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महाभारत आदिपर्व अुक्रमणिका 03

 

 

विमानप्रतिमां तत्र मयेन सुकृतां सभाम् ।

पाण्डवानामुपहृतां स दृष्ट्वा पर्यतप्यत ।। १३५।।

 

उस अवसरपर मयदानवने पाण्डवोंको एक सभाभवन भेंटमें दिया था, जिसकी रूपरेखा विमानके समान थी। वह भवन उसके शिल्पकौशलका एक अच्छा नमूना था। उसे देखकर दुर्योधनको और अधिक संताप हुआ ।। १३५ ।।

 

तत्रावहसितश्चासीत् प्रस्कन्दन्निव सम्भ्रमात् ।

प्रत्यक्ष वासुदेवस्य भीमेनानभिजातवत् ।। १३६ ।।

 

उसी सभाभवनमें जब सम्भ्रम (जलमें स्थल और स्थलमें जलका भ्रम) होनेके कारण दुर्योधनके पाँव फिसलने-से लगे, तब भगवान श्रीकृष्णके सामने ही भीमसेनने उसे गँवारसा सिद्ध करते हुए उसकी हँसी उड़ायी थी॥ १३६॥ ।

 

स भोगान् विविधान् भुञ्जन रत्नानि विविधानि च ।

कथितो धृतराष्ट्रस्य विवर्णो हरिणः कृशः ॥ १३७ ॥

 

दुर्योधन नाना प्रकारके भोग तथा भाँति-भाँतिके रत्नोंका उपयोग करते रहनेपर भी दिनोदिन दुबला रहने लगा। उसका रंग फीका पड़ गया। इसकी सूचना कर्मचारियोंने महाराज धृतराष्ट्रको दी ।। १३७॥

 

अन्वजानात् ततो द्यूतं धृतराष्ट्रः सुतप्रियः ।

तच्छ्रुत्वा वासुदेवस्य कोपः समभवन्महान् ।। १३८ ।।

 

धृतराष्ट्र अपने उस पुत्रके प्रति अधिक आसक्त थे, अतः उसकी इच्छा जानकर उन्होंने उसे पाण्डवोंके साथ जूआ खेलनेकी आज्ञा दे दी। जब भगवान् श्रीकृष्णने यह समाचार सुना, तब उन्हें धृतराष्ट्रपर बड़ा क्रोध आया ।। १३८ ।।

 

नातिप्रीतमनाश्चासीद् विवादांश्चान्वमोदत।

द्यूतादीननयान् घोरान् विविधांश्चाप्युपेक्षत ।। १३९ ।।

 

यद्यपि उनके मनमें कलहकी सम्भावनाके कारण कुछ विशेष प्रसन्नता नहीं हुई, तथापि उन्होंने (मौन रहकर) इन विवादोंका अनुमोदन ही किया और भिन्न-भिन्न प्रकारके भयंकर अन्याय, द्यूत आदिको देखकर भी उनकी उपेक्षा कर दी ।। १३९ ।।

 

निरस्य विदुरं भीष्मं द्रोणं शारद्वतं कृपम्।

विग्रहे तुमुले तस्मिन् दहन् क्षत्रं परस्परम् ।।१४०॥

 

(इस अनुमोदन या उपेक्षाका कारण यह था कि वे धर्मनाशक दुष्ट राजाओंका संहार चाहते थे। अतः उन्हें विश्वास था कि) इस विग्रहजनित महान् युद्ध में विदर, भीष्म, द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्यकी अवहेलना करके सभी दुष्ट क्षत्रिय एक-दूसरेको अपनी क्रोधाग्निमें भस्म कर डालेंगे। १४०॥

 

जयत्सु पाण्डुपुत्रेषु श्रुत्वा सुमहदप्रियम्।

दुर्योधनमतं ज्ञात्वा कर्णस्य शकुनेस्तथा ।। १४१ ।।

धृतराष्ट्रश्चिरं ध्यात्वा संजयं वाक्यमब्रवीत्।

शृणु संजय सर्व मे न चासूयितुमर्हसि ।। १४२ ॥

श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान् प्राज्ञसम्मतः।

न विग्रहे मम मतिर्न च प्रीये कुलक्षये ॥१४३ ॥

 

जब युद्धमें पाण्डवोंकी जीत होती गयी, तब यह अत्यन्त अप्रिय समाचार सुनकर तथा दुर्योधन, कर्ण और शकुनिके दुराग्रहपूर्ण निश्चित विचार जानकर धृतराष्ट्र बहुत देरतक चिन्तामें पड़े रहे। फिर उन्होंने संजयसे कहा-'संजय! मेरी सब बातें सुन लो। फिर इस युद्ध या विनाशके लिये मुझे दोष न दे सकोगे। तुम विद्वान्, मेधावी, बुद्धिमान् और पण्डितके लिये भी आदरणीय हो। इस युद्धमें मेरी सम्मति बिलकुल नहीं थी और यह जो हमारे कुलका विनाश हो गया है. इससे मुझे तनिक भी प्रसन्नता नहीं हुई है ।। १४३।।

 

न मे विशेषः पुत्रेषु स्वेषु पाण्डुसुतेषु वा ।

वृद्धं मामभ्यसूयन्ति पुत्रा मन्युपरायणाः ।। १४४ ।।

 

मेरे लिये अपने पुत्रों और पाण्डवोंमें कोई भेद नहीं था। किंतु क्या करूँ? मेरे पुत्र क्रोधके वशीभूत हो मुझपर ही दोषारोपण करते थे और मेरी बात नहीं मानते थे ।। १४४ ।।

 

अहं त्वचक्षुः कार्पण्यात् पुत्रप्रीत्या सहामि तत् ।

मुह्यन्तं चानुमुह्यामि दुर्योधनमचेतनम् ।। १४५ ॥

 

