कहानि कर्मविर की
कर्मविर
नामी राजपूत राजपूताना की सेना में एक अफसर था। एक दिन उसके माता का पुत्र आया कि मैं
बूढ़ी होती रहीं हूं, मरने से पहले एक बार तुम्हें
देखने की अभिलाषा है, यहां आकर मुझे विदा कर
आशीवार्द लो और क्रिया-कर्म करके आनंदपूर्वक नौकरी पर लौट जाना। तुम्हारे वास्ते मैंने
एक कन्या खोज रखी है, वह बड़ी बुद्धिमती और धनवान
है। यदि तुम्हें भाये तो उससे विवाह करके सुखपूर्वक घर ही पर रहना।
उसने सोचा—ठीक है, माता दिनोंदिन
दुर्बल होती जा रही है, सम्भव है कि फिर
मैं उसके दर्शन न कर सकूं। इस कारण चलना ही ठीक है। कन्या यदि सुंदर हुई तो विवाह करने
में क्या हानि है? वह सेनापति से छुट्टी लेकर, साथियों से विदा हो, चलने को परस्तुत हो गया।
उस समय राजपूतों और मरहठों में युद्ध हो रहा
था। रास्ते में सदैव भय रहता था। यदि कोई राजपूत अपना किला छोड़कर कुछ दूर बाहर निकल
जाता था, तो मरहठे उसे पकड़कर कैद कर लेते थे।
इस कारण यह प्रबन्ध किया गया था कि सप्ताह में दो बार सिपाहियों की एक कम्पनी मुसाफिरों
को एक किले से दूसरे किले तक पहुंचा आया करती थी।
गरमी
की रात थी। दिन निकलते ही किले के नीचे असबाब की गाड़ियां लादकर तैयार हो गईं। सिपाही
बाहर आ गए और सबने सड़क की राह ली। कर्मविर घोड़े पर सवार हो, आगे चल रहा था। सोलह मील का सफर था, गाड़ियां धीरेधीरे चलती थीं। कभी सिपाही ठहर जाते थे, कभी गाड़ी का पहिया निकल जाता था तो कभी कोई घोड़ा अड़ जाता था।
दोपहर हो चुकी थी। रास्ता आधा भी नहीं कटा था।
गरम रेत उड़ रही थी। धूप आग का काम कर रही थी। छाया कहीं नहीं थी। साफ मैदान था। सड़क
पर न कोई वृक्ष, न झाड़ी। कर्मविर आगे था और कभी-कभी
इस कारण ठहर जाता था कि गाड़ियां आकर मिल जायें। मन में विचारने लगा कि आगे क्यों न
चलूं? घोड़ा तेज है, यदि मरहठे धावा करेंगे, तो घोड़ा दौड़ा कर
निकल जाऊंगा। यह सोच ही रहा था कि परमविर बन्दूक हाथ में लिये उसके पास आया और बोला—आओ, आगे चलें। इस समय
बड़ी गरमी है। भूख के मारे व्याकुल हो रहा हूं। सभी कपड़े पसीने में भीग रहे हैं। परमविर
भारी-भरकम आदमी था। उसका मुंह लाल था।
कर्मविर—तुम्हारी बन्दूक भरी हुई है?
परमविर—हां, भरी हुई है।
कर्मविर—अच्छा चलो, पर बिछुड़ न जाना।
यह दोनों चल दिए, बातें करते जाते थे, पर ध्यान दाएं-बाएं था। साफ मैदान होने के कारण दृष्टि चारों
ओर जा सकती थी। आगे चलकर सड़क दो पहाड़ियों के बीच से होकर निकलती थी।
कर्मविर—उस पहाड़ी पर चढ़ कर चारों ओर देख लेना उचित होगा। ऐसा न हो कि
अचानक महरठे कहीं से आकर हमें पकड़ लें।
परमविर—अजी, चले भी चलो।
कर्मविर—नहीं, आप यहां ठहरिए, मैं जाकर देख आता हूं।
कर्मविर ने घोड़ा पहाड़ी की ओर फेर दिया। घोड़ा शिकारी
था, उसे पक्षी की भांति ले उड़ा। वह अभी पहाड़ी
की चोटी पर नहीं पहुंचा था कि सौ कदम आगे तीस मरहठे दिखाई पड़े। कर्मविर लौट पड़ा, परन्तु मरहठों ने उसे देख लिया और बन्दूकें संभालकर घोड़े दौड़ा, उस पर लपके। कर्मविर बेतहाशा नीचे उतरा और परमविर को पुकारकर
कहने लगा—बन्दूकें तैयार रखो और घोड़े से बोला—प्यारे, अब समय है। देखना, ठोकर न खाना नहीं तो झगड़ा समाप्त हो जायगा, एक बार बन्दूक ले लेने दे....फिर मैं किसी के बांधने का नहीं।
उधर परमविर मरहठों को देखकर घोड़े को चाबुक मार, ऐसा भागा कि गरदे में घोड़े की पूंछ ही पूंछ दिखाई दी, और कुछ नहीं।
कर्मविर ने देखा कि बचने की आशा नहीं है, खाली तलवार से क्या बनेगा, वह किले की ओर भाग निकला; परन्तु छह मरहठे उस पर टूट पड़े। कर्मविर का घोड़ा तेज था, पर उनके घोड़े उससे भी तेज थे। तिस पर यह बात हुई कि वे सामने
से आ रहे थे। कर्मविर चाहता था कि घोड़े की बाग मोड़कर उसे दूसरे रास्ते पर डाल दे, परन्तु घोड़ा इतना तेज जा रहा था कि रुक नहीं सका। सीधा मरहठों
से जा टकराया। सजे घोड़े पर सवार बन्दूक उठाए लाल दाढ़ी वाला एक मरहठा दांत निकालता
हुआ उसकी ओर लपका। कर्मविर ने कहा कि मैं इन दुष्टों को भली-भांति जानता हूं। यदि वे
