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महाभार आदिपर्व अनुक्मणिका 02

 

The Mahabharata in Hindi 02

 

दिवःपुत्रो बृहद्भानुश्चक्षुरात्मा विभावसुः ।

सविता स ऋचीकोऽर्को भानुराशावहो रविः ।। ४२ ।।

पुरा विवस्वतः सर्वे मास्तेषां तथावरः ।

देवभ्राट् तनयस्तस्य सुभाडिति ततः स्मृतः ।। ४३ ।।

पूर्वकालमें दिवःपुत्र, बृहत्, भानु, चक्षु, आत्मा, विभावसु, सविता, ऋचीक, अर्क, भानु, आशावह तथा रवि-ये सब शब्द विवस्वानके बोधक माने गये हैं. इन सबमें जो अन्तिम 'रवि' हैं वे 'मा' (मही-पृथ्वीमें गर्भ स्थापन करनेवाले एवं पूज्य) माने गये हैं। इनके तनय देवभ्राट् है और देवभ्राटके तनय सुभ्राट्माने गये है।। ४२-४३ ।।

 

सुभ्राजस्तु त्रयः पुत्राः प्रजावन्तो बहुश्रुताः।

दशज्योतिः शतज्योतिः सहस्रज्योतिरेव च ॥४४॥

 

सुभ्राट्के तीन पुत्र हुए, वे सब-के-सब संतानवान् और बहुश्रुत (अनेक शास्त्रोंके) ज्ञाता हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-दशज्योति, शतज्योति तथा सहस्रज्योति ।। ४४ ।।

 

दशपुत्रसहस्राणि दशज्योतेर्महात्मनः।

ततो दशगुणाश्चान्ये शतज्योतेरिहात्मजाः ।। ४५ ।।

 

महात्मा दशज्योतिके दस हजार पुत्र हुए। उनसे भी दस गुने अर्थात् एक लाख पुत्र यहाँ शतज्योतिके हुए ॥ ४५ ॥

 

भूयस्ततो दशगुणाः सहस्रज्योतिषः सुताः ।

तेभ्योऽयं कुरुवंशश्च यदूनां भरतस्य च ।। ४६ ॥

ययातीक्ष्वाकुवंशश्च राजर्षीणां च सर्वशः।

सम्भूता बहवो वंशा भूतसर्गाः सुविस्तराः ।। ४७ ।।

 

फिर उनसे भी दस गुने अर्थात् दस लाख पुत्र सहस्रज्योतिके हुए। उन्हींसे यह कुरुवंश, यदुवंश, भरतवंश, ययाति और इक्ष्वाकुके वंश तथा अन्य राजर्षियोंके सब वंश चले। प्राणियोंकी सष्टिपरम्परा और बहुत-से वंश भी इन्हींसे प्रकट हो विस्तारको प्राप्त हुए हैं।। ४६-४७।।

 

भूतस्थानानि सर्वाणि रहस्यं त्रिविधं च यत् ।

वेदा योगः सविज्ञानो धर्मोऽर्थः काम एव च ।। ४८ ।। धर्मकामार्थयुक्तानि शास्त्राणि विविधानि च ।

लोकयात्राविधानं च सर्व तद्दृष्टवानषिः ।। ४९ ।।

 

भगवान् वेदव्यासने, अपनी ज्ञानदृष्टिसे सम्पूर्ण प्राणियोंके निवासस्थान, धर्म, अर्थ और कामके भेदसे त्रिविध रहस्य, कर्मापासनाज्ञानरूप वेद, विज्ञानसहित योग, धर्म, अर्थ एवं काम, इन धर्म, काम और अर्थरूप तीन पुरुषार्थोके प्रतिपादन करनेवाले विविध शास्त्र, लोकव्यवहारकी सिद्धिके लिये आयुर्वेद, धनुर्वेद, स्थापत्यवेद, गान्धर्ववेद आदि लौकिक शास्त्र सब उन्हीं दशज्योति आदिसे हुए हैं इस तत्त्वको और उनके स्वरूपको भलीभाँति अनुभव किया ।। ४८-४९ ॥

 

इतिहासाः सवैयाख्या विविधाः श्रुतयोऽपिच।

इह सर्वमनुक्रान्तमुक्तं ग्रन्थस्य लक्षणम् ॥५०॥

 

उन्होंने ही इस महाभारत ग्रन्थमें, व्याख्याके साथ उस सब इतिहासका तथा विविध प्रकारकी श्रुतियोंके रहस्य आदिका पूर्णरूपसे निरूपण किया है और इस पूर्णताको ही इस ग्रन्थका लक्षण बताया गया है । ५०॥

 

विस्तीर्यंतन्महज्ज्ञानमृषिः संक्षिप्य चाब्रवीत्।

इष्टं हि विदुषां लोके समासव्यासधारणम् ।। ५१ ।।

 

महर्षिने इस महान् ज्ञानका संक्षेप और विस्तार दोनों ही प्रकारसे वर्णन किया है: क्योंकि संसारमें विद्वान् पुरुष संक्षेप और विस्तार दोनों ही रीतियोंको पसंद करते हैं।। ५१ ॥

 

मन्वादि भारत केचिदास्तीकादि तथा परे।

तथोपरिचराद्यन्ये विप्राः सम्यगधीयते ।। ५२ ॥

 

कोई-कोई इस ग्रन्थका आरम्भ 'नारायणं नमस्कृत्य-से मानते हैं और कोई-कोई आस्तीकपर्वसे। दूसरे विद्वान् ब्राह्मण उपरिचर वसुकी कथासे इसका विधिपूर्वक पाठ प्रारम्भ करते हैं ।। ५२॥

 

विविधं संहिताज्ञानं दीपयन्ति मनीषिणः।

व्याख्यातुं कुशलाः केचिद् ग्रन्थान् धारयितुं परे ।। ५३ ॥

 