मैं अंधा हूँ, अतः कुछ दीनताके कारण और कुछ पुत्रोंके प्रति अधिक आसक्ति होनेसे भी वह सब अन्याय सहता आ रहा हूँ। मन्दबुद्धि दुर्योधन जब मोहवश दुःखी होता था, तब मैं भी उसके साथ दुःखी हो जाता था ।। १४५ ।।

 

राजसूये श्रियं दृष्ट्वा पाण्डवस्य महौजसः ।

तच्चावहसनं प्राप्य सभारोहणदर्शने ।। १४६ ।।

अमर्षणः स्वयं जेतुमशक्तः पाण्डवान् रणे।

निरुत्साहश्च सम्प्राप्तुं सुश्रियं क्षत्रियोऽपि सन् ।। १४७ ।। गान्धारराजसहितश्छद्मद्यूतममन्त्रयत्।

तत्र यद् यद् यथा ज्ञातं मया संजय तच्छृणु ।। १४८ ।।

 

राजसूय-यज्ञमें महापराक्रमी पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरकी सर्वोपरि समृद्धि-सम्पत्ति देखकर तथा सभाभवनकी सीढ़ियोंपर चढ़ते और उस भवनको देखते समय भीमसेनके द्वारा उपहास पाकर दुर्योधन भारी अमर्षमें भर गया था। युद्धमें पाण्डवोंको हरानेकी शक्ति तो उसमें थी नहीं; अतः क्षत्रिय होते हुए भी वह युद्धके लिये उत्साह नहीं दिखा सका। परंतु पाण्डवोंकी उस उत्तम सम्पत्तिको हथियानेके लिये उसने गान्धारराज शकुनिको साथ लेकर कपटपूर्ण द्यूत खेलनेका ही निश्चय किया। संजय! इस प्रकार जुआ खेलनेका निश्चय हो जानेपर उसके पहले और पीछे जो-जो घटनाएँ घटित हुई हैं उन सबका विचार करते हुए मैंने समय-समयपर विजयकी आशाके विपरीत जो-जो अनुभव किया है उसे कहता हूँ, सुनो- ।। १४६-१४८ ॥

 

श्रुत्वा तु मम वाक्यानि बुद्धियुक्तानि तत्त्वतः।

ततो ज्ञास्यसि मां सौते प्रज्ञाचक्षुषमित्युत ।। १४९ ।।

 

सूतनन्दन! मेरे उन बुद्धिमत्तापूर्ण वचनोंको सुनकर तुम ठीक-ठीक समझ लोगे कि मैं कितना प्रज्ञाचक्षु हूँ।। १४९॥

 

यदाश्रौषं धनुरायम्य चित्रं विद्धं लक्ष्य पातितं वै पृथिव्याम् ।

कृष्णां हृतां प्रेक्षतां सर्वराज्ञांतदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १५० ॥

 

संजय! जब मैंने सुना कि अर्जुनने धनुषपर बाण चढ़ाकर अद्भुत लक्ष्य बेध दिया और | उसे धरतीपर गिरा दिया। साथ ही सब राजाओंके सामने, जबकि वे टुकुर-टुकुर देखते ही रह गये, बलपूर्वक द्रौपदीको ले आया, तभी मैंने विजयकी आशा छोड दी थी ।। १५०।।

 

यदाश्रौषं द्वारकायां सुभद्रांप्रसह्योढां माधवीमर्जुनन।

इन्द्रप्रस्थं वृष्णिवीरौ च यातौतदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५१ ॥

 

संजय! जब मैने सुना कि अर्जुनने द्वारकामें मधुवंशकी राजकुमारी (और श्रीकृष्णकी | बहिन) सुभद्राको बलपूर्वक हरण कर लिया और श्रीकृष्ण एवं बलराम (इस घटनाका विरोध न कर) दहेज लेकर इन्द्रप्रस्थमें आये, तभी समझ लिया था कि मेरी विजय नहीं हो सकती ।। १५१ ।।

 

यदाश्रौषं देवराजं प्रविष्टंशरैर्दिव्यैर्वारितं चार्जुनेन ।

अग्नि तथा तर्पितं खाण्डवे चतदा नाशंसे विजयाय संजय ।।१५२ ॥

 

जब मैंने सुना कि खाण्डवदाहके समय देवराज इन्द्र तो वर्षा करके आग बुझाना चाहते थे और अर्जुनने उसे अपने दिव्य बाणोंसे रोक दिया तथा अग्निदेवको तृप्त किया, संजय! तभी मैंने समझ लिया कि अब मेरी विजय नहीं हो सकती ।। १५२ ।।

 

यदाश्रौषं जातुषाद्वेश्मनस्तान्मुक्तान् पार्थान् पञ्च कुन्त्या समेतान् । युक्तं चैषां विदुरं स्वार्थसिद्धौतदा नाशंसे विजयाय संजय ॥१५३ ॥

 

जब मैंने सुना कि लाक्षाभवनसे अपनी मातासहित पाँचों पाण्डव बच गये हैं और स्वयं विदुर उनकी स्वार्थसिद्धिके प्रयत्नमें तत्पर हैं. संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी थी ।। १५३ ।।

 

यदाश्रौषं द्रौपदी रङ्गमध्ये लक्ष्य भित्त्वा निर्जितामर्जुनेन ।

शूरान् पञ्चालान् पाण्डवेयांश्च युक्तांस्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।।१५४ ॥

 

जब मैंने सुना कि रंगभूमिमें लक्ष्यवेध करके अर्जुनने द्रौपदी प्राप्त कर ली है और पांचाल वीर तथा पाण्डव वीर परस्पर सम्बद्ध हो गये हैं, संजय! उसी समय मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।।१५४ ॥

 

यदाश्रौषं मागधानां वरिष्ठं जरासन्धं क्षत्रमध्ये ज्वलन्तम्।

दोभा हतं भीमसेनेन गत्वातदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५५ ॥