मुझे जीता पकड़ लेंगे तो किसी कन्दरा में फेंककर कोड़े मारा करेंगे, इसलिए या तो आगे निकलो, नहीं तो तलवार से एक दो को ढेर कर दो। मरना अच्छा है, कैद होना ठीक नहीं। कर्मविर और मरहठों में दस हाथ का ही अन्तर
रह गया था कि पीछे से गोली चली। कर्मविर का घोड़ा घायल होकर गिरा और वह भी उसके साथ
ही धरती पर आ गीरा।
कर्मविर उठना चाहता था कि दो मरहठे आकर उसकी मुस्किल
करने लगे। कर्मविर ने धक्का देकर उन्हें दूर गिरा दिया, परन्तु दूसरों ने आकर बन्दूक के कुन्दों से उसे मारना शुरू किया
और वह घायल होकर फिर पृथ्वी पर गिर पड़ा। मरहठों ने उसको कस कर पकड़ लिया, कपड़े फाड़ दिए, रुपया-पैसा सब छीन लिया। कर्मविर ने देखा कि घोड़ा जहां गिरा था, वहीं पड़ा है। एक मरहठे ने पास जाकर जीन उतारनी चाही। घोड़े के
सिर में एक छेद हो गया था। उसमें से काला रक्त बह रहा था। दो हाथ इध-रउधर की धरती कीचड़
हो गई थी। घोड़ा चित्त पड़ा हवा में पैर पटक रहा था। मरहठे ने गले पर तलवार फेंक दी, घोड़ा मर गया। उसने जीन उतार ली।
लाल दाढ़ी वाला मरहठा घोड़े पर सवार हो गया। दूसरों
ने कर्मविर को उसके पीछे बिठाकर उसे उसकी कमर से बांध दिया और जंगल का रास्ता लिया।
कर्मविर का बुरा हाल था। मस्तक फटा था, लहू बहकर आंखों पर जम गया था। कष्ट के मारे कंधा फटा जाता था।
वह हिल नहीं सकता था। उसका सिर बारबार मरहठे की पीठ से टकराता था। मरहठे पहाड़ियों पर
ऊपर-नीचे होते हुए एक नदी पर पहुंचे, उसे पार करके एक घाटी मिली। कर्मविर यह जानना चाहता था कि वे किधर जा रहे हैं।
परन्तु उसके नेत्र बंद थे, वह कुछ न कुछ देख
सका।
शाम होने लगी, मरहठे दूसरी नदी पार करके एक पथरीली पहाड़ी पर चढ़ गए। यहां धुआं
और कुत्तों का भूंकना सुनायी दिया, मानो कोई बस्ती
है। थोड़ी देर चलकर गांव आ गया। मरहठों ने गांव छोड़ दिया, कर्मविर को एक ओर धरती पर बिठा दिया। बालक आकर उस पर पत्थर फेंकने
लगे। परन्तु एक मरहठे ने उन्हें वहां से भगा दिया। लाल दाढ़ी वाले ने एक सेवक को बुलाया, वह दुबला-पतला आदमी फटा हुआ कुरता पहने था। मरहठे ने उससे कुछ
कहा, वह जाकर बेड़ी उठा लाया। मरहठों ने कर्मविर
की मुस्कें खोलकर उसके पांव में बेड़ी डाल दी और उसे कोठरी में कैद करके ताला लगा दिया।
उस रात कर्मविर जरा भी नहीं सोया। गरमी की ऋतु
में रातें छोटी होती हैं, शीघ्र प्रातः काल
हो गया। दीवार में एक झरोखा था, उसी से अन्दर उजाला
आ रहा था। झरोखे के द्वारा कर्मविर ने देखा कि पहाड़ी के नीचे एक सड़क उतरी है, दायीं ओर एक मरहठे का झोंपड़ा है। उसके सामने दो पेड़ हैं। द्वार
पर एक काला कुत्ता बैठा हुआ है। पास एक बकरी और उसके बच्चे पूंछ हिलाते फिर रहे हैं।
एक स्त्री चमकीले रंग की साड़ी पहने पानी की गागर सिर पर धरे हुए एक बालक की उंगली पकड़े
झोंपड़े की ओर आ रही है। वह अन्दर गयी कि लाल दाढ़ी वाला मरहठा रेशमी कपड़े पहने, चांदी के मुट्ठे की तलवार लटकाए हुए बाहर आया और सेवक से कुछ
बात करके चल दिया। फिर दो बालक घोड़ों को पानी पिलाकर लौटते हुए दिखाई पड़े। इतने में
कुछ बालक कोठरी के निकट आकर झरोखे में टहनियां डालने लगे। प्यास के मारे कर्मविर का
कंठ सूखा जाता था। उसने उन्हें पुकारा, परन्तु वे भाग गए।
इतने में किसी ने कोठरी का ताला खोला। लाल दाढ़ी
वाला मरहठा भीतर आया। उसके साथ एक नाटा पुरुष था। उसका सांवला रंग, निर्मल काले नेत्र, गोल कपोल, कतरी हुई महीन
दाढ़ी थी। वह प्रसन्न मुख हंसोड़ था। यह पुरुष लाल दाढ़ी वाले मरहठे से बहुत बिढ़िया
वस्त्र पहने हुए था, सुनहरी गोट लगी हुई नीले
रंग की रेशमी अचकन थी। चांदी के म्यान वाली तलवार, कलाबत्तू का जूता था। लाल दाढ़ी वाला मरहठा कुछ बड़-बड़ाता कर्मविर
को कनखियों से देखता द्वार पर खड़ा रहा। सांवला पुरुष आकर कर्मविर के पास बैठ गया और
आंखें मटकाकर जल्दी-जल्दी अपनी मातृभाषा में कहने लगा—बड़ा अच्छा राजपूत है।
कर्मविर ने एक अक्षर भी न समझा—हां, पानी मांगा। सांवला
पुरुष हंसा, तब धर्म ने होंठ और हाथों के संकेत
से जताया कि मुझे प्यास लगी है। सांवले पुरुष ने पुकारा— सुशीला!
