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अद्भुत रहस्यमय घटनाएं-प्रेतात्मा का प्रतिशोध

 

अद्भुत रहस्यमय घटनाएं-प्रेतात्मा का प्रतिशोध 



अद्भुत रहस्यमय घटनाएं-प्रेतात्मा का प्रतिशोध 

 ब्रिटिश शासन काल के समय एक अंग्रेज डिप्टी कलक्टर मि. क्रिग ने भारत में रहते समय के कुछ संस्मरण प्रकाशित किए हैं। उनमें एक अध्याय भटकती आत्माओं का भी है। जिस घटना का उल्लेख उन्होंने किया है, उसकी भूमिका में लिखा है कि यदि यह मुकदमा मेरे सामने न चला होता तो मैं इस घटना पर कभी विश्वास नहीं करता क्योंकि भूत-प्रेत के अस्तित्व पर इससे पहले मैंने कभी विश्वास किया ही नहीं। उनके द्वारा प्रस्तुत विस्तृत घटनाक्रम का सार संक्षेप इस प्रकार है- 

घटना जनवरी 1937 की है। भारत में उस समय ब्रिटिश शासन था। केंद्रीय सरकार के भारतीय अधिकारी श्री रामास्वामी स्थानांतरित होकर शिमला आए थे। जो बंगला उन्हें रहने के लिए मिला था उसमें प्रथम रात्रि को एक महिला की छाया दिखाई दी, साथ ही घंटों की आवाज सुनाई दी। इस आवाज को सुनते ही श्री रामास्वामी ने भयभीत होकर दूसरे ही दिन वह बंगला छोड़ दिया। 

अद्भुत रहस्यमय घटनाएं-प्रेतात्मा का प्रतिशोध 

श्री रामास्वामी के बंगला छोड़ देने के बाद वह बंगला एक दूसरे मुस्लिम भारतीय अधिकारी को एलाट कर दिया गया। जब यह अधिकारी उस बंगले में रहने गए तो पहले ही दिन ठीक आधी रात के समय एक सफेदपोश महिला दिखाई दी। जहांगीरी घंटों की आवाज उसके आने के साथ बंगले में गूंज उठी। महिला की सिसकियां स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ रही थीं। मुस्लिम अधिकारी उसी समय चीत्कार करते हुए बंगला छोड़कर भागे तथा उक्त आश्चर्यजनक घटना की सूचना पुलिस तथा उच्च अधिकारियों को दी। सूचना के उपरांत एक पुलिस इंस्पेक्टर ने कुछ सिपाहियों के साथ उस बंगले में पड़ाव डाला। रात के ठीक बारह बजे वही सफेदपोश महिला ऊंची एड़ी की चप्पलें पहने दिखाई दी। पुलिस इंस्पेक्टर ने रिवाल्वर से लगातार पांच-छ: गोलियां उस पर चलाईं किंतु उस पर कोई प्रभाव न पडा। पहले सिसकियां तथा फिर ठहाका मारकर हंसने की आवाज तथा बाद में जहांगीरी घंटों की आवाज सुनते ही इंस्पेक्टर के होश-हवाश उड़ गए। पसीने से लथपथ इंस्पेक्टर तथा सिपाही उस बंगले से निकलकर भाग खड़े हुए। इस घटना से शिमला ही नहीं वरन् दिल्ली की केंद्रीय सरकार भी आश्चर्य में पड़ गई। इसकी जांच के लिए उच्च स्तरीय कार्यवाही करने का आदेश जारी किया गया। 

प्रेतात्मा के इस रहस्यमय स्वरूप का मजाक उडाते हए अग्रेजी सरकार न दिल्ली से एक अनुभवी एवं साहसी इंस्पेक्टर श्री आगा के नेतृत्व में एक पुलिस दस्ता घटना की जांच के लिए भेजा। इंस्पेक्टर आगा ने सिपाहियों को बंगले के चारों ओर तैनात कर दिया तथा स्वयं डाइनिंग रूम की एक कुर्सी पर बैठ गए। 

इंस्पेक्टर आगा के कुर्सी पर बैठते ही एक विचित्र बिल्ली उनके पास से उछलकूद मचाती कमरे में ही गायब हो गई। वे भयभीत तो हुए परंतु साहस जुटाकर अपना रिवाल्वर भरकर सचेत होकर बैठ गए। रात के ठीक 12 बजे उसी सफेदपोश महिला की छाया इंस्पेक्टर आगा को दिखाई दी। इंस्पेक्टर आगा ने अपना रिवाल्वर संभाला ही था कि छाया ने कहा-“ठहरिये, आप एक नेक तथा चरित्रवान अधिकारी हैं, मुझ अबला पर बिना किसी कारण क्रोध क्यों करते हैं। वैसे आपका रिवाल्वर मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।” 

यह सुनकर इंस्पेक्टर आगा सहम गए तथा नम्रता से बोले-“आप कौन हैं? क्या अपना परिचय मुझे देंगी?” 