विद्वान् पुरुष इस भारतसंहिताके ज्ञानको विविध प्रकारसे प्रकाशित करते हैं। कोईकोई ग्रन्थकी व्याख्या करके समझानेमें कुशल होते हैं तो दूसरे विद्वान् अपनी तीक्ष्ण | मेधाशक्तिके द्वारा इन ग्रन्थोंको धारण करते है ।। ५३ ।।

 

तपसा ब्रह्मचर्येण व्यस्य वेदं सनातनम्।

इतिहासमिमं चक्रे पुण्यं सत्यवतीसुतः ।। ५४ ।।

 

सत्यवतीनन्दन भगवान् व्यासने अपनी तपस्या एवं ब्रह्मचर्यकी शक्तिसे सनातन वेदका विस्तार करके इस लोकपावन पवित्र इतिहासका निर्माण किया है ।। ५४ ।।

 

पराशरात्मजो विद्वान् ब्रह्मर्षिः संशितव्रतः।

तदाख्यानवरिष्ठं स कृत्वा द्वैपायनः प्रभुः ॥ ५५ ॥

कथमध्यापयानीह शिष्यान्नित्यन्वचिन्तयत्।

तस्य तच्चिन्तितं ज्ञात्वा ऋषेद्वैपायनस्य च ।। ५६ ।।

तत्राजगाम भगवान् ब्रह्मा लोकगुरुः स्वयम् ।

प्रीत्यर्थ तस्य चैवर्षेर्लोकानां हितकाम्यया ।। ५७।।

 

प्रशस्त व्रतधारी, निग्रहानुग्रह-समर्थ, सर्वज्ञ पराशरनन्दन ब्रह्मर्षि श्रीकृष्णद्वैपायन इस इतिहासशिरोमणि महाभारतकी रचना करके यह विचार करने लगे कि अब शिष्योंको इस ग्रन्थका अध्ययन कैसे कराऊँ? जनतामें इसका प्रचार कैसे हो? द्वैपायन ऋषिका यह विचार जानकर लोकगुरु भगवान् ब्रह्मा उन महात्माकी प्रसन्नता तथा लोककल्याणकी कामनासे स्वयं ही व्यासजीके आश्रमपर पधारे ।। ५५-५७ ।।

 

तं दृष्ट्वा विस्मितो भूत्वा प्राञ्जलिः प्रणतः स्थितः ।

आसनं कल्पयामास सर्वैर्मुनिगणैर्वृतः ।। ५८॥

 

व्यासजी ब्रह्माजीको देखकर आश्चर्यचकित रह गये। उन्होंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और खड़े रहे। फिर सावधान होकर सब ऋषि-मुनियोंके साथ उन्होंने ब्रह्माजीके लिये आसनकी व्यवस्था की ।। ५८॥

 

हिरण्यगर्भमासीनं तस्मिंस्तु परमासने।

परिवृत्यासनाभ्याशे वासवेयः स्थितोऽभवत् ।। ५९ ।।

 

जब उस श्रेष्ठ आसनपर ब्रह्माजी विराज गये, तब व्यासजीने उनकी परिक्रमा की और ब्रह्माजीके आसनके समीप ही विनयपूर्वक खड़े हो गये ।। ५९ ।।

 

अनुज्ञातोऽथ कृष्णस्तु ब्रह्मणा परमेष्ठिना।

निषसादासनाभ्याशे प्रीयमाणः शुचिस्मितः ॥ ६० ॥

 

परमेष्ठी ब्रह्माजीकी आज्ञासे वे उनके आसनके पास ही बैठ गये। उस समय व्यासजीके हृदयमें आनन्दका समुद्र उमड़ रहा था और मुखपर मन्द-मन्द पवित्र मुसकान लहरा रही थी ।। ६०॥

 

उवाच स महातेजा ब्रह्माणं परमेष्ठिनम् ।

कृतं मयेदं भगवन् काव्यं परमपूजितम् ।। ६१ ।।

 

परम तेजस्वी व्यासजीने परमेष्ठी ब्रह्माजीसे निवेदन किया-'भगवन्! मैंने यह सम्पूर्ण लोकोंसे अत्यन्त पूजित एक महाकाव्यकी रचना की है' ।। ६१ ।।

 

ब्रह्मन् वेदरहस्यं च यच्चान्यत् स्थापितं मया।

साङ्गोपनिषदां चैव वेदानां विस्तरक्रिया ।। ६२ ।।

 

ब्रह्मन्! मैंने इस महाकाव्यमें सम्पूर्ण वेदोंका गुप्ततम रहस्य तथा अन्य सब शास्त्रोंका सार-सार संकलित करके स्थापित कर दिया है। केवल वेदोंका ही नहीं, उनके अंग एवं उपनिषदोंका भी इसमें विस्तारसे निरूपण किया है ।। ६२ ।।

 

इतिहासपुराणानामुन्मेषं निर्मितं च यत् ।

भूतं भव्यं भविष्यं च त्रिविधं कालसंज्ञितम् ।। ६३ ।।

 

इस ग्रन्थमें इतिहास और पुराणोंका मन्थन करके उनका प्रशस्त रूप प्रकट किया गया है। भूत, वर्तमान और भविष्यकालकी इन तीनों संज्ञाओंका भी वर्णन हुआ है ।। ६३ ।।

 

जरामृत्युभयव्याधिभावाभावविनिश्चयः।

विविधस्य च धर्मस्य ह्याश्रमाणां च लक्षणम् ।। ६४ ॥

 

इस ग्रन्थमें बुढ़ापा, मृत्यु, भय, रोग और पदार्थोंके सत्यत्व और मिथ्यात्वका विशेषरूपसे निश्चय किया गया है तथा अधिकारी-भेदसे भिन्न-भिन्न प्रकारके धर्मों एवं आश्रमोंका भी लक्षण बताया गया है।। ६४ ॥