एक छोटीसी कन्या दौड़ती हुई भीतर आयी। तेरह वर्ष
की अवस्था, सावंला रंग, दुबली पतली, नेत्र काले और
रसीले, सुन्दर बदन, नीली साड़ी, गले में स्वर्णहार
पहने हुए। सांवले पुरुष की पुत्री मालूम पड़ती थी। पिता की आज्ञा पाकर वह पानी का एक
लोटा ले आई और कर्मविर को भौंचक्की होकर देखने लगी कि वह कोई वनचर है।
फिर खाली लोटा लेकर सुशीला ने ऐसी छलांग मारी
कि सांवला पुरुष हंस पड़ा। तब पिता के कहने से कुछ रोटी ले आई। इसके पीछे वे सब बाहर
चले गए और कोठरी का ताला बंद कर दिया।
कुछ देर पीछे एक सेवक आकर मराठी में कुछ कहने
लगा। धर्म ने समझा कि कहीं चलने को कहता है। वह उसके पीछे हो लिया, बेड़ी के कारण लंगड़ा कर चलता था। बाहर आकर धर्म ने देखा कि दस
घरों का एक गांव है। एक घर के सामने तीन लड़के तीन घोड़े पकड़े खड़े हैं। सांवला पुरुष
बाहर आया और धर्म को भीतर आने को कहा। धर्म भीतर चला गया, देखो कि मकान स्वच्छ है, गोबरी फिरी हुई है, सामने की दीवार को आगे गद्दा बिछा हुआ है। तकिये लगे हुए हैं।
दायी-बायीं दीवारों पर परदे गिरे हुए हैं। उन पर चांदी के काम की बन्दूकें, पिस्तौलें और तलवारें लटकी हुई हैं। गद्दे पर पांच मरहठे बैठे
हैं। एक सांवला पुरुष दूसरा लाल दाढ़ी वाला और तीन अतिथि—सब भोजन कर रहे हैं।
कर्मविर धरती पर बैठ गया। भोजन से निशिंचत होकर
एक मरहठा बोला—देखो राजपूत, तुम्हें दयाराम ने पकड़ा है, (सांवले पुरुष की ओर उंगली करके) और सम्पतराव के हाथ बेच डाला
है, अतएव अब सम्पतराव तुम्हारा स्वामी है।
कर्मविर कुछ न बोला। सम्पतराव हंसने लगा।
मरहठा—वह यह कहता है कि तुम घर से रुपये मंगवा लो, दण्ड दे देने पर तुमको छोड़ दिया जाएगा।
कर्मविर—कितने रुपये?
मरहठा—तीन हजार।
कर्मविर—मैं तीन हजार नहीं दे सकता।
मरहठा—कितना दे सकते हो?
कर्मविर—पांच सौ।
यह सुनकर मरहठे सिट पिटाए। सम्पतराव दयाराम से
तकरार करने लगा और इतनी जल्दी-जल्दी बोलने लगा कि उसके मुंह से झाग निकल आया। दयाराम
ने आंखें नीची कर लीं थोड़ी देर में मरहठे शांत हुए और फिर मोल-तोल करने लगे। एक मरहठे
ने कहा—पांच सौ रुपये से काम नहीं चल सकता।
दयाराम को सम्पतराव का रुपया देना है। पांच सौ रुपये में तो सम्पतराव ने तुम्हें मोल
ही लिया है, तीन हजार से कम नहीं हो सकता। यदि
रुपया न मंगाओगे तो तुम्हें कोड़े मारे जायेंगे।
धर्म ने सोचा कि जितना डरोगे, यह दुष्ट उतना ही डरायेंगे। वह खड़ा होकर बोला—इस भले मानुस से कह दो कि यदि मुझे कोड़ों का भय दिखायेगा तो
मैं घर वालों को कुछ नहीं लिखूंगा। मैं तुम चाण्डालों से नहीं डरता।
सम्पतराव—अच्छा, एक हजार मंगाओ।
कर्मविर—पांच सौ से एक कौड़ी ज्यादा नहीं। यदि तुम मुझे मार ड़ालोगे तो
इस पांच सौ से भी हाथ धो बैठोगे।
यह सुनकर मरहठे आपस में सलाह करने लगे। इतने
में एक सेवक एक मनुष्य को लिये हुए भीतर आया। यह मनुष्य मोटा था, नंगे पैर, बेड़ी पड़ी हुई।
कर्मविर उसे देखकर चकित हो गया। वे पुरुष परमविर था। सेवक ने परमविर को धर्म के पास
बैठा दिया। वे एक-दूसरे से अपनी बिथा करने लगे। कर्मविर ने अपना वृत्तांत कह सुनाया।
परमविर बोला—मेरा घोड़ा अड़ गया, बन्दूक रंजक चाट गई और सम्पतराव ने मुझे पकड़ लिया।
सम्पतराव—(फिर) अब तुम दोनों एक ही स्वामी के वश में हो। जो पहले रुपया
दे देगा, वही छोड़ दिया जाएगा। (कर्मविर की ओर
देखकर) देखा, तुम कैसे क्रोधी हो और तुम्हारा साथी
कैसा सुशील है। उसने पांच हजार रुपये भेजने को घर लिख दिया है, इस कारण उसका पाल-नपोषण भली-भांति किया जाएगा।
कर्मविर—मेरा साथी जो चाहे सो करे, वह धनवान है, और मैं तो पांच
सौ रुपये से अधिक नहीं दे सकता, चाहे मारो, चाहे छोड़ो।
मरहठे चुप हो गए। सम्पतराव झट से कलमदान उठा लाया।
कागज, कमल, दवात निकाल कर धर्म की पीठ ठोंक, उसे लिखने को कहा। वह पांच सौ रुपये लेने पर राजी हो गया था।
कर्मविर—जरा ठहरो। देखो, हमारा पालन-पोषण भलीभांति करना, हमें एक साथ रखना, जिससे हमारा समय अच्छी तरह कट जाए। बेड़ियां भी निकाल दो।
सम्पतराव—जैसा चाहे वैसा भोजन करो। बेड़ियां नहीं निकाल सकता। शायद तुम
