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अथ सुभाषितसंग्रहः ॥ पण्डितः

 


॥ अथ सुभाषितसंग्रहः ॥

पण्डितः

प्राज्ञस्तु जल्पतां पुंसां श्रुत्वा वाचः शुभाशुभाः ।

गुणवद् वाक्यमादत्ते हंसः क्षीरमिवाम्भसः ॥ महाभारतम् - आदिपर्व - ७४ ॥ ६१ ॥

बुद्धिमान् मनुष्यों के शुभ और अशुभ वचनों को सुनकर गुण युक्त वचन ग्रहण कर लेता है जैसे हंस पानी में से दूध को जुदा कर लेता है । 

 

पुरतः कृच्छ्रकालस्य धीमाञ्जार्गात पूरुषः । महाभारतम् - आदिपर्व - २३२।१ 

बुद्धिमान् संकट आने से पहले ही जाग उठता है (चौकन्ना हो जाता है) ।

 

प्राज्ञस्यानन्तरा वृत्तिरिह लोके परत्र च । महाभारतम् - वनपर्व - २०६ ।४३।

बुद्धिमान् की जीविका उसके पास रहती है (उसे जीविका को ढूंढना नहीं होता) इस लोक में भी परलोक में भी ।

 

धर्मज्ञः पण्डितो ज्ञेयः । महाभारतम् - वनपर्व - ३१३।६८

धर्मज्ञ (धर्म जानने वाले को) को बुद्धिमान् समझना चाहिए ।

 

पठकाः पाठकाश्चैव ये चान्ये शास्त्रचिन्तकाः ।

सर्वे व्यसनिनो सूर्खा यः क्रियावान् स पण्डितः ।। महाभारतम् - वनपर्व - ३१३।११० ।।

पढ़ने पढ़ाने वाले, शास्त्रों का विचार करने वाले सभी व्यसनी और मूर्ख हैं । जो पढ़े- सुने पर आचरण करता है वह पण्डित है ।

 

आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षा धर्मनित्यता ।

यमर्थान्नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते । महाभारतम् - उद्योतपर्व - ३३।५।

आत्म-सम्बन्धी शास्त्रीय ज्ञान, शक्ति के अनुसार प्रयत्न, क्षमा और धर्म का नित्य आचरण - ये जिस पुरुष को पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) से नहीं गिराते वह निःसदेह पण्डित है ॥

 

यस्य कृत्यं न जानन्ति मन्त्रं वा मन्त्रितं परे ।

कृतमेवास्य जानन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥ महाभारतम् - उद्योतपर्व - ३३।१८।

जिसके कार्य (जो वह कार्य कर रहा है) को और मित्रों और बन्धुओं के साथ जो मन्त्रण (परामर्श, सलाह) उसे भी कोई दूसरा नहीं जानता, कार्य: समाप्त होने पर ही जानता है उसे पण्डित कहते हैं ।

 

क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति विज्ञाय कार्य भजते न कामात् ।

नासंपृष्टो व्युपयुङ्क्ते परार्थे तत्प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य ॥ महाभारतम् - उद्योतपर्व - ३३।२२॥

जो जल्दी ही समझ जाता है, पर देर तक सुनता है । समझकर, न कि हठ से किसी बात को स्वीकार करता है । पूछे बिना दूसरे के काम में नहीं लगता - यह पण्डित का पहला (मुख्य) लक्षण है ॥

 

निश्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मणः ।

अबन्ध्यकालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते ।। महाभारतम् - उद्योतपर्व - ३३ । २४ ॥

जो निश्चय करके कार्य प्रारम्भ करता है, और बीच में (विघ्न आने पर) ठहरता नहीं, वह समय का सफल प्रयोग करने वाला और मन को वश करने वाला पण्डित कहलाता है ॥

 

