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अथ सुभाषितसंग्रहः ॥ इन्द्रियनिग्रहः

 


॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥

इन्द्रियनिग्रहः

श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च दृष्ट्वा च, भुक्त्वा घ्रात्वा च यो नरः ।
न हृष्यति ग्लायति वा, स विज्ञेयो जितेन्द्रियः ।। (मनुस्मृतिः - २.९८)

    जो मनुष्य सुनकर, स्पर्श करके, देखकर, खाकर, और सूंघकर न तो प्रसन्न होता है और न ही अप्रसन्न होता है, उसे ही जितेन्द्रिय जानना चाहिये ।

​वशे कृत्वेन्द्रियग्रामं, संयम्य च मनस्तथा ।
सर्वान् संसाधयेदर्शानक्षिण्वन् योगतस्तनुम् ।। (मनुस्मृतिः -२.१००)

    मनुष्य इन्द्रियों के समूह को वश में करके और मन को नियन्त्रित करके, योगाभ्यास के द्वारा शरीर को क्षीण न करते हुए अपने सब प्रयोजनों को सिद्ध करे ।

दृश्यन्ते हि महात्मानो, बध्यमानाः स्वकर्मभिः ।
इन्द्रियाणामनीशत्वाद्, राजानो राज्यविभ्रमैः ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - ३४.६९)

    इन्द्रियों का स्वामी न बनने से - इन्द्रियों पर नियन्त्रण न रखने से, महात्मा जन (भी) अपने ही कर्मों से और राजा लोग राजकीय भोगविलासों से बन्धनों में फँसते हुए देखे जाते हैं ।

इन्द्रियाणां विचरतां, विषयेष्वपहारिषु ।
संयमे यत्नमातिष्ठेद्, विद्वान् यन्तेव वाजिनाम् ।। (मनुस्मृतिः - २.८८)

    विद्वान् मनुष्य, अपनी ओर आकर्षित करने वाले विषयों में विचरने वाली इन्द्रियों के नियन्त्रण में उसी प्रकार प्रयत्न करे जैसे सारथि घोड़ों के नियन्त्रण में यत्न करता है ।

इन्द्रियार्थेषु सर्वेषु, न प्रसज्येत कामतः ।
अतिप्रसक्तिं चैतेषां, मनसा सन्निवर्त्तयेत् ।। (मनुस्मृतिः - ४.१६)

    इन्द्रियों के सभी विषयों में कामनापूर्वक आसक्त न होवे और इनकी अत्यन्त आसक्ति को मन से अच्छी प्रकार हटा देवे ।

इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन, दोषमृच्छत्यसंशयम् ।
सन्नियम्य तु तान्येव, ततः सिद्धिं नियच्छति ।। (मनुस्मृतिः -२.९३)

    मनुष्य इन्द्रियों की आसक्ति से निस्सन्देह दोष को प्राप्त होता है, और उन्हीं इन्द्रियों को नियन्त्रित करके सिद्धि को प्राप्त होता है ।

यो जितः पञ्चवर्गेण, सहजेनात्मकर्षिणा ।
आपदस्तस्य वर्धन्ते, शुक्लपक्ष इवोडुराट् ।। (महाभा. उ. ३४.५५)

    जो मनुष्य स्वभावतः अपनी और आत्मा को खींचने वाली श्रोत्र, त्वक्, चक्षुः, रसना और घ्राण इन पांच इन्द्रियों के द्वारा जीत लिया जाता है, उसकी आपत्तियाँ उसी प्रकार बढ़ती हैं, जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमा बढ़ता है ।

इन्द्रियजयो नन्दनानामुत्कृष्टतमम् ।। (चरकसंहिता (सूत्रस्थानम्) -३०.१५)
    आनन्दित करने वाले उपायों में, इन्द्रियों पर विजय सर्वोत्तम उपाय है ।

आत्मन्निच्छसि हन्त ! शाश्वतपुरीमार्गे विहर्तुं यदि, भ्रातः ! संयमवर्मणा कुरु तदा, रक्षाविधिं सर्वतः ।
नो चेदिन्द्रियतस्करैस्तव हठात्तीक्ष्णाग्रभूरि स्फुरच् - चिन्ताभल्लशतैर्विभिद्य मनसो, ग्राह्यो विवेको मणिः ।। 