भाग जाओ। हां, रात को निकाल दिया करुंगा।
कर्मविर ने पत्र लिख दिया। परन्तु पता सब झूठ लिखा, क्योंकि मन में निश्चय कर चुका था कि कभी न कभी भाग जाऊंगा।
तब मरहठों ने परमविर और कर्मविर को एक कोठरी में
पहुंचाकर एक लोटा पानी, कुछ बाजरे की रोटियां
देकर ऊपर से ताला बंद कर दिया।
कर्मविर और परमविर को इस प्रकार रहते रहते एक महीना गुजर गया। सम्पतराव उनको देखकर सदैव
हंसता रहता था, पर खाने को बाजरे की अध पकी रोटी के
सिवाय और कुछ न देता था। परमविर उदास रहता और कुछ न करता। दिन भर कोठरी में पड़ा सोया
रहता और दिन गिनता रहता था कि रुपया कब आए कि छूट कर अपने घर पहुंचूं। धर्म तो जानता
था कि रुपया कहां से आना है। जो कुछ घर भेजता था, माता उसी पर निवार्ह करती थी। वह बेचारी पांच सौ रुपये कैसे
भेज सकती है। ईश्वर की दया होगी तो मैं भाग जाऊंगा। वह घात में लगा हुआ था। कभी सीटी
बजाता हुआ गांव का चक्कर लगाता, कभी बैठकर मिट्टी
के खिलौने और टोकरियां बनाता। वह हाथों का चतुर था।
एक दिन उसने एक गुड़िया बनाकर छत पर रख दी। गांव
की स्त्रियां जब पानी भरने आयीं, तो सुशीला ने उनको
बुला कर गुड़िया दिखलायी। वे सब हंसने लगीं। कर्मविर ने गुड़िया सबके आगे कर दी, परन्तु किसी ने नहीं ली। वह उसे बाहर रखकर कोठरी में चला गया
कि देखें क्या होता है। सुशीला गुड़िया उठाकर भाग गई।
अगले दिन धर्म
ने देखा कि सुशीला द्वार पर बैठी गुड़िया के साथ खेल रही है। एक बुढ़ि आयी। उसने गुड़िया
छीनकर तोड़ डाली, सुशीला भाग गयी। कर्मविर ने और गुड़िया
बनाकर सुशीला को दे दी। फल यह हुआ कि वह एक दिन छोटा सा लोटा लायी, भूमि पर रखा और धर्म को दिखाकर भाग गई। धर्म ने देखा तो उसमें
दूध था। अब सुशीला नित्य अच्छे-अच्छे भोजन लाकर धर्म को देने लगी।
एक दिन आंधी आयी। एक घंटा मूसलाधार में बरसा, नदियां-नाले भर गए। बांध पर सात फुट पानी चढ़ आया। जहां-तहां
झरने झरने लगे, धार ऐसी प्रबल थी कि पत्थर लुढक जाते
थे। गांव की गलियों में नदियां बहने लगीं। आंधी थम जाने पर कर्मविर ने सम्पतराव से
चाकू मांगकर एक पहिया बना, उसके दोनों ओर
दो गुड़िया बांधकर पहिए को पानी में छोड़ दिया, वह पानी के बल से चलने लगा। सारा गांव इकट्ठा हो गया और गुड़ियों
को नाचते देखकर तालियां बजाने लगा। सम्पतराव के पास एक पुरानी बिगड़ी हुई घड़ी पड़ी थी।
कर्मविर ने उसे ठीक कर दिया। उसके पीछे और लोग अपने घंटे, पिस्तौल, घड़ियां लालाकर
धर्म से ठीक कराने लगे। इस कारण सम्पतराव ने प्रसन्न होकर कर्मविर को एक चिमटी, एक बरमी और एक रेती दे दी।
एक दिन एक मरहठा रोगी हो गया। सब लोग कर्मविर
के पास आकर दवा-दारू मांगने लगे। धर्म कुछ वैद्य तो था ही नहीं, पर उसने पानी में रेता मिलाकर कुछ मन्त्र सा पढ़ कर कहा कि जाओ, यह पानी रोगी को पिला दो। पानी पिलाने पर रोगी चंगा हो गया।
धर्म के भाग्य अच्छे थे। अब बहुत से मरहठे उसके मित्र बन गए। हां, कुछ लोग अब भी उस पर संदेह करते थे।
दयाराम कर्मविर से चिढ़ता था। जब उसे देखता, मुंह फेर लेता। पहाड़ी के नीचे एक और बूढ़ा रहता था। मंदिर में
आने के समय कर्मविर उसे देखा करता था। यह बूढ़ा नाटा था। जिसकि दाढ़ी-मूंछ बर्फ की
भांति श्वेत, मुंह लाला, उसमें झुर्रियां पड़ी हुईं, नाक नुकीली, नेत्र निर्दयी, दो दाढ़ों के सिवाय सब दांत टूटे हुए। वहीं लकड़ी टेकता, चारों ओर भेड़िए की तरह झांकता हुआ मंदिर में जाने के समय जब
कभी कर्मविर को देख पाता था तो जलकर राख हो जाता और मुंह फेर लेता था।
एक दिन कर्मविर बूढ़े का घर देखने के लिए पहाड़ी
के नीचे उतरा। कुछ दूर जाने पर एक बगीचा मिला। चारों ओर पत्थर की दीवार बनी हुई थी।
बीच में मेवे के वृक्ष लगे हुए थे। वृक्षों में एक झोंपड़ा था। कर्मविर आगे बढ़कर देखना
चाहता था कि उसकी बड़ी लड़की। बूढ़ा चौंका। कमर से पिस्तौल निकालकर उसने कर्मविर पर गोली
चलाई, पर वह दीवार की ओट में हो गया। बूढ़े
को आकर सम्पतराव से कहते सुना कि कर्मविर बड़ा दुष्ट है। सम्पतराव ने धर्म को बुलाकर
पूछा—तुम बूढ़े के घर क्यों गये थे?
