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यजुर्वेद प्रथम अध्याय प्रथम और द्वितीय मंत्रा


   यजुर्वेद के द्वितिय मंत्र में मानव जीवन का सबसे पवित्र कार्य यज्ञ किस प्रकार किया होता इस विषय का उपदेश किया गया है।
    ओ३म् वसोः पवित्रमसि द्यौरसि पृथिव्यसि मातरिश्वनो धर्मोऽसि विश्वाधाऽअसि परमेण धाम्ना दृँहस्व मा ह्वार्मा यज्ञपतिह्वार्षित्।।2।।
    महर्षि स्वामिदयान्नद भाष्यः-
   पदार्थः- हे विद्यायुक्त मनुष्य! तू जो (वसौः) यज्ञ (पवित्रम्) शुद्धि का हेतु (असि) है। (द्यौः) जो विज्ञान के प्रकाश हेतु और सूर्य की किरों में स्थिर होने वाला (असि) है। जो (पृथिवी) वायु के साथ देश देशान्तर में फैलने वाला (असि) है। जो (मातरश्विनः) वायु को (धर्मः) शुद्ध करने वाला (असि) है। जो (विश्वधाः) संसार का धारण करने वाला (असि) है। तथा जो (परमेण) उत्तम (धाम्ना) स्थान से (दृँह्स्व) सुख को बढ़ानेवाला है। इस यज्ञ का (मा) मत (ह्वाः) त्याग कर। तथा (ते) तेरा (यज्ञपतिः) यज्ञ की रक्षा करने वाला यज्ञमान भी उस पवित्र कार्य यज्ञ का (मा) ना (ह्वार्षित) त्याग करें। धात्वर्थ के अभिप्राय से यज्ञ शब्द का अर्थ तिन प्रकार का होता है अर्थात एक जो इस लोक परलोक के सुख के लिए विद्या, ज्ञान और धर्म  के सेवन से बृद्ध अर्थात बड़े-बड़े विद्वान है उनका सत्कार करना। दूसरा अच्छी प्रकार पदार्थों के गुणों का मेल और विरोध के ज्ञान से शिल्पविद्या का प्रत्यक्ष करना और तीसरा नित्य विद्वानों का समागम अथवा शुभ गुण विद्या सुख धर्म और सत्य का नित्य दान करना।
     भावार्थःमनुष्य लोग अपनी विद्या और उत्तम क्रिया से जिस यज्ञ का सेवन करते हैं उससे पवित्रता का प्रकाश, पृथिवी का राज्य, वायु रूपी प्राण के तुल्य राजनिती, प्रताप, सबकी रक्षा, इस लोक और परलोक में सुख की बृद्धि, परस्पर कोमलता से वर्त्तना और कुटिलता का त्याग इत्यादि श्रेष्ठ गुण उत्पन्न होते है इसलिये सब मनुष्यों को परोपकार तथा अपने सुख के लिए विद्धा और पुरुषार्थ के साथ प्रिती पुर्वक यज्ञ का अनुष्ठान नित्य करना चाहिये।
       जैसा कि स्वामी जी कह रहे है इस मंत्र का अर्थ बहुत ही सरल है यज्ञ अर्थात वह सभी कार्य जिससे सम्पूर्ण मानव, जीव, जन्तु, पृथिवी, ब्रह्माण्ड के कल्याण के लिये जो कार्य  किया जाता वह यज्ञ की श्रेणी में आता है। वसो पवित्र मसी अर्थात वह पर्मेश्वर जो हम सब में शुद्ध निर्मल पवित्र भाव से वसा हुआ है और यह श्रृष्टी का सबसे श्रेष्ठ कार्य यज्ञ रूप कर रहा है और वह उपदेश देते हुए कह रहा है कि तुम सब भी इस पवित्र कार्य का कभी त्याग मत करो।  क्योंकि यह यज्ञ रूपी कार्य जो पर्मेश्वर के द्वारा निरंतर हो रहा है यही मुल कारण है पवित्रता और शुद्धता के लिए मानव के साथ सभी प्रकार के जीव, जन्तु पृथिवी अंतरिक्ष और ब्रह्माण्ड के लिए है। यह यज्ञ ही सबसे श्रेष्ठ कार्य है। यहां कहा जा रहा है कि यह यज्ञ रूपी कार्य बहुत ही वैज्ञानिक ढंग से संपादित पर्मेश्वर के द्वारा निरंतर किया जारहा है उदाहरण के लिए सूर्य कि किरणों में यह व्याप्त हो कर जीवन का संचार इस पृथिवी पर कर रहा है यहां अलंकार का उपयोग हो रहा है लौकिक