुण्यकारी विशेष ज्ञातव्य (पद) रहस्य को बताता हूँ-मनुष्य काम, भय अथवा लोभ के कारण से धर्म को न त्यागे, जीवन-लाभ के कारण से भी धर्म को न छोड़े। क्योंकि धर्म नित्य है और सुख दुःख अनित्य हैं; जीवात्मा नित्य है और उसको संसार में प्रवृत्त करने वाले विषय आदि अनित्य हैं । अतः अनित्य का त्याग करके नित्य में स्थिर हो जाओ। इसी में सन्तुष्ट रहो । सन्तोष-परायणता ही सच्चा लाभ है ।
धर्म एव हतो सन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्माद्धों न हन्तव्यो, मा नो धर्मो हतो बधीत् ।। (मनुस्मृतिः - ८.९५)
मारा हुआ धर्म मारने वाले को मार देता है और रक्षा किया हुआ धर्म अपने रक्षक की रक्षा करता है । इसलिये धर्म का हनन नहीं करना चाहिये, ऐसा न हो कि हनन किया हुआ धर्म हमें नष्ट कर दे।
आधि-व्याधि-परीताय, हाद्य श्वो वा विनाशिने ।
को हि नाम शरीराय, धर्मापेतं समाचरेत् ।। (कामन्दकनीतिसारः - ३.९)
चिन्ता, रोग आदि से परिपूर्ण और आज या कल (शीघ्र) नष्ट हो जाने वाले इस शरीर के लिये, ऐसा कौन होगा जो धर्म से विरुद्ध आचरण करे ।
बलवानप्यशक्तो ऽसौ, धनवानपि निर्धनः ।
श्रुतवानपि मूर्खश्च, यो धर्मविमुखो जनः ।। (भोजप्रबन्धः - ३४)
वह व्यक्ति बलवान् होते हुए भी निर्बल है, धनवान होते हुए भी निर्धन है और विद्वान् होते हुए भी मूर्ख है, जो कि धर्म से विमुख है ।
परित्यजेदर्थकामौ, यौ स्यातां धर्मवर्जितौ ।
धर्म चाऽप्यसुखोदर्क, लोकविक्रुष्टमेव च ।। (मनुस्मृतिः - ४.१७६)
उस अर्थ और काम को त्याग देवे जो धर्म से विहीन हो, उस धर्म (धर्माभास) को भी त्याग दे जो दुःख का कारण बने और जो लोगों को क्रुद्ध करने वाला हो ।
न सीदन्नपि धर्मेण, मनोऽधर्मे निवेशयेत् ।
अधार्मिकाणां पापानामाशु पश्यन् विपर्ययम् ।।
मनुष्य को धर्म पर दृढ़ रहते हुए यदि कष्ट भी पाना पड़े तो भी; अधर्मयुक्त पापकर्मों का दुःखरूप फल होता है, यह विचार करते हुए वह अपने मन को अधर्म में न लगावे ।
नाधर्मश्चरितो लोके, सद्यः फलति गौरिव ।
शनैरावर्त्तमानस्तु, कर्तुर्मूलानि कृन्तति ।।
किया हुआ अधर्म गौ के समान शीघ्र फलित नहीं होता, किन्तु वह धीरे-धीरे अपना प्रभाव बढ़ाता हुआ उस अधर्मी की जड़ों को ही काट देता है ।
अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति ।
ततः सपत्नाञ्जयति, समूलस्तु विनश्यति ।। (मनुस्मृतिः - ४.१७१,१७२,१७४)
अधर्मकर्ता मनुष्य अधर्म से पहिले बढ़ता है, तदनन्तर भद्र (सुखों) को देखता है । तब शत्रुओं को भी जीत लेता है (किन्तु अन्त में) मूल सहित नष्ट हो जाता है ।
अर्थाः पादरजोनिभा गिरिनदी - वेगोपमं यौवनम् ।
आयुष्यं जललोलबिन्दुचपलं, फेनोपमं जीवनम् ।।
धर्म यो न करोति निन्दितमतिः, स्वर्गार्गलोद्घाटनम् ।
पश्चात्तापयुतो जरापरिगतः शोकाग्निना दहाते ।। (हितोपदेशः, मित्रलाभः - १५३)
धनैश्वर्य पांवों में लगी धूलि के समान है, पर्वतीय नदी के वेग के सदृश यौवन है; आयु, पानी की चलायमान बिन्दु के समान चञ्चल है और झाग के समान जीवन (अस्थिर) है । ऐसी स्थिति में जो मनुष्य सात्त्विक सांसारिक सुख और मुक्तिसुख रूपी भवन की अर्गला (आगल) के समान वर्तमान धर्म का आचरण नहीं करता, वह बुढ़ापे से ग्रस्त होकर पश्चात्ताप करता हुआ शोक रूपी अग्नि से जलता रहता है ।
