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महात्मा रैक्व और राजा जानश्रुति (उपनिषद की कथा)

 

महात्मा रैक्व और राजा जानश्रुति

 

 

 

 

    हमारे देश में ऐसे-ऐसे दानी राजा पैदा हो गए हैं, जिनकी कीर्ति आज तक दुनिया में गाई जाती है। वह इतने बड़े परोपकारी और धर्मात्मा थे कि आज उनके कामों पर विश्वास करने वाले लोग भी बहुत कम हैं । राजा होकर भी वह अपने लिए एक पैसे की चीज नहीं रखते थे, अपना सब कुछ दान में दे देते थे । खुद तो पत्तलों में खाते थे और मिट्टी के बरतनों में पानी पीते थे किन्तु उनके यहाँ से माँग कर ले जाने वाले सोने ओर चाँदी के बरतनों में खाते-पीते थे । वह साल में दस-बीस ऐसे यज्ञ कराते थे जिनमें देश के कोने-कोने से ऋषि, मुनि, पुरोहित, सन्यासी, वैरागी, भिक्षुक, अतिथि, अभ्यागत सम्मिलित होते थे और मनमानी दक्षिणा पाकर जीवन भर के लिए धन की चिन्ता से छुट्टी पा जाते थे । प्रजा की छोटी-छोटी जरूरतों की भी वे खबर रखते थे और आजकल के राजाओं की तरह अपने ऐशों-आराम की तनिक भी चिन्ता न कर प्रजा के सुख और सन्तोष की चिन्ता रखते थे । यही सब कारण है कि उस समय के उपकारी राजाओं की कीर्ति-कथाएँ आज तक हमारे समाज सें पाई जाती हैं, जब कि वर्तमान राजाओं का नाम भी बहुत कम लोग जानते हैं।...

 

     प्राचीनकाल में इसी हमारे देश में जानश्रुति नाम का एक ऐसा ही राजा रहता था । वह इतना दयालु और दानी था कि प्रतिदिन सवेरे से लेकर दोपहर तक याचकों को मनमानी दान करता था । उसके राज्य भर में सैकड़ों ऐसे सदाब्रत चलते थे, जिनमें रात-दिन गरीब लोग आ कर भोजन करते थे । नगर-नगर, गाँव-गाँव में गरीबों के खाने पीने का प्रबन्ध तो था ही, पढ़ने लिखने के लिए मुफ्त की पाठशालाएँ थीं, जिनमें बड़े-बड़े विद्वान पंडित लोग पढ़ाते थे। दवा का प्रबन्ध भी राज्य की ओर से प्रत्येक गाँव में मुफ्त होता था। कर के रूप में प्रजा से उतना ही धन लिया जाता था, जितना वह अपनी खुशी से दे देती थी। इसी का यह परिणाम था कि उसके राज्य सें न कोई गरीब था न कोई दुःखी । दूर-दूर से ऋषि-मुनि लोग आ-आकर राजा जानश्रुति को ऊँची विद्या का उपदेश करते थे और वह उनकी अपने हाथों से खुब सेवा करता था। राजधानी में सैकड़ों नौकर-चाकरों के रहने पर भी वह अपने अतिथियों का सारा प्रबन्ध भरसक स्वयं करता था और उनकी प्रत्येक जरूरतों को पूरी करता था ।

 

    सब कुछ होने पर भी राजा जानश्रुति की किसी बात का तनिक भी घमण्ड नहीं था । जब लोग उसकी बड़ाई करते थे तो वह वहाँ से उठ कर किसी काम के बहाने से चल देता था। राजा के समान ही विनयशील, सदाचारी और धर्मात्मा उसके पुत्र भी थे। रानी तो साक्षात लक्ष्मी थी, उसे अपने इस बढ़े भाग्य पर कभी तनिक भी गुमान नहीं होता था। राजमहल में छोटी नौकरानियों से लेकर अपनी सखियों तक उसका एक समान व्यवहार होता था । वह छोटे बड़े सब से इस ढंग से मीठी-मीठी बातें करती मानो संसार के सुख दुख में उसकी पूरी सहानुभूति है । राजा जानश्रुति इस प्रकार मृत्युलोक में भी स्वर्ग का सुख भोग रहा था, उसे अपने जीवन में कभी किसी बात का खटका। नहीं लगा। मंत्री, सेनापति, सिपाही, राजदूत, सभी उसको देवता के समान सच्चे हृदय से इज्जत करते और राज्य की उन्नति में तन-मन से लगे रहते थे।