कर्मविर बोला—मैंने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा। मैं केवल यह देखने लगा था कि वह
बूढ़ा कहां रहता है। सम्पत ने बूढ़े को शांत करने का बहुत यत्न किया, पर वह बड़-बड़ाता ही रहा। कर्मविर केवल इतना ही समझ सका कि बूढ़ा
यह कह रहा है कि राजपूतों का गांव में रहना अच्छा नहीं, उन्हें मार देना चाहिए। बूढ़ा चल दिया, तो कर्मविर ने सम्पतराव से पूछा कि बूढ़ा कौन है?
सम्पतराव—यह बड़ा आदमी है, इसने बहुत राजपूत मारे हैं। पहले यह बड़ा धनाढ्य था। इसके तीन स्त्रियां और आठ पुत्र
थे। सब एक ही गांव में रहा करते थे। एक दिन राजपूतों ने धावा करके गांव जला दिया। इसके
सात पुत्र तो मर गए, आठवां कैद हो गया। यह
बूढ़ा राजपूतों के पास जाकर और उनके संग रहकर अपने पुत्र की खोज लगाने लगा। अन्त में
उसे पाकर अपने हाथ से उसका वध करके भाग आया। फिर विरक्त होकर तीर्थ-यात्रा को चला गया।
अब यह पहाड़ी के नीचे रहता है। यह बूढ़ा कहता था कि तुम्हें मार डालना उचित है; परंतु मैं तुमको मार नहीं सकता, फिर रुपया कहां से मिलेगा? इसके सिवाय मैं तुम्हें यहां से जाने भी न दूंगा।
इस तरह धर्म यहां एक महीना रहा। दिन को वह इधर-उधर
फिरा करता या कोई चीज़ बनाता, लेकिन रात को वह
दीवार में छेद किया करता। दीवार पत्थर की थी, खोदना सहज नहीं था। लेकिन वह पत्थरों को रेती से काटता था। यहां
तक कि अन्त में उसने अपने निकलने भर को एक छेद बना लिया। बस, अब उसे यह चिन्ता हुई कि रास्ता मालूम हो जाय।
एक दिन सम्पतराव शहर गया हुआ था। कर्मविर
भोजन करके तीसरे पहर रास्ता देखने की इच्छा से सामने वाली पहाड़ी की ओर चल दिया। सम्पतराव
बाहर जाते समय अपने पुत्र से सदैव कह जाया करता था कि कर्मविर को आंखों से परे न होने
देना। इस कारण बालक उसके पीछे दौड़ा और चिल्लाकर कहने लगा—मत जाओ, मेरे पिता की आज्ञा
नहीं है यदि तुम नहीं लौटोगे, तो मैं गांव वालों
को बुला लूंगा।
कर्मविर बालक को फुसलाने लगा—मैं दूर नहीं जाता, केवल उस पहाड़ी पर जाने की इच्छा है। रोगियों के वास्ते मुझे
एक बूटी की जरूरत है, तुम भी साथ चलो। बेड़ी
के होते कैसे भागूंगा? असम्भव है। आओ, कल मैं तुमको तीर-कमान बना दूंगा।
बालक मान गया। पहाड़ी की चोटी कुछ दूर न थी। बेड़ी
के कारण चलना कठिन था, परन्तु ज्यों - त्यों
करके कर्मविर चोटी पर पहुंच कर चारों ओर देखने लगा। दक्षिण दिशा में एक घाटी दिखायी
दी। उसमें घोड़े चल रहे थे। घाटी के नीचे एक गांव था। उससे परे एक ऊंची पहाड़ी थी, फिर एक और पहाड़ी थी। इन पहाड़ियों के बीचों-बीच जंगल था, उससे परे पहाड़ थे, एक से एक ऊंचे। पूर्व और पश्चिम दिशा में भी ऐसी ही पहाड़ियां थीं। कन्दराओं में
से जहां-तहां गांवों का धुआं उठ रहा था। वास्तव में यह मरहठों का देश था। उत्तर की
ओर देखा, तो पैरों तले एक नदी बह रही है और
वहीं गांव है, जिसमें वह रहा करता था। गांव के चारों
ओर बगीचे लगे हुए थे और स्त्रियां नदी पर बैठी वस्त्र धो रही थीं, और ऐसी जान पड़ती थीं मानो गुड़िया बैठी हैं। गांव से परे एक पहाड़ी
थी, परन्तु दक्षिण दिशा वाली पहाड़ी से नीची।
उससे परे दो पहाड़ियां और थीं, उन पर घना जंगल
था। इनके बीच में मैदान था। मैदान के पार बहुत दूर पर कुछ धुआंसा दिखाई दिया। अब कर्मविर
को याद आया कि किले में रहते हुए सूर्य कहां से उदय होता और कहां अस्त हुआ करता था।
उसे निश्चय हो गया कि धुएं का बादल हमारा किला है और उसी मैदान में से जाना होगा।
अंधेरा हो गया। मंदिर का घंटा बजने लगा। पशु
घर लौट आये। कर्मविर भी अपनी कोठरी में आ गया। रात अंधेरी थी। उसने उसी रात भागने का
विचार किया पर दुर्भाग्य से सन्ध्या समय मरहठे घर लौट आये। आज उसके साथ एक मुर्दा था।
मालूम होता था कि कोई मरहठा युद्ध में मारा गया है।
मरहठे उस शव को स्नान कराकर श्वेत वस्त्र लपेट, अर्थि बना ‘राम नाम सत्त’ कहते हुए गांव से बाहर जाकर शमशान भूमि में दाह करके घर लौट
आये। तीन दिन उपवास करने के बाद चौथे दिन बाहर चले गए। सम्पतराव घर ही में रहा। रात
अंधेरी थी, शुक्ल पक्ष अभी लगा ही था।
कर्मविर ने सोचा कि रात को भागना ठीक है। परमविर
से कहा—भाई चरन सुरंग तैयार है। चलो, भाग चलें।
परमविर—(भयभीत होकर) रास्ता तो जानते ही नहीं, भागेंगे कैसे?