 

जब मैंने सुना कि मगधराज-शिरोमणि, क्षत्रियजातिके जाज्वल्यमान रत्न जरासन्धको भीमसेनने उसकी राजधानीमें जाकर बिना अस्त्र-शस्त्रके हाथोंसे ही चीर दिया। संजय! मेरी जीतकी आशा तो तभी टूट गयी ।। १५५ ।।

 

यदाश्रौषं दिग्विजये पाण्डुपुत्रै वशीकृतान् भूमिपालान् प्रसा।

महाक्रतुं राजसूयं कृतं चतदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १५६ ।।

 

जब मैंने सुना कि दिग्विजयके समय पाण्डवोंने बलपूर्वक बड़े-बड़े भूमिपतियोंको अपने अधीन कर लिया और महायज्ञ राजसूय सम्पन्न कर दिया। संजय! तभी मैंने समझ लिया कि मेरी विजयकी कोई आशा नहीं है ।। १५६।।

 

यदाश्रौषं द्रौपदीमश्रुकण्ठींसभा नीतां दुःखितामेकवस्त्राम्।

रजस्वलां नाथवतीमनाथवत्तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥१५७ ॥

 

संजय! जब मैंने सुना कि दुःखिता द्रौपदी रजस्वलावस्थामें आँखोंमें आँसू भरे केवल एक वस्त्र पहने वीर पतियोंके रहते हुए भी अनाथके समान भरी सभामें घसीटकर लायी गयी है, तभी मैंने समझ लिया था कि अब मेरी विजय नहीं हो सकती ।। १५७ ।।

 

यदाश्रौषं वाससां तत्र राशि समाक्षिपत् कितवो मन्दबुद्धिः।

दुःशासनो गतवान् नैव चान्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥१५८ ॥

 

जब मैंने सुना कि धूर्त एवं मन्दबुद्धि दुःशासनने द्रौपदीका वस्त्र खींचा और वहाँ | वस्त्रोंका इतना ढेर लग गया कि वह उसका पार न पा सका; संजय! तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १५८ ॥

 

यदाश्रौषं हृतराज्यं युधिष्ठिरं पराजितं सौबलेनाक्षवत्याम्।

अन्वागतं भ्रातृभिरप्रमेयैस्तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १५९ ॥

 

संजय! जब मैंने सुना कि धर्मराज युधिष्ठिरको जूएमें शकुनिने हरा दिया और उनका राज्य छीन लिया, फिर भी उनके अतुल बलशाली धीर गम्भीर भाइयोंने युधिष्ठिरका अनुगमन ही किया, तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १५९ ।।

 

यदाश्रौषं विविधास्तत्र चेष्टाधर्मात्मनां प्रस्थितानां वनाय।

ज्येष्ठप्रीत्या क्लिश्यतां पाण्डवानांतदा नाशंसे विजयाय संजय ।।१६० ।।

 

जब मैंने सुना कि वनमें जाते समय धर्मात्मा पाण्डव धर्मराज युधिष्ठिरके प्रेमवश दुःख | पा रहे थे और अपने हृदयका भाव प्रकाशित करनेके लिये विविध प्रकारकी चेष्टाएँ कर रहे थे; संजय! तभी मेरी विजयकी आशा नष्ट हो गयी ।। १६० ।।

 

 यदाश्रौषं स्नातकानां सहस्ररन्वागतं धर्मराज वनस्थम् ।

भिक्षाभुजां ब्राह्मणानां महात्मनां तदा नाशंसे विजयाय संजय ।।१६१ ।।

 

जब मैंने सुना कि हजारों स्नातक वनवासी युधिष्ठिरके साथ रह रहे हैं और वे तथा दूसरे महात्मा एवं ब्राह्मण उनसे भिक्षा प्राप्त करते हैं। संजय! तभी मैं विजयके सम्बन्धमें निराश हो गया ।। १६१॥

 

यदाश्रौषंमर्जुनं देवदेवंकिरातरूपं त्र्यम्बकं तोष्य युद्धे।

अवाप्तवन्तं पाशुपतं महास्त्रं । तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥१६२ ॥

 

संजय! जब मैंने सुना कि किरातवेषधारी देवदेव त्रिलोचन महादेवको युद्धमें संतुष्ट करके अर्जुनने पाशुपत नामक महान् अस्त्र प्राप्त कर लिया है, तभी मेरी आशा निराशामें परिणत हो गयी ।। १६२ ।।

 

यदाश्रौषं वनवासे तु पार्थान्समागतान् महर्षिभिः पुराणैः।

उपास्यमानान् सगणैर्जातसख्यान्तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥

यदाश्रौषं त्रिदिवस्थं धनञ्जयंशक्रात् साक्षाद् दिव्यमस्त्रं यथावत् । अधीयानं शंसितं सत्यसन्धं तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥१६३ ॥

 

जब मैंने सुना कि वनवासमें भी कुन्तीपुत्रोंके पास पुरातन महर्षिगण पधारते और उनसे मिलते हैं। उनके साथ उठते-बैठते और निवास करते हैं तथा सेवक-सम्बन्धियोंसहित पाण्डवोंके प्रति उनका मैत्रीभाव हो गया है। संजय! तभीसे मुझे अपने पक्षकी विजयका विश्वास नहीं रह गया था। जब मैंने सुना कि सत्यसंध धनंजय अर्जुन स्वर्गमें गये हुए हैं और वहाँ साक्षात् इन्द्रसे दिव्य अस्त्र-शस्त्रकी विधिपूर्वक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और वहाँ उनके पौरुष एवं ब्रह्मचर्य आदिकी प्रशंसा हो रही है, संजय! तभीसे मेरी युद्ध में विजयकी आशा जाती रही ।। १६३ ।।

 