 

      एक दिन सन्ध्या के समय राजा अपने महल की छत पर उठंग कर कोई पुस्तक पढ़ रहा था । पढ़ते-पढ़ते वह किसी बात के विचार में लग गया और पुस्तक बन्द कर शिर को ऊपर की ओर करके कुछ सोचने लगा । इसी बीच आकाश में उड़ते हुए हंसों की मानव बोली उसे सुनाई पड़ी । राजा ने सुना कि एक छोटी कतार में उड़ने वाले हंसों में सब से पिछला हंस अगले को सम्बोधित कर के कह रहा है कि--- भाई भल्लाक्ष ! नीचे देख रहे हो। राजा जानश्रुति का तेज सूर्य नारायण के तेज के समान हमारी आँखों को चकाचौध कर रहा है। कही भूल से उसके समीप होकर मत उड़ना नहीं तो भस्म हो जाओगे । मुझे तो ऐसा मालूम हो रहा है मानो सूर्य नारायण ही उगे हुए हैं। अपने जीवन में किसी मनुष्य का तेज मैंने इस तरह जलते हुए कभी नहीं देखा है।

 

     अगला हंस भल्लाक्ष कह रहा है--'भाई ! क्यों न हो। राजा जानश्रुति के समान दानी, परोपकारी तथा दयालु दूसरा राजा इस पृथ्वी तल पर कौन है? उसका यह तेज उसके अमित दान,यज्ञ एवं अतिथि- सत्कार का महान फल है । पर मुझे लग रहा है कि तुमने उन गाड़ी खींचने वाले महात्मा रैक्व को अभी तक नहीं देखा है । जहाँ तक तेज के जलने की बात है राजा उन महात्मा से अभी बहुत पीछे है । इसके तेज को तुम देख भी रहे हो, पर रैक्व की ओर भर आंख ताकते ही तुम घड़ी भर तक आँख भी नहीं खोल सकते । मुझे तो उनका तेज सूर्य नारायण से भी अधिक मालूम पड़ता है।

 

यह बाते करते हुए हंसो की कतार कुछ दूर चली गई, पर अभी तक उसकी आवाज राजा के कानों में आ रद्दी थी। पिछला हंस फिर पूछ रहा है--'भाई भल्लाक्ष ! मैंने सचमुच उन गाड़ी वाले महात्मा रैक्व को अभी तक नहीं देखा है। मुझे बतलाओं कि वह किस तरह इतने तेजस्वी हो गए हैं। क्‍या राजा जानुश्रति से बढ़ कर वह दानी और धर्मात्मा हैं? मैं तो नहीं समझ सका कि वह किस तरह राजा के समान दान, यज्ञ और पुण्य कर सकते हैं । क्या इनसे बड़ा राज्य उनका है ?

 

      भल्लाक्ष कह रहा है--'भाई । राजा जानश्रुति के समान उनका राज्य नहीं है, वह तो एक गाड़ी खींचते फिरते हैं, दान यज्ञ करने का साधन उनके पास कहाँ है ! पर कुछ ऐसी चीजें उनके पास हैं जो राजा जानश्रुति के पास नहीं हैं। वह इतने महान ज्ञानी ओर त्यागी महात्मा हैं सारा भूलोक उनका ही है। वह इतने वीतराग और निर्लिप्त हैं कि सारे मानव समाज के उपकारी पुण्य कर्मों का श्रेय अकेले उन्हीं को मिल सकता है, क्योंकि उनके त्याग के भीतर सब कुछ आ जाता है ।

 

     इसके उत्तर में पिछले हंस ने कहा--'भाई भल्लाक्ष ! यह बात हमारी समझ के बाहर है कि सारे मानव समाज के समस्त उपकारीं पुण्य कर्मी का श्रेय उन महात्मा रैक्व को अकेले मिल जाता है! काम करें कोई और श्रेय मिले किसी दूसरे को, यह किस तरह से संभव हो सकता है ? अगर ऐसा हो तो संसार में लोग पुण्य कर्मों का करना ही छोड़ दें।

 