छाया ने कहा- “मैं एक पीड़ित औरत हूं, क्या आप मेरी पीड़ा दूर करने में मदद कर सकेंगे? यदि आप वायदा करते हैं तो मैं आपको एक बहुत बड़ा रहस्य बताऊंगी।” 

इंस्पेक्टर आगा ने तुरंत कहा-“मैं आपसे वायदा करता हूं, मैं आपकी परी मदद करने की कोशिश करूंगा।” 

आश्वासन पाकर छाया ने अपनी दःख भरी कहानी कहना प्रारम्भ की। मै एक पहाड़ी लड़की थी। शादी से पहले का मेरा नाम “आवेरी” था। मेरी मां वेश्या का धंधा करती थी। मेरी सुंदरता को देखकर शिमला के तत्कालीन पादरा मि. आयजिक मेरी ओर आकृष्ट होने लगे। आयजिक तथा मेरी दोस्ती धीरे-धीरे प्यार में बदल गई। मां के विरोध के बावजूद भी मैंने तथा आयजिक ने कोर्ट-मैरिज कर ली। आयजिक को भी अपने माता-पिता का विरोध सहना पड़ा। यह बंगला उस समय आयजिक का ही था तथा हम दोनों इसी में रहते थे। मेरी मां मुझे भी वेश्या के रूप में देखना चाहती थी किंतु मैंने वैसा न करने का संकल्प कर लिया था।” 

इंस्पेक्टर आगा ने पूछा-“फिर आगे क्या हुआ?” 

छाया ने कहा-“कुछ दिनों बाद मैं गर्भवती हो गई तो मेरी मां ने आयजिक से संबंध विच्छेद करने के लिए मुझ पर दबाव डाला क्योंकि उसकी नजर में पैसों का महत्त्व अधिक था तथा मुझे प्रेम महत्त्वपूर्ण जान पड़ा। मैंने मां की बात को नहीं माना। इसी दरमियान आयजिक के पिता का तार आया जिसमें उसे तुरंत बुलाया गया था। आयजिक ने मुझे बताया कि अगर वह नहीं गया तो उसके पिता की लाखों की सम्पत्ति उसके हाथों से निकल जाएगी। मैंने उसे प्रसन्नतापूर्वक विदा किया तथा बंगले में अकेली रहने लगी। लगभग दो महीने बाद आयजिक वापस आया तथा प्रेम प्रदर्शित करते हुए चुंबन लेने के बहाने मेरे गले में रूमाल फंसाकर मेरी हत्या कर दी।” 

इंस्पेक्टर आगा ने आश्चर्यचकित होकर पूछा-“आगे क्या हुआ बताओ?” 

छाया ने कहा-“हां सुनिये, मेरी लाश पीछे वाले कमरे के बीचो-बीच गड़ी है, पलस्तर उखाड़ने पर एक पत्थर के नीचे मेरे शव के अवशिष्ट भाग अब भी मिल जाएंगे। आयजिक का रूमाल तथा जेब का कुछ सामान भी उसी में पड़े मिल जाएंगे। इंस्पेक्टर साहब मैं चाहती हूं कि आयजिक पर मुकदमा चलाकर उसे प्राण-दण्ड दिलाया जाए। इस संबंध में मैं आपकी हर संभव सहायता करूंगी।” इतना कहकर वह छाया गायब हो गई। इंस्पेक्टर आगा ने आवेरी के पूरे कथनों को नोट कर लिया तथा अपने उच्च अधिकारियों को इस घटना से अवगत करवाया। फौरन इस बात की सत्यता का पता लगाने के लिए एक मजिस्ट्रेट के समक्ष उस कमरे की खुदाई की गई। 

एक महिला के शव के साथ एक रूमाल तथा अन्य सामान भी मिला। इतना प्रमाण मिलने पर आयजिक के विरुद्ध हत्या का मुकदमा दायर करा दिया गया। 

मुकदमे में आयजिक के वकील ने कहा-“यदि यह बयान जो इंस्पेक्टर आगा ने नोट किए हैं आवेरी के हैं तो उसमें उसके हस्ताक्षर क्यों नहीं हैं ?” 