रूप से सूर्य ही सबसे बड़ा जीवन का श्रोत इस पृथिवी पर है और उसकी किरणें इस पृथिवी पर भौतिक रूप से अंधकार को दूर करने वाला है और प्रकाश का विस्तार करके जीवन को शक्तिवान बना रहा है। जो उर्जा का प्रमुख श्रोत है इस पृथिवी के साथ इस पर रहने वाले सभी जल ,थल, वायु में रहने वाले प्राणियों के लिए यह एक वैज्ञानिक रूप से सिद्ध सत्य है। आगे मंत्र कहता है कि वह शुद्ध पवित्र कार्य रूप यज्ञ करने वाला पर्मेश्वर इस सूर्य कि किरणों में व्याप्त है अर्थात सूर्य और उसकी किरणों को सामर्थ उस परमेश्वर के द्वारा मिल रहा है। यह तो एक पक्ष हो गया जो भौतिक वैज्ञानिक पक्ष है इसका एक दैविक और एक आध्यत्मिक पक्ष भी है। दैविक पक्ष यह है कि कुल वैदिक तैतीस देवता माने गये है ग्यारह रुद्र बारह आदित्य आठ वसु दो अश्वनी कुमार माने गये है। यह अश्वनी कुमार सूर्य की दो मुख्य किरणें ही है जिन्हें मित्र और वरुण के रूप में जाना जाता है। एक ठण्डी विद्युत एक गर्म विद्युत या एक सुखी विद्युत प्रणालि जिसका उपयोग बैटरी के रूप में किया जाता है दूसरा गिली विद्युत जिसका उपयोग टारबाईन को चलाने के लिये किया जाता है। इस मंत्र में जो आध्यत्मिक पहलु है वह जैसे बाहर जगत में सूर्य कार्य करता है जो ज्वलनसिल है गर्म है एक .सी. विद्युत रूप ही है जिससे सम्पूर्ण पृथिवी समेत सभी प्राणियों का इस जगत में कार्य होता है। जिससे हर प्रकार का अज्ञान अन्धकार दूर होता है। इसी प्रका से आन्तरिक जगत का कार्य भी हो रहा है और आन्तरिक जगत का सूर्य रूप जीवात्मा है जिसकी किरणें सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हो कर समग्र शरीर में जीवन का संचार करती है और आनंतरिक रुप से शरीर को शक्ती देकर शरीर रूप मसीन को स्वचालित रखता है यह भी एक प्रकार कि विद्युत उर्जा रुप ही है जो ठंडी है डि.सी. रुप है जिसकी क्षमता सिमीत है। हर प्राणी के लिए निश्चित प्राण दिया गया है और उसको उतने ही प्राण उर्जा में अपने जीवन के परम लक्ष्य को उपलब्ध कर लेना है और वह परम लक्ष्य है परम सत्य पर्मेंश्वर रूपी उर्जा का साक्षात्कार करना है। यह जो बाहरी उर्जा है सुर्य की वह भले हि बहुत अधिक लगती है लेकिन यह भी एक मायने में सिमित ही है सूर्य का भी अन्त होना है। क्योंकि यह दोनो दो किनारे उस पर्मेश्वर रूप उर्जा के जबकि पर्मेश्वर इन दोनो के मध्य में तटस्थ है स्थित एक चित सत्तचित्तानन्द रूप है। इस तरह से यह यज्ञ रूप परम उर्जा का प्रमुख श्रोत पर्मेश्वर सबके मध्य में विद्यमान है।
     आगे मंत्र कहता है कि वह वायु को शुद्ध करता है , वायु शरीर के अन्दर भी है और शरीर के बाहर भी है और वायु अन्दर बाहर समान रूप से गति करती है। वायु सूर्य के प्रकाश से शुद्ध होती है, क्योकि वायु जब ठण्डी होती है तो भारी होती है और पृथिवी के सतह पर स्थित हो कर बहती है जब वह गर्म होती है तो वह आकाश में अधिक बिचरण करनें सक्षम होती है। इस तरह से वायु जब सुर्य के प्रकाश के सम्पर्क में आती है तो शुद्ध और हल्की होती है। ठीक इसी प्रकार से अपने अन्दर जब शरीर में मन उर्जावान रहता है विर्य को धारण करता है और वुद्धी को विकसित करता है तो