       भल्लाक्ष बहुत दूर तक उड़ गया था, पर राजा कान लगा कर उसकी आवाज सुनता रहा । वह कह रहा था--'भाई । इस विषय में तुम्हें एक दृष्टांन्त बतलाता हूँ । जैसे जुआ खेलने के पासे के निचले तीनों भाग उसी के अन्तर्गत हो जाते हैं, यानी जब जुआरी का पासा दांव पर पड़ता है तब वह तीनों को जीत लेता है, इसी प्रकार इस समय प्रजा जो कुछ भी शुभ कार्य करती है, उन सब का सुफल महात्मा रैक्व के शुभ फलों के अन्तर्गत हो जाता है। प्रजाओं के समस्त शुभ कर्मों का फल उन्हें इसलिए भी मिलता है कि उनका निजी जीवन या शरीर भी अपने लिए नहीं है, समाज के हित के लिए है। ऐसी दशा में समाज का शुभ फल उन्हें क्यों न मिले ! उन महात्मा रैक्व के समान संसार की वस्तुओं के वास्तविक तथ्यों को जो जान लेता है वह भी उन्हीं के समान पूज्य बन जाता है । राजा जानश्रुति की पहुँच अभी उतनी नहीं है वह .. हंसों की कतार उड़ती हुई बहुत दूर चली गई और अब उनकी आवाज का सुनाई पड़ना एकदम बन्द हो गया । इधर राजा जानश्रुति के कानों में पड़कर हंसों की यह बाते हृदय में खलबली पैदा करने लगीं । वह यह जानने के लिए उत्सुक हो गया कि वह महात्मा रैक्व कौन हैं ?

 

      रात भर अपने महल की छत पर वह तारे गिनता रहा, ठीक से नींद नहीं लगी । बार - बार उसके दिमाग में यही विचार चक्कर काटता रहा कि मेरे किए गए पुण्य कर्मों का श्रेय मुझे न मिलकर महात्मा रैक्व को क्‍यों मिलेगा ? क्‍या वह इतने महात्मा हैं कि मेरे किए गए यज्ञ, दान तथा अन्य कर्मों से बढ़कर पुण्य करते हैं! उन्हें देखना चाहिए । पृथ्वी तल पर तो ऐसा कोई महात्मा नहीं बचा है, जो मेरी दी गई सुविधाओं से लाभान्वित न हुआ हो, तो यह रैक्व कहाँ रहे जो अब तक मैं इनका नाम तक नहीं सुन सका ! यह भी हो सकता है कि हंसों को मेरे किए गए पुण्य कर्मों का पूरा-पूरा पता न हो और झूठ मूठ में ही रैक्व की प्रशंसा कते फिरते हों । पर नहीं । हंसो का रैक्व से क्‍या स्वार्थ सधता होगा । वह निःस्वार्थ किसी की प्रशंसा क्यों करेंगे ? अवश्य ही महात्मा रैक्व के गुण प्रशंसनीय होगे । मुझे उनका दर्शन तो जरूर करना चाहिए ॥

 

      रात भर इस प्रकार उधेड़-बुन में पड़े हुए: राजा जानश्रुति को जीवन में पहली बार चिन्ता का सामना करना पड़ा । अब तक कभी स्वप्न में भी उसे इस प्रकार का खयाल नहीं आया था कि मेरे किए गए पुण्य कर्मों का श्रेय कोई दूसरा ही हड़प लेगा । सबेरा हुआ । प्रातःकाल के नित्य कर्मों से निवृत्त होकर राजा ने अपने सारथी को बुलवाया और एकान्त में उससे कहा--सारथी  क्या तुमने महात्मा रैक्‍व का नाम सुना है ? वह शायद एक गाड़ी लिए हुए घूमते फिरते हैं। मैंने भी उनका नाम अभी कल सुना है, पर उनकी इतनी प्रशंसा मैंने सुनी है कि मन मे उन्हें देखने की बडी उत्कंठा जाग पड़ी है । तुम रथ लेकर जाओ और पता लगा कर मुझे शीघ्र बतलाओ। यदि रथ पर आने को वह राजी हों तो साथ ही लिवाते भी आओ! । मगर खयाल रखना, यदि वह न आना चाहें तो जिद भी मत करना । सुनते हैं, उनके समान पुण्यात्मा और तेजस्वी इस संसार में कोई दूसरा पुरुष नहीं है ।

 

          सारथी ने हाथ जोड़ कर कहां--'महाराज । आप ने चाहे जो सुना हो । किन्तु इस संसार में आप से बढ़कर भी काई पुण्यात्मा या तेजस्वी हो सकता है, यह केवल कल्पना की बात है। यह आपकी सरलता है कि आप किसी महात्मा का नाम सुनकर उसके दर्शन के लिए इतने उत्कंठित हो जाते हैं। इस संसार में कौन ऐसा मनुष्य है जो आप के दान के प्रभाव को न जानता है ।