यन्नागा मदभिन्नगण्डकवहास्तिष्ठन्ति निद्रालसा, द्वारे हेमविभूषणाश्च तुरगा वल्गन्ति यद्दर्पिताः ।
वीणावेणुमृदङ्गशङ्खपटहैः सुप्तस्तु यद् बोध्यते तत्सर्वं सुरलोकदेवसदृशं, धर्मस्य विस्फूर्जितम् ।।
(किसी ऐश्वर्यशाली मनुष्य के) द्वार पर जो ये मदजल से सिक्त कनपटियों वाले मदमस्त हाथी अलसाये खड़े हैं और जो ये स्वर्णाभूषणों से सजे हुए घोड़े मस्ती में हिनहिना रहे हैं । तथा ये स्वयं जो प्रातःकाल वीणा, वंशी, ढोलक, शङ्ख और नगाड़ों की मङ्गलध्वनि के द्वारा शयन से जगाये जाते हैं और इस प्रकार देववसति के वासी के समान जो इनका सुखभोग है; यह सब पूर्व में आचरण किये गये धर्म का ही फल है ।
धर्मेण राज्यं विन्देत, धर्मेण परिपालयेत् ।
धर्ममूलां श्रियं प्राप्य, न जहाति न हीयते ।। (महाभा उद्यो. ३४.३१)
धर्म से राज्य को प्राप्त करे और धर्म से ही उसका पालन करे । धर्म से प्राप्त की हुई लक्ष्मी को न तो वह धार्मिक त्यागता है (उड़ाता है) और न लक्ष्मी उसे त्यागती है ।
अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते ।
धर्म जिज्ञासमानानां, प्रमाणं परमं श्रुतिः ।। (मनुस्मृतिः - २-१३)
अर्थ और कामनाओं में अनासक्त मनुष्यों को ही धर्म का ज्ञान होता है । धर्म को जानने की इच्छा वालों के लिये वेद ही परम प्रमाण हैं ।
धर्म प्रसङ्गादपि नाचरन्ति, पापं प्रयत्नेन समाचरन्ति ।
आश्चर्यमेतद्धि मनुष्यलोकेऽमृतं परित्यज्य विषं पिबन्ति ।।
लोग धर्म का तो किसी प्रसन के मिष से भी आचरण नहीं करते और पाप का तो प्रयत्न-पूर्वक आचरण करते हैं । मानव संसार में यह एक अद्भुत बात है, कि लोग अमृत को त्यागकर विष को पीते हैं ।
वेदोऽखिलो धर्ममूलं, स्मृतिशीले च तद्विदाम् ।
आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च ।। (मनुस्मृतिः - २.६) )
सम्पूर्ण वेद, धर्म का मूल (स्त्रोत) है और बेदज्ञाताजनों द्वारा निर्मित शास्त्र (स्मृति), वेदज्ञों का स्वभाव, सत्पुरुषों का आचरण तथा अन्तरात्मा की तुष्टि ये भी धर्म के मूल हैं ।
सर्वं तु समवेक्ष्येदं निखिलं ज्ञानचक्षुषा ।
श्रुतिप्रामाण्यतो विद्वान् स्वधर्मे निविशेत वै ।। (मनुस्मृतिः - २.८)
धर्म के इन सब स्रोतों को ज्ञान रूपी नेत्र से अच्छी प्रकार देखकर, (विशेष रूप से) वेद को प्रमाण मानकर विद्वान् मनुष्य अपने धर्म में दृढ़ रहे ।
वेदः स्मृतिः सदाचारः, स्वस्य च प्रियमात्मनः ।
एतच्चतुर्विधं प्राहुः, साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ।। (मनुस्मृतिः - २.१२)
वेद, स्मृति शास्त्र, सत्पुरुषों का आचरण और स्वात्मा की प्रियता इन चारों को विद्वानों ने धर्म का साक्षात् लक्षण कहा है ।
श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन् हि मानवः ।
इह कीर्त्तिमवाप्नोति, प्रेत्य चानुत्तमं सुखम् ।। (मनुस्मृतिः - २.९)
वेद और स्मृति में प्रतिपादित धर्म का अनुष्ठान करने वाला मनुष्य इस लोक में यश को प्राप्त करता है और मृत्यु के पश्चात् अत्युत्तम सुख को पाता है ।
आर्ष धर्मोपदेशं च, वेदशास्त्राविरोधिना ।
यस्तर्केणाऽनुसन्धत्ते, स धर्मं वेद नेतरः ।। (मनुस्मृतिः - १२.१०६)