    हे भोले आत्मन् ! यदि तू उस सनातन आध्यात्मिक मार्ग में विचरना चाहता है, तो हे भाई ! मन और इन्द्रियों के नियन्त्रण रूपी कवच से अपनी रक्षा का सब ओर से प्रबन्ध कर ले, अन्यथा इन्द्रिय रूपी तस्कर चिन्ता रूपी तीखे चिलचिलाते सैंकड़ों भालों से तुम्हारे मन को भेदकर, तुम्हारे मन की विवेक रूपी मणि को जबर्दस्ती हर ले जायेंगे ।

आपदां कथितः पन्था इन्द्रियाणामसंयमः ।
तज्जयः सम्पदां मार्गो, येनेष्टं तेन गम्यताम् ।।

    इन्द्रियों को वश में न रखना आपत्तियों (में गिरने) का मार्ग है । इन्द्रियों को जीत लेना सम्पत्तियों (को पाने) का मार्ग है । (अब) आपको जो इष्ट हो उस मार्ग से जाइये ।

इन्द्रियाणि जयन्त्याशु, निराहारा मनीषिणः ।
वर्जयित्वा तु रसनं, तत्रिरत्रस्य वर्द्धते ।।

    भोजन को त्यागने वाले मनस्वी लोग, रसनेन्द्रिय को छोड़कर अन्य इन्द्रियों को शीघ्र ही जीत लेते हैं । रसनेन्द्रिय तो निराहार रहने पर और बलवती हो जाती है ।

तावज्जितेन्द्रियो न स्याद्, विजितान्येन्द्रियः पुमान् ।
न जवेद्रसनं यावज्जितं सर्वं जिते रसे ।। (भागवतपुराणम् - ११.८.२०,२१)

    अन्य इन्द्रियों पर विजय पा लेने वाला मनुष्य, जब तक रसनेन्द्रिय को न जीत ले, तब तक (सच्चे अर्थों में) जितेन्द्रिय नहीं हो सकता। रस को जीत लेने पर तो मानो सब को जीत लिया ।

॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥

शौचम्


शौचं च द्विविधं प्रोक्तं, बाह्यमाभ्यन्तरं तथा ।
मृज्जलाभ्यां स्मृतं बाह्य, भावशुद्धिस्तथाऽन्तरम् ।। (दक्षस्मृतिः -)

    शौच (शुद्धिः शोधन) दो प्रकार का कहा गया है - बाहर का और भीतर का। मिट्टी और जल से बाहर की शुद्धि होती है, जबकि भावों को शुद्ध रखना अन्दर की शुद्धि है ।

सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम् ।
योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिनं मृद्वारिशुचिः शुचिः ।। (मनुस्मृतिः -५.१०६)

    सभी प्रकार की शुद्धियों में धन सम्बन्धी शुद्धि सबसे मुख्य है । जो मनुष्य धन के विषय में शुद्ध है, वही शुद्ध है । मिट्टी और जल से शुद्ध हुआ, यथार्थ में शुद्ध नहीं है ।

ज्ञानं तपोऽग्निराहारो मृन्मनो वार्युपाञ्जनम् ।
वायुः कर्मार्ककालौ च, शुद्धेः कर्तृणि देहिनाम् ।। (मनुस्मृतिः -५.१०५)

    ज्ञान, तपस्या, अग्नि, भोजन, मिट्टी, मन, जल, लेपन, वायु, कर्म, सूर्य और समय ये पदार्थ देहधारियों की शुद्धि के साधन हैं ।

अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति, मनः सत्येन शुध्यति ।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा, बुद्धिज्ञानेन शुध्यति ।। (मनुस्मृतिः - ५.१०९)

    जल से शरीर शुद्ध होते हैं, मन सत्य से शुद्ध होता है । विद्या और तपस्या से जीवात्मा शुद्ध होता है और बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है ।

दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं, वस्त्रपूतं जलं पिवेत् ।
सत्यपूतां वदेद्वाचं, मनःपूतं समाचरेत् ।। (मनुस्मृतिः -६.४६)

    दृष्टि से शुद्ध करके (भूमि आदि पर) पग रखे, वस्त्र से शुद्ध करके (छानकर) जल पीवे । सत्य से शुद्ध करके वाणी बोले और मन से शुद्ध करके आचरण करे ।

