परमेश्वर ने दर्शन देने
का वादा किया
किसी गांव
में यशोधन नाम का एक बनिया रहता था। सड़क पर उसकी छोटी सी दुकान थी। वहां रहते उकसे
बहुत काल हो चुका था, इसलिए वहां के सब निवासियों
को भली-भांति जानता था। वह बड़ा सदाचारी, सत्यवक्ता, व्यावहारिक और सुशील था। जो बात कहता, उसे जरूर पूरा करता। कभी धेले भर भी कम न तोलता और न घी-तेल
मिला कर बेचता। चीज अच्छी न होती, तो ग्राहक से साफ-साफ
कह देता, धोखा न देता था।
चौथेपन में वह भगवत्भजन का प्रेमी हो गया था।
उसके और बालक तो पहले ही मर चुके थे, अंत में तीन साल का बालक छोड़कर उसकी स्त्री भी जाती रही। पहले तो यशोधन ने सोचा, इसे ननिहाल भेज दूं, पर फिर उसे बालक से प्रेम हो गया। वह स्वयं उसका पालन करने लगा।
उसके जीवन का आधार अब यही बालक था। इसी के लिए वह रात-दिन काम किया करता था। लेकिन
शायद संतान का सुख उसके भाग्य में लिखा ही न था।
पिल-पिलाकर बीस वर्ष की अवस्था में यह बालक भी
यमलोक को सिधार गया। अब यशोधन के शोक की कोई सीमा न थी। उसका विश्वास हिल गया। सदैव
परमात्मा की निन्दा कर वह कहा करता था कि परमेश्वर बड़ा निर्दयी और अन्यायी है; मारना बू़ढ़े को चाहिए था, मार डाला युवक को। यहां तक कि उसने ठाकुर के मंदिर में जाना
भी छोड़ दिया।
एक दिन उसका पुराना मित्र, जो आठ वर्ष से तीर्थ यात्रा को गया हुआ था, उससे मिलने आया। यशोधन बोला—मित्र देखो, सर्वनाश हो गया।
अब मेरा जीना अकारथ है। मैं नित्य परमात्मा से यही विनती करता हूं कि वह मुझे जल्दी
इस मृत्युलोक से उठा ले, मैं अब किस आशा
पर जीऊं।
मित्र—यशोधन, ऐसा मत कहो। परमेश्वर
की इच्छा को हम नहीं जान सकते। वह जो करता है, ठीक करता है। पुत्र का मर जाना और तुम्हारा जीते रहना विधाता
के वश है, और कोई इसमें क्या कर सकता है! तुम्हारे
शोक का मूल कारण यह है कि तुम अपने सुख में सुख मानते हो। पराए सुख से सुखी नहीं होते।
यशोधन—तो मैं क्या करुं?
मित्र—परमात्मा की निष्काम भक्ति करने से अन्तःकरण शुद्ध होता है।
जब सब काम परमेश्वर को अर्पण करके जीवन व्यतीत करोगे तो तुम्हें परमानंद प्राप्त होगा।
यशोधन—चित्त स्थिर करने का कोई उपाय तो बतलाइए।
मित्र—गीता, भक्तमालादि ग्रन्थों
का श्रवण, पाठन, मनन किया करो। ये ग्रन्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों फलों को देने वाले हैं। इनका पढ़ना आरम्भ कर दो, चित्त को बड़ी शांति प्राप्ति होगी।
यशोधन ने इन ग्रन्थों को पढ़ना आरम्भ किया। थोड़े
ही दिनों में इन पुस्तकों से उसे इतना प्रेम हो गया कि रात को बारह-बारह बजे तक गीता
आदि पढ़ता और उसके उपदेशों पर विचार करता रहता था।
पहले तो वह सोते समय छोटे पुत्र को स्मरण करके
रोया करता था, अब सब भूल गया। सदा परमात्मा में लवलीन
रहकर आनंदपूर्वक अपना जीवन बिताने लगा। पहले इधर-उधर बैठकर हंसी-ठहाका भी कर लिया करता
था, पर अब वह समय व्यर्थ न खोता था। या तो दुकान
का काम करता था या रामायण पढ़ता था। तात्पर्य यह कि उसका जीवन सुधर गया।
एक रात रामायण पढ़ते-पढ़ते उसे ये चौपाइयां मिलीं—
एक पिता के विपुल कुमारा। होइ पृथक गुण शील अचारा॥
कोई पंडित कोइ तापस ज्ञाता। कोई धनवंत शूर कोइ
दाता॥
कोइ सर्वज्ञ धर्मरत कोई। सब पर पितहिं परीति सम
होई॥
अखिल विश्व यह मम उपजाया। सब पर मोहि बराबर दाया॥
यशोधन पुस्तक रखकर मन में विचारने लगा कि जब ईश्वर
सब प्राणियों पर दया करते हैं, तो क्या मुझे सभी
पर दया न करनी चाहिए? तत्पश्चात सुदामा और शबरी
की कथा पढ़कर उसके मन में यह भाव उत्पन्न हुआ कि क्या मुझे भी भगवान के दर्शन हो सकते
हैं!