न हृष्यत्यात्मसंमाने नावमानेन तप्यते ।

गाङ्गो ह्रद इवाक्षोभ्यो यः स पण्डित उच्यते ॥ महाभारतम् - उद्योतपर्व - ३३।२६।

जो सत्कार होने पर खुशी से फूले नहीं समाता और अनादर होने पर सन्तप्त नहीं होता, जो गङ्गा के हृद (गहरे जल) की तरह हलचल में नहीं आता, वह पण्डित कहलाता है ।

 

प्रवृत्तवाक् चित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान् ।

आशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते ॥ महाभारतम् - उद्योतपर्व - ३३।२८।

जो धाराप्रवाह भाषण कर सकता है, नाना लौकिक वृत्तान्तो को जानता है, जिसे तत्काल स्फूर्ति हो जाती है और जो शीघ्र ही ग्रन्थ के व्याख्यान में समर्थ हो जाता है वह पण्डित कहलाता है ।

 

अपकृत्य बुद्धिमतो दूरस्थोऽस्मीति नाश्वसेत् ।

दीर्घौ बुद्धिमतो बाहू याभ्यां हिसति हिंसितः ॥ महाभारतम् - उद्योतपर्व - ३८।८।

बुद्धिमान् का अपकार करके यह मत समझे कि मैं उस से दूर हूँ । बुद्धिमान् की बाँहें लम्बी होती हैं, जिन से वह उसे हानि पहुँचाने वाले को मार देता है ।

 

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ महाभारतम् - भीष्मपर्व - २९।१८। 

विद्या तथा शिक्षा (संयम) से युक्त ब्राह्मण, गौ, हाथी कुत्ता, और चण्डाल को पण्डित लोग समान दृष्टि से देखते हैं ।

 

दिष्टे न व्यथते बुधः । महाभारतम् - कर्णपर्व - २।२४ ।

अवश्यंभावी विपत्त्यादि में बुद्धिमान् नहीं डिगता ।

 

मुहूर्तमपि तं प्राज्ञः पण्डितं पर्युपास्य हि ।

क्षिप्रं धर्मान् विजानाति जिह्वा सूपरसानिव ।। महाभारतम् - सौप्तिकपर्व - ५।४।

थोड़े समय में ही एक समझदार आदमी पण्डित के निकट ठहर कर अपने कर्तव्यों को ऐसे जान लेता है जैसे जिल्हा (रसना, जबान) शाक आदि के रस को ॥

 

अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं द्रव्यसंचयः ।

आरोग्यं प्रियसंवासो गृध्येदेषु न पण्डितः ॥ महाभारतम् - स्त्रीपर्व -२।२५।

यौवन (जवानी), रूप (सुन्दरता,) आयु, धन-संग्रह, आरोग्य (स्वास्थ्य, रोग रहित होना), प्यारे के साथ निवास - ये सब अनित्य, सदा रहने वाले नहीं हैं) । बुद्धिमान् इन में अधिक लालच न करे ॥

 

भवन्ति सुदुरावर्ता हेतुमन्तोपि पण्डिताः । महाभारतम् - शान्तिपर्व -१६ २३ ।

युक्ति से काम लेने वाले (हैतुक, हेतुवादी) पण्डितों को भी अपने अभिमत (चाहे हुए) मत से हटाकर मतान्तर (दूसरा मत) ग्रहण कराना कठिन होता है ।

 

प्रत्युपस्थितकालस्य सुखस्य परिवर्जनम् ।

अनागतसुखाशा च नैव बुद्धिमतां नयः ॥ महाभारतम् - शान्तिपर्व -१४० । ३६ ।।

वर्तमान में उपस्थित (आये हुए) सुख की उपेक्षा (त्याग) और जो अभी आया नहीं उसकी आशा करना यह बुद्धिमानों की नीति (ढंग) नहीं है ।

 