यदाश्रौषं कालकेयास्ततस्ते पौलोमानो वरदानाच्च दृप्ताः।

देवैरजेया निर्जिताश्चार्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १६४ ॥

 

जबसे मैंने सुना कि वरदानके प्रभावसे घमंडके नशे में चूर कालकेय तथा पीलोम नामके असुरोंको, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं जीत सकते थे, अर्जुनने बात-की-बातमें पराजित कर दिया, तभीसे संजय! मैंने विजयकी आशा कभी नहीं की ।। १६४ ।।

यदाश्रौषंमसुराणां वधार्थे । किरीटिनं यान्तममित्रकर्शनम्।

कृतार्थ चाप्यागतं शक्रलोकात्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।।१६५ ।।

 

मैंने जब सुना कि शत्रुओंका संहार करनेवाले किरीटी अर्जुन असुरोंका वध करनेके । लिये गये थे और इन्द्रलोकसे अपना काम पूरा करके लौट आये हैं. संजय! तभी मैंने समझ लिया-अब मेरी जीतकी कोई आशा नहीं ॥ १६५ ॥

 

यदाश्रौषं तीर्थयात्राप्रवृत्तं । पाण्डोः सुतं सहितं लोमशेन । तस्मादोषीदर्जुनस्यार्थलाभं तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥

यदाश्रौषं वैश्रवणेन सार्ध समागतं भीममन्यांश्च पार्थान् ।

तस्मिन् देशे मानुषाणामगम्येतदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६६ ॥

 

जब मैंने सुना कि पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर महर्षि लोमशजीके साथ तीर्थयात्रा कर रहे हैं और लोमशजीके मुखसे ही उन्होंने यह भी सुना है कि स्वर्गमें अर्जुनको अभीष्ट वस्तु (दिव्यास्त्र)-की प्राप्ति हो गयी है. संजय! तभीसे मैंने विजयकी आशा ही छोड़ दी। जब मैंने सुना कि भीमसेन तथा दूसरे भाई उस देशमें जाकर, जहाँ मनुष्योंकी गति नहीं है, कुबेरके साथ मेल-मिलाप कर आये, संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी थी ।। १६६ ।।

 

यदाश्रौषं घोषयात्रागतानां बन्धं गन्धर्वैर्मोक्षणं चार्जुनेन ।

स्वेषां सुतानां कर्णबुद्धौरतानांतदा नाशंसे विजयाय संजय ॥१६७ ॥

 

जब मैंने सुना कि कर्णकी बुद्धिपर विश्वास करके चलनेवाले मेरे पुत्र घोषयात्राके निमित्त गये और गन्धर्वोके हाथ बन्दी बन गये और अर्जुनने उन्हें उनके हाथसे छुड़ाया। संजय! तभीसे मैने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १६७ ।।

 

यदाश्रौष यक्षरूपेण धर्मसमागतं धर्मराजेन सूत ।

प्रश्नान् कांश्चिद् विब्रुवाणं च सम्यक्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १६८ ॥

 

सूत संजय! जब मैंने सुना कि धर्मराज यक्षका रूप धारण करके युधिष्ठिरसे मिले और युधिष्ठिरने उनके द्वारा किये गये गूढ़ प्रश्नोंका ठीक-ठीक समाधान कर दिया, तभी विजयके सम्बन्धमें मेरी आशा टूट गयी ।। १६८ ॥

 

यदाश्रौषं न विदुमिकास्तानप्रच्छन्नरूपान् वसतः पाण्डवेयान् ।

विराटराष्ट्रे सह कृष्णया च तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥१६९ ॥

 

संजय! विराटकी राजधानीमें गुप्तरूपसे द्रौपदीके साथ पाँचों पाण्डव निवास कर रहे थे, परंतु मेरे पुत्र और उनके सहायक इस बातका पता नहीं लगा सके; जब मैंने यह बात सुनी, मुझे यह निश्चय हो गया कि मेरी विजय सम्भव नहीं है ।। १६९ ।।

 

यदाश्रौषं कीचकानां वरिष्ठं निषूदितं भ्रातृशतेन सार्धम्।

द्रौपद्यर्थ भीमसेनेन संख्येतदा नाशंसे विजयाय संजय ॥

यदाश्रौषं मामकानां वरिष्ठान् धनञ्जयेनैकरथेन भग्नान् ।

विराटराष्ट्रे वसता महात्मनातदा नाशंसे विजयाय संजय ॥१७० ॥

 

संजय! जब मैंने सुना कि भीमसेनने द्रौपदीके प्रति किये हुए अपराधका बदला लेनेके लिये कीचकोंके सर्वश्रेष्ठ वीरको उसके सौ भाइयोसहित युद्धमें मार डाला था, तभीसे मुझे विजयकी बिलकुल आशा नहीं रह गयी थी। संजय! जब मैंने सुना कि विराटकी राजधानीमें रहते समय महात्मा धनंजयने एकमात्र रथकी सहायतासे हमारे सभी श्रेष्ठ महारथियोंको (जो गो-हरणके लिये पूर्ण तैयारीके साथ वहाँ गये थे) मार भगाया, तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १७०॥

 

यदाश्रौषं सत्कृतां मत्स्यराज्ञासुतां दत्तामुत्तरामर्जुनाय।

तां चार्जुनः प्रत्यगृह्णात् सुतार्थेतदा नाशंसे विजयाय संजय ॥१७१ ॥

 

जिस दिन मैंने यह बात सुनी कि मत्स्यराज विराटने अपनी प्रिय एवं सम्मानित पुत्री उत्तराको अर्जुनके हाथ अर्पित कर दिया, परंतु अर्जुनने अपने लिये नहीं, अपने पुत्रके लिये उसे स्वीकार किया, संजय! उसी दिनसे मैं विजयकी आशा नहीं करता था ।। १७१ ।।

 