यह विचारते-विचारते उसकी आंख लग गई। बाहर से किसी
ने पुकारा—यशोधन! बोला—यशोधन! देख, याद रख, मैं कल तुझे दर्शन दूंगा।
यह सुनकर वह दुकान से बाहर निकल आया। वह कौन
था? वह चकित होकर कहने लगा, यह स्वप्न है अथवा जागृति। कुछ पता न चला। वह दुकान के भीतर
जाकर सो गया।
दूसरे दिन प्रातःकाल उठ, पूजा-पाठ कर, दुकान में आ, भोजन बना यशोधन अपने काम-धंधे में लग गया; परंतु उसे रात वाली बात नहीं भूलती थी।
रात्रि को पाला पड़ने के कारण सड़क पर बर्फ के ढेर
लग गए थे। यशोधन अपनी धुन में बैठा था। इतने में बर्फ हटाने को कोई कुली आया। यशोधन
ने समझा कृष्णचन्द्र आते हैं, आंखें खोलकर देखा
कि बूढ़ा बालु बर्फ हटाने आया है, हंसकर कहने लगा—आवे बूढ़ा बालु और मैं समझूं कृष्ण भगवान्, वाह री बुद्धि!
बालु बर्फ हटाने लगा। बूढ़ा आदमी था। शीत के कारण
बर्फ न हटा सका। थक - कर बैठ गया और शीत के मारे कांपने लगा। यशोधन ने सोचा कि बालु
को ठंड लग रही है, इसे आग तपा दूं।
यशोधन—बालु भैया, यहां आओ, तुम्हें ठंड सता रही है। हाथ सेंक लो।
बालु दुकान पर आकर धन्यवाद करके हाथ सेंकने लगा।
यशोधन—भाई, कोई चिंता मत करो।
बर्फ मैं हटा देता हूं। तुम बूढ़े हो, ऐसा न हो कि ठंड खा जाओ।
बालु—तुम क्या किसी की बाट देख रहे थे?
यशोधन—क्या कहूं, कहते हुए लज्जा
आती है। रात मैंने एक ऐसा स्वप्न देखा है कि उसे भूल नहीं सकता। भक्तमाल पढ़ते-पढ़ते
मेरी आंख लग गई। बाहर से किसी ने पुकारा—‘यशोधन!’ मैं उठकर बैठ गया। फिर शब्द हुआ, ‘यशोधन! मैं तुम्हें दर्शन दूंगा!’ बाहर जाकर देखता हूं तो वहां कोई नहीं। मैं भक्तमाल में सुदामा
और शबरी के चरित पॄकर यह जान चुका हूं कि भगवान ने प्रमेवश होकर किस प्रकार साधारण
जीवों को दर्शन दिए हैं। वही अभ्यास बना हुआ है। बैठा कृष्णचन्द्र की राह देख रहा था
कि तुम आ गए।
बालु—जब तुम्हें भगवान से प्रेम है तो अवश्य दर्शन होंगे। तुमने आग
न दी होती, तो मैं मर ही गया था।
यशोधन—वाह भाई बालु, यह बात ही क्या है! इस दुकान को अपना घर समझो। मैं सदैव तुम्हारी सेवा करने को
तैयार हूं।
बालु धन्यवाद करके चल दिया। उसके पीछे दो सिपाही
आये। उनके पीछे एक किसान आया। फिर एक रोटी वाला आया। सब अपनी राह चले गए। फिर एक स्त्री
आयी। वह फटे-पुराने वस्त्र पहने हुए थी। उसकी गोद में एक बालक था। दोनों शीत के मारे
कांप रहे थे।
यशोधन—माई, बाहर ठंड में क्यों
खड़ी हो? बालक को जाड़ा लग रहा है, भीतर आकर कपड़ा ओढ़ लो।
स्त्री भीतर आई।
यशोधन ने उसे चूल्हे के पास बिठाया और बालक को मिठाई दी।
यशोधन—माई, तुम कौन हो?