 

चातुर्वर्ण्यविधानं च पुराणानां च कृत्स्नशः ।

तपसो ब्रह्मचर्यस्य पृथिव्याश्चन्द्रसूर्ययोः ॥६५॥

ग्रहनक्षत्रताराणां प्रमाणं च युगैः सह।

ऋचो यजूंषि सामानि वेदाध्यात्मं तथैव च ।। ६६ ।।

 

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन चारों वर्णोके कर्तव्यका विधान, पुराणोंका सम्पूर्ण मूलतत्त्व भी प्रकट हुआ है। तपस्या एवं ब्रह्मचर्यके स्वरूप, अनुष्ठान एवं फलोंका विवरण, पृथ्वी, चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा, सत्ययुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग-इन सबके परिमाण और प्रमाण, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और इनके आध्यात्मिक अभिप्राय और अध्यात्मशास्त्रका इस ग्रन्थमें विस्तारसे वर्णन किया गया है ।। ६५-६६ ।।

 

न्यायशिक्षाचिकित्सा च दानं पाशुपतं तथा।।

हेतुनैव समं जन्म दिव्यमानुषसंज्ञितम् ।। ६७ ॥

 

न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, दान तथा पाशुपत (अन्तर्यामीकी महिमा)-का भी इसमें विशद निरूपण है। साथ ही यह भी बतलाया गया है कि देवता, मनुष्य आदि भिन्न-भिन्न योनियोंमें जन्मका कारण क्या है? ।। ६७ ॥

 

तीर्थानां चैव पुण्यानां देशानां चैव कीर्तनम् ।

नदीनां पर्वतानां च वनानां सागरस्य च ।। ६८।।

 

लोकपावन तीर्थों, देशों, नदियों, पर्वतों, वनों और समुद्रका भी इसमें वर्णन किया गया । है ।। ६८ ।।

 

पुराणां चैव दिव्यानां कल्पानां युद्धकौशलम् ।

वाक्यजातिविशेषाश्च लोकयात्राक्रमश्च यः ।। ६९ ।।

यच्चापि सर्वगं वस्तु तच्चैव प्रतिपादितम्।

परं न लेखकः कश्चिदेतस्य भुवि विद्यते ॥ ७० ॥

 

दिव्य नगर एवं दुर्गोंके निर्माणका कौशल तथा युद्धकी निपुणताका भी वर्णन है। भिन्नभिन्न भाषाओं और जातियोंकी जो विशेषताएँ हैं, लोकव्यवहारकी सिद्धिके लिये जो कुछ आवश्यक है तथा और भी जितने लोकोपयोगी पदार्थ हो सकते हैं. उन सबका इसमें प्रतिपादन किया गया है। परंतु मुझे इस बातकी चिन्ता है कि पृथ्वीमें इस ग्रन्थको लिख सके ऐसा कोई नहीं है ।। ६९-७०॥

 

ब्रह्मोवाच तपोविशिष्टादपि वै विशिष्टान्मुनिसंचयात् ।

मन्ये श्रेष्ठतरं त्वां वैरहस्यज्ञानवेदनात् ।। ७१॥

 

ब्रह्माजीने कहा-व्यासजी! संसारमें विशिष्ट तपस्या और विशिष्ट कुलके कारण जितने भी श्रेष्ठ ऋषि-मुनि हैं, उनमें मैं तुम्हें सर्वश्रेष्ठ समझता हूँ; क्योंकि तुम जगत्, जीव और ईश्वर-तत्त्वका जो ज्ञान है, उसके ज्ञाता हो । ७१ ॥

 

जन्मप्रभृति सत्यां ते वेद्मिगां ब्रह्मवादिनीम् ।

त्वया च काव्यमित्युक्तं तस्मात् काव्यं भविष्यति ।। ७२ ॥

 

मैं जानता हूँ कि आजीवन तुम्हारी ब्रह्मवादिनी वाणी सत्य भाषण करती रही है और तुमने अपनी रचनाको काव्य कहा है, इसलिये अब यह काव्यके नामसे ही प्रसिद्ध होगी ।। ७२ ॥

 

अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे।

विशेषणे गृहस्थस्य शेषास्त्रय इवाश्रमाः ॥ ७३ ॥

काव्यस्य लेखनार्थाय गणेशः स्मर्यतां मुने।

 

संसारके बड़े-से-बड़े कवि भी इस काव्यसे बढ़कर कोई रचना नहीं कर सकेंगे। ठीक वैसे ही, जैसे ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास तीनों आश्रम अपनी विशेषताओंद्वारा गृहस्थाश्रमसे आगे नहीं बढ़ सकते। मुनिवर! अपने काव्यको लिखवानेके लिये तुम गणेशजीका स्मरण करो ।। ७३॥

 

सौतिरुवाच एवमाभाष्य तं ब्रह्मा जगाम स्वं निवेशनम् ।। ७४ ।।

 

उग्रश्रवाजी कहते हैं-महात्माओ! ब्रह्माजी व्यासजीसे इस प्रकार सम्भाषण करके अपने धाम ब्रह्मलोकमें चले गये ।। ७४ ।।।

 

ततः सस्मार हेरम्बं व्यासः सत्यवतीसुतः।

स्मृतमात्री गणेशानो भक्तचिन्तितपूरकः ।। ७५ ।।

तत्राजगाम विघ्नेशो वेदव्यासो यतः स्थितः ।

पूजितश्चोपविष्टश्च व्यासेनोक्तस्तदाऽनघ ।। ७६ ।।

 

निष्पाप शौनक! तदनन्तर सत्यवतीनन्दन व्यासजीने भगवान् गणेशका स्मरण किया और स्मरण करते ही भक्तवांछाकल्पतरु विघ्नेश्वर श्रीगणेशजी महाराज वहाँ आये, जहाँ व्यासजी विद्यमान थे। व्यासजीने गणेशजीका बड़े आदर और प्रेमसे स्वागत-सत्कार किया और वे जब बैठ गये, तब उनसे कहा- ।।७५-७६ ॥