वेदशास्त्र के विरुद्ध न जाने वाले तर्क के माध्यम से, जो परमर्षि परमेश्वर द्वारा प्रणीत वेद और अन्य ऋषिप्रणीत शास्त्रों का तथा धार्मिक उपदेशों का अनुसन्धान करता है, वही धर्म को समझता है, अन्य नहीं ।
अनाम्नातेषु धर्मेषु, कथं स्यादिति चेद्भवेत् ।
यं शिष्टा ब्राह्मणा ब्रूयुः, स धर्मः स्यादशङ्कितः ।।
जिन धर्मों (कर्तव्यों) के विषय में वेदादि शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख नहीं हो, उनके विषय में क्या करें, यह समस्या हो, तो उन विषयों में वर्तमान शिष्ट, (आप्त-धर्मात्मा विद्वान् जन) जैसा निर्णय दें, वही निस्सन्दिग्ध धर्म है, यह जानें ।
धर्मेणाधिगतो यैस्तु, वेदः सपरिबृंहणः ।
ते शिष्टा ब्राह्मणा ज्ञेयाः, श्रुतिप्रत्यक्षहेतवः ।। (मनुस्मृतिः - १२.१०८,१०९)
जिन्होंने धर्मपूर्वक साङ्गोपाङ्ग वेद का अनुशीलन किया है । उन बेद और प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विधिनिषेध-व्यवस्था के अधिकारीजनों को ही शिष्ट ब्राह्मण समझना चाहिये ।
एकोऽपि वेदविद्धर्म, यं व्यवस्येद् द्विजोत्तमः ।
स विज्ञेयः परो धर्मो, नाऽज्ञानामुदितोऽयुतैः ।। (मनुस्मृतिः - १२.११३)
एक भी वेदज्ञाता द्विजोत्तम विद्वान् जिस बात को 'धर्म' घोषित करे, उसे परम धर्म समझना चाहिये और सहस्रों अज्ञानियों के द्वारा भी कही गई बात को धर्म न समझें ।
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् ।।
धर्म के परम सार को सुनिये और सुनकर उसको धारण कीजिये । (धर्म का परमसार है) अपने को प्रतिकूल (कष्टकारी) लगने वाले आचरण दूसरों के प्रति न करे ।
प्रभवार्थाय भूतानां, धर्मप्रवचनं कृतम् ।
यत्स्यादहिंसासंयुक्तं, स धर्म इति निश्चयः ।
अहिंसार्थाय भूतानां, धर्मप्रवचनं कृतम् ।।
प्राणियों के बने रहने के लिये (उनकी रक्षा के लिये) ही धर्म का विशेष व्याख्यान किया गया है । जो अहिंसा से युक्त होवे वही धर्म है ऐसा निश्चित जानो । प्राणियों को हिंसा से बचाने के लिये ही धर्म का प्रवचन किया गया है ।
धारणाद्धर्ममित्याहुर्धमों धारयते प्रजाः ।
यत्स्याद्धारणसंयुक्त, स धर्म इति निश्चयः ।। (महाभा.क. ६९.५६-५८)
धारण करने का गुण होने के कारण ही धर्म को 'धर्म' कहते हैं, 'धर्म' प्रजाओं को धारण करता है-उन्हें जीवित रखता है । अतः जो कर्म जीवन-धारण से युक्त हो वही धर्म है, ऐसा निश्चय जानो ।
इज्याध्ययनदानानि, तपः सत्यं क्षमा घृणा ।
अलोभ इति मार्गोऽयं, धर्मस्याष्टविधः स्मृतः ।।
यज्ञ, अध्ययन, दान, तपस्या, सत्य, क्षमा, दया और निर्लोभता; यह आठ प्रकार का धर्म का मार्ग बताया गया है ।
चतुर्भिरपि चैवैतैर्नित्यमाश्रमिभिर्द्विजैः ।
दशलक्षणको धर्मः, सेवितव्यः प्रयत्नतः ।। (मनुस्मृतिः - ६.९१)
ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी इन चारों आश्रमियों और द्विजों को प्रयत्ल-पूर्वक दशलक्षण वाले धर्म का पालन करना चाहिये ।
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं, शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ।। (मनुस्मृतिः - ६.९२)
धैर्य, क्षमा (सहनशीलता), दम (मन को वश में रखना), अस्तेय, शौच (पवित्रता), इन्द्रियों को वश में रखना, बुद्धि का विकास, विद्या, सत्य और क्रोध न करना ये दश धर्म के लक्षण हैं ।
॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
श्रद्धा चेतसः सम्प्रसादः सा हि जननीव कल्याणी योगिनं पाति ।। (योग. व्या. २.२०) (सुश्रुतसंहिता (चिकित्सा.) - २४.३८-५१)
चित्त की प्रसन्नता निर्मलता का नाम श्रद्धा है । वह श्रद्धा निश्चय ही माता के समान कल्याणकारिणी होकर योगी की रक्षा करती है ।
श्रदिति सत्यमेवाहर्धारणं धोच्यते बुधैः ।
यया हि धार्यते सत्यं, वृत्त्या श्रद्धेति सा मता ।।
'श्रत्' सत्य को ही कहते हैं और 'धा' नाम धारण करने का है, ऐसा विद्वानों ने कहा है । जिससे सत्य को धारण किया जाय उस वृत्ति को श्रद्धा माना गया है ।
श्रद्धयाग्निः सग्ग्ध्यिते श्रद्धया हूयते हविः ।
श्रद्धां भगस्य मूर्धनि वचसा वेदयामसि ।। (ऋग्वेदसंहिता - १०.१५१.१)
श्रद्धा से ही अग्नि प्रदीप्त की जाती है और श्रद्धा से ही आहुति दी जाती है । भग अर्थात् ज्ञान, कीर्ति, श्री आदि ऐश्वयों की शिरोमणि-भूत श्रद्धा को हम स्ववचन से सबको प्राप्त कराते हैं ।
श्रद्धया साध्यते धर्मो, महद्भिर्नार्थराशिभिः ।
अकिञ्चना हि मुनयः, श्रद्धावन्तो दिवं गता. ।।
श्रद्धा से ही धर्म सिद्ध किया जाता है, बड़ी बड़ी धन सम्पत्तियों से नहीं । अतः सर्वथा धनरहित होते हुए भी अनेक श्रद्धालु मुनिगण मोक्ष को प्राप्त हो गये ।
अश्रद्धा परमं पापं, श्रद्धा पाप-प्रमोचनी ।
जहाति पापं श्रद्धावान्, सर्पो जीर्णामिव त्वचम् ।। (महाभा.शा. २६४.१५)
श्रद्धा न रखना परम पाप है, जबकि श्रद्धा अनेक पापों से मुक्त कराने वाली है । श्रद्धालु मनुष्य वैसे ही पाप को त्याग देता है, जैसे सांप पुरानी केंचुली को ।
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य, श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो, यो यच्छूद्धः स एव सः ।। (महाभा.भी. ४१.३)
हे भरतवंशी अर्जुन ! सब मनुष्यों की, अपने अपने अन्तःकरण के अनुरूप ही श्रद्धा होती है । यह मनुष्य श्रद्धामय है । जो जैसी श्रद्धा वाला होता है, वैसा ही उसका जीवन होता है ।
श्रद्धयेष्टं च पूर्तं च, नित्यं कुर्यादतन्द्रितः ।
श्रद्धाकृते हाक्षते ते, भवतः स्वागतैर्धनैः ।। (मनुस्मृतिः - ४.२२६)
गृहस्थ प्रतिदिन आलस्य रहित होकर यज्ञादि 'इष्ट' और सर्वजनोपयोगी कूपनिर्माण आदि 'पूर्त' कार्य करता रहे । उत्तम उपायों से प्राप्त धन के द्वारा श्रद्धापूर्वक किये गये 'इष्ट' और 'पूर्त' कार्य चिरस्थायी फल देने वाले होते हैं ।
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं, तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।। (महाभा.भी. २८.३०)
श्रद्धालु मनुष्य, तल्लीन और जितेन्द्रिय होकर ज्ञान को प्राप्त कर लेता है । ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है ।
॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
न वेगान् धारयेद्धीमान्, जातान् मूत्रपुरीषयोः ।
न रेतसो न वातस्य, न वम्याः क्षवथोर्न च ॥
नोद्गारस्य न जृम्भाया, न वेगान् क्षुत्पिपासयोः ।
न वाष्पस्य न निद्राया, निःश्वासस्य श्रमेण च ।। (चरकसंहिता (सूत्रस्थानम्) -७.३,४)
बुद्धिमान् मनुष्य मूत्र और मलत्याग के वेग को न रोके । तथा शुक्र, अपानवायु, वमन, छींक, डकार, जंभाई, भूख, प्यास, आंसू, नींद और परिश्रम से उत्पन्न तीव्र श्वास प्रश्वास - इन के वेगों को भी न रोके ।
॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
एवं विशुद्धकोष्ठस्य, कायाग्निरभिवर्द्धते ।
व्याधयश्चोपशाम्यन्ति, प्रकृतिश्चानुवर्त्तते ।।
इन्द्रियाणि मनोबुद्धिर्वर्णश्चास्य प्रसीदति ।
बलं पुष्टिरपत्यं च, वृषता चास्य जायते ।।
जरां कृच्छ्रेण लभते, चिरं जीवत्यनामयः ।
तस्मात् संशोधनं काले, युक्तियुक्तं पिबेन्नरः ।। (चरकसंहिता (सूत्रस्थानम्) -१६.१७-१९)
जिसका कोष्ठ (पेट बड़ी आंत तथा मलाशय आदि) शुद्ध हो जाता है, उसकी जठराग्नि बढ़ जाती है, रोग शान्त हो जाते हैं, उसका स्वास्थ्य उत्तम रहता है; इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि निर्मल हो जाती है; रंग निखरता है; उसे बल, पुष्टि, सन्तान और पुंस्त्व शक्ति की प्राप्ति होती है । उसे बुढ़ापा देर से आता है और वह नीरोग रहता हुआ चिरकाल तक जीवित रहता है । इसलिये यथासमय (वैद्यनिर्देशानुसार) संशोधनार्थ (क्वाथ अथवा घृत आदि का) युक्तिपूर्वक पान करे ।
वीर्य बलवर्धनानामुत्कृष्टतमम् ।। (चरकसंहिता (सूत्रस्थानम्) -३०.१५)
बल बढ़ाने वाले पदार्थों में वीर्य (वीर्यरक्षा) सर्वोत्तम है ।
॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
यदा तु मनसि क्लान्ते, कर्मात्मानः क्लमान्विताः ।
विषयेभ्यो निवर्त्तन्ते, तदा स्वपिति मानवः ।।
जब मन के थक जाने पर, निरन्तर अपने कार्य में लगी हुई इन्द्रियाँ थक जाती हैं और फलतः विषयों से विमुख हो जाती हैं, तब मनुष्य सोता है ।
निद्रायत्तं सुखं दुःखं, पुष्टिः कार्यं बलाऽबलम् ।
वृषता क्लीबता ज्ञानमज्ञानं जीवितं न च ।।
सुख और दुःख, पुष्टि और दुबलापन, बल और निर्बलता, पुंस्त्व और नपुंसकता, ज्ञान और अज्ञान तथा जीवन और मृत्यु; ये सब निद्रा के आधीन हैं ।
अकालेऽतिप्रसङ्गाच्च, न च निद्रा निषेविता ।
सुखायुषा परा कुर्यात्कालरात्रिरिवाऽपरा ।।
बिना उचित समय के और समय पर भी अत्यधिक रूप से सेवन की गई और सर्वथा सेवन न की गई निद्रा, दूसरी कालरात्रि (मृत्यु रात्रि) सी बनी हुई, मनुष्य को सुख और आयु से वियुक्त कर देती है ।
सैव युक्ता पुनर्युङ्क्ते, निद्रा देहं सुखायुषा ।
पुरुषं योगिनं सिद्ध्या सत्या बुद्धिरिवाऽऽगता ।।
वही निद्रा उचित रूप से सेवन की हुई मनुष्य को वैसे ही सुख और आयु से संयुक्त कर देती है, जैसे उत्पन्न हुई सत्य बुद्धि (ऋतम्भरा प्रज्ञा) योगी मनुष्य को सिद्धि से युक्त कर देती है ।
गीताध्ययन-मद्य-स्त्री-कर्म-भाराध्वकर्षिताः ।
अजीर्णिनः क्षताः क्षीणा, वृद्धा बालास्तथाऽबलाः ।।
तृष्णातीसारशूलार्त्ताः, श्वासिनो हिक्किनः कृशाः ।
पतिताभिहतोन्मत्ताः, क्लान्ता यानप्रजागरैः ।।
क्रोधशोकभयक्लान्ता दिवास्वप्नोचिताश्च ये ।
सर्व एते दिवास्वप्नं, सेवेरन् सार्वकालिकम् ।। (च. सू.२१.३४-४१)
गीत, अध्ययन, मद्यपान, स्त्रीप्रसन्न, अधिक कार्य, भारवहन और अधिक पैदलयात्रा इनसे थके हुए; अजीर्ण रोग वाले, चोट वाले, क्षीण, वृद्ध, बच्चे, बलहीन, अतिप्यास - दस्त-पीड़ा इनके रोगी; दमे वाले, हिचकी वाले, कमजोर, गिरकर पीड़ित हुए, मार खाये हुए, उन्माद रोगी, वाहन की यात्रा तथा रात्रिजागरण से थके हुए; क्रोध-शोक - भय इनसे थके हुए तथा दिवाशयन के योग्य जन-ये सब, सभी समयों में दिन में सोने के अधिकारी हैं ।