स्त्री—मैं एक सिपाही की स्त्री हूं। आठ महीने से न जाने कर्मचारियों
ने मेरे पति को कहां भेज दिया है, कुछ पता नहीं लगता।
गर्भवती होने पर मैं एक जगह रसोई का काम करने पर नौकर थी। ज्योंही यह बालक उत्पन्न
हुआ, उन्होंने इस भय से कि दो जीवों को अन्न
देना पड़ेगा, मुझे निकाल दिया। तीन महीने से मारी-मारी
फिरती हूं। कोई टहलनी नहीं रखता। जो कुछ पास था, सब बेचकर खा गई। इधर साहूकारिन के पास जाती हूं। स्यात नौकर
रख ले।
यशोधन—तुम्हारे पास कोई ऊनी वस्त्र नहीं है?
स्त्री—वस्त्र कहां से हो, दाम भी तो पास नहीं।
यशोधन—यह लो लोई, इसे ओढ़ लो।
स्त्री—भगवान तुम्हारा भला करे। तुमने बड़ी दया की। बालक शीत के मारे
मरा जाता था।
यशोधन—मैंने दया कुछ नहीं की। श्री कृष्णचन्द्र की इच्छा ही ऐसी है।
फिर यशोधन ने स्त्री को रात वाला स्वप्न सुनाया।
स्त्री—क्या अचरज है, दर्शन होने कोई असम्भव तो नहीं।
स्त्री के चले जाने पर सेव बेचने वाली आयी। उसके
सिर पर सेवों की टोकरी थी और पीठ पर अनाज की गठरी। टोकरी धरती पर रखकर खम्भे का सहारा
ले वह विश्राम करने लगी कि एक बालक टोकरी में से सेव उठाकर भागा। सेव वाली ने दौड़कर
उसे पकड़ लिया और सिर के बाल खींचकर मारने लगी। बालक बोला—मैंने सेव नहीं उठाया।
यशोधन ने उठकर बालक को छुड़ा दिया।
यशोधन—माई, क्षमा कर, बालक है।
सेव वाली—यह बालक बड़ा उत्पाती है। मैं इसे दंड दिये बिना कभी न छोडूंगी।
यशोधन—माई, जाने दे, दया कर। मैं इसे समझा दूंगा। वह ऐसा काम फिर नहीं करेगा।
बुढ़िया ने बालक को छोड़ दिया। वह भागना चाहता था
कि सूरत ने उसे रोका और कहा—बुढ़िया से अपना
अपराध क्षमा कराओ और प्रतिज्ञा करो कि चोरी नहीं करोगे। मैंने आप तुम्हें सेव उठाते
देखा है। तुमने यह झूठ क्यों कहा?
बालक ने रोकर बुढ़िया से अपना अपराध क्षमा कराया
और प्रतिज्ञा की कि फिर झूठ नहीं बोलूंगा। इस पर यशोधन ने उसे एक सेव मोल ले दिया।
बुढ़िया —वाह-वाह, क्या कहना है!
इस प्रकार तो तुम गांव के समस्त बालकों का सत्यानाश कर डालोगे। यह अच्छी शिक्षा है!
इस तरह तो सब लड़के शेर हो जायेंगे।
यशोधन—माई, यह क्या कहती हो!