 

लेखको भारतस्यास्य भव त्वं गणनायक।

मयैव प्रोच्यमानस्य मनसा कल्पितस्य च ।। ७७।।

 

'गणनायक! आप मेरे द्वारा निर्मित इस महाभारत-ग्रन्थके लेखक बन जाइये; मैं बोलकर लिखाता जाऊँगा। मैंने मन-ही-मन इसकी रचना कर ली है' ।। ७७ ।।

 

श्रुत्वैतत् प्राह विघ्नेशो यदि मे लेखनी क्षणम् ।

लिखितो नावतिष्ठेत तदा स्यां लेखको ह्यहम् ।। ७८ ॥

 

यह सुनकर विघ्नराज श्रीगणेशजीने कहा-'व्यासजी! यदि लिखते समय क्षणभरके लिये भी मेरी लेखनी न रुके तो मैं इस ग्रन्थका लेखक बन सकता हूँ' ।। ७८ ।।

 

व्यासोऽप्युवाच तं देवमबुद्ध्वा मा लिख क्वचित् ।

ओमित्युक्त्वा गणेशोऽपि बभूव किल लेखकः ।। ७९ ।।

 

व्यासजीने भी गणेशजीसे कहा-'बिना समझे किसी भी प्रसंगमें एक अक्षर भी न लिखियेगा।' गणेशजीने '' कहकर स्वीकार किया और लेखक बन गये ।। ७९ ।।

 

ग्रन्थग्रन्थिं तदा चक्रे मुनिगूढं कुतूहलात्।।

यस्मिन् प्रतिज्ञया प्राह मुनिद्वैपायनस्त्विदम् ।।८०॥

 

तब व्यासजी भी कुतूहलवश ग्रन्थमें गाँठ लगाने लगे। वे ऐसे-ऐसे श्लोक बोल देते जिनका अर्थ बाहरसे दूसरा मालूम पड़ता और भीतर कुछ और होता। इसके सम्बन्धमें प्रतिज्ञापूर्वक श्रीकृष्णद्वैपायन मुनिने यह बात कही है-।।८०।।

 

अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च।

अहं वेनिशुको वेत्ति संजयो वेत्ति वा न वा ।। ८१॥

 

इस ग्रन्थमें ८,८०० (आठ हजार आठ सौ) श्लोक ऐसे हैं, जिनका अर्थ मैं समझता हूँ, शुकदेव समझते हैं और संजय समझते हैं या नहीं, इसमें संदेह है।। ८१ ।।

 

तच्छ्लोककूटमद्यापि ग्रथितं सुदृढं मुने।

भेत्तुं न शक्यतेऽर्थस्य गूढत्वात् प्रश्रितस्य च ।। ८२ ।।

 

मुनिवर! वे कूट श्लोक इतने गुंथे हुए और गम्भीरार्थक हैं कि आज भी उनका रहस्यभेदन नहीं किया जा सकता; क्योंकि उनका अर्थ भी गूढ़ है और शब्द भी योगवृत्ति और रूढवृत्ति आदि रचनावैचित्र्यके कारण गम्भीर हैं ।। ८२ ।।

 

सर्वज्ञोऽपि गणेशो यत् क्षणमास्ते विचारयन् ।

तावच्चकार व्यासोऽपि श्लोकानन्यान् बहनपि ।। ८३ ।।

 

स्वयं सर्वज्ञ गणेशजी भी उन श्लोकोंका विचार करते समय क्षणभरके लिये ठहर जाते थे। इतने समयमें व्यासजी भी और बहुत-से श्लोकोंकी रचना कर लेते थे ।। ८३ ।।

 

अज्ञानतिमिरान्धस्य लोकस्य तु विचेष्टतः। ज्ञानाञ्जनशलाकाभिर्नेत्रोन्मीलनकारकम् ।। ८४ ।। धर्मार्थकाममोक्षार्थैः समासव्यासकीर्तनैः ।

तथा भारतसूर्येण नृणां विनिहतं तमः ।। ८५॥

 

संसारी जीव अज्ञानान्धकारसे अंधे होकर छटपटा रहे हैं। यह महाभारत ज्ञानांजनकी शलाका लगाकर उनकी आँख खोल देता है। वह शलाका क्या है? धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थोंका संक्षेप और विस्तारसे वर्णन। यह न केवल अज्ञानकी रतौंधी दूर करता, प्रत्युत सूर्यके समान उदित होकर मनुष्योंकी आँखके सामनेका सम्पूर्ण अन्धकार ही नष्ट कर देता है ।। ८४-८५ ॥

 

पुराणपूर्णचन्द्रेण श्रुतिज्योत्स्नाः प्रकाशिताः ।

नृबुद्धिकैरवाणां च कृतमेतत् प्रकाशनम् ।। ८६ ।।

 

यह भारत-पुराण पूर्ण चन्द्रमाके समान है, जिससे श्रुतियोंकी चादनी छिटकती है और मनुष्योंकी बुद्धिरूपी कुमुदिनी सदाके लिये खिल जाती है ।। ८६ ॥

 

इतिहासप्रदीपेन मोहावरणघातिना।

लोकगर्भगृहं कृत्स्नं यथावत् सम्प्रकाशितम् ।। ८७ ।।

 

यह भारत-इतिहास एक जाज्वल्यमान दीपक है। यह मोहका अन्धकार मिटाकर लोगोंके अन्तःकरण-रूप सम्पूर्ण अन्तरंग गृहको भलीभाँति ज्ञानालोकसे प्रकाशित कर देता है।। ८७॥

 

संग्रहाध्यायबीजो वै पौलोमास्तीकमूलवान् ।

सम्भवस्कन्धविस्तारः सभारण्यविटङ्कवान् ।। ८८ ॥

 