ग्रीष्मे चादानरूक्षाणां, वर्धमाने च मारुते ।
रात्रीणां चातिसंक्षेपाद्, दिवास्वप्नः प्रशस्यते ।।
ग्रीष्म काल में सूर्य किरणों द्वारा रस का निरन्तर ग्रहण होने से रूक्षता होने के कारण, वायु के बढ़ जाने से और रात्रियों के बहुत छोटे होने से दिन में सोना उचित माना जाता है ।
ग्रीष्मवर्ज्यषु कालेषु, दिवास्वप्नात् प्रकुप्यतः ।
श्लेष्मपित्ते दिवास्वप्नस्तस्मात्तेषु न शस्यते ।।
किन्तु ग्रीष्म को छोड़कर अन्य ऋतुओं में दिन में सोने से कफ और पित्त कुपित हो जाते हैं, इसलिये उन ऋतुओं में दिन में शयन उचित नहीं माना जाता है ।
देहवृत्तौ यथाऽऽहारस्तथा स्वप्नः सुखो मतः ।
स्वप्नाहारसमुत्थे च, स्थौल्यकायें विशेषतः ।।
शरीर के स्वस्थ रखने में जैसा भोजन का महत्त्व है, वैसा ही सुखकारी निद्रा का महत्त्व है । विशेष रूप से, स्थूलता और पतलापन तो शयन तथा भोजन से उत्पन्न होने वाले हैं ।
अभ्यङ्गोत्सादनं स्नानं, ग्राम्यानूपोदका रसाः ।
शाल्यन्नं सदधि क्षीरं स्नेहो गदं मनः सुखम् ।।
मनसोऽनुगुणा गन्धाः, शब्दाः संवाहनानि च ।
चक्षुषस्तर्पणं लेपः, शिरसो वदनस्य च ।।
स्वास्तीर्ण शयनं वेश्म, सुखं कालस्तथोचितः ।
आनयन्त्यचिरान्निद्रां प्रनष्टा या निमित्ततः ।। (चरकसंहिता (सूत्रस्थानम्) - २१.४३,४४,५१,५२-५४)
यदि निद्रा किसी कारण से उचट गई हो तो-मालिश, पांवों से (कमर, पीठ, या पुट्ठों का) दबाना, स्नान, ग्राम और जलबहुल देश के जल, उत्तम रस, साठी चावल का दहीयुक्त भात, दूध, घी आदि चिकने पदार्थ, मन को सुखकारी औषध; मन को रुचिकर गन्ध और शब्द; हाथों के द्वारा अन्नों का दबाया जाना, आँखों का घृतादि से तर्पण, सिर तथा मुख पर लेप करना, सुन्दर बिछाया हुआ बिस्तर, सुखप्रद कमरा और निद्रा का उचित समय; ये सब शीघ्र ही निद्रा को लाने वाले हैं ।
निद्रा तु सेविता काले, धातुसाम्यमतन्द्रताम् ।
पुष्टिं वर्ण बलोत्साहमग्निदीप्तिं करोति वै ।।
उचित समय पर सेवन की गई निद्रा धातुओं में समता बनाये रखती है और आलस्य को दूर रखती है तथा शरीर की पुष्टि, उत्तम रंग, बल, उत्साह और जठराग्नि की वृद्धि करती है ।
॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
ओ३म् ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत ।
इन्द्रो ह ब्रह्मचर्येण देवेभ्यः स्वराभरत् ।। (अथर्ववेदसंहिता - ११.५.१९)
ब्रह्मचर्य के द्वारा दिव्यगुणधारी विद्वान् जन मृत्यु को दूर भगा देते हैं । ऐसे दिव्य विद्वानों के लिये ऐश्वर्यशाली परमेश्वर ब्रह्मचर्य के कारण ही सम्पूर्ण सुख वितरित करता है ।
ब्रह्मचर्यस्य च गुणं, शृणु त्वं वसुधाधिप ।
आजन्ममरणाद्यस्तु, ब्रह्मचारी भवेदिह ।।
न तस्य किञ्चिदप्राप्यमिति विद्धि नराधिप ।
बह्यः कोट्यस्तु ऋषीणां ब्रह्मलोके वसन्त्युत ।।
हे राजन् ! तू ब्रह्मचर्य के गुण सुन। जो जन्म से लेके मृत्युपर्यन्त ब्रह्मचारी रहता है, उसके लिये कोई वस्तु या गुण अप्राप्तव्य नहीं रहता, ऐसा समझो । अतएव अनेक करोड़ों ऋषिजन (ब्रह्मचर्य से ही) मुक्ति की अवस्था को पाके ब्रह्मानन्द में लीन रहते हैं ।
सत्ये रतानां सततं, दान्तानामूर्ध्वरेतसाम् ।
ब्रह्मचर्यं दहेद्राजन्, सर्वपापान्युपासितम् ।। (महाभा.)