क्षान्त्या शुध्यन्ति विद्वांसो, दानेनाकार्यकारिणः ।
प्रच्छन्नपापा जप्येन, तपसा वेदवित्तमाः ।। (मनुस्मृतिः -५.१०७)

    क्षमा से विद्वान् शुद्ध होते हैं और दान देने से दुष्ट कर्म करने वाले शुद्ध होते हैं । गुप्तरूप से पाप करने वाले जप करने से और वेदज्ञ जन तपस्या से शुद्ध होते हैं ।

तैजसानां मणीनां च, सर्वस्याश्ममयस्य च ।
भस्मनाऽद्भिर्मुदा चैव, शुद्धिरुक्ता मनीषिभिः ।।

    चमकीले (स्टील आदि से बने) पात्र आदि, मणियों और सभी पाषाण निर्मित पदार्थों की शुद्धि आवश्यकतानुसार राख, जल तथा मिट्टी से होती है, ऐसा विद्वानों ने कहा है ।

निर्लेपं काञ्चनं भाण्डमद्भिरेव विशुध्यति ।
अब्जमश्ममयं चैव, राजतं चानुपस्कृतम् ।। (मनुस्मृतिः -५.१११,११२)

    किन्तु स्वर्णनिर्मित पात्र, जलोत्पन्न मोती, सीपी, शङ्ख आदि से निर्मित पदार्थ, पाषाणनिर्मित वस्तुएँ और नक्काशी रहित चाँदी की बनी वस्तुएँ जल से ही शुद्ध हो जाती हैं, यदि उनमें कोई वस्तु लिप्त न हो तो ।

ताम्रायः कांस्यरैत्यानां, त्रपुणः सीसकस्य च ।
शौचं यथाई कर्त्तव्यं, क्षाराम्लोदकवारिभिः ।। (मनुस्मृतिः -५.११४)

    तांबा, लोहा, कांसा, पीतल, रांगा और जस्ता आदि के बने पात्र आदि की शुद्धि यथायोग्य खार, खट्टे द्रव और जल से करनी चाहिये ।

सम्मार्जनोपाञ्जनेन, सेकेनोल्लेखनेन च ।
गवां च परिवासेन, भूमिः शुध्यति पञ्चभिः ।। (मनुस्मृतिः - ५.१२४)

    बुहारने से, लीपने से, छिड़काव करने से, खुरचने से और गौओं के निवास से-इन पाँच क्रियाओं से भूमि शुद्ध होती है ।

आत्मा नदी भारत ! पुण्यतीर्था, सत्योदका धुतिकूला दयोर्मिः ।
तस्यां स्नातः पूयते पुण्यकर्मा, पुण्यो हाात्मा नित्यमलोभ एव ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - ४०.२१)

    हे भारतवंशी ! पुण्य रूपी घाट वाली, सत्य रूपी जल वाली, धैर्य रूपी तटों वाली और दया रूपी लहरों वाली एक नदी है, जिसे आत्मा कहते हैं । उस आत्मा रूपी नदी में स्नान किया हुआ पुण्य कर्मकारी मनुष्य शुद्ध होता है । नित्य लोभरहित आत्मा ही पुण्यवान् है ।

आत्मा नदी संयमपुण्यतीर्था, सत्योदका शीलतटा दयोर्मी ।
तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र ! न वारिणा शुध्यति चान्तरात्मा ।।

    आत्मा एक नदी है जिसके संयम और पुण्य घाट हैं, सत्य जिसमें जल है, सदाचार जिसके तट हैं और दया ही जिसमें लहरियां हैं, हे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर ! उस आत्मा नदी में स्नान कर । जल से अन्तरात्मा शुद्ध नहीं होता ।

सर्वाणि खलु तीर्थानि, गुणवन्ति मनीषिणः ।
यत्तु तीर्थ च शौचं च, तन्मे शृणु समाहितः ।।

    मनस्वी मनुष्य के लिये सभी तीर्थ गुणवाले हैं । किन्तु जो तीर्थ (वास्तविक) शुद्धि करने वाला हैं उसे मुझसे सावधान होकर सुन ।

अगाधे विमले शुद्धे, सत्यतोये धृतिहृदे ।
स्नातव्यं मानसे तीर्थे, सत्यमालम्ब्य शाश्वतम् ।।

    गहरे, निर्मल, शुद्ध, सत्य रूपी जल वाले और धैर्य रूपी सरोवर वाले मानस (आन्तरिक) तीर्थ में सदा स्थिर रहने वाले सत्य का सहारा लेकर स्नान करना चाहिये ।