महाभारत-वृक्षका बीज है संग्रहाध्याय और जड़ है पौलोम एवं आस्तीकपर्व। सम्भवपर्व इसके स्कन्धका विस्तार है और सभा तथा अरण्यपर्व पक्षियोंके रहनेयोग्य कोटर हैं।। ८८ ॥

 

अरणीपर्वरूपाढ्यो विराटोद्योगसारवान् ।

भीष्मपर्वमहाशाखो द्रोणपर्वपलाशवान् ।। ८९॥

 

अरणीपर्व इस वृक्षका ग्रन्थिस्थल है। विराट और उद्योगपर्व इसका सारभाग है। भीष्मपर्व इसकी बड़ी शाखा है और द्रोणपर्व इसके पत्ते हैं ।। ८९ ।।

 

कर्णपर्वसितैः पुष्पैः शल्यपर्वसुगन्धिभिः।

स्त्रीपर्वैषीकविश्रामः शान्तिपर्वमहाफलः ।। ९० ॥

 

कर्णपर्व इसके श्वेत पुष्प हैं और शल्यपर्व सुगन्धा स्त्रीपर्व और ऐषीकपर्व इसकी छाया है तथा शान्तिपर्व इसका महान् फल है ।। ९० ॥

 

अश्वमेधामृतरसस्त्वाश्रमस्थानसंश्रयः।

मौसलः श्रुतिसंक्षेपः शिष्टद्विजनिषेवितः ॥ ९१ ॥

 

अश्वमेधपर्व इसका अमृतमय रस है और आश्रम-वासिकपर्व आश्रय लेकर बैठनेका स्थान। मौसलपर्व श्रुति-रूपा ऊँची-ऊँची शाखाओंका अन्तिम भाग है तथा सदाचार एवं विद्यासे सम्पन्न द्विजाति इसका सेवन करते हैं ।। ९१ ।।

 

सर्वेषां कविमुख्यानामुपजीव्यो भविष्यति ।

पर्जन्य इव भूतानामक्षयो भारतद्रुमः ॥ ९२ ॥

 

संसारमें जितने भी श्रेष्ठ कवि होंगे उनके काव्यके लिये यह मूल आश्रय होगा। जैसे मेघ सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये जीवनदाता है, वैसे ही यह अक्षय भारत-वृक्ष है।। ९२ ।।

 

सौतिरुवाच तस्य वृक्षस्य वक्ष्यामि शश्वत्पुष्पफलोदयम् । स्वादुमेध्यरसोपेतमच्छेद्यममरैरपि ।। ९३ ॥

 

उग्रश्रवाजी कहते हैं-यह भारत एक वृक्ष है। इसके स्वादु, पवित्र, सरस एवं अविनाशी पुष्प तथा फल हैं-धर्म और मोक्ष। उन्हें देवता भी इस वृक्षसे अलग नहीं कर सकते: अब मैं उन्हींका वर्णन करूँगा।।९३ ॥

 

मातुर्नियोगाद्धर्मात्मा गाङ्गेयस्य च धीमतः।

क्षेत्रे विचित्रवीर्यस्य कृष्णद्वैपायनः पुरा ।। ९४ ।।

त्रीनग्नीनिव कौरव्यान् जनयामास वीर्यवान् ।

उत्पाद्य धृतराष्ट्रं च पाण्डु विदुरमेव च ॥ ९५ ॥

 

पहलेकी बात है-शक्तिशाली, धर्मात्मा श्रीकृष्णद्वैपायन (व्यास)-ने अपनी माता सत्यवती और परमज्ञानी गंगापुत्र भीष्मपितामहकी आज्ञासे विचित्रवीर्यकी पत्नी अम्बिका आदिके गर्भसे तीन अग्नियोंके समान तेजस्वी तीन कुरुवंशी पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम हैं-धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर ।। ९४-९५ ॥

 

जगाम तपसे धीमान् पुनरेवाश्रमं प्रति ।

तेषु जातेषु वृद्धेषु गतेषु परमां गतिम् ।। ९६ ॥

अब्रवीद् भारतं लोके मानुषेऽस्मिन् महानृषिः । जनमेजयेन पृष्टः सन् ब्राह्मणैश्च सहस्रशः ।। ९७ ।।

शशास शिष्यमासीनं वैशम्पायनमन्तिके।

ससदस्यैः सहासीनः श्रावयामास भारतम् ।। ९८।।

कर्मान्तरेषु यज्ञस्य चोद्यमानः पुनः पुनः ।

 

इन तीन पुत्रोंको जन्म देकर परम ज्ञानी व्यासजी फिर अपने आश्रमपर चले गये। जब वे तीनों पुत्र वृद्ध हो परम गतिको प्राप्त हुए, तब महर्षि व्यासजीने इस मनुष्यलोकमें महाभारतका प्रवचन किया। जनमेजय और हजारों ब्राह्मणोंके प्रश्न करनेपर व्यासजीने पास ही बैठे अपने शिष्य वैशम्पायनको आज्ञा दी कि तुम इन लोगोंको महाभारत सुनाओ। वैशम्पायन याज्ञिक सदस्योंके साथ ही बैठे थे. अतः जब यज्ञकर्ममें बीच-बीच में अवकाश मिलता, तब यजमान आदिके बार-बार आग्रह करनेपर वे उन्हें महाभारत सुनाया करते थे ।। ९६-९८६ ।।

 

विस्तरं कुरुवंशस्य गान्धार्या धर्मशीलताम् ।। ९९ ।।

क्षत्तुः प्रज्ञां धृतिं कृन्त्याः सम्यग् द्वैपायनोऽब्रवीत्।

वासुदेवस्य माहात्म्यं पाण्डवानां च सत्यताम् ।। १०० ।।

दुर्वृत्तं धार्तराष्ट्राणामुक्तवान् भगवानृषिः ।

इदं शतसहस्रं तु लोकानां पुण्यकर्मणाम् ।। १०१ ।।

उपाख्यानैः सह ज्ञेयमाद्यं भारतमुत्तमम् ।

 

