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अथ सुभाषितसंग्रहः ॥ आर्यः

 


॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥

आर्यः

नार्या म्लेच्छन्ति भाषाभिर्मायया न चरन्त्युत । महाभारतम् - सभापर्व - ५९।११।

आर्य न तु अव्यक्त (द्वयर्थक) वचन बोलते हैं और न छल-युक्त व्यवहार करते हैं ।

 

न वैरमुद्दीपयति प्रशान्तं  वर्षमारोहति नास्तमेति ।

न दुर्गतोऽस्मीति करोत्यकार्यं तमार्यशीलं परमाहुरायः ।। महाभारतम् - उद्योगपर्व - ३३।११२।

जो शान्त हुए वैर को पुनः नहीं जगाता, घमंड नहीं करता और न ही अपने अस्तित्त्व को खोता है और जो मैं दरिद्र अथवा दुःखी हूँ यह समझकर कुकर्म नहीं करता, उसे आर्य- लोग आर्य स्वभाव वाला कहते हैं ।

 

आर्येण सुकरं ह्याहुरार्यकर्म धनञ्जय ।

अनार्यकर्म त्वार्येण सुदुष्करतरं भुवि ॥ महाभारतम् - द्रोणपर्व - ११८।१०।

आर्य के लिए आर्य-कर्म (श्रेष्ठ काम) करना आसान है । पर आर्य के लिए निकृष्ट काम करना बहुत मुश्किल है ।

 

आर्येण हि न वक्तव्या कदाचित्स्तुतिरात्मनः । महाभारतम् - द्रोणपर्व - १९५।२१।

आर्य को अपनी प्रशंसा कभी नहीं करनी चाहिए ।

 

आत्मनिन्दाऽऽत्मपूजा च परनिन्दा परस्तवः ।

अनाचरितमार्याणां वृतमेतच्चतुविधम् । महाभारतम् - कर्णपर्व - ३५।४५।

अपनी निन्दा, अपना सत्कार, दूसरे की निन्दा, दूसरे की स्तुति - यह चार प्रकार का व्यवहार आर्यो का आचार नहीं है ।

 

न वैरमुद्दीपयति प्रशान्तं, न दर्पमारोहति नास्तमेति ।
न दुर्गतोऽस्मीति करोत्यकार्यं, तमार्यशीलं परमाहुरार्याः ।।
    जो शान्त हुए वैर को पुनः नहीं भड़काता है, जो अभिमान नहीं करता, जो अपने अस्तित्व को मिटने नहीं देता और जो 'मैं कठिन परिस्थिति में हूँ' ऐसा विचार करके बुरा कर्म नहीं करता, उसे ही श्रेष्ठ लोग 'आर्य' चरित्र वाला कहते हैं ।

न स्वे सुखे वै कुरुते प्रहर्ष, नान्यस्य दुःखे भवति प्रहृष्टः ।
दत्त्वा न पश्चात्कुरुते ऽनुतापं, स कथ्यते सत्पुरुषार्यशीलः ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - ३३.११७,११८)
    जो अपने सुख में प्रसन्न नहीं होता और दूसरे के दुःख में हर्षित नहीं होता तथा जो किसी को कुछ देकर पीछे सन्तप्त नहीं होता-पश्चात्ताप नहीं करता; वही सत्पुरुष आर्य चरित्र वाला कहलाता है ।

कर्त्तव्यमाचरन् कार्यमकर्त्तव्यमनाचरन् ।
तिष्ठति प्रकृताचारे स वा आर्य इति स्मृतः ।। 
    जो करने योग्य उत्तम कर्म को करता है और न करने योग्य दुष्ट कर्म को नहीं करता है तथा जो श्रेष्ठ आचरण में स्थिर रहता है; वही निश्चय से आर्य माना गया है ।

प्रायः कन्दुकपातेनोत्पतत्यार्यः पतन्त्रपि ।
तथा त्वनार्यः पतति, मृत्पिण्डपतनं यथा ।। (नीतिशतकम् -११७)
    आर्य, पतित होने पर भी गेंद के गिरने के समान तुरन्त ऊपर उठ जाता है-पतन से अपने आप को उबार लेता है । जबकि अनार्य पतित होता है, तो मिट्टी के ढेले के गिरने के समान फिर कभी नहीं उठता-अपना उद्धार नहीं करता ।
 

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