यदाश्रौषं निर्जितस्याधनस्यप्रताजितस्य स्वजनात् प्रच्युतस्य।

अक्षौहिणीः सप्त युधिष्ठिरस्यतदा नाशंसे विजयाय संजय ।।१७२ ॥

 

संजय! युधिष्ठिर जूएमें पराजित हैं, निर्धन हैं, घरसे निकाले हुए हैं और अपने सगेसम्बन्धियोंसे बिछुड़े हुए हैं। फिर भी जब मैंने सुना कि उनके पास सात अक्षौहिणी सेना एकत्र हो चुकी है, तभी विजयके लिये मेरे मनमें जो आशा थी, उसपर पानी फिर गया ।। १७२ ।।

 

यदाश्रौषं माधवं वासुदेवंसर्वात्मना पाण्डवार्थे निविष्टम्।

यस्येमां गां विक्रममेकमाहुस्तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १७३ ॥

 

(वामनावतारके समय) यह सम्पूर्ण पृथ्वी जिनके एक डगमें ही आ गयी बतायी जाती है. वे लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण पूरे हृदयसे पाण्डवोंकी कार्यसिद्धिके लिये तत्पर हैं, जब यह बात मैंने सुनी, संजय! तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १७३ ।।

 

यदाश्रौषं नरनारायणौ तौ ।कृष्णार्जुनौ वदतो नारदस्य।

अहं द्रष्टा ब्रह्मलोके च सम्यक्तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥१७४ ॥

 

जब देवर्षि नारदके मुखसे मैंने यह बात सुनी कि श्रीकृष्ण और अर्जुन साक्षात् नर और नारायण हैं और इन्हें मैंने ब्रह्मलोकमें भलीभाँति देखा है, तभीसे मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १७४ ।।

 

यदाश्रौषं लोकहिताय कृष्णंशमार्थिनमुपयातं कुरूणाम् ।

शमं कुर्वाणमकृतार्थ च यातंतदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १७५ ।।

 

संजय! जब मैंने सुना कि स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण लोककल्याणके लिये शान्तिकी इच्छासे आये हुए हैं और कौरव-पाण्डवोंमें शान्ति-सन्धि करवाना चाहते हैं, परंतु वे अपने प्रयासमें असफल होकर लौट गये, तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १७५ ।।

 

यदाश्रौषं कर्णदुर्योधनाभ्यांबुद्धिं कृतां निग्रहे केशवस्य।

तं चात्मानं बहुधा दर्शयानंतदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १७६ ॥

 

संजय! जब मैंने सुना कि कर्ण और दुर्योधन दोनोंने यह सलाह की है कि श्रीकृष्णको कैद कर लिया जाय और श्रीकृष्णने अपने-आपको अनेक रूपोंमें विराट् या अखिल विश्रुके रूपमें दिखा दिया, तभीसे मैंने विजआशा त्याग दी थी ।। १७६ ।।

 

यदाश्रौषं वासुदेवे प्रयातेरथस्यैकामग्रतस्तिष्ठमानाम् ।

आर्ता पृथा सान्त्वितां केशवेनतदा नाशंसे विजयाय संजय ।।१७७॥

 

जब मैंने सुना–यहाँसे श्रीकृष्णके लौटते समय अकेली कुन्ती उनके रथके सामने आकर खड़ी हो गयी और अपने हृदयकी आर्ति-वेदना प्रकट करने लगी, तब श्रीकृष्णने उसे भलीभाँति सान्त्वना दी। संजय! तभीसे मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १७७ ।।

 

यदाश्रौषं मन्त्रिणं वासुदेवंतथा भीष्मं शान्तनवं च तेषाम् ।

भारद्वाजं चाशिषोऽनुब्रुवाणंतदा नाशंसे विजयाय संजय ।।१७८ ।।

 

संजय! जब मैंने सुना कि श्रीकृष्ण पाण्डवोंके मन्त्री हैं और शान्तनुनन्दन भीष्म तथा भारद्वाज द्रोणाचार्य उन्हें आशीर्वाद दे रहे हैं, तब मुझे विजयप्राप्तिकी किंचित् भी आशा नहीं रही ।। १७८ ।।

 

यदाश्रौषं कर्ण उवाच भीष्मनाहं योत्स्ये युध्यमाने त्वयीति।

हित्वा सेनामपचक्राम चापितदा नाशंसे विजयाय संजय ।।१७९ ।।

 

जब कर्णने भीष्मसे यह बात कह दी कि 'जबतक तुम युद्ध करते रहोगे तबतक मैं पाण्डवोंसे नहीं लडुंगा', इतना ही नहीं वह सेनाको छोडकर हट गया, संजय! तभीसे मेरे मनमें विजयके लिये कुछ भी आशा नहीं रह गयी ।। १७९ ॥

 

यदाश्रौषं वासुदेवार्जुनौ तौ तथा धनुर्गाण्डीवमप्रमेयम्। त्रीण्युग्रवीर्याणि समागतानितदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८०॥

 

संजय! जब मैंने सुना कि भगवान् श्रीकृष्ण, वीरवर अर्जुन और अतुलित शक्तिशाली गाण्डीव धनुष-ये तीनों भयंकर प्रभावशाली शक्तियाँ इकट्ठी हो गयी हैं, तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १८०।।

 

यदाश्रौषं कश्मलेनाभिपन्नेरथोपस्थे सीदमानेऽर्जुने वै।

कृष्णं लोकान् दर्शयानं शरीरे तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥१८१।।

 

संजय! जब मैंने सुना कि रथके पिछले भागमें स्थित मोहग्रस्त अर्जुन अत्यन्त दुःखी हो रहे थे और श्रीकृष्णने अपने शरीरमें उन्हें सब लोकोंका दर्शन करा दिया, तभी मेरे मनसे विजयकी सारी आशा समाप्त हो गयी ।। १८१ ।।

 