कर्मविर—रास्ता मैं जानता हूं।
परमविर—माना कि तुम रास्ता जानते हो, परन्तु एक रात में किले तक नहीं पहुंच सकते।
कर्मविर—यदि किले तक नहीं पहुंच सकेंगे तो रास्ते में कहीं जंगल में
छिपकर दिन काट लेंगे। देखो, मैंने भोजन का
प्रबन्ध भी कर लिया है। यहां पड़े-पड़े सड़ने में क्या लाभ है? यदि घर में रुपया न आया तो क्या बनेगा? राजपूतों ने एक मरहठा मार डाला है। इस कारण यह सब बहुत बिगड़े
हुए हैं। भागना ही उचित है।
परमविर—अच्छा, चलो।
गांव में जब सन्नाटा हो गया, तो कर्मविर सुरंग से बाहर निकल आया। पर परमविर के पैर से एक
पत्थर गिर पड़ा। धमाका हुआ तो सम्पतराव का कुत्ता भूंका, लेकिन कर्मविर ने उसे पहले ही हिला लिया था, उसका शब्द सुनकर वह चुप हो गया।
रात अंधेरी थी। तारे निकले हुए थे। चारों ओर सन्नाटा
था। घाटियां धुन्ध से ढकी हुई थीं। चलते-चलते रास्ते में किसी छत पर से एक बूढ़े के
राम नाम जपने की आवाज सुनाई दी। दोनों दुबक गए। थोड़ी देर में फिर सन्नाटा छा गया, तब वे आगे ब़े।
धुन्ध बहुत छा गई। कर्मविर तारों की ओर देखकर
राह चलने लगा। ठंड के कारण चलना सहज न था, कर्मविर कूदता-फांदता चला जाता था, परमविर पीछे रहने लगा।
परमविर—भाई धर्म, जरा ठहरो, जूतों ने मेरे पैरों में छाले डाल दिए।
कर्मविर—जूते निकालकर फेंक दो, नंगे पैर चलो।
परमविर ने जूते निकाल कर फेंक दिए, पत्थरों ने उसके पांव घायल कर दिए। वह ठहर-ठहर कर चलने लगा।
कर्मविर—देखों चरन, पांव तो फिर चंगे
हो जायेंगे, पर यदि मरहठों ने आ पकड़ा तो फिर समझ
लो कि जान गई।
परमविर चुप होकर पीछे चलने लगा। थोड़ी दूर जाने
पर कर्मविर बोला—हाय, हाय, हम रास्ता भूल
गए, हमें तो बायीं ओर की पहाड़ी पर च़ना चाहिए
था।
परमविर—ठहरो, दम जरा लेने दो।
मेरे पैर घायल हो गए हैं। देखो, रक्त बह रहा है।
कर्मविर—कुछ चिन्ता नहीं, ये सब ठीक हो जायेंगे, तुम चले चलो।
वे लौट कर बायीं ओर की पहाड़ी पर चढ़ गए। आगे जंगल
मिला। झाड़ियों ने उनके सब वस्त्र फाड़ डाले। इतने में कुछ आहट हुई, वे डर गए। समीप जाने पर मालूम हुआ कि बारहसिंगा भागा जा रहा
है।
प्रातः काल होने लगा। किला यहां से अभी सात मील
पर था। मैदान में पहुंच कर परमविर बैठ गया और बोला—मेरे पांव थक गए, मैं अब नहीं चल सकता।
कर्मविर—(क्रोध से) अच्छा तो राम-राम, मैं अकेला ही चलता हूं।
परमविर उठकर साथ हो लिया। तीन मील चलने पर अचानक
सामने से घोड़े की टाप सुनाई दी। वे भागकर जंगल में घुस गए।
कर्मविर ने देखा कि घोड़े पर चढ़ा हुआ एक मरहठा
जा रहा है। जब वह निकल गया तो धर्म बोला कि भगवान ने बड़ी दया की कि उसने हमें नहीं
देखा। चरन भाई, अब चलो।
परमविर—मैं नहीं चल सकता, मुझमें ताकत नहीं।
परमविर मोटा आदमी था, ठंड के मारे उसके पैर अकड़ गए। कर्मविर उसे उठाने लगा, तो परमविर ने चीख मारी।
कर्मविर—हैंहैं! यह क्या, मरहठा तो अभी पास ही जा रहा है, कहीं सुन न ले
अच्छा, यदि तुम नहीं चल सकते हो, तो मेरी पीठ पर बैठ जाओ।
कर्मविर ने परमविर को पीठ पर बिठला कर किले की
राह ली।
कर्मविर—भाई परमविर, सीधी तरह बैठे
रहो, गला क्यों घोंटते हो?
अब उधर की बात सुनिए। मरहठे ने परमविर का शब्द
सुन लिया। उसने गोली चलायी, परन्तु खाली गई।
मरहठा दूसरे साथियों को लेने के लिए घोड़ा दौड़ाकर चल दिया।
कर्मविर—चरन, मालूम होता है
कि उस दुष्ट ने तुम्हारी आवाज सुन ली। वह अपने साथियों को बुलाने गया है। यदि उसके
आने से पहले-पहले हम दूर नहीं निकल जायेंगे, तो समझो कि जान गई। (मन में) यह बोझा मैंने क्यों उठाया, यदि मैं अकेला होता तो अब तक कभी का निकल गया होता।
परमविर—तुम अकेले चले जाओ, मेरे कारण प्राण क्यों खोते हो?