इस महाभारत-ग्रन्थमें व्यासजीने कुरुवंशके विस्तार, गान्धारीकी धर्मशीलता, विदुरकी उत्तम प्रज्ञा और कुन्तीदेवीके धैर्यका भलीभाँति वर्णन किया है। महर्षि भगवान् व्यासने इसमें वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णके माहात्म्य, पाण्डवोंकी सत्यपरायणता तथा धृतराष्ट्रपुत्र

दुर्योधन आदिके दुर्व्यवहारोंका स्पष्ट उल्लेख किया है। पुण्यकर्मा मानवोंके उपाख्यानोंसहित एक लाख श्लोकोंक इस उत्तम ग्रन्थको आद्यभारत (महाभारत) जानना चाहिये ।। ९९-१०१३॥

 

चतुर्विशतिसाहस्री चक्रे भारतसंहिताम् ।। १०२ ॥

उपाख्यानविना तावद् भारतं प्रोच्यते बुधैः।

ततोऽप्यर्धशतं भूयः संक्षेपं कृतवानृषिः ।। १०३ ।।

अनुक्रमणिकाध्यायं वृत्तान्तं सर्वपर्वणाम् ।

इदं द्वैपायनः पूर्वं पुत्रमध्यापयच्छुकम् ।। १०४ ॥

 

तदनन्तर व्यासजीने उपाख्यानभागको छोड़कर चौबीस हजार श्लोकोंकी भारतसंहिता बनायी; जिसे विद्वान् पुरुष भारत कहते हैं। इसके पश्चात् महर्षिने पुनः पर्वसहित ग्रन्थमें वर्णित वृत्तान्तोंकी अनुक्रमणिका (सूची)-का एक संक्षिप्त अध्याय बनाया, जिसमें केवल डेढ़ सौ श्लोक हैं। व्यासजीने सबसे पहले अपने पुत्र शुकदेवजीको इस महाभारत-ग्रन्थका अध्ययन कराया ।। १०२-१०४ ।।।

 

ततोऽन्येभ्योऽनुरूपेभ्यः शिष्येभ्यः प्रददौ विभुः ।

षष्टिं शतसहस्राणि चकारान्यां स संहिताम् ।। १०५ ॥

 

तदनन्तर उन्होंने दूसरे-दूसरे सुयोग्य (अधिकारी एवं अनुगत) शिष्योंको इसका उपदेश दिया। तत्पश्चात् भगवान् व्यासने साठ लाख श्लोकोंकी एक दूसरी संहिता बनायी ।। १०५ ।। त्रिंशच्छतसहस्रं च देवलोके प्रतिष्ठितम्। पित्र्ये पञ्चदश प्रोक्तं गन्धर्वेषु चतुर्दश ।। १०६।।

उसके तीस लाख श्लोक देवलोकमें समादृत हो रहे हैं. पितृलोकमें पंद्रह लाख तथा गन्धर्वलोकमें चौदह लाख श्लोकोंका पाठ होता है ।। १०६ ।।

 

एकं शतसहस्रं तु मानुषेषु प्रतिष्ठितम् ।।

नारदोऽश्रावय देवानसितो देवलः पितृन् ।। १०७ ।।

 

इस मनुष्यलोकमें एक लाख श्लोकोंका आधभारत (महाभारत) प्रतिष्ठित है। देवर्षि नारदने देवताओंको और असित-देवलने पितरोंको इसका श्रवण कराया है ।। १०७ ।।

 

गन्धर्वयक्षरक्षांसि श्रावयामास वै शुकः ।

अस्मिंस्तु मानुषे लोके वैशम्पायन उक्तवान् ।। १०८ ।।

शिष्यो व्यासस्य धर्मात्मा सर्ववेदविदां वरः ।

एकं शतसहस्रं तु मयोक्तं वै निबोधत ।। १०९॥

 

शुकदेवजीने गन्धर्व, यक्ष तथा राक्षसोंको महाभारतकी कथा सुनायी है; परंतु इस मनुष्यलोकमें सम्पूर्ण वेदवेत्ताओंके शिरोमणि व्यास-शिष्य धर्मात्मा वैशम्पायनजीने इसका प्रवचन किया है। मुनिवरो! वही एक लाख श्लोकोका महाभारत आपलोग मुझसे श्रवण कीजिये ।। १०८-१०९ ॥

 

दुर्योधनो मन्युमयो महाद्रुमः स्कन्धः कर्णः शकुनिस्तस्य शाखाः। दुःशासनः पुष्पफले समृद्धे ___मूलं राजा धृतराष्ट्रोऽमनीषी ॥११०॥

 

दुर्योधन क्रोधमय विशाल वृक्षके समान है। कर्ण स्कन्ध, शकुनि शाखा और दुःशासन समृद्ध फल-पुष्प है। अज्ञानी राजा धृतराष्ट्र ही इसके मूल हैं ।। ११० ।।

 

युधिष्ठिरो धर्ममयो महाद्रुमः स्कन्धोऽर्जुनो भीमसेनोऽस्य शाखाः ।

माद्रीसुतौ पुष्पफले समृद्धे मूलं कृष्णो ब्रह्म च ब्राह्मणाश्च ।। १११ ।।

 

युधिष्ठिर धर्ममय विशाल वृक्ष हैं। अर्जुन स्कन्ध, भीमसेन शाखा और माद्रीनन्दन इसके समृद्ध फल-पुष्प हैं। श्रीकृष्ण, वेद और ब्राह्मण ही इस वृक्षके मूल (जड़) हैं ।। १११ ।।

 