यदाश्रौषं भीष्मममित्रकर्शनंनिघ्नन्तमाजावयुतं रथानाम्।

नैषां कश्चिद् वध्यते ख्यातरूपस्तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १८२ ॥

 

जब मैंने सुना कि शत्रुघाती भीष्म रणांगणमें प्रतिदिन दस हजार रथियोंका संहार कर रहे हैं, परंतु पाण्डवोका कोई प्रसिद्ध योद्धा नहीं मारा जा रहा है, संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १८२ ।।

 

यदाश्रौषं चापगेयेन संख्येस्वयं मृत्यु विहितं धार्मिकेण।

तच्चाकार्षुः पाण्डवेयाः प्रहृष्टास्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८३ ।।

 

जब मैंने सुना कि परम धार्मिक गंगानन्दन भीष्मने युद्धभूमिमें पाण्डवोंको अपनी मृत्युका उपाय स्वयं बता दिया और पाण्डवोंने प्रसन्न होकर उनकी उस आज्ञाका पालन किया। संजय! तभी मुझे विजयकी आशा नहीं रही ।। १८३ ।।

 

यदाश्रौषं भीष्ममत्यन्तशूरं हतं पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम् । शिखण्डिनं पुरतः स्थापयित्वातदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८४ ॥

 

जब मैंने सुना कि अर्जुनने सामने शिखण्डीको खड़ा करके उसकी ओटसे सर्वथा अजेय अत्यन्त शूर भीष्मपितामहको युद्धभूमिमें गिरा दिया। संजय! तभी मेरी विजयकी आशा समाप्त हो गयी ।। १८४ ॥

 

यदाश्रौषं शरतल्पे शयानंवृद्धं वीरं सादितं चित्रपुखैः ।

भीष्मं कृत्वा सोमकानल्पशेषांस्तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८५॥

 

जब मैंने सुना कि हमारे वृद्ध वीर भीष्मपितामह अधिकांश सोमकवंशी योद्धाओंका वध करके अर्जुनके बाणोंसे क्षत-विक्षत शरीर हो शरशय्यापर शयन कर रहे हैं, संजय! तभी मैंने समझ लिया अब मेरी विजय नहीं हो सकती ।। १८५ ।।

 

यदाश्रौषं शान्तनवे शयानेपानीयार्थे चोदितेनार्जुनेन ।

भूमिं भित्त्वा तर्पितं तत्र भीष्मतदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८६ ॥

 

संजय! जब मैंने सुना कि शान्तनुनन्दन भीष्मपितामहने शरशय्यापर सोते समय अर्जुनको संकेत किया और उन्होंने बाणसे धरतीका भेदन करके उनकी प्यास बुझा दी, तब मैने विजयकी आशा त्याग दी ।। १८६ ।।

 

यदा वायुश्चन्द्रसूर्यो च युक्तीकौन्तेयानामनुलोमा जयाय।

नित्यं चास्माञ्श्वापदा भीषयन्तितदा नाशंसे विजयाय संजय ।।१८७॥

 

जब वायु अनुकूल बहकर और चन्द्रमा-सूर्य लाभस्थानमें संयुक्त होकर पाण्डवोंकी विजयकी सूचना दे रहे हैं और कुत्ते आदि भयंकर प्राणी प्रतिदिन हमलोगोंको डरा रहे हैं। संजय! तब मैंने विजयके सम्बन्धमें अपनी आशा छोड़ दी ।। १८७।।

 

यदा द्रोणो विविधानस्त्रमार्गान् निदर्शयन् समरे चित्रयोधी।

न पाण्डवाश्रेष्ठतरान निहन्तितदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८८ ।।

 

संजय! हमारे आचार्य द्रोण बेजोड़ योद्धा थे और उन्होंने रणांगणमें अपने अस्त्र-शस्त्रके अनेकों विविध कौशल दिखलाये, परंतु जब मैंने सुना कि वे वीरशिरोमणि पाण्डवोंमेंसे किसी एकका भी वध नहीं कर रहे हैं, तब मैंने विजयकी आशा त्याग दी ।। १८८॥

 

यदाश्रौषं चास्मदीयान् महारथान्व्यवस्थितानर्जुनस्यान्तकाय। संशप्तकान् निहतानर्जुनेनतदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १८९ ॥

 

संजय! मेरी विजयकी आशा तो तभी नहीं रही जब मैंने सुना कि मेरे जो महारथी वीर संशप्तक योद्धा अर्जुनके वधके लिये मोर्चेपर डटे हुए थे, उन्हें अकेले ही अर्जुनने मौतके घाट उतार दिया ।। १८९ ।।

 

यदाश्रौषं व्यूहमभेद्यमन्यैर्भारद्वाजेनात्तशस्त्रेण गुप्तम्।

भित्त्वा सौभद्रं वीरमेकं प्रविष्टं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।।१९० ।।

 

संजय! स्वयं भारद्वाज द्रोणाचार्य अपने हाथमें शस्त्र उठाकर उस चक्रव्यूहकी रक्षा कर रहे थे, जिसको कोई दूसरा तोड़ ही नहीं सकता था, परंतु सुभद्रानन्दन वीर अभिमन्यु अकेला ही छिन्न-भिन्न करके उसमें घुस गया, जब यह बात मेरे कानोंतक पहुंची, तभी मेरी विजयकी आशा लुप्त हो गयी ।। १९०॥

 

यदाभिमन्यु परिवार्य बालं सर्वे हत्वा हृष्टरूपा बभूवुः ।

महारथाः पार्थमशक्नुवन्तस्तदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १९१ ।।

 

संजय! मेरे बड़े-बड़े महारथी वीरवर अर्जुनके सामने तो टिक न सके और सबने मिलकर बालक अभिमन्युको घेर लिया और उसको मारकर हर्षित होने लगे, जब यह बात मुझतक पहुँची, तभीसे मैंने विजयकी आशा त्याग दी ।। १९१ ।।