तीर्थशौचमनर्थित्वमार्जवं सत्यमार्दवम् ।
अहिंसा सर्वभूतानामानृशंस्यं दमः शमः ।।

    तीर्थ में शुद्धि का अभिप्राय है - याचना न करना, सरलता, सत्य, कोमलता, अहिंसा, सब प्राणियों पर करुणा, मन पर नियन्त्रण और शान्ति ।

निर्ममा निरहङ्कारा, निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः ।
शुचयस्तीर्थभूतास्ते, ये भैक्ष्यमुपभुञ्जते ।।

    (और तीर्थ हैं - ) जो ममता रहित, अहङ्कार रहित, निन्दास्तुति आदि द्वन्द्वों से रहित, सङ्ग्रहवृत्ति से रहित, पवित्र और भिक्षा से भी गुजारा करने वाले मनुष्य हैं, वे ही तीर्थ रूप हैं ।

नोदकक्लिन्नगात्रस्तु, स्नात इत्यभिधीयते ।
स स्नातो यो दमस्नातः, स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ।।

    जल से भीगे हुए शरीर वाला 'नहाया हुआ' नहीं कहलाता; अपितु 'नहाया हुआ' वह है, जो दम (मन के नियन्त्रण) रूपी जल में नहाया हुआ है । वही बाहर और भीतर से शुद्ध है ।

मनसा च प्रदीप्तेन, ब्रह्मज्ञान-जलेन च ।
स्नाति यो मानसे तीर्थ, तत्स्नानं तत्त्वदर्शिनः ।।

    मन से प्रदीप्त किये हुए ब्रह्मज्ञान (ईश्वरानुभूति) रूपी जल से जो मानस तीर्थ में स्नान करता है, तात्त्विक दृष्टि वाले के लिये वही (असली) स्नान है ।


(महाभा. अनु. २-५,९,१३)

॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥

अस्तेयम्

ओ३म् यो नो रसं दिप्सति पित्वो अन्ने, यो अश्वानां यो गवां यस्तनुनाम् ।
रिपुः स्तेनः स्तेयकृद् दभ्रमेतु नि ष हीयतां तन्वा तना च ।। (ऋग्वेदसंहिता -७.१०४.१०)

    हे ज्ञान-स्वरूप परमेश्वर ! जो हमारे अन्न के रस को नष्ट करना चाहता है अथवा जो हमारे घोड़ों के, हमारे गौओं के और हमारे शरीरों के रस (सार) को नष्ट करना चाहता है, तो ऐसा वह विघ्नकारी शत्रु चोर और चोरी करने का अभ्यासी नाश को प्राप्त होवे, वह अपने शरीर और पापी प्रजा से वियुक्त हो जावे ।

स्तेयमशास्त्रपूर्वकं द्रव्याणां परतः स्वीकरणं,
तत्प्रतिषेधः पुनरस्पृहारूपमस्तेयमिति ।। (योग. व्या.२.३०)

    शास्त्रोक्त विधि के विपरीत (अर्थात् बिना अनुमति के) पराये द्रव्यों को अपना बनाना स्तेय (चोरी) कहलाती है और उसका न करना अस्तेय कहलाता है ।

अस्तेयं नाम मनोवाक्कायकर्मभिः परद्रव्येषु निःस्पृहता ।। (शाण्डिल्योपनिषद् -१.१)
    मन, वचन, शरीर और कर्म के द्वारा पराये पदार्थों को हथियाने की इच्छा न होना ही 'अस्तेय' है ।

अन्यदीये तृणे रत्ने काञ्चने मौक्तिकेऽपि वा ।
मनसा विनिवृत्तिर्या तदस्तेयं विदुर्बुधाः ।।

    पराये तृण, रत्न, स्वर्ण और मोती आदि (के ग्रहण करने) में मन से भी जो प्रवृत्ति का न होना है वह अस्तेय है, ऐसा ज्ञानी लोग कहते हैं ।

परद्रव्यापहारोऽत्र प्रोक्तो द्विविध एव वै ।
प्रकाशश्चाऽप्रकाशश्च स ज्ञेयः सूक्ष्मया धिया ।।

    पराये पदार्थों का हरण दो प्रकार का कहा गया है । एक प्रकट और दूसरा अप्रकट। उसे सूक्ष्म बुद्धि से समझना चाहिये ।