उसको अन्दर प्राण रूप वायु हल्के होते और उची उड़ान भरने में सक्षम होती है। लेकिन जब शरीर में उर्जा की कमी रहती है तो शरीर के अन्दर रहने वाला मन कमजोर रहता है प्राण कमजोर रहते है वह शरीर रूपी पृथिवी से ही चिपके रहते जिकसे कारण वह दुःख ही अनुभव करने मे समर्थ होते है। इसके विपरीत जब उर्जा का भंडार शरीर के अन्दर रहता है तब अन्तर जगत में व्याप्त सूर्य रूप आत्मा का साक्षात्कार करने में मानव सफल होते है और हमेशा मानव उसके सानिध्य में रहता है। जिससे उसे सत्य का ज्ञान होता है और वह सत्य को व्यक्त करने में भी सफल होता है और लोगों के लिए वह एक सूर्य के समान होता है जो लोगों के जीवन में से अज्ञान अंधकार दूर करके हर प्रकार से लोगों को शुद्ध और पवित्र करता है। वह सत्य धर्म क्या है? यह जानता है और वह यह भी जानता है जो विश्वधा है अर्थात जो विश्व को धारण करने वाला है। और उसका परम स्थान भी उसे ज्ञान होता है कि वह उसकी आत्मा में विद्यमान आत्मा का ही शुद्ध रूप है। और वह ही सभी प्रकार के सुख को बढ़ाने का मुल कारण है। इस सत्य ज्ञान रूपी धर्म यज्ञ का जो निरंतर हो रहा है इसका कभी भी त्याग मत किजीये। इसके साथ जो इस शुद्ध और पवित्र कार्य करने वाला तुम्हारा यज्ञमान है अर्थात इस पवित्र यज्ञ को कर के यज्ञ की रक्षा करता है वह भी इसका कभी त्याग ना करें।
       वेद का प्रत्येक मंत्र एक दूसरे से जुणे है जैसा कि पहला मंत्र पर्मेश्वर की भक्ति और श्रद्धा के साथ ज्ञान का अर्जन और यह जानना की हर वस्तु उर्जा से बनी है और उर्जा ही है और इस सब का मुल पर्मेश्वर है यह एक विशेष और सर्व श्रेष्ठ ज्ञान है। इसका अनुभव वैज्ञानिक प्रयोग और उपयोग कर के साक्षात्कार कर के सिद्ध करें, सब से पहले स्वयं का कल्याण फिर अपने परिवार, समाज, गांव, देश, पशु, पक्षी, संसार को लाभ पहुचाने कि बात की है। यह हमारी वुद्धि पर निर्भर करता है कि हम किस प्रकार से उर्जा का प्रयोग करते है। एक भौतिक उर्जा, दूसरा दैविक उर्जा, तीसरा आध्यत्मिक उर्जा इन्ही उर्जाओं के शंश्लेषण से ही समग्र श्रृष्टि का निर्वाण हो रहा है। जैसा कि कहा गया है कि वुद्धि यश्य बलम्तस्य। वुद्धि का प्रयोग करके स्वयं को ताकत वर बना कर और लोगों को भी हर प्रकार से समृद्ध करने में सहायक बनने की बात कि जा रही है। अपने जीवन में मत्रों को अस्थान दिजीये जैसा कि कहा जारहा है इस दूसरे मंत्र में यज्ञ के रुप में पर्मेश्वर के कृत्य को करने के लिये इस जगत में सब कुछ जो भी शुद्ध और पवित्र कार्य है वह यज्ञ ही है। स्वयं को समृद्ध करना भी एक यज्ञ है। परिवार को सुन्दर संस्कार देना उनको अच्छी शिक्षा देना सत्य ज्ञान देना भी यज्ञ है। समाज में सत्य का प्रचार करना ज्ञान का दान देना भी एक यज्ञ ही है। यह सत्य ज्ञान कहां है ईश्वर के सानिदध्य से वेद मंत्रों के स्वाध्य चिन्तन से प्राप्त होगा। इसमें बतायें गये पर्मेंश्वर के विविध प्रकार के शिक्षाओं को ग्रहण करने से सिद्ध होगा। हमारे समाज में बहुत प्रकार के अज्ञान का प्रचार करके बहुत मजबुत दिवारे बना दी गइ है।आदमी-आदमी के मध्य में, जबकी यह सब झुठ असत्य के आधार पर बनाया गया है।  