इंस्पेक्टर आगा ने समय मांगा तथा दूसरे दिन उसी बंगले में आवेरी की छाया की प्रतीक्षा करने लगा। किंतु छाया समय से पहले ही उस कमरे में उपस्थित थी, उसने गलती स्वीकार करते हुए कहा-“आगा, साहब आप कागज टेबल पर रखें तो हस्ताक्षर किए देती हूं।” 

इंस्पेक्टर आगा ने उसके कहे अनुसार कागज टेबल पर रखा तथा देखता रहा। कागज पर लिखा गया, “मैं बयान देती हूं कि मैंने जो कथन इंस्पेक्टर के समक्ष दिए हैं वे मेरे ही हैं। उक्त बयानों में मेरे ही हस्ताक्षर हैं-हस्ताक्षर “आवेरी”। 

अगले दिन कोर्ट खुलते ही मामला पेश हुआ। वकील तथा जज सभी आश्चर्यचकित थे। ठीक वही हस्ताक्षर जज की फाइल में बंद आवेरी के बयानों में भी पाए गए। 

पुनः बचाव पक्ष के वकील ने प्रश्न किया-“यदि आवेरी हस्ताक्षर कर सकती है तो कोर्ट में आकर बयान दे या कोई ऐसा प्रमाण या सबूत दे जिससे यह विश्वास किया जा सके कि वे हस्ताक्षर आवेरी के ही हैं।” 

समय मांगकर इंस्पेक्टर आगा वापस रात में आवेरी से मिलने गया तथा उसे सारी बात बताई तो आवेरी ने बाम्बे से भेजा गया आयजिक के पिता का तार व कोर्ट मैरिज के कागजात के बारे में बताया तथा उन्हें कहां बंगले में रखा गया है यह भी बताया। आवेरी ने यह भी बताया-“आयजिक के पिता की मृत्यु हो चुकी थी, यह झूठा तथा फर्जी तार आयजिक ने मुझसे पिण्ड छुडाने के लिए मंगवाया था। कोर्ट में पहुंचकर इंस्पेक्टर आगा ने आयजिक के नाम का जाली तार व विवाह के कागजात प्रस्तुत कर दिए। 

आयजिक न तो यह सिद्ध कर सका कि उसने आवेरी को तलाक दिया था न यह बता सका कि वह कहां है। अंतत: आयजिक ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया और उसे फांसी की सजा सुना दी गई। 

प्राणदण्ड के निर्णय के दिन इंस्पेक्टर आगा पुनः उसी बंगले में गए। जब वह उसी कमरे में आवेरी का इंतजार कर रहे थे तो अचानक उन्हें नींद की झपकी आ गई। स्वप्न में आवेरी की छाया ने उन्हें धन्यवाद दिया तथा कहा-“अब मेरी आत्मा को पूर्ण शांति मिल गई है तथा अब इस छाया शरीर से मुक्त हो रही हूं, अतः भविष्य में आप से न मिल सकूँगी। आपने जो कुछ भी मेरे लिए किया है इस अहसान का बदला मैं नहीं चुका सकती, परंतु मेरी यह इच्छा है कि बेडरूम के पीछे वाली खिड़की के नीचे एक बक्सा गड़ा है। उसे आप खोदकर निकाल लें तथा अपनी धर्मपत्नी को मेरी हार्दिक भेंट के रूप में उसे दे दें।” इतना कहकर वह छाया गायब हो गई। 

सुबह होने पर इंस्पेक्टर आगा ने वह स्थान खुदवाया। वास्तव में उस स्थान पर एक बक्सा निकला जिसमें लगभग चालीस हजार रुपये के मूल्य के सोने के आभूषण मिले। इंस्पेक्टर आगा ने पूरी ईमानदारी के साथ बक्से को सरकारी खजाने में जमा करा दिया। परंतु अंग्रेजी सरकार ने इंस्पेक्टर आगा की ईमानदारी तथा सफल प्रयासों के पुरस्कार स्वरूप वह पूरी सम्पत्ति उन्हीं को दे दी। 