प्रकाशवञ्चनन्तत्र, नानापण्योपजीविभिः ।
प्रच्छन्त्रवञ्चनं तद्यत्, स्तेनाऽऽटविकादिभिः ।।

    प्रकट रूप से पर पदार्थ का हरण वह है, जो अनेक प्रकार के व्यापारी व्यवसायी आदि द्वारा तोलमाप की गड़बड़ी या मिलावट आदि के द्वारा किया जाता है । गुप्त रूप से परपदार्थ का चौर्य वह है, जो अन्धेरे में या जङ्गल आदि में चोर आदि द्वारा किया जाता है ।

आत्मन्यनात्मभावेन, व्यवहारविवर्जितम् ।
यत्तदस्तेयमित्युक्तमात्मविद्भिर्महामते ।। (जाबालोपनिषद् -१.११,१२)

    हे महामते ! अपनी वस्तुओं में भी ममता-त्याग के भाव से जो स्वार्थ-परायणता की वृत्ति को त्यागना है, उसे ही आत्मज्ञानी लोग अस्तेय कहते हैं ।

अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ।। (योग. २.३७) सर्वदिक्स्थान्यस्योपतिष्ठन्ते रत्नानि (योग. व्यास.)
    अस्तेय वृत्ति के पूर्ण अभ्यास हो जाने पर साधक के पास, सब रत्नों की उपस्थिति हो जाती है अर्थात् सम्पूर्ण दिशाओं से उत्तमोत्तम पदार्थ उसे प्राप्त होने लगते हैं ।

॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥

दमः

दमेन सदृशं धर्म, नान्यं लोकेषु शुश्रुम ।
दमो हि परमो लोके, प्रशस्तः सर्वधर्मिणाम् ।। (महाभा.शा. १६०.१०)

    हमने सर्वलोकों में दम के समान दूसरा धर्म नहीं सुना है । सब धर्मात्माओं के लिये जगत् में दम ही सर्वश्रेष्ठ है ।

दमस्तेजो वर्धयति, पवित्रं दम उच्यते ।
विपाप्मा निर्भयो दान्तः, पुरुषो विन्दते महत् ।।

    दम तेज को बढ़ाता है (अतः) दम को पवित्र कहा गया है । दम का अभ्यासी मनुष्य निष्पाप तथा निर्भीक होकर महान् फल को प्राप्त करता है ।

सुखं दान्तः प्रस्वपिति, सुखं च प्रतिबुध्यते ।
सुखं लोके विपर्येति, मनश्चास्य प्रसीदति ।। (महाभा. शा.२२०.४,५)

    दम का अभ्यासी सुखपूर्वक सोता है और सुखपूर्वक जागता है । वह सुख से संसार में व्यवहार करता है और इसका मन प्रसन्न रहता है ।

दमेन हि समायुक्तो, महान्तं धर्ममश्नुते ।
सुखं दान्तः प्रस्वपिति, सुखं च प्रतिबुध्यते ।। (महाभा. शा. १६०.१२)

    दम से युक्त मनुष्य महान् धर्म को प्राप्त करता है । दमशाली सुखपूर्वक शयन करता है और सुखपूर्वक ही जागता है ।

अदान्तः पुरुषः क्लेशमभीक्ष्णं प्रतिपद्यते ।
अनर्थाश्च बहूनन्यान्, प्रसृजत्यात्मदोषजान् ।। (महाभा. शा. १६०.१३)

    दम से रहित मनुष्य बार-बार क्लेश को प्राप्त होता है और अपने दोषों से उत्पन्न अन्य अनेक अनर्थों को जन्म देता है ।

न हृष्यति महत्यर्थे, व्यसने च न शोचति ।
स वै परिमितप्रज्ञः, स दान्तो द्विज उच्यते ।। (महाभा. शा. २२०.१६)

    बड़े लाभ के होने पर जो प्रसन्न नहीं होता और आपत्ति आने पर शोक नहीं करता, वही संयत बुद्धिवाला विद्यावान् मनुष्य दान्त कहलाता है ।

नाऽदान्तस्य क्रियासिद्धिर्यथावदुपपद्यते ।
क्रिया तपश्च सत्यं च, दमे सर्वं प्रतिष्ठितम् ।। (महाभा. शा. २२०.३)