सदा सत्य में रुचि रखने वाले, मन को वश में रखने वाले और वीर्य की पूर्ण रक्षा करने वाले मनुष्यों के द्वारा सेवन किया गया ब्रह्मचर्य सब पापों को भस्म कर देता है ।
मत्ते भकुम्भदलने भुवि सन्ति शूराः, के चित्प्रमत्त-मृगराज-वधेऽपि दक्षाः ।
किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसह्य, कन्दर्प दर्पदलने विरला मनुष्याः ।। (शृङ्गारशतकम् -५८)
मदमस्त हाथियों की बलशाली कनपटियों को झकझोरने में समर्थ अनेक शूरमा इस पृथिवी पर अवश्य हैं और कुछ वीर प्रचण्ड सिंहों के मारने में भी निपुण अवश्य हैं । किन्तु मैं समस्त बलशालियों के समक्ष चुनौती के साथ कहता हूँ, कि प्रबल कामदेव के मद को पछाड़ने में तो कोई विरले ही मनुष्य होंगे ।
ब्रह्म वै मृत्यवे सर्वाः प्रजाः प्रायच्छत् ।
तस्मै ब्रह्मचारिणमेव न प्रायच्छत् ।। (शतपथब्राह्मणम् - ११.३.३.१)
परमेश्वर ने सब प्रजाओं को मृत्यु के वशीभूत कर दिया, किन्तु उसने ब्रह्मचारी को मृत्यु के वश में नहीं किया । (अतएव ब्रह्मचारी मृत्युञ्जयी होता है ।)
तस्मात्पुरुषो मतिमानात्मनः शरीरमनुरक्षन् शुक्रमनुरक्षेत् ।
परा होषा फलनिर्वृत्तिराहारस्येति ।।
अतः बुद्धिमान् मनुष्य अपने शरीर की रक्षा करता हुआ पहिले वीर्य की रक्षा करे । निश्चय ही वीर्य, खाये हुए भोजन का परम सार है ।
आहारस्य परं धाम, शुक्रं तद्रक्ष्यमात्मनः ।
क्षये हास्य बहून् रोगान्, मरणं वा निगच्छति ।। (चरकसंहिता (निदानस्थानम्) -६.९,१०)
खाये हुए भोजन का उत्तम सार वीर्य है, अतः मनुष्य को अपने वीर्य की रक्षा करनी चाहिये । इस वीर्य का क्षय हो जाने पर मनुष्य अनेक प्रकार के रोगों को अथवा मृत्यु को भी प्राप्त हो जाता है ।
॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
शरीरायासजननं, कर्म व्यायामसञ्जितम् ।
तत् कृत्वा तु सुखं देहं, विमृनीयात्समन्ततः ।।
शरीर को श्रमयुक्त करने को ही व्यायाम कहते हैं । व्यायाम करके मनुष्य अपने शरीर को चारों ओर से हल्का हल्का मसले ।
शरीरोपचयः कान्तिर्गात्राणां सुविभक्तता ।
दीप्ताग्नित्वमनालस्यं, स्थिरत्वं लाघवं मृजा ।।
श्रमक्लमपिपासोष्णशीतादीनां सहिष्णुता ।
आरोग्यं चापि परमं, व्यायामादुपजायते ।।
शरीर की वृद्धि, चमक (तेज), सब अन्नों की सुडौलता, जठराग्नि की तीव्रता, आलस्य का अभाव, स्थिरता, हल्कापन, निर्मलता; परिश्रम-थकावट-प्यास-गर्मी - सर्दी इनको सहने की शक्ति और उत्तम स्वास्थ्य-ये सब लाभ व्यायाम से उत्पन्न होते हैं ।
न चास्ति सदृशं तेन, किञ्चित् स्थौल्यापकर्षणम् ।
न च व्यायामिनं मर्त्यमर्दयन्त्यरयो बलात् ।।
मोटापे को घटाने के लिये व्यायाम जैसा अन्य कोई उपाय नहीं है । और व्यायाम के अभ्यासी मनुष्य को शत्रु भी जबर्दस्ती पीड़ित नहीं कर सकते ।
न चैनं सहसा ऽऽक्रम्य, जरा समधिरोहति ।