 

       राजा जानश्रुति को सारथी की बातें बहुत पसन्द नहीं आईं । शिर हिलाते हुए, बोला--'सारथी ! तुम नहीं जानते। उन महात्मा रैक्व का ऐसा प्रभाव मैंने सुना है कि संसार में जो कुछ भी पुण्य कर्म किया जाता है उन सब का श्रेय उन्हीं को प्राप्त होता है। वह इतने वीतराग और निर्लिप्त महात्मा है कि उन्हें अपने शरीर का मोह भी नहीं है। मैं ऐसा त्यागी तो नहीं हो सका हूँ । यही कारण है कि मैं उनके पवित्र दर्शन का इतना भूखा हूँ। तुम जाओ और यदि जरूरी समझी तो अपनी सहायता के लिए बन्दियों और मागधों को भी साथ लिवाते जाओ । क्योंकि उन्हें देश का सब हाल मालूम रहता है।

 

      सारथी चुप हो गया। थोड़ी देर बाद हाथ जोड़ कर फिर बोला-- महाराज । आप की आज्ञा है तो मैं उन्हें जहाँ भी पाऊंगा, साथ लिया कर आऊँगा । मुझे वन्दिओं ओर मागधों की कोई आवश्यकता नहीं है। महाराज की कृपा से मुझे सातों द्वीपों में ऐसा कोई नगर अथवा उपनगर नहीं है, जिसकी जानकारी न हो । मैं उन्हें बहुत शीघ्र लिवा लाऊँगा ।

 

   राजा के चरणों पर शीश झुका कर सारथी अपने घर आया और रथ को सुसज्जित कर के देश भर में घूमने लगा । फिर तो नगर - नगर घूम कर उसने देश भर की मुख्य-मुख्य सड़कों से उपनगरो का भी पता लगाया, गलो कूचों में भी छान बीन करवायी, बड़े - बड़े मुहल्लों मंन्दिरों और शिवालयों में भी पता लगवाया, घरों और झोंपडों तक की जानकारी हासिल की, पर कही किसी ने उन गाड़ीवाले महात्मा रैक्व का पता न बताया । वह बहुत परेशान रहा पर कहीं कोई पता नहीं लग सका । फिर तो निराश होकर वह राजधानी को वापस आया, और राजा जानश्रुति के सामने हाथ जोड़ कर बोला--महाराज । मुझे तो सारे पृथ्वी तल पर उन महात्मा रैक्व का कहीं पता भी नहीं लगा । मैंने उनके लिए देश भर के नगरों, गावों, मन्दिरों ओर झोंपडों तक को छान डाला, पर किसी ने उनका नाम भी नहीं बतलाया। मैं तो समझता हूँ कि यह सब झूठी बात है। इतने बड़े महात्मा का नाम भी लोग न जानते हो, यह आश्चर्य है ।

 

     राजा जानश्रुति ने उदास होकर कहा--'सारथी ! मैं मानता हूँ कि तुमने महात्मा के ढूढ़ने में बहुत परिश्रम क्रिया है, पर तुमने मेरी समझ से ठीक काम नहीं किया। रैक्व के समान वीतराग और निःस्पृह महात्मा ऐसी जगहों में क्‍यों रहने लगे, जहाँ भीड़ भाड़ का अंदेशा हो । वह कही एकान्त में पड़े होंगे। पर्वतों की गुफा या नदी के सुन्दर तट पर ही उनका निवास हो सकता है। तुम जाओ, और एक बार फिर उनके ढूढ़ने में परिश्रम करो, मैं चाहता हूँ कि इस बार तुम अपनी सहायता के लिए बन्दियों तथा मागघो को भी साथ लिवाते जाओ ।

 