पनडुब्बी में प्रेत 

पनडुब्बी में प्रेत 

घटना 21 जनवरी 1918 की है। वह भयावह रात थी। आकाश में पूणिमा का चांद घने काले बादलों में छिप गया था। चारों तरफ सन्नाटा बिखरा हुआ था। कभी थोड़ी देर के लिए चांद बादलों की ओट से निकलता तो दूर-दूर तक फैला शांत समुद्र रोम-रोम सिहरा जाता। 

प्रथम विश्व युद्ध के दिन थे तथा इंग्लिश चैनल में एक जर्मन पनडुब्बी ब्रिटिश जलपोतों की घात में घूम रही थी। उस पूर्णिमा की रात, वह कुछ ही देर हुए समुद्र के भीतर से ऊपर आई। समुद्र सतह का हाल देखने के लिए एक जर्मन पनडुब्बी का अफसर कार्ल इरिखमान डेक पर आया। अचानक उस अफसर की नजर डेक पर खड़े एक व्यक्ति पर पड़ी तथा वह चौंककर सिहर उठा। 

पनडुब्बी तो अभी-अभी ऊपर आई थी, इसलिए डेक पर किसी के पहुंचने का सवाल ही नहीं उठता। फिर डेक पर आने का द्वार तो उसी ने खोला है। तब फिर पनडुब्बी के डेक पर कौन है? उसने चिल्लाकर पूछा-“तुम कौन हो? वहां क्या कर रहे हो?” 

उस व्यक्ति ने मुड़कर अफसर की ओर देखा। चांद के धुंधले प्रकाश में अफसर को उस व्यक्ति का चेहरा जाना-पहचाना लगा। उसने दिमाग पर जोर देकर उसका नाम याद करना चाहा। पल भर बाद उसे नाम याद आया, पर उसके साथ ही उसे लगा, जैसे वह गश खाकर गिर पड़ेगा। डेक पर खड़े उस व्यक्ति का नाम था-“लेफ्टिनेंट फारेस्टेर”। पर वह तो कुछ महीनों पहले एक दुर्घटना में मारा जा चुका था। तो क्या वह जे. फारेस्टेर के प्रेत को देख रहा था। आतंकित तथा किंकर्तव्यविमूढ़ वह अफसर और कुछ कहता या करता, तब तक डेक पर खड़े प्रेत ने उसकी ओर अंगुली से इशारा किया जैसे उस पर आरोप लगा रहा हो, फिर गायब हो गया। 

पनडुब्बी में प्रेत 

जिस (यू-65) पनडुब्बी पर फारेस्टेर का यह प्रेत देखा गया, वह फिर दोबारा यात्रा नहीं कर पाई। हुआ यह था कि जब (यू-65) अपनी प्रथम यात्रा पर निकलने को हुई तो उस पर खाने-पीने के सामान के अतिरिक्त टारपीडो भी लादे गए। जब ये टारपीडो पनडुब्बी से उतारे जा रहे थे तब वे फट पड़े। पनडुब्बी के चालक दल के पांच सदस्य मारे गए। लेफ्टिनेंट फारेस्टेर भी उनमें से एक थे। 

टारपीडो के फटने से पनडब्बी भी क्षतिग्रस्त हई तथा उसे मरम्मत के लिए भेजा गया। युद्ध के दिन थे, अतः पनडुब्बी की जैसे-तैसे मरम्मत कर फिर से उसे सफर लायक बना दिया गया। 

एक दिन अफसर ब्रिकमान तथा सीमैन पेटरसन पनडुब्बी का मुआयना करने पहुंचे तो उन्हें ही सबसे पहले फारेस्टेर का प्रेत दिखाई दिया। सीमैन पेटरसन तो उसे देखकर इतना भयभीत हुआ कि नौकरी छोड़कर ही भाग गया। जल्दी ही यह खबर जंगल की आग की तरह फैल गई कि पनडुब्बी में फारेस्टेर तथा उसके साथ मृत अन्य चार लोगों के प्रेत भी हैं तथा अब उस पर यात्रा करना खतरे से खाली नहीं। 

एक पादरी को बुलवाकर पनडुब्बी को प्रेतबाधा से मुक्त किया गया, परंतु लोगों के मन में फारेस्टेर तथा उसके साथियों के प्रेत का आतंक बना ही रहा तथा बाद की घटनाओं ने यह सिद्ध भी किया कि उसका भय गलत नहीं था। पनडुब्बी के सवार प्रायः सभी लोगों को अकाल मृत्यु का शिकार होना पड़ा था। 

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