निषेवते प्रशस्तानि, निन्दितानि न सेवते ।
अनास्तिकः श्रद्दधान एतत्पण्डितलक्षणम् ।।
    जो प्रशंसित कर्मों और पदार्थों का सेवन करता है और निन्दितों का सेवन नहीं करता, जो आस्तिक है और श्रद्धालु है; यही पण्डित का लक्षण है ।

क्रोधो हर्षश्च दर्पश्च, ही: स्तम्भो मान्यमानिता ।
यमर्थान्नापकर्षन्ति, स वै पण्डित उच्यते ।।
    क्रोध, हर्ष, अहङ्कार, लज्जा, जड़ता और अभिमान ये जिस मनुष्य को अपने लक्ष्य से च्युत नहीं कर पाते, वही पण्डित कहलाता है ।

यस्य कृत्यं न जानन्ति, मन्त्रं वा मन्त्रितं परे ।
कृतमेवास्य जानन्ति, स वै पण्डित उच्यते ।।
    जिस मनुष्य के कर्तव्य कर्म को, विचारणीय विमर्श को और जिसकी गुप्त मन्त्रणा को अन्य लोग नहीं जान पाते, अपितु जिसके कर चुके कर्म का ही लोगों को ज्ञान होवे; वही पण्डित कहलाता है ।

यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः ।
समृद्धिरसमृद्धिर्वा, स वै पण्डित उच्यते ।।
    जिसके कर्तव्य को सर्दी, गर्मी, भय, प्रेम, सम्पन्नता अथवा दरिद्रता ये नहीं रोक पाते हैं; वही पण्डित कहलाता है ।

यस्य संसारिणी प्रज्ञा, धर्मार्थावनुवर्त्तते ।
कामादर्थं वृणीते यः, स वै पण्डित उच्यते ।।
    जिसकी सांसारिक व्यवहार वाली बुद्धि भी धर्म और अर्थ का ही अनुसरण करती है और जो काम की अपेक्षा अर्थ का वरण करता है; वही पण्डित कहलाता है ।

यथाशक्ति चिकीर्षन्ति, यथाशक्ति च कुर्वते ।
न किञ्चिदवमन्यन्ते, नराः पण्डितबुद्धयः ।।
    जो अपने सामर्थ्य के अनुसार ही किसी कर्म को करने की इच्छा करते हैं और फिर सामर्थ्यानुसार ही उसे करते हैं तथा जो किसी का अपमान नहीं करते; वे ही मनुष्य पण्डितबुद्धि वाले होते हैं ।

क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति, विज्ञाय चार्थ भजते न कामात् ।
नाऽसम्पृष्टो व्युपयुङ्क्ते परार्थे, तत् प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - ३३.२१-२७)
    जो शीघ्र ही किसी तथ्य को जान लेता है, पर देर तक श्रवण करता है और अभिप्राय को समझने के पश्चात् मनमर्जी उसका अर्थ नहीं लगाता है तथा जो बिना पूछे दूसरे के विषय में व्यर्थ बात नहीं कहता; इस प्रकार का आचरण पण्डित का प्रथम लक्षण है ।

नाऽप्राप्यमभिवाञ्छन्ति, नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम् ।
आपत्सु च न मुह्यन्ति, नराः पण्डितबुद्धयः ।।
    पण्डितबुद्धि वाले लोग अप्राप्तव्य वस्तु की कामना नहीं करते, नष्ट हुई वस्तु पर शोक करना पसन्द नहीं करते और आपत्तियों में घबराते नहीं हैं ।

निश्चित्य यः प्रक्रमते, नान्तर्वसति कर्मणः ।
अवन्ध्यकालो वश्यात्मा, स वै पण्डित उच्यते ।।
    जो पहिले निश्चय करके फिर कर्म का आरम्भ करता है, कर्म के बीच में ही ठहर नहीं जाता, समय को व्यर्थ नहीं गंवाता और जो अपने आपको वश में रखता है; वही पण्डित कहलाता है ।