पाण्डुर्जित्वा बहन देशान् बुद्धया विक्रमणेन च ।

अरण्ये मृगयाशीलो न्यवसन्मुनिभिः सह ।। ११२ ।।

 

महाराज पाण्डु अपनी बुद्धि और पराक्रमसे अनेक देशोंपर विजय पाकर (हिंसक) मृगोंको मारनेके स्वभाववाले होनेके कारण ऋषि-मुनियोंके साथ वनमें ही निवास करते थे ।। ११२ ।।

 

मृगव्यवायनिधनात् कृच्छ्रां प्रापस आपदम् ।

जन्मप्रभति पार्थानां तत्राचारविधिक्रमः ।। ११३।।

 

एक दिन उन्होंने मृगरूपधारी महर्षिको मैथुनकालमें मार डाला। इससे वे बड़े भारी संकटमें पड़ गये (ऋषिने यह शाप दे दिया कि स्त्री-सहवास करनेपर तुम्हारी मृत्यु हो जायगी), यह संकट होते हुए भी युधिष्ठिर आदि पाण्डवोंके जन्मसे लेकर जातकर्म आदि सब संस्कार वनमें ही हुए और वहीं उन्हें शील एवं सदाचारकी रक्षाका उपदेश हुआ ।। ११३।।

 

मात्रोरभ्युपपत्तिश्च धर्मोपनिषदं प्रति।

धर्मस्य वायोः शक्रस्य देवयोश्च तथाश्विनोः ॥ ११४ ॥

 

पूर्वोक्त शाप होनेपर भी संतान होनेका कारण यह था कि) कुल-धर्मकी रक्षाके लिये दुर्वासाद्वारा प्राप्त हुई विद्याका आश्रय लेनेके कारण पाण्डवोंकी दोनों माताओं कुन्ती और  माद्रीके समीप क्रमशः धर्म, वायु, इन्द्र तथा दोनों अविनीकुमार-इन देवताओंका आगमन सम्भव हो सका (इन्हींकी कृपासे युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन एवं नकुल-सहदेवकी उत्पत्ति हुई) ।। ११४ ।।

 

ततो धर्मोपनिषदः श्रुत्वा भर्तुः प्रिया पृथा।

धर्मानिलेन्द्रान् स्तुतिभिर्जुहाव सुतवाञ्छया ।

तद्दत्तोपनिषन्माद्री चाश्विनावाजुहाव च।

 तापसैः सह संवृद्धा मातृभ्यां परिरक्षिताः।।

मेध्यारण्येषु पुण्येषु महतामाश्रमेषु च ॥११५ ॥

 

पतिप्रिया कुन्तीने पतिके मुखसे धर्म-रहस्यकी बातें सुनकर पत्र पानेकी इच्छासे मन्त्रजपपूर्वक स्तुतिद्वारा धर्म, वायु और इन्द्र देवताका आवाहन किया। कुन्तीके उपदेश देनेपर माद्री भी उस मन्त्र-विद्याको जान गयी और उसने संतानके लिये दोनों अश्विनीकुमारोंका आवाहन किया। इस प्रकार इन पाँचों देवताओंसे पाण्डवोंकी उत्पत्ति हुई। पाँचों पाण्डव अपनी दोनों माताओंद्वारा ही पाले-पोसे गये। वे वनोंमें और महात्माओंके परम पुण्य आश्रमोंमें ही तपस्वी लोगोंके साथ दिनोदिन बढ़ने लगे ।। ११५ ।।

 

ऋषिभिर्यत्तदाऽऽनीता धार्तराष्ट्रान प्रति स्वयम्।

शिशवश्चाभिरूपाश्च जटिला ब्रह्मचारिणः ।। ११६ ।।

 

(पाण्डुकी मृत्यु होनेके पश्चात्) बड़े-बड़े ऋषि-मुनि स्वयं ही पाण्डवोंको लेकर धृतराष्ट्र एवं उनके पुत्रोंके पास आये। उस समय पाण्डव नन्हे-नन्हे शिशुके रूपमें बड़े ही सुन्दर लगते थे। वे सिरपर जटा धारण किये ब्रह्मचारीके वेशमें थे ।। ११६ ।।

 

पुत्राश्च भ्रातरश्चेमे शिष्याश्च सुहृदश्च वः।

पाण्डवा एत इत्युक्त्वा मुनयोऽन्तर्हितास्ततः ।। ११७ ।।

 

ऋषियोंने वहाँ जाकर धृतराष्ट्र एवं उनके पुत्रोंसे कहा-'ये तुम्हारे पुत्र, भाई, शिष्य और सुहृद् हैं। ये सभी महाराज पाण्डुके ही पुत्र हैं। इतना कहकर वे मुनि वहाँसे अन्तर्धान हो गये ।। ११७ ॥

 

तांस्तैर्निवेदितान् दृष्ट्वा पाण्डवान् कौरवास्तदा।

शिष्टाश्च वर्णाः पौरा येते हर्षाच्चुक्रुशु शम्। ११८ ॥

 

ऋषियोंद्वारा लाये हुए उन पाण्डवोंको देखकर सभी कौरव और नगरनिवासी. शिष्ट तथा वर्णाश्रमी हर्षसे भरकर अत्यन्त कोलाहल करने लगे ।। ११८ ।।

 

आहुः केचिन्न तस्यैते तस्यैत इति चापरे।

यदा चिरमतः पाण्डुः कथं तस्येति चापरे ॥ ११९ ।।

 

कोई कहते, 'ये पाण्डुके पुत्र नहीं हैं। दूसरे कहते, 'अजी! ये उन्हींके हैं। कुछ लोग कहते, 'जब पाण्डुको मरे इतने दिन हो गये, तब ये उनके पुत्र कैसे हो सकते हैं?'