बदला और दंड देना तो मनुष्यों का स्वभाव है, परमात्मा का नहीं, वह दयालु है। यदि इस बालक को एक सेव चुराने का कठिन दंड मिलना उचित है, तो हमको हमारे अनन्त पापों का क्या दंड मिलना चाहिए? माई, सुनो, मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं। एक कर्मचारी पर राजा के दस
हजार रुपये आते थे। उसके बहुत विनय करने पर राजा ने वह ऋ़ण छोड़ दिया। उस कर्मचारी की
भी अपने सेवकों से सौ-सौ रुपये पावने थे, वह उन्हें बड़ा कष्ट देने लगा। उन्होंने बहु तेरा कहा कि हमारे पास पैसा नहीं, ऋण कहां से चुकावें? कर्मचारी ने एक न सुनी। वे सब राजा के पास जाकर फरियादी हुए।
राजा ने उसी दम कर्मचारी को कठिन दंड दिया। तात्पर्य यह कि हम जीवों पर दया नहीं करेंगे, तो परमात्मा भी हम पर दया नहीं करेगा।
बुढ़िया —यह सत्य है, परंतु ऐसे बर्ताव
से बालक बिगड़ जाते हैं।
यशोधन—कदापि नहीं। बिगड़ते नहीं, वरन सुधरते हैं।
बुढ़िया टोकरा उठाकर चलने लगी कि उसी बालक ने आकर
विनय की कि माई, यह टोकरा तुम्हारे घर तक मैं पहुंचा
आता हूं।
रात्रि होने पर यशोधन भोजन करने के बाद गीता पाठ
कर रहा था कि उसकी आंख झपकी और उसने यह दृश्य देखा—
‘यशोधन! यशोधन!’
यशोधन—कौन हो?
‘मैं—बालु।’ इतना कहकर बालु हंसता हुआ चला गया।
फिर आवाज आयी—‘मैं हूं।’ यशोधन देखता है
कि दिन वाली स्त्री आई है, बालक को गोद में
लिये, सम्मुख आकर खड़ी हुई, हंसी और लोप हो गई। फिर शब्द सुनाई दिया—‘मैं हूं।’ देखा कि सेव बेचने
वाली और बालक हंसते-हंसते सामने आये और अन्तर्धान हो गए!
यशोधन उठकर बैठ गया। उसे विश्वास हो गया कि कृष्णचन्द्र
के दर्शन हो गए, क्योंकि प्राणिमात्र पर दया करना ही
परमात्मा का दर्शन करना है।
कृष्ण
और पांडव के स्वर्गारोहण की कथा
सृष्टि
के प्रारंभ में मानव एवं सृष्टि उत्पत्ति
अभिज्ञानशाकुन्तल
संक्षिप्त कथावस्तु
महाकविकालिदासप्रणीतम् - अभिज्ञानशाकुन्तलम् `- भूमिका
वैराग्य
संदीपनी गोस्वामितुलसीदासकृत हिंदी
अग्नि
सुक्तम् - अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्
S’rimad
Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK
Chapter
XV-XVI-XVII-XVIII-XIX-XX-XXI-XII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XIII-XIV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XI-XII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter IX-X
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter VII-VIII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter V-VI
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter III-IV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter I-II
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP -16,17,18
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. XV.
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BOOK III. CHAP. XIV.
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BOOK III. CHAP. XIII.
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BOOK III. CHAP. XI.
VISHNU PURANA. - BOOK
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BOOK III. CHAP. VIII
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BOOK III. CHAP. VII.
VISHNU PURANA. - BOOK
III. CHAP. VI
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. V
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP. IV
VISHNU PURANA. -
BOOK III.- CHAP. III
VISHNU PURANA. -
BOOK III.- CHAP. II.
चंद्रकांता
(उपन्यास) पहला अध्याय : देवकीनन्दन खत्री
खूनी औरत का
सात खून (उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी
ब्राह्मण की
बेटी : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)
SELF-SUGGESTION AND
THE NEW HUNA THEORY OF MESMERISM AND HYPNOSIS – chapter-1, BY- MAX FREEDOM LONG
VISHNU PURAN-BOOK I
- CHAPTER 11-22
VISHNU PURANA. -
BOOK I. CHAP. 1. to 10
THE ROLE OF PRAYER.
= THOUGHT: CREATIVE AND EXHAUSTIVE. MEDITATION EXERCISE.
HIGHER REASON AND
JUDGMENT= CONQUEST OF FEAR.
QUEEN CHUNDALAI, THE
GREAT YOGIN
THE POWER OF
DHARANA, DHIYANA, AND SAMYAMA YOGA.
THE POWER OF THE
PRANAYAMA YOGA.
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THE MOTHER OF THE UNIVERSE.
TO THE KUNDALINI—THE
MOTHER OF THE UNIVERSE.
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