         सारथी ने हाथ जोंड़ कर कहा--“महाराज । आपकी आज्ञ से मैं फिर उन महात्मा को खोजने जा रहा हूँ। मुझे किसी भीड़ भाड़ की जरूरत नहीं है, मैं अकेले ही उनका पता लगा सकता हूँ । राजा को शिर झुका कर सारथी अबकी बार अकेले ही महात्मा रैक्य को ढुढ़ने के लिए. राजधानी से बाहर निकला । रथ को पर्वत की गुफाओं में या नदियों के तट पर या जंगलों में एक साथ ले जाना कठिन समझ कर उतने राजधानी में ही छोड़ दिया । संयोग की बात, इस वार जैसे ही वह राजधानी के उत्तर तरफ जंगल वाले मार्ग से जा रहा था कि बीच मार्ग में खड़ी हुई एक गाड़ी दिखाई पड़ी, जिसमें न तो बैल थे और न कोई सामान ही रखा हुआ था । गाड़ी के समीप पहुँच कर सारथी ने देखा कि उसके नीचे एक परम तेजस्वी महात्मा बैठे हुए अपने पेट को खुजला रहे है । उनके तेजस्वी ललाट से तेज की किरणों फूट-सी रही हैं । उनके सुन्दर स्वस्थ शरीर पर न तो ठीक से कोई वस्त्र हैं न कोई सजावट । दाढ़ी के बाल वे-तरतीब बढ़े हुए हैं, शिर पर भूरे-भूरे बालों की जटा लता की एक बल्लरी से बाँध दी गई है, पर मुखमण्डल से बादलों में अधखुल्ले चन्द्रमा के समान प्रकाश की किरणों - सी हँस रही हैं । सारथी ने झांक कर देखा तो उसे यह निश्चय हो गया कि गाड़ी वाले महात्मा रैक्व यही हैं । दूर से ही निश्चय बनाकर सारथी उनके पास गाड़ी के नीचे पहुँचा और नम्रता पूर्वक प्रणाम करते हुए दोनों चरणों को छू कर शिर पर लगाया। महात्मा रैक्व का ध्यान सारथी के इस व्यापार से जब तनिक भी विचलित नहीं हुआ तब अपनी ओर ध्यान खींचने के इरादे से उसने विनीत स्वर में कहा--- महाराज । क्या मैं यह मान लूँ कि गाड़ी वाले महात्मा रैक्व आप ही हैं? आपको ढुढ़ने के लिए में कितने दिनों से परेशान हूँ ।

 

     सारथी की विनीत वाणी से रैक्‍व ने अपनी तेजस्वी आँखें उधर फेर दीं, और कहा-- 'हाँ, रैक्व मेरा ही नाम है । इतना कह कर वह फिर पहले को तरह अपना पेट खुजलाते हुए दूसरी ओर ताकने लगे । रैक्व की तेजस्वी आँखों की ओर देख कर सारथी की यह हिम्मत छूट गई कि वह उनसे कुछ और बातचीत आगे बढ़ाये। आज तक उसे इस प्रकार के तेज से जलते हुए मुख मण्डल को देखने का मौका नहीं लगा था। यही नहीं, उसने इस तरह के विचित्र आदमी की कल्पना भी नहीं की थी, जो पूरी बात का उत्तर दिए बिना दूसरी ओर ताकने लगे । कम से कम एक विख्यात राजा के सारथी होने के नाते उसने मनुष्य स्वभाव का जो अनुभव प्राप्त किया था, उसके हिसाब से महात्मा रैक्व उसे एक विचित्र आदमी से दिखाई पड़े । उसकी नजर में अगर वह एक महात्मा-से दिखाई पड़े तो एक पागल से कम भी नहीं थे। संसार से इस तरह निरपेक्ष रह कर कोई कैसे जी सकता है, यह टेढ़ी बात उस दानी राजा के बुद्धिमान मंत्री के मन में नहीं बैठी । वह थोड़ी देर तक चुप रहा, फिर देखा कि जब महात्मा अब उससे कुछ भी बोलना पसन्द नहीं कर रहे हैं तो पैरों को छू कर वह गाड़ी के नीचे से बाहर चला आया और एक विचित्र खुशी में राजधानी के मार्ग पर चल पड़ा ।

 