    जो दम से रहित है उसके कार्यों की सिद्धि ठीक प्रकार से नहीं होती है । उत्तम क्रिया, तपस्या और सत्य ये सब दम में प्रतिष्ठित रहते हैं ।

॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥

क्षमा

क्षमा तेजस्विनां तेजः क्षमा ब्रह्म तपस्विनाम् । महाभारतम् - वनपर्व -२९ । ४० ।

क्षमा तेजस्वियों का तेज है, और तपस्वियों का ब्रह्म तेज है ।

 

क्षमा च परमं बलम् । महाभारतम् - वनपर्व -२१३।३०।

क्षमा सबसे बड़ी शक्ति है ।

 

क्षमा गुणो ह्यशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा । महाभारतम् - उद्योतपर्व -३३।४६ ।

शक्ति हीन लोगों के लिए क्षमा गुण है (उपकारक, कार्यसाधक) है और शक्तिमानों का भूषण है (शोभा है) ।

 

क्षमा गुणवतां वलम् । महाभारतम् - उद्योतपर्व - ३४।७५ ।

गुणियों का क्षमा बल है ।

 

मन्यते कर्षयित्वा तु क्षमा साध्वीति शम्बरः ।

असन्तनं तु यद् दारु प्रत्येति प्रकृतिं पुनः ॥ महाभारतम् - शान्तिपर्व -१०२।३१॥

शम्बर- नामक दैत्य का मत है कि पीड़ित करने के पीछे क्षमा ठीक रहती है (इसमें यह निदर्शन है -) बिना तपाई हुई लकड़ी (बेत आदि) झुकाने के अनन्तर फिर अपनी अवस्था में आ जाती है ।

 

नातः श्रीमत्तरं किश्विदन्यत् पथ्यतमं मतम् ।
प्रभविष्णोर्यथा तात, क्षमा सर्वत्र सर्वदा ।। (महामा.उ. ३९.५८)
    हे तात ! समर्थ मनुष्य के लिये सब स्थानों में और सब कालों में क्षमा के समान हितकारक और अत्यन्त धनसम्पन्न बनाने वाला अन्य कोई उपाय नहीं है ।

एकः क्षमावतां दोषो, द्वितीयो नोपपद्यते ।
यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जनः ।।
सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः, क्षमा हि परमं वलम् ।
क्षमा गुणो हाशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - -३३.४८,४९)
    क्षमाशील मनुष्यों में एक को छोड़कर अन्य कोई दोष नहीं माना जाता है और वह एक दोष यह है, कि क्षमाशाली मनुष्य को लोग निर्बल समझते हैं । किन्तु इसे क्षमाशील का दोष नहीं मानना चाहिये, क्योंकि क्षमा निश्चय ही उत्कृष्ट बल है । क्षमा, निर्वलों का गुण है और बलवानों का आभूषण ।

क्षमेदशक्तः सर्वस्य, शक्तिमान् धर्मकारणात् ।
अर्थानर्थी समी यस्य, तस्य नित्यं क्षमा हिता ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - -३९.५९)
    निर्वल मनुष्य अपने असामर्थ्य के कारण सबको सहन करे, जबकि बलवान् धर्म के कारण सबको क्षमा करें । जिसकी दृष्टि में अर्थ और अनर्थ दोनों समान हैं, उसके लिये तो क्षमा नित्य ही हितकाकरक है ।

क्षन्तव्यमेव सततं, पुरुषेण विजानता ।
यदा हि क्षमते सर्व, ब्रह्म सम्पहाते तदा ।। (महाभा.वन. २९.४२)
    विशेष ज्ञानवान् मनुष्य को निरन्तर क्षमा गुण ही अपनाना चाहिये । जब मनुष्य सबको क्षमा कर देता है, तो तब वह बड़ा बन जाता है ।

क्षमा वशीकृतिर्लोके, क्षमया किं न साध्यते ।
शान्तिखङ्गः करे यस्य, किं करिष्यति दुर्जनः ।।
    क्षमा संसार में सबको वश में करने वाली है, क्षमा से क्या सिद्ध नहीं किया जा सकता? शान्ति रूपी तलवार जिसके हाथ में है, उसका दुष्ट मनुष्य क्या (बिगाड़) कर सकेगा ?