 

यदाश्रौषमभिमन्युं निहत्यहर्षान्मूढान् क्रोशतो धार्तराष्ट्रान् । क्रोधादुक्तं सैन्धवे चार्जुनेन । तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९२ ।।

 

जब मैंने सुना कि मेरे मूढ पुत्र अपने ही वंशके होनहार बालक अभिमन्युकी हत्या करके हर्षपूर्ण कोलाहल कर रहे हैं और अर्जुनने क्रोधवश जयद्रथको मारनेकी भीषण प्रतिज्ञा की है, संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी।। १९२ ।।

 

यदाश्रौषं सैन्धवार्थे प्रतिज्ञांप्रतिज्ञातां तद्वधायार्जुनेन ।

सत्यां तीर्णा शत्रुमध्ये च तेनतदा नाशंसे विजयाय संजय ॥ १९३ ॥

 

जब मैंने सुना कि अर्जुनने जयद्रथको मार डालनेकी जो दृढ़ प्रतिज्ञा की थी, उसने वह शत्रुओंसे भरी रणभूमिमें सत्य एवं पूर्ण करके दिखा दी। संजय! तभीसे मुझे विजयकी सम्भावना नहीं रह गयी ।। १९३ ।।

 

यदाश्रौषं श्रान्तहये धनञ्जयेमुक्त्वा हयान् पाययित्वोपवृत्तान्। पुनर्युक्त्वा वासुदेवं प्रयातंतदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९४ ।।

 

युद्धभूमिमें धनञ्जय अर्जुनके घोड़े अत्यन्त श्रान्त और प्याससे व्याकुल हो रहे थे। स्वयं श्रीकृष्णने उन्हें रथसे खोलकर पानी पिलाया। फिरसे रथके निकट लाकर उन्हें जोत दिया और अर्जुनसहित वे सकुशल लौट गये। जब मैंने यह बात सुनी, संजय! तभी मेरी विजयकी आशा समाप्त हो गयी ।। १९४ ।।

 

यदाश्रौषं वाहनेष्वक्षमेषुरथोपस्थे तिष्ठता पाण्डवेन।

सर्वान् योधान् वारितानर्जुनेनतदा नाशंसे विजयाय संजय ।।१९५।।

 

जब संग्रामभूमिमें रथके घोड़े अपना काम करनेमें असमर्थ हो गये, तब रथके समीप ही खड़े होकर पाण्डववीर अर्जुनने अकेले ही सब योद्धाओंका सामना किया और उन्हें रोक दिया। मैंने जिस समय यह बात सुनी, संजय! उसी समय मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। १९५ ।।

 

यदाश्रौषं नागबलैः सुदुःसहंद्रोणानीकं युयुधानं प्रमथ्य।

यातं वार्ष्णेयं यत्र तौ कृष्णपार्थोंतदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९६ ।।

 

जब मैंने सुना कि वृष्णिवंशावतंस युयुधान-सात्यकिने अकेले ही द्रोणाचार्यकी उस सेनाको, जिसका सामना हाथियोंकी सेना भी नहीं कर सकती थी, तितर-बितर और तहस-नहस कर दिया तथा श्रीकृष्ण और अर्जुनके पास पहुँच गये। संजय! तभीसे मेरे लिये विजयकी आशा असम्भव हो गयी ।। १९६॥

 

यदाश्रौषं कर्णमासाद्य मुक्तंवधाद् भीमं कुत्सयित्वा वचोभिः । धनुष्कोट्याऽऽतुद्य कर्णेन वीरंतदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९७ ॥

 

संजय! जब मैंने सुना कि वीर भीमसेन कर्णके पंजेमें फँस गये थे, परंतु कर्णने तिरस्कारपूर्वक झिड़ककर और धनुषकी नोक चुभाकर ही छोड़ दिया तथा भीमसेन मृत्युके मुखसे बच निकले। संजय! तभी मेरी विजयकी आशापर पानी फिर गया ।। १९७॥

 

यदा द्रोणः कृतवर्मा कृपश्चकर्णो द्रौणिर्मद्रराजश्च शूरः।

अमर्षयन् सैन्धवं वध्यमानंतदा नाशंसे विजयाय संजय ।।१९८ ॥

 

जब मैंने सुना कि द्रोणाचार्य, कृतवर्मा, कृपाचार्य, कर्ण और अश्रुत्थामा तथा वीर शल्यने भी सिन्धुराज जयद्रथका वध सह लिया, प्रतीकार नहीं किया। संजय! तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी॥ १९८ ॥

यदाश्रौषं देवराजेन दत्तांदिव्यां शक्तिं व्यंसितां माधवेन।

घटोत्कचे राक्षसे घोररूपे । तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। १९९।।

 

संजय! देवराज इन्द्रने कर्णको कवचके बदले एक दिव्य शक्ति दे रखी थी और उसने उसे अर्जुनपर प्रयुक्त करनेके लिये रख छोड़ा था; परंतु मायापति श्रीकृष्णने भयंकर राक्षस घटोत्कचपर छुड़वाकर उससे भी वंचित करवा दिया। जिस समय यह बात मैने सुनी, उसी समय मेरी विजयकी आशा टूट गयी ।। १९९ ॥

 

यदाश्रौषं कर्णघटोत्कचाभ्यांयुद्धे मुक्तां सूतपुत्रेण शक्तिम् ।

यया वध्यः समरे सव्यसाची तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २००।।

 

 

जब मैंने सुना कि कर्ण और घटोत्कचके युद्धमें कर्णने वह शक्ति घटोत्कचपर चला दी, जिससे रणांगणमें अर्जुनका वध किया जा सकता था। संजय! तब मैंने विजयकी आशा छोड़ दी ।। २००॥

 