कर्मविर—कदापि नहीं, साथी को छोड़ कर
चल देना धर्म के विरुद्ध है।
कर्मविर फिर परमविर को कन्धे पर लादकर चलने लगा।
आधा मील चलने पर एक झरना मिला। कर्मविर बहुत थक गया था। परमविर को कन्धे से उतार कर
विश्राम करने लगा। पानी पीना ही चाहता था कि पीछे से घोड़ों की टापें सुनाई दीं। दोनों
भागकर झाड़ियों में छिप गए।
मरहठे ठीक वहीं आकर ठहरे, जहां दोनों छिपे हुए थे। उन्होंने सूंघ लेने को कुत्ता छोड़ा।
फिर क्या था, दोनों पकड़े गए। मरहठों ने दोनों को
घोड़ो पर लाद लिया। राह में सम्पतराव मिल गया, अपने कैदियों को पहचाना। तुरन्त उन्हें अपने साथ वाले घोड़ों
पर बैठाया और दिन निकलते निकलते वे सब ग्राम में पहुंच गए।
उसी समय बूढ़ा भी वहां आ गया। सब मरहठे विचार
करने लगे कि क्या किया जाए। बूढ़े ने कहा कि कुछ मत करो, इन दोनों का तुरन्त वध कर दो।
सम्पतराव—मैंने तो उन पर रुपया लगाया है, मार कैसे डालूं?
बूढ़ा—राजपूतों को पालना पाप है। वे तुम्हें सिवाय दुःख के और कुछ
न देंगे, मारकर झगड़ा समाप्त करो।
मरहठे इधर-उधर चले गए। सम्पतराव कर्मविर के पास
आया और बोला—देखो कर्मविर, पन्द्रह दिन के अन्दर यदि रुपया न आया, और तुमने फिर भागने का साहस किया, तो मैं तुम्हें अवश्य मार डालूंगा, इसमें सन्देह नहीं। अब शीघ्र घर वालों को पत्र लिख डालो कि तुरन्त
रुपया भेज दें।
दोनों ने पत्र लिख दिए। फिर वे पहले की भांति
कैद कर दिए गए, परन्तु कोठरी में नहीं, अब की बार छः हाथ चौड़े गड्ढे में बंद किए गए।
अब उन्हें अत्यन्त कष्ट दिया जाने लगा। न बाहर
जा पाते थे, न बेड़ियां निकाली जाती थीं। कुत्तों
के समान अधपकी रोटी, एक लोटे में पानी पहुंचा
दिया जाता था, और कुछ नहीं। गड्ढा में सीला था, उसमें अंधेरा और अति दुरंध थी। परमविर का सारा शरीर सूख गया, कर्मविर मन मलीन, तन छीन रहने लगा। करे तो क्या करे?
धर्म एक दिन बहुत उदास बैठा था कि ऊपर से रोटी
गिरी, देखा तो सुशीला बैठी हुई है।
कर्मविर ने सोचा, क्या सुशीला इस काम में मेरी सहायता कर सकती है। अच्छा, इसके लिए कुछ खिलौने बनाता हूं। कल जब आयेगी, तब इसे देकर फिर बात करुंगा।
दूसरे दिन सुशीला नहीं आयी। कर्मविर के कान में
घोड़ों के टापों की आवाज आयी। कई आदमी घोड़ों पर सवार उधर से निकल गए। वे सब बातें करते
जाते थे। कर्मविर को और तो कुछ न समझ में आया—हां, ‘राजपूत’ शब्द बार-बार सुनायी दिया। इससे उसने अनुमान किया कि राजपूतों
की सेना कहीं निकट आ पहुंची है।
तीसरे दिन सुशीला फिर आयी और दो रोटियां गड्ढे
में फेंक दीं, तब कर्मविर बोला— तू कल क्यों नहीं आयी? देख, मैंने तेरे वास्ते
ये खिलौने बनाये हैं।
सुशीला—खिलौने लेकर क्या करुंगी; मुझे खिलौने नहीं चाहिए। उन्होंने तुम्हें मार डालने का विचार
कल पक्का कर लिया है। सब मरहठे इकट्ठे हुए थे, इसी कारण मैं कल नहीं आ सकी।
कर्मविर—कौन मारना चाहता है?