आर्यकर्मणि रज्यन्ते, भूतिकर्माणि कुर्वते ।
हितं च नाभ्यसूयन्ति, पण्डिता भरतर्षभ ।।
    जो श्रेष्ठ कर्म में रुचि रखते हैं, ऐश्वर्यवर्धक कार्यों का सम्पादन करते हैं और किसी के हितकारक कार्य में दोष नहीं निकालते; हे भरतश्रेष्ठ ! वे ही जन पण्डित है ।

न हृष्यत्यात्मसम्माने, नावमानेन तप्यते ।
गाङ्गो हुद इवाक्षोभ्यो यः स पण्डित उच्यते ।।
    जो अपना सम्मान होने पर अतिप्रसन्न नहीं होता और अपने अपमान से सन्तप्त नहीं होता और गङ्गा की गहरी जलराशि के समान जो चञ्चलता से रहित है; वह पण्डित कहलाता है ।

तत्त्वज्ञः सर्वभूतानां, योगज्ञः सर्वकर्मणाम् ।
उपायज्ञो मनुष्याणां, नरः पण्डित उच्यते ।।
    जो सब जड़चेतन पदार्थों की वास्तविकता को जानने वाला है, जो सब कमों के करने की युक्ति का ज्ञाता है और जो मनुष्यों में उपायों का उत्तम ज्ञाता है; वह मनुष्य पण्डित कहलाता है ।

प्रवृत्तवाक् चित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान् ।
आशु ग्रन्थस्य वक्ता च, यः स पण्डित उच्यते ।।
    (सभा आदि में) जिसकी वाणी अबाधगति वाली है, जो अद्भुत ढंग से कथन करता है तथा जिसकी कही कथाएँ आश्चर्यजनक होती हैं, जो तर्कशाली है, प्रतिभा सम्पन्न है और किसी ग्रन्थ (शास्त्र) का शीघ्र प्रवचन कर सकता है; वह पण्डित कहलाता है ।

श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य, प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा ।
असम्भिन्नार्यमर्यादः, पण्डिताख्यां लभेत सः ।। (महाभारतम्, उद्योगपर्व - -३३.२८-३४)
    जिसकी विद्या बुद्धि के अनुकूल है और बुद्धि विद्या (शास्त्र) के अनुकूल है तथा जो श्रेष्ठ पुरुषों की मर्यादा का उल्लङ्घन नहीं करता वह; 'पण्डित' की पदवी पा सकता है ।

न पण्डितः कुध्यति नाभिपद्यते, न चापि संसीदति न प्रहृष्यति ।
न चार्थकृच्छ्रव्यसनेषु शोचते, स्थितः प्रकृत्या हिमवानिवाऽचलः ।। (महाभा.शा. २२६.१५)
    पण्डित मनुष्य न क्रोध करता है और न अभिमान करता है; न वह अति दुःखी होता है और न अति प्रसन्न होता है । वह आर्थिक कठिनाई में और आपत्तियों में शोक नहीं करता और वह स्वभाव से ही हिमालय के समान अचल और शान्त रहता है ।

प्रस्तावसदृशं वाक्यं, सद्भावसदृशं प्रियम् ।
आत्मशक्तिसमं कोपं, यो जानाति स पण्डितः ।। (हितोपदेशः (सुहृद्भेदः) -५१)
    जो मनुष्य प्रस्ताव के अनुरूप बोलने योग्य वाक्य को, उत्तम भावों के अनुरूप प्रीतिपात्र को और अपने सामर्थ्य के अनुरूप क्रोध की मर्यादा को जानता है; वही पण्डित है ।

मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत् ।
आत्मवत् सर्वभूतेषु, यः पश्यति स पण्डितः ।। (हितोपदेशः (सुहृद्भेदः) -१४)
    जो मनुष्य पराई स्त्रियों में अपनी माता के समान, पराये धन में मिट्टी के ढेले के समान और सब प्राणियों में अपने समान भावना रखता है; वही पण्डित है ।
 

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