यदाश्रौषं द्रोणमाचार्यमेकंधृष्टद्युम्नेनाभ्यतिक्रम्य धर्मम् ।

रथोपस्थे प्रायगतं विशस्तंतदा नाशंसे विजयाय संजय ।।२०१॥

 

संजय! जब मैंने सुना कि आचार्य द्रोण पुत्रकी मृत्युके शोकसे शस्त्रादि छोड़कर आमरण अनशन करनेके निश्चयसे अकेले रथके पास बैठे थे और धृष्टद्युम्नने धर्मयुद्धकी मर्यादाका उल्लंघन करके उन्हें मार डाला, तभी मैंने विजयकी आशा छोड़ दी थी । २०१॥

 

यदाश्रौषं द्रौणिना द्वैरथस्थंमाद्रीसुतं नकुलं लोकमध्ये।

समं युद्धे मण्डलेभ्यश्चरन्तंतदा नाशंसे विजयाय संजय ।।२०२॥

 

जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा-जैसे वीरके साथ बड़े-बड़े वीरोंके सामने ही माद्रीनन्दन नकुल अकेले ही अच्छी तरह युद्ध कर रहे हैं। संजय! तब मुझे जीतकी आशा न रही ।। २०२॥

 

यदा द्रोणे निहते द्रोणपुत्रो नारायणं दिव्यमस्त्रं विकुर्वन् ।

नैषामन्तं गतवान् पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय ।।२०३ ।।

 

जब द्रोणाचार्यकी हत्याके अनन्तर अश्वत्थामाने दिव्य नारायणास्त्रका प्रयोग किया; परंतु उससे वह पाण्डवोंका अन्त नहीं कर सका। संजय! तभी मेरी विजयकी आशा समाप्त हो गयी ॥२०३ ॥

 

यदाश्रौषं भीमसेनेन पीतं रक्तं भ्रातुर्युधि दुःशासनस्य।

निवारितं नान्यतमेन भीम तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०४ ।।

 

जब मैंने सुना कि रणभूमिमें भीमसेनने अपने भाई दुःशासनका रक्तपान किया, परंतु वहाँ उपस्थित सत्पुरुषोंमेंसे किसी एकने भी निवारण नहीं किया। संजय! तभीसे मुझे विजयकी आशा बिलकुल नहीं रह गयी ।। २०४ ।।

 

यदाश्रौषं कर्णमत्यन्तशूरं । हतं पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम् ।

तस्मिन् भ्रातॄणां विग्रहे देवगुह्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०५॥

 

संजय! वह भाईका भाईसे युद्ध देवताओंकी गुप्त प्रेरणासे हो रहा था। जब मैंने सुना कि भिन्न-भिन्न युद्धभूमियोंमें कभी पराजित न होनेवाले अत्यन्त शूरशिरोमणि कर्णको पृथापुत्र अर्जुनने मार डाला, तब मेरी विजयकी आशा नष्ट हो गयी ।। २०५॥

 

यदाश्रौषं द्रोणपुत्रं च शूरं दुःशासनं कृतवर्माणमुग्रम्।

युधिष्ठिरं धर्मराजं जयन्तंतदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०६ ।।

 

जब मैंने सुना कि धर्मराज युधिष्ठिर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, शूरवीर दुःशासन एवं उग्र योद्धा कृतवर्माको भी युद्धमें जीत रहे हैं. संजय! तभीसे मुझे विजयकी आशा नहीं रह गयी ।। २०६॥

 

यदाश्रौषं निहतं मद्रराजंरणे शूरं धर्मराजेन सूत।

सदा संग्रामे स्पर्धते यस्तु कृष्णं तदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०७॥

 

संजय! जब मैंने सुना कि रणभूमिमें धर्मराज युधिष्ठिरने शूरशिरोमणि मद्रराज शल्यको मार डाला, जो सर्वदा युद्धमें घोड़े हाँकनेके सम्बन्धमें श्रीकृष्णकी होड़ करनेपर उतारू रहता था, तभीसे मैं विजयकी आशा नहीं करता था ।। २०७॥

 

यदाश्रीषं कलहचूतमूलंमायाबलं सौबलं पाण्डवेन।

हतं संग्रामे सहदेवेन पापंतदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २०८ ॥

 

जब मैंने सुना कि कलहकारी द्यूतके मूल कारण, केवल छल-कपटके बलसे बली पापी शकुनिको पाण्डुनन्दन सहदेवने रणभूमिमें यमराजके हवाले कर दिया, संजय! तभी मेरी विजयकी आशा समाप्त हो गयी ।। २०८ ।।

 

यदाश्रीषं श्रान्तमेकं शयानंहृदं गत्वा स्तम्भयित्वा तदम्भः।

दुर्योधनं विरथं भग्नशक्तिंतदा नाशंसे विजयाय संजय ।।२०९ ।।

 

जब दुर्योधनका रथ छिन्न-भिन्न हो गया, शक्ति क्षीण हो गयी और वह थक गया, तब सरोवरपर जाकर वहाँका जल स्तम्भित करके उसमें अकेला ही सो गया। संजय! जब मैंने यह संवाद सुना, तब मेरी विजयकी आशा भी चली गयी ।। २०९ ।।

 

यदाश्रौषं पाण्डवांस्तिष्ठमानान्गत्वा हृदे वासुदेवेन सार्धम् ।

अमर्षणं धर्षयतः सुतं मेतदा नाशंसे विजयाय संजय ।। २१०॥

 

जब मैंने सुना कि उसी सरोवरके तटपर श्रीकृष्णके साथ पाण्डव जाकर खड़े हैं और मेरे पुत्रको असह्य दुर्वचन कहकर नीचा दिखा रहे हैं, तभी संजय! मैंने विजयकी आशा सर्वथा त्याग दी॥२१०॥

महाभारत आदिपर्व अनुक्रमणिका 02 

महाभारत आदिपर्व अनुक्रमणिका 04  

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