स्थिरीभवति मांसं च, व्यायामाभिरतस्य तु ।।
और न ही व्यायामशील को बुढ़ापा अचानक आकर घेरता है । अपितु व्यायामी मनुष्य का मांस दृढ़ हो जाता है ।
व्यायामक्षुण्णगात्रस्य, पद्भ्यामुद्वत्र्त्तितस्य च ।
व्याधयो नोपसर्पन्ति, सिंहं क्षुद्रमृगा इव ।।
व्यायाम से कमाये हुए शरीर वाले और पांवों पर मालिश करने वाले मनुष्य के पास रोग वैसे ही नहीं फटकते हैं, जैसे सिंह के पास छोटे हरिण आदि पशु ।
वयोरूपगुणैर्होनमपि कुर्यात् सुदर्शनम् ।
व्यायामं कुर्वतो नित्यं विरुद्धमपि भोजनम् ।।
विदग्धमविदग्धं वा, निदर्दोषं परिपच्यते ।
व्यायामो हि सदा पथ्यो, बलिनां स्निग्धभोजिनाम् ।।
नवीन आयु और सुन्दर रूप से रहित मनुष्य को भी व्यायाम, सुन्दर दर्शनीय बना देता है । नित्य व्यायाम करने वाले मनुष्य के द्वारा; विरुद्ध गुण वाला, पका या कच्चा भी भोजन खा लिया जाता है, तो वह भी पच जाता है और कोई दोष उत्पन्न नहीं करता है । बलवान् और चिकने पदार्थ खाने वाले मनुष्यों के लिये तो व्यायाम सदा हितकारी है ।
स च शीते वसन्ते च, तेषां पथ्यतमः स्मृतः ।
सर्वेष्वृतुष्वहरहः, पुम्भिरात्महितैषिभिः ।।
सर्दी के मौसम में और वसन्त ऋतु में तो व्यायाम अत्यन्त ही हितकारक है । अपना कल्याण चाहने वाले मनुष्यों को सभी ऋतुओं में प्रतिदिन (व्यायाम करना चाहिये) ।
बलस्यार्धेन कर्त्तव्यो, व्यायामो हन्त्यतोऽन्यथा ।
हृदि स्थानस्थितो वायुर्यदा वक्त्रं प्रपद्यते ।।
व्यायामं कुर्वतो जन्तोस्तद् बलार्धस्य लक्षणम् ।
वयोबलशरीराणि, देशकालाशनानि च ।।
समीक्ष्य कुर्याद् व्यायाममन्यथा रोगमाप्नुयात् ।
क्षयतृष्णाऽरुचिच्छ र्दिरक्तपित्तभ्रमक्लमाः ।।
कासशोषज्वरश्वासा, अतिव्यायामसम्भवाः ।
रक्तपित्ती कृशः शोषी, श्वासकासक्षतातुरः ।।
भुक्तवान् स्त्रीषु च क्षीणस्तृड्भ्रमात्र्त्तश्च वर्जयेत् ।।
अपने बल के आधे सामर्थ्य से व्यायाम करना चाहिये । इससे अधिक करने से, व्यायाम पीड़ा-जनक हो जाता है । व्यायाम करते समय व्यायामी मनुष्य के हृदयस्थान में स्थित वायु, जब मुख तक पहुँच जाय तो यह उसके बल के आधे की पहिचान है । आयु, बल, शरीर, देश, काल और भोजन को ध्यान में रखकर ही मनुष्य व्यायाम करे । अन्यथा यह रोग को प्राप्त हो सकता है । क्षय (राजयक्ष्मा), अतिपिपासा, अरुचि, वमन, रक्तपित्त, भ्रम (चक्कर आना), थकावट, खांसी, सूखापन, बुखार और दमा ये रोग अतिव्यायाम से उत्पन्न होते हैं । रक्तपित्त से ग्रसित, कमजोर, सूखे शरीर वाला; दमा-खांसी-घाव इनसे युक्त, तुरन्त भोजन किया हुआ और स्त्री-प्रसङ्ग से दुर्बल व्यक्ति और अतिपिपासा तथा चक्कर आने के रोग वाला व्यक्ति व्यायाम को त्याग दे ।
॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥
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