अतृणे पतितो वह्निः, स्वयमेवोपशाम्यति ।
अक्षमावान् परं दोषैरात्मानं चैव योजयेत् ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - ३३.५०,५१)
    बिना घास वाली भूमि पर गिरी हुई अग्नि स्वयं ही शान्त हो जाती है । जबकि क्षमारहित मनुष्य दूसरे को तथा अपने आप को अनेक दोषों से युक्त कर देता है ।
 

धारणात् खनकस्यापि धरण्या इव निःसमा । 

स्वापराधिषु या क्षान्तिः स धर्मः परमो नृणाम् ॥

 

अपकारः परकृतः सोढव्यः सर्वदा नरैः । 

विस्मर्ता त्वपकारणां ततो भुवि महीयते ॥

 

दरिद्रेषु दरिद्रः स्यात् भ्रष्टस्त्वतिथिपूजनात् । 

मूढनिन्दा सहिष्णुस्तु समर्थेषूत्तमो भवेत् ॥

 

आत्मनो गुणसम्पत्त्या विख्यातिं यश्चिकीर्षति । 

तेन क्षमावता भाव्यमपराधिजनेष्वपि ॥

 

शत्रूणामपकर्तारं सन्तो न बहुकुर्वते । 

अरिष्वपि क्षमावन्तं स्वर्णवत् हृदि कुर्वते ॥

 

विरोधिष्वपकर्तृणां तिष्ठेदेकदिनं सुखम् । 

परद्रोहसहिष्णूनं यावज्जीवं भवद्यशः ॥

 

परैरनर्थात् विहितात् लब्ध्वापि मनसो व्यथाम् । 

अधर्माचरणाञ्चित्त निरोधो हि प्रशस्यते ॥

 

कुर्वतामात्मनो द्रोहं मनोऽहङ्कार करणात् । 

अकृत्वैव प्रतीकारं जेतव्याः क्षमयैव ते ॥

 

मर्यादां समतिक्रम्य निन्दकान् कठिनोक्तिभिः । 

क्षमया ये सहन्तेऽत्र शुद्धास्ते मुनिभिः समाः ॥

 

महानेव स मन्तव्यः विनाऽन्नं यस्तपस्यति । 

परनिन्दासहिष्णुस्तु ततोऽपि स्यान्महत्तरः ॥
 

॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥

धृतिः (धैर्यम्)

धृत्या द्वितीयवान् भवति । महाभारतम् - वनपर्व -२९७ २९।

धीरज मानो दूसरा साथी है । 

 

धृतिर्नाम सुखे दुःखे यया नाप्नोति विक्रियाम् । महाभारतम् - शान्तिपर्व -१६२ । १६ ।

धीरज वह गुण है जिसके कारण मनुष्य के मन में विकार नहीं होता (अर्थात् मन में गिरावट नहीं आती) ।

 

पुत्रदारैः सुखैश्चैव, वियुक्तस्य धनेन वा ।
मनस्य व्यसने कृच्छ्रे, धृतिः श्रेयस्करी नृप ।। (महाभा. शा. २२७.३)
    हे राजन् ! पुत्र, स्त्री, सुख, और धन से वियुक्त और भारी विपत्ति में निमग्न व्यक्ति के लिये भी धैर्य ही कल्याणकारी है ।

धैर्येण युक्तस्य सतः, शरीरं न विशीर्यते ।
विशोकता सुखं धत्ते, धत्ते चारोग्यमुत्तमम् ।। (महाभा. शा. २२७.४)
    धैर्य से युक्त मनुष्य का शरीर शीघ्र नष्ट नहीं होता। धैर्यशाली मनुष्य शोक से रहित होकर सुख और उत्तम स्वास्थ्य को धारण करता है ।

कदर्शितस्यापि हि धैर्यवृत्तेनं शक्यते धैर्यगुणः प्रमाष्टुंम् ।
अधोमुखस्यापि कृतस्य वह्नेर्नाधः शिखा यान्ति कदाचिदेव ।। (नीतिशतकम् -१०७)
    धैर्यशाली मनुष्य को तिरस्कृत करने पर भी उसके धैर्य गुण को मिटाया नहीं जा सकता । (जैसे कि) प्रज्वलित अग्नि के (ज्वालायुक्त काष्ठ आदि के) मुख को नीचे करने पर भी उसकी ज्वालाएँ कभी नीचे की ओर नहीं जातीं।