       महात्मा रैक्व के मिलने का समाचार सारथी द्वारा सुन कर राजा जानश्रुति को अपार खुशी हुईं। अब वह उनके दर्शन की विधिवत्‌ तैयारी में लगे। शुभ मुहूर्त में अपने साथ छः सौ बिआई हुई गोएं, एक बहुमूल्य सोने का हार, जिसमें बीच-बीच में हीरे-मोती जड़े हुए थे, एक सुन्दर रथ, जिसमें बहुत बलवान घोंडे जुते हुए थे, लेकर महात्मा रैक्व के पास पहुँचे । उस समय भी महात्मा रैक्व उसी गाड़ी के नीचे बैठ कर अपने पेट में हुई खाज को खुजला रहे थे। राजा ने रैक्व के पास जाकर आदर सहित प्रणाम करते हुए दोनों चरणों की छुआ और फिर थोड़ी देर तक चुप रह कर विनीत स्वर से हाथ जोड़ कर सुवर्ण की माला को दिखाते हुए कहा--'महात्मन्‌ ! मैं राजा जनश्रुति का पौत्र जानश्रुति हूँ। आपकी सेवा में मैं सामने खड़ी हुई छः सो ब्याई गौएँ, एक सुन्दर रथ तथा यह माला समर्पित करना चाहता हूँ। मेरे राज्य में इतने दिन रहते हो गए कभी आप राजधानी को पवित्र करने की कृपा नहीं की, नहीं तो इस तरह टूटी फूटी गाड़ी को खींचने की आपको क्‍या जरूरत थी ! मेरे राज्य भर में कोई भी महात्मा आप की तरह कठिनाई का जीवन नहीं बिता रहा है, क्षमा कीजिएगा, मुझे आपका पता बिल्कुल ही नहीं था, नहीं तो इतने कष्ट आपको कदापि न सहन करने पड़ते । हे महाराज । मेरी इस भेंट को कृपा कर स्वीकार कीजिए, और आप जिस देवता को उपासना में लगे हुए हैं, उसका उपदेश मुझे भी कीजिए । मैं भी आपका एक छोटा-सा दास हूँ ।

 

    राजा की ओर कुछ क्रुद्ध नेत्रों से आग उगलते हुए के समान महात्मा रैक्व ने गम्भीर स्वर में कहा--'शूद्र । यह गोएँ, यह रथ और यह हार तू अपने ही पास रख । मुझे इनकी बिल्कुल जरूरत नहों है । मेरे लिए तो अपनी यह टूटी-फूटी गाड़ी ही बहुत है।

 

     रैक्व की क्रुद्ध बातें सुन कर दयालु राजा जानश्रुति ने सोचा कि - कदाचित्‌ दक्षिणा में बहुत कमी देख कर ही महात्मा ने मुझे शूद्र कहा है। या तो हंसों की बात सुन कर मैं उनसे दिल में ईर्ष्या करने लगा हूँ, इसलिए: शूद्र कहा है । थोड़े धन पर कहीं उत्तम विद्या की प्राप्ति हो सकती है । सम्भवतः इसी बात पर कि यह थोड़े घन से हमारी परम विद्या को जानना चाहता है महात्मा ने मुझे फटकारा है और मेरी बातों का कोई उत्तर भी नहीं दिया है ।

 

      उधर महात्मा रैक्व जानश्रुति से उक्त बातें कहने के बाद फिर अपना मुख दूसरी ओर घुमा कर बैठ गए और कुछ सोचते हुए पेट की खाज खुजलाने लगे । राजा जानश्रुति को फिर से उन्हें छेड़ने की हिम्मत नहीं हुईं। वह चुपचाप गाड़ी के नीचे से उठ कर बाहर चले आये और नौकरों को सब सामान वापस ले चलने की आज्ञा देकर सारथी के साथ रथ पर सवार होकर राजधानी की ओर चल पड़े । रास्ते में उसे महात्मा रैक्‍व की बातें रह-रह कर तंग करने लगीं । लाखों बातें सोचने पर भी वह यह नहीं जान सका कि 'शूद्र की नई उपाधि उसे आ्राज क्‍यों मिली है १ जिसे सारा संसार आँख की पलकों में रखना चाहता है, पशु-पक्षी तक जिसके यश की बातें कहते फिरते है, उसे 'शूद्र! कहने वाला महात्मा है या कोई पागल । सारथी तो रैक्व की बातों से इतना दुःखी हो गया था कि सारे मार्ग में राजा में कुछ बात-चीत छेड़ने की उसकी हिम्मत ही छूट गईं ।

 

     सायंकाल राजधानी में पहुँच कर राजा जानश्रुत्ति ने वह रात बड़ी बेचैनी से बिताई। दूसरे दिन प्रातःकाल नित्यकर्म से निवृत्त होकर उसने विचार किया कि बिना ज्ञान के अब मेरा शोक दूर नहीं हो सकता । संसार में जितने भी विद्वान या महात्मा हैं, सब मेरी प्रशंसा करते हैं, केवल रैक्‍व ही शूद्र रूप में मुझे जानते हैं । निश्चय ही वह सब से बड़े महात्मा हैं, क्योंकि शूद्र के सिवा किसके मन में ईर्ष्या, द्वेष और शोक रह सकता है। इसलिए उन्हें जिस तरह से भी हो सके, प्रसन्न करके सच्चे ज्ञान की प्राप्ति करना ही अब मेरा धर्म है। मुझे उन महात्मा की कृपा अवश्य मिलनी चाहिए । उनके बिना मेरे इस शोक को दूर करने की शक्ति किसी दूसरे में नहीं है ।