सत्य के नाम पर धर्म के नाम पर और बहुत प्रकार के आडम्बर पूर्ण ऋति, ऋवाज सम्पूर्ण मानवता की हत्या के लिये यह सब किया जा रहा है। क्योंकि सत्य ज्ञान की कमी पहला कारण है, दूसरा कारण लोगों का क्षुद्र स्वार्थ हर कृत्य के पिछे छुपा है।  तिसरा कारण है कि लोग अत्यधिक कमजोर किस्म के मानसिक गुलाम प्रकृति है जो बंधे- बधांये मार्ग का अनुसरण करने में ज्यादा सहज स्वयं पाते है। यह जानते हुए भी कि जो कृत्य वह कर रहें है वहअसत्य है फिर भी अज्ञान पूर्ण कृत्य को निरन्तर बढ़ावा दे रहे है। चौथा कारण आडम्बर पूर्ण दिखावा करके लोकेष्णा, वित्तएषणा, जीजिवेषणा,  पुत्रएषणा आदि इच्छाओं की पुर्ति के लिए एन केन प्रकारेण स्वयं को आर्थिक रूप से समृद्ध करना ही सत्य, ज्ञान ,धर्म का मुल मानते है। पांचावा मुल कारण है कि बड़े-बड़े देश बहुत अधिक धन को खर्च करके अज्ञान, असत्य, अधर्म को ही सत्य सिद्ध करने के लिए समय शक्ति सामर्थ अपनी जनता का सोशण करने में रुची ले रहे है। जिसके कारण ही यह साक्षात नरक रूप शिवाय दुःख के और कुछ दिखाई ही नहीं देता है यहां पर विद्वानों को तभी तो कहते है कि सर्वे विवेकिनः संसार दुःखः।
      रामकृष्ण परमहंस को दक्षिणेश्वर में पुजारी की नौकरी मिली। बीस रुपये वेतन तय किया गया जो उस समय के लिए पर्याप्त था। लेकिन पंद्रह दिन ही बीते थे कि मंदिर कमेटी के सामने उनकी पेशी हो गई और कैफियत देने के लिए कहा गया। दरअसल एक के बाद एक अनेक शिकायतें उनके विरुद्ध कमेटी तक पहुंची थीं। किसी ने कहा कि यह कैसा पुजारी है जो खुद चखकर भगवान को भोग लगाता है। फूल सूंघ कर भगवान के चरणों में अर्पित करता है। पूजा के इस ढंग पर कमेटी के सदस्यों को बहुत आश्चर्य हुआ था। जब रामकृष्ण उनके पास पहुंचे तो एक सदस्य ने पूछा-यह कहां तक सच है कि तुम फूल सूंघ कर देवता पर चढ़ाते हो? रामकृष्ण परमहंस ने सहज भाव से जवाब दिया- मैं बिना सूंघे भगवान पर फूल क्यों चढ़ाऊं? पहले देख लेता हूं कि उस फूल से कुछ सुगंध भी आ रही है या नहीं? फिर दूसरी शिकायत रखी गई- सुनने में आया है कि भगवान को भोग लगाने से पहले खुद अपना भोग लगा लेते हो? रामकृष्ण ने फिर उसी भाव से जवाब दिया- मैं अपना भोग तो नहीं लगाता पर मुझे अपनी मां की याद है कि वे भी ऐसा ही करती थीं। जब कोई चीज बनाती थीं तो चख कर देख लेती थीं और तब मुझे खाने को देती थीं। मैं भी चखकर देखता हूं। पता नहीं जो चीज किसी भक्त ने भोग के लिए लाकर रखी है या मैंने बनाई है वह भगवान को देने योग्य है या नहीं। यह सुनकर कमेटी के सदस्य निरुत्तर हो गए।

    यजुर्वेद प्रथम अध्याय त्रीतिय मंत्रभाष्यः-

   
      म् वसोः पवित्रमसि शतधारं वसोः पवित्रमसि सहस्रधारम्।
      देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रेण शतधारेण सुप्वा कामधुक्षः।। ।।
              यज्ञ कैसे किया जाता है और कैसे सुख देता है इस विसय का उपदेश इस मंत्र में दिया गया है।