सुशीला—मेरा पिता। बूढ़े ने यह सलाह दी है कि राजपूतों की सेना निकट
आ गई है, तुम्हें मार डालना ही ठीक है। मुझे
तो यह सुनकर रोना आता है।
कर्मविर—यदि तुम्हें दया आती है, तो एक बांस ला दो।
सुशीला—यह नहीं हो सकता।
कर्मविर—सुशीला, दया कर, मैं हाथ जोड़कर कहता हूं कि एक बांस ला दो।
सुशीला—बांस कैसे लाऊं, वे सब घर पर बैठे हैं, देखे लेंगे। यह
कह कर वह चली गई।
सूर्य अस्त हो गया। तारे चमकने लगे। चांद अभी नहीं
निकला था, मन्दिर का घंटा बजा, बस फिर सन्नाटा हो गया। कर्मविर इस विचार में बैठा था कि सुशीला
बांस लायेगी अथवा नहीं।
अचानक ऊपर से मिट्टी गिरने लगी। देखा तो सामने
की दीवार में बांस लटक रहा है। कर्मविर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने बांस को नीचे खींच लिया।
बाहर आकाश में तारे चमक रहे थे। गड्ढे के किनारे
पर मुंह रखकर धीरे से सुशीला ने कहा—कर्मविर, सिवाय दो के और सब बाहर चले गये हैं।
कर्मविर ने परमविर से कहा—भाई चरन! आओ, एक बार फिर यत्न
कर देखें, हिम्मत न हारो। चलो, मैं तुम्हारी सहायता करने को तैयार हूं।
परमविर—मुझमें तो करवट लेने की शक्ति नहीं, चलना तो एक ओर रहा। मैं नहीं भाग सकता।
कर्मविर—अच्छा, राम-राम, परन्तु मुझे निर्दयी मत समझना।
कर्मविर परमविर से गले मिला, बांस का एक सिरा सुशीला ने पकड़ा, दूसरा सिरा कर्मविर ने। इस भांति वह बाहर निकल आया।
कर्मविर—सुशीला, तुम्हें भगवान
कुशल से रखें। मैं जन्म भर तुम्हारा जस गाऊंगा। अच्छा, जीती रहो, मुझे भूल मत जाना।
कर्मविर ने थोड़ी दूर जाकर पत्थरों से बेड़ी तोड़ने
का बहुत ही यत्न किया, पर वह न टूटी। वह उसे
हाथ में उठा कर चलने लगा। वह चाहता था कि चन्द्रमा उदय होने से पहले जंगल में पहुंच
जाय, परन्तु पहुंच न सका। चन्द्रमा निकल आया, चारों ओर उजाला हो गया, पर सौभाग्य से जंगल में पहुंचने तक राह में कोई न मिला।
कर्मविर फिर बेड़ी तोड़ने लगा, पर सारा यत्न निष्फल हुआ। वह थक गया, हाथ-पांव घायल हो गए। विचारने लगा, अब क्या करुं? बस, चलो, ठहरने का काम नहीं। यदि एक बार बैठ गया, तो फिर उठना कठिन हो जायेगा। माना कि प्रातः काल से पहले किले
में नहीं पहुंच सकता, न सही, दिन-भर जंगल में काट दूंगा, रात आने पर फिर चल दूंगा सहसा पास से दो मरहठे निकले, वह झट झाड़ी में छिप गया।
चांद फीका पड़ गया, सवेरा होने लगा। जंगल पीछे छूट गया, साफ मैदान आ गया। किला दिखाई देने लगा। बायीं ओर देखने पर मालूम
हुआ कि थोड़ी दूर पर कुछ राजपूत सिपाही खड़े हैं। कर्मविर मग्न हो गया और बोला—अब क्या है, परन्तु ऐसा न हो
कि मरहठे पीछे से आ पकड़ें, मैं सिपाहियों
तक न पहुंच सकूं, इस कारण जितना भागा जाए
भागो।
इतने में बायीं ओर दो सौ कदम की दूरी पर कुछ मरहठे
दिखाई दिए। धर्म निराश हो गया, चिल्ला उठा—भाइयो, दौड़ो, दौड़ो! मुझे बचाओ, बचाओ!
राजपूत सिपाहियों ने कर्मविर की पुकार सुन ली।
मरहठे समीप थे, सिपाही दूर थे। वे दौड़े, कर्मविर भी बेड़ी उठाकर ‘भाइयो, भाइयो’ कहता हुआ ऐसा भागा कि झट सिपाहियों से जा मिला, मरहठे डरकर भाग गए।
राजपूत पूछने लगे कि तुम कौन हो और कहां से आये
हो, परन्तु कर्मविर घबराया हुआ ‘भाइयो, भाइयो’ पुकारता चला जाता था। निकट आने पर सिपाहियों ने उसे पहचान लिया।
कर्मविर सारा वृत्तान्त कहकर बोला—भाइयो, इस तरह मैं घर गया और विवाह किया। विधाता की यही लीला थी।
एक महीना पीछे पांच हजार मुद्रा देकर परमविर छूटकर
किले में आया। वह उस समय अधमुए के समान हो रहा था।
कृष्ण
और पांडव के स्वर्गारोहण की कथा
सृष्टि
के प्रारंभ में मानव एवं सृष्टि उत्पत्ति
अभिज्ञानशाकुन्तल
संक्षिप्त कथावस्तु
महाकविकालिदासप्रणीतम् - अभिज्ञानशाकुन्तलम् `- भूमिका
वैराग्य
संदीपनी गोस्वामितुलसीदासकृत हिंदी
अग्नि
सुक्तम् - अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्
S’rimad
Devî Bhâgavatam THE FIRST BOOK
Chapter
XV-XVI-XVII-XVIII-XIX-XX-XXI-XII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XIII-XIV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter XI-XII
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter IX-X
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Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter VII-VIII
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Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter V-VI
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Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter III-IV
S’rimad Devî
Bhâgavatam THE FIRST BOOK Chapter I-II
VISHNU PURANA. -
BOOK III. CHAP -16,17,18
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BOOK III. CHAP. XV.
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BOOK III. CHAP. XIV.
VISHNU PURANA. -
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III. CHAP. VI
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BOOK III. CHAP. V
VISHNU PURANA. -
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VISHNU PURANA. -
BOOK III.- CHAP. III
VISHNU PURANA. -
BOOK III.- CHAP. II.
चंद्रकांता
(उपन्यास) पहला अध्याय : देवकीनन्दन खत्री
खूनी औरत का
सात खून (उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी
ब्राह्मण की
बेटी : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)
SELF-SUGGESTION AND
THE NEW HUNA THEORY OF MESMERISM AND HYPNOSIS – chapter-1, BY- MAX FREEDOM LONG
VISHNU PURAN-BOOK I
- CHAPTER 11-22
VISHNU PURANA. -
BOOK I. CHAP. 1. to 10
THE ROLE OF PRAYER.
= THOUGHT: CREATIVE AND EXHAUSTIVE. MEDITATION EXERCISE.
HIGHER REASON AND
JUDGMENT= CONQUEST OF FEAR.
QUEEN CHUNDALAI, THE
GREAT YOGIN
THE POWER OF
DHARANA, DHIYANA, AND SAMYAMA YOGA.
THE POWER OF THE
PRANAYAMA YOGA.
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TO THE KUNDALINI—THE
MOTHER OF THE UNIVERSE.
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