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जीवन बहुत सुन्दर है जीना सिखे

जीवन तो बहुत सुन्दर परमात्मा का सबसे सुन्दर और बहुमुल्य उपहार हैइसे हम सब जीना नहीं जानते है। जीवन एक मसिन के समान है इसको जीने के लिए कुछ निश्चित नियम भी है जिस प्रकार एक नाव बनाइ गई है पानी में चलने के लिये उसे हम रेत और पर्वत बन्जर जमीन में जबरजस्ती चलाने का प्रयाश करते है तो मसिन का सब अन्जर पन्जर खराब हो जाते है और मसिन का परखच्चा उड़ जाता है इसी प्रकार यह मानव जीवन है इसको भि यदि हम इसके नियम के बिपरित चलाते है तो इस।जीवन के परखच्चे उड़ जाते है।

ब्रह्मज्ञान की क्या आवश्यकता है ?

शाश्वत सुख एवं शान्ति की चाहना मानव के लिए स्वभाविक है । इस लक्ष्य को पाने के लिए ही वह भौतिक सुखों की मृग तृष्णा का शिकार होता है । जिस तरह से अग्नि में घी डालने पर वह बुझती तो नहीं है , अपितु उसकी लपटें और तेज होती जाती हैं , उसी प्रकार इच्छाओं के भोग से इच्छायें और बढ़ती जाती हैं , कदापि शान्त नही होतीं ।


यह सम्पूर्ण जगत् मोहात्मक है , जो त्रिगुणात्मिका अव्यक्त प्रकृति से प्रगट हुआ है । प्रेम का शुद्ध स्वरूप त्रिगुणातीत होता है । जब इस त्रिगुणात्मक जगत में प्रेम नहीं तो आनन्द भी नहीं, क्योंकि आनन्द का स्वरूप तो प्रेम में ही समाहित होता है । आनन्द के बिना शान्ति की कल्पना भी व्यर्थ है ।


भर्तृहरि का कथन है कि हमने भोगों को नहीं भोगा , बल्कि भोगों ने ही हमें भोग डाला । हमने तप नहीं किया बल्कि त्रिविध तापों ने ही हमे तपा डाला । काल की अवधि नहीं बीती , बल्कि हमारी ही उम्र बीत गई । तृष्णा बूढ़ी नहीं हुई , बल्कि हम ही बूढ़े हो गए । ( वैराग्य शतक ८ )


महर्षि याज्ञवल्क्य अपनी पत्नी मैत्रेयी से कहते हैं कि यदि सम्पूर्ण पृथ्वी को रत्नों से भरकर भी किसी को दे दिया जाए , तो भी उसे शाश्वत शान्ति तथा अमरत्व प्राप्त नहीं हो सकता । इस संसार में अपनी कामना के कारण ही सब कुछ प्रिय होता है । इसलिए एकमात्र परब्रह्म ही देखने योग्य , श्रवण ( ज्ञान ) करने योग्य एवं ध्यान करने योग्य है । उस परब्रह्म को ही जान लेने पर , सुन लेने पर या देख लेने पर सब कुछ ही जाना हुआ हो जाता है । ( बृ. उ. ४/५/३,६ )


इसी प्रकार कठोपनिषद् का भी कथन है कि अपनी आत्मा से जिसने परब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है , एकमात्र उनके ही पास शाश्वत सुख है अन्य के पास नहीं । ( कठो. २/५/१३ )


किन्तु जब तक परब्रह्म के धाम , स्वरूप , लीला एवं निज स्वरूप का उचित बोध न हो , तब तक आत्म साक्षात्कार या ब्रह्म साक्षात्कार की प्रक्रिया सम्पादित नहीं की जा सकती । अतः हमे ब्रह्मज्ञान की शरण में जाना ही पड़ेगा । दर्शन शास्त्र में भी कहा गया है कि जब तक परब्रह्म का शुद्ध ज्ञान नहीं होता , तब तक अखण्ड मुक्ति नहीं होती और अज्ञानता के कारण ही संसार बंधन होता है ।

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