 

        मन में इस तरह का निश्चय पक्का करके राजा जानश्रुति इस बार अपने साथ एक हजार व्याई हुई गोएँ, सोने का दूसरा बहुमूल्य हार, दूसरा सुन्दर रथ तथा अपनी इकलौती कन्या लेकर महात्मा रैक्व की सेवा में उपस्थित हुआ । और सब कुछ चरणों में निवेदन करते हुए विनीत स्वर में बोला--'भगवन्‌ । यह सब्र सामग्री मैं आप को भेंट देने के लिए लाया हूँ । इनकों आप स्वीकार कीजिए । मेरी यह कन्या आप की धर्मपत्नी बनकर रहेगी । जहाँ पर आप बैठे हुए हैं, वह प्रदेश तथा उसके आस-पास के बीस गाँव भी मैं आप ही को अर्पण करता हूँ। आप मेरी तुच्छ भेंट को सप्रेम अंगीकार कीजिए और मुझे उस देव की उपासना का तत्व बतलाइये, जिसकी आराधना में इस तरह संसार से विरक्त होकर लगे हैं । मेरी दृष्टि में संसार में आप से बढ़ कर महात्मा कोई दूसरा नहीं है इसीलिए जिन वस्तुओं को मैं सब से अधिक कीमती तथा प्रिय समझता था, उन्हीं से आप की सेवा कर रहा हूँ। मैं खाली हाथों से आप की सेवा करना नहीं चाहता ।

 

       राजा की इस लंबी बातचीत को सुनकर रैक्व ने अपनी सहज चितवन से सामने खड़ी हुई राजा की गायों, हार, रथ ओर उसकी परम सुन्दरी कन्या पर उड़ती हुई दृष्टि डाली और कुछ रूखे स्वर में कहा - 'शूद्र ! तू खाली हाथों से नहीं खाली हृदय और पाप भरे मन से उपदेश ग्रहण करने आया है। तू मेरे ज्ञान की कीमत आँकने चला है । जिस वस्तु को एक बार मैं ठुकरा चुका उसको कम समझकर उससे अधिक के द्वारा तू हमारे उपदेश को खरीदना चाहता है। जिस ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति तू करना चाहता है वह संसार के साम्राज्य से भी लाखों गुना कीमती है । तेरी यह मृतक गाए, टूटनेवाला रथ, नष्ट होने वाला हार, ओर मरणधर्मा कन्या उसकी एक मात्रा की भी कीमत नहीं चुका सकते । भला बतलाओ तो सही कि इन विनाश होने वाली वस्तुओं के बदले में ब्रह्म के शाश्वत ज्ञान का उपदेश तुझे किस प्रकार मिल सकता है? तेरे समान दानशील और उपकारी राजा को तो मैं इतना मूर्ख नहीं समझता था । तू तो पूरा पशु निकला । तुम्हारी जगह पर यदि कोई दूसरा राजा होता तो मैं उसे शाप देकर भस्म कर देता । पर मुझे मालूम है कि तू हृदय से पापी नहीं है ।

 

      रैक्व की मृदंग के समान गम्भीर स्वर में गूंजनेवाली उक्त बातों को सुनकर और सात्विक क्रोध से प्रदीप्त उनके मुख मंडल को देख कर राजा जानश्रुति विचलित हो गए । उनका धैर्य छूट गया। भय के कारण उनके ललाट पर पसीने की धारा फूट पड़ी। कण्ठ सूख गया ओर आगे बोलने की हिम्मत छूट गई । जीवन में इस अनहोनी घटना का उन्हें स्वप्न में भी कभी ज्ञान नहीं हुआ था। महत्त्व के ऊंचे शिखर पर में गिर कर वह पाताल के गत में डुबने लगे। अन्त में निरुपाय हो कर वह महात्मा रैक्व के चरणों पर गिर पड़े और गिड़गिड़ाते हुए बोले--'भगवन्‌ ! आप सर्वान्तर्यामी हैँ । इस चराचर संसार में कोई भी वस्तु आप से छिपी नहीं है । किसी पाप-भावना से परे, प्रेरित होकर मैं ने यह अपराध नहीं किया है। मुझे हृदय से क्षमा कीजिए और जिस उपाय से मेरा मानसिक शोक दूर हो, मेरी अविद्या का काला परदा सदा के लिए नष्ट हो जाये, वह उपाय कीजिए । मैं अब तक कितने अज्ञान में था, इसे आज ही जान सका हूँ ।