त्याज्यं न धैर्य विधुरेऽपि काले, धैर्यात् कदाचित् स्थितिमाप्नुयाद्धि ।
जाते समुद्रेऽपि च पोतभङ्गे, सांयात्रिको वाञ्छति तत्तुमेव ।।
    कठिनाई के समय के उपस्थित होने पर भी धैर्य नहीं त्यागना चाहिये, क्योंकि धैर्य से मनुष्य किसी समय में पुनरपि अपनी पूर्वस्थिति को प्राप्त कर सकता है । (जैसे कि) समुद्र के मध्य में जलपोत के टूट जाने पर भी उस पोत का यात्री तैर कर बच जाने की ही कामना करता है ।

धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः ।
योगेनाऽव्यभिचारिण्या, धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ।। (महाभा. भी. ४२.३३)
    हे अर्जुन ! मनुष्य, अपने लक्ष्य से भ्रष्ट न होने वाली जिस धृति से मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, वह घृति (धैर्य) सात्त्विक घृति है ।

व्यसने वाऽर्थकृच्छ्रे वा, भये वा जीवितान्तगे ।
विमलेश्च स्वया बुड्या, धृतिमान नावसीदति ।। (वाल्मीकिरामायणम् (किष्किन्धाकाण्डम्) - ७.१)
    विपत्ति में, आर्थिक दुर्दशा होने पर अथवा प्राणान्तकारी भय उपस्थित होने पर भी धैर्यशाली पुरुष अपनी बुद्धि से (उपायों का) चिन्तन करता हुआ कभी दुःखी नहीं होता ।

कान्ताकटाक्षविशिखा, न लुनन्ति यस्य, चित्तं न निर्दहति कोपकृशानुतापः ।
कर्षन्ति भूरिविषयाश्च न लोभपाशै - लॉकत्रयं जयति कृत्स्नमिदं स धीरः ।। (नीतिशतकम् - १०८)
    जिसके चित्त को स्त्रियों के कटाक्ष रूपी बाण विच्छिन्न नहीं करते, क्रोध रूपी अधि का ताप नहीं जलाता और रूप, स्पर्श आदि अनेक विषय अपने लोभ रूपी जाल में नहीं फँसाते वह धैर्यशाली पुरुष, इस सम्पूर्ण त्रिलोकी को जीत लेता है ।

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु, लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा, न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ।। (नीतिशतकम् - ८४)
    नीति में निपुण जन चाहे निन्दा करें अथवा प्रशंसा करें, धनसम्पत्ति आवे अथवा स्वेच्छा से चली जावे और भले ही आज ही मृत्यु हो जावे अथवा चिर-काल बाद होवे, किन्तु धैर्यशाली मनुष्य न्याय के मार्ग से पग भर भी विचलित नहीं होते हैं ।

सुखं च दुःखं च भवाभवौ च, लाभालाभी मरणं जीवितं च ।
पर्यायशः सर्वमेते स्पृशन्ति, तस्माद्धीरो न च हृष्येन्न शोचेत् ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - ३६.४७)
    सुख और दुःख, उत्पत्ति और विनाश, लाभ और हानि तथा मरण और जीवन, ये बारी-बारी से सबको प्राप्त होते रहते हैं, अतः धैर्यशाली मनुष्य को इनके लिये हर्ष या शोक नहीं करना चाहिये ।

विकारहेतौ सति विक्रियन्ते, येषां न चेतांसि त एव धीराः ।
वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां, गृहेऽपि पञ्चेन्द्रियनिग्रहस्तपः ।।
    विकार के कारण के उपस्थित होने पर भी जिनके चित्त में विकार उत्पन्न नहीं होता, वे ही धीर मनुष्य हैं । रागयुक्त मनुष्यों के जीवन में तो वन में रहने पर भी दोष उत्पन्न हो जाते हैं और पांचों इन्द्रियों को वश में रखने वाले तो गृह में रहते हुए भी तप कर सकते हैं ।

धृतिर्नाम सुखे दुःखे क्या नाप्नोति विक्रियाम् ।
तां भजेत सदा प्राज्ञो, व इच्छेद् गतिमात्मनः ।। (महाभा.शा. १६२.१९)
    सुख में अथवा दुःख में, जिसके कारण मनुष्य विकार को प्राप्त नहीं होता उसे वृति कहते हैं । जो बुद्धिमान् मनुष्य अपनी उत्तम गति चाहता हो, वह उस घृति (धैर्य) का सेवन करे ।
 

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