    पदार्थः- जो (वसोः) यज्ञ  (शतधारम्) असंख्यात संसार को धारण करने वाला और (पवित्रम्) शुद्धिकरने वाला कर्म(असि)  है तथा जो (वसोः) यज्ञ (सहस्रधारम्) अनेक प्रकार के ब्रह्माण्ड को धारण करने (पवित्रम्) शुद्धि का निमित्त सुख को देने वाला (असि) है (त्वा) उस यज्ञ को (देवः) स्वयं प्रकाशस्वरूप (सबिता) वसु आदि तैतिस देवों कि उत्तपत्ति करने वाला परमेश्वर (पुनातु) पवित्र करे। हे जगदिश्वर!आप हम लोगों से सेवित (वसोः) यज्ञ है उस (पवित्रेण) शुद्धि के निमित्त वेद के विज्ञान (शतधारेण) बहुत विद्यायों का धारण करनेवाले वेद और (सुप्वा) अच्छि प्रकार पवित्र करने वाली यज्ञ से हम लोगों को पवित्र किजीये। हे विद्वान पुरुष अथवा जानने कि इच्छा वाले मनुष्य ! तू (काम्) वेद की श्रेष्ठ वाणियों में से कौन- कौन वाणी के अभिप्राय को (अधृक्ष) अपने मन पूरण करना अथवा चाहता है।
     भावार्थः- जो मनुष्य पूर्वोक्त यज्ञ का सेवन करके पवित्र होते है उन्ही को जगदीश्वर बहुत सा ज्ञान देकर अनेक प्रकार के सुख देता है। परन्तु जो लोग ऐसी क्रियायों को करने वाले वा परोपकारी होते है वे ही सुख को प्राप्त करते हैं आलस्य करने वाले कभी नहीं । इन मंत्र में (कामधुक्षः) इन पदों से वाण के विषय में प्रश्न है।यह यज्ञ एक गम्भिर विषय है जिसका बहुत विस्तार है, और यह एक शुद्धि करने वाला कर्म मानव के लिए अनिवार्य विषय में से एक है। इस यज्ञ के द्वार जो शुद्धि का कारण मानव के द्वारा किया जाने वाला कर्म है इसके द्वारा असंख्यात संसार को धारण किया जाता है अर्थात मानव के अतिरिक्त भी जितनी योनियां है उतने ही संसार भी है। इसके पिछे मानव जीम्मेदार है। जैसा कि मंत्र कह रहा है, कि यह यज्ञ असंख्य संसार के साथ असंख्य प्रकार ब्रह्माण्डों को भी धारण करने वाला है और ब्रह्माण्डों को भी शुद्ध करने का निमित्त कारण के साथ मानव को बहुत प्रकार के सुखों को देने वाला है। इस यज्ञ को स्वयं प्रकाशस्वरूप तैतीस देवो की उत्तपत्ति करने वाले परमेश्वर पवित्र करें। मतलब परमेश्वर के निश्वास बहुत प्रकार की विद्यायों को धारण करने वाले वेद के विज्ञान उसके दिशा निर्देसन में किया जाने वाला यज्ञ ही समग्र संसार और असंख्यात ब्रह्माण्ड के लिये कल्याण कारक सिद्ध होगा। अर्थात वेद में विदित विधिवत मंत्रों के साथ यह यज्ञ जब अच्छि तरह से मानव द्वारा संपादित किया जाता है तब संपूर्ण मानवता के साथ और भी असंख्यात संसार पवित्र होते है। इस मंत्र में ऐसी कामना भी परमेश्वर कि गई है कि वह हमारी इस यज्ञ रूपी पवित्र कर्म को निर्मल, निर्दोष और निस्पाप करें। और मंत्र के अंतिम हिस्से से एक प्रश्न भी करता है कि सम्पूर्ण मानव जाती के विद्वान परुषो में जो विद्वान पुरुष ज्ञान को प्राप्त की शुभाकांक्षा रखते है कि उन्हें यह निश्चित करना होगा कि उन्हें कौन-कौन से विषय का ज्ञान प्राप्त करके उसमें महारत हासिल करना है। इसके पिछे एक सरल कारण है कि मानव का जीवन छोटा है वह हर विषय का ज्ञान एक जीवन में नहीं प्राप्त कर सकता है। उसे एक निश्चित लक्ष्य लेकर जीवन में आगे बढ़ना होगा, क्योकि वेदों में असंख्य विषयों का शुद्ध और मुल ज्ञान भरा है। और यदि  मानव समझदार वुद्धिमान नहीं होगा तो वह गैर जिम्मेदारना रवैया के कारण इन असंख्यात संसार के साथ ब्रह्माण्ड के अन्त का भी कारण बन सकता है। 

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