 

      राजा को विनीत और करुणा से भरी वाणी को सुनकर महात्मा रैक्व के ज्ञान-विदग्घ हृदय में दया का अंकुर फूट पड़ा। थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद वह बोले--राजन! जो कुछ मैं जानता हूँ, या जिस देवता की उपासना में मैं लीन रहता हूँ, यदि उन सब बातों को तू जानना चाहता है तो इन गायों के साथ रथ और हार को राजधाज़ी में वापस कर दे । केवल तुम्हारी सुन्दरी कन्या का वरण में करूंगा । इन तुच्छु और नश्वर वस्तुओं के दाम पर तू मुझे नहीं खरीद सकता । उसके लिए तो तुझे अपना सर्वस्व अर्पण करना पड़ेंगा। जब तक तू अपने को खुद नहीं अर्पण कर देता तब तक तेरा अज्ञान नहीं मिट सकता । अपने आप को अलग करके तथा पराई वस्तुओं पर अपना अधिकार करके जब तक दान का पाखंड तू करता रहेगा, तब तक तुम्हारे हृदय से अज्ञान की कालिमा दूर नहीं होगी, और उस काले अपवित्र हृदय में ज्ञान का अंकुर नहीं फूट सकेगा । मनुष्य के हृदय से जब तक अपने धन अपने अधिकार और अपनी लालसाओं की सूक्ष्म भावना दूर नहीं हो जाती तब तक वह सच्चे ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी नहीं होता । उस काले पापी हृदय में भगवान्‌ की निवास नहीं हो सकता, क्योंकि तुम तो जानते हो कि वह क्षीरसागर अर्थात्‌ दूध के समुद्र में निवास करने वाले हैं । जब तक मनुष्य का शुद्ध हृदय दूध के समान निर्मल नहीं हो जाता तब तक उस क्षीर समुद्र शायी भगवान्‌ का निवास क्‍यों कर हो सकता है ! राजन । जो लोग अपने आप को बचाकर तेरी तरह केवल अपने अधिकारों की समर्पण करते रहते हैं वे भगवान को पाने का स्वप्न बेकार में देखते हैं। महात्मा रैक्व की ज्ञान से भरी उक्त बाते सुनकर राजा जानश्रुति भीतरी नेत्र खुल गए, वह फिर से उनके चरणों पर गिर पड़े और देर तक अपने अज्ञानमय जीवन की बाते सोच-सोचकर आँसू बहाते रहे ।

 

     फिर थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद उन्होंने सारथी को गोएँ, रथ और हार कन्या को राजधानी पहुँचाने का इशारा देकर महात्मा रैक्व हाथ जोड़कर कहा--'भगवन्‌ । मैं कितने अज्ञान में था। मेरे जीवन के कितने अमूल्य दिन यूं ही बेकार में बीत गए । मैं जिसे सुवर्ण समझता था वह एक दम मिट्टी से भी बेकार ठहरा । आज मेरे हृदय के सच्चे दिन उदय हुए हैं। मैं आज से आप की शिष्यता अंगीकार कर रहा हूँ । महात्मा रैक्व ने जानश्रुति को ब्रह्मज्ञान का ऊंचा अधिकारी समझा और उसे विधिवत्‌ ब्रह्म ज्ञान का उपदेश दिया । ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर दयालु ओर परमार्थी राजा जानश्रुति का भी तेज सचमुच बहुत बढ़ गया वह जीवन्मुक्त हो गया और उसके मानसिक शोक सदा के लिए दूर दो गए। ब्रह्मज्ञान से निर्मल एवं शुद्ध उसके हृदय में भगवान का निवास हो गया ।

 

     राजा जानश्रुति की परम सुन्दरी, लज्जावनतमुखी कन्या महात्मा  के साथ व्याह दी गई । जिस सौमाग्यशाली प्रदेश में महात्मा रैक्व ने राजा जानश्रुति को ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया था और राजपुत्री के साथ पाणिग्रहण संस्कार किया था वह बहुत दिनों तक रैक्वपर्ण के नाम से विख्यात रहा ।"

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