 

स्वागतं सर्वथा दिष्ट्या पाण्डोः पश्याम संततिम्।

उच्यतां स्वागतमिति वाचोऽश्रूयन्त सर्वशः ।। १२० ।।

 

फिर सब लोग कहने लगे, 'हम तो सर्वथा इनका स्वागत करते हैं। हमारे लिये बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज हम महाराज पाण्डुकी संतानको अपनी आँखोंसे देख रहे हैं।' | फिर तो सब ओरसे स्वागत बोलनेवालोंकी ही बातें सुनायी देने लगीं ।। १२० ।।

 

तस्मिन्नुपरते शब्दे दिशः सर्वा निनादयन् ।

अन्तर्हितानां भूतानां निःस्वनस्तुमुलोऽभवत् ।। १२१ ।।

 

दर्शकोंका वह तुमुल शब्द बन्द होनेपर सम्पूर्ण दिशाओंको प्रतिध्वनित करती हुई | अदृश्य भूतों-देवताओंकी यह सम्मिलित आवाज (आकाशवाणी) गूंज उठी-'ये पाण्डव ही हैं' ।। १२१॥

 

पुष्पवृष्टिः शुभा गन्धाः शङ्खदुन्दुभिनिःस्वनाः ।

आसन् प्रवेशे पार्थानां तदद्भुतमिवाभवत् ।।१२२ ।।

 

जिस समय पाण्डवोंने नगरमै प्रवेश किया, उसी समय फूलोंकी वर्षा होने लगी, सब ओर सुगन्ध छा गयी तथा शंख और दुन्दुभियोंके मांगलिक शब्द सुनायी देने लगे। यह एक अद्भुत चमत्कारकी-सी बात हुई ।। १२२ ।।

 

तत्प्रीत्या चैव सर्वेषां पौराणां हर्षसम्भवः ।

शब्द आसीन्महांस्तत्र दिवःस्पृक्कीर्तिवर्धनः ।। १२३ ।।

 

सभी नागरिक पाण्डवोंके प्रेमसे आनन्दमें भरकर ऊँचे स्वरसे अभिनन्दन-ध्वनि करने लगे। उनका वह महान् शब्द स्वर्गलोकतक गूंज उठा जो पाण्डवोंकी कीर्ति बढ़ानेवाला था ।। १२३ ।।

 

तेऽधीत्य निखिलान् वेदाञ्छास्त्राणि विविधानि च ।

न्यवसन् पाण्डवास्तत्र पूजिता अकुतोभयाः ।। १२४ ।।

 

वे सम्पूर्ण वेद एवं विविध शास्त्रोंका अध्ययन करके वहीं निवास करने लगे। सभी उनका आदर करते थे और उन्हें किसीसे भय नहीं था ।। १२४ ।।

 

युधिष्ठिरस्य शौचेन प्रीताः प्रकृतयोऽभवन् ।

धृत्या च भीमसेनस्य विक्रमेणार्जुनस्य च ।। १२५ ।।

गुरुशुश्रूषया क्षान्त्या यमयोविनयेन च।

तुतोष लोकः सकलस्तेषां शौर्यगुणेन च ।। १२६ ।।

 

राष्ट्रकी सम्पूर्ण प्रजा युधिष्ठिरके शौचाचार, भीमसेनकी धृति, अर्जुनके विक्रम तथा नकुल-सहदेवकी गुरुशुश्रूषा, क्षमाशीलता और विनयसे बहुत ही प्रसन्न होती थी। सब लोग पाण्डवोंके शौर्यगुणसे संतोषका अनुभव करते थे।

 

समवाये ततो राज्ञां कन्यां भर्तृस्वयंवराम्।।

प्राप्तवानर्जुनः कृष्णां कृत्वा कर्म सुदुष्करम् ।। १२७ ।।

 

तदनन्तर कुछ कालके पश्चात् राजाओंके समुदायमें अर्जुनने अत्यन्त दुष्कर पराक्रम करके स्वयं ही पति चुननेवाली द्रुपदकन्या कृष्णाको प्राप्त किया ।। १२७ ।।

 

ततः प्रभृति लोकेऽस्मिन् पूज्यः सर्वधनुष्मताम्।

आदित्य इव दुष्प्रेक्ष्यः समरेष्वपि चाभवत् ।। १२८ ।।

 

तभीसे वे इस लोकमें सम्पूर्ण धनुर्धारियोंके पूजनीय (आदरणीय) हो गये और समरांगणमें प्रचण्ड मार्तण्डकी भाँति प्रतापी अर्जुनकी ओर किसीके लिये आँख उठाकर देखना भी कठिन हो गया ।। १२८ ॥

 

स सर्वान् पार्थिवाञ् जित्वा सर्वांश्च महतो गणान् ।

आजहारार्जुनो राज्ञो राजसूयं महाक्रतुम् ।। १२९ ।।

 

उन्होंने पृथक्-पृथक् तथा महान् संघ बनाकर आये हुए सब राजाओंको जीतकर महाराज युधिष्ठिरके राजसूय नामक महायज्ञको सम्पन्न कराया ।। १२९ ।।

 

अन्नवान् दक्षिणावांश्च सर्वैः समुदितो गुणैः ।

युधिष्ठिरेण सम्प्राप्तो राजसूयो महाक्रतुः ।। १३०॥

सुनयाद्वासुदेवस्य भीमार्जुनबलेन च ।

घातयित्वा जरासन्धं चैद्यं च बलगर्वितम् ।। १३१ ।।

 

भगवान् श्रीकृष्णकी सुन्दर नीति और भीमसेन तथा अर्जुनकी शक्तिसे बलके घमण्डमें चूर रहनेवाले जरासन्ध और चेदिराज शिशुपालको मरवाकर धर्मराज युधिष्ठिरने महायज्ञ राजसूयका सम्पादन किया। वह यज्ञ सभी उत्तम गुणोंसे सम्पन्न था। उसमें प्रचुर अन्न और पर्याप्त दक्षिणाका वितरण किया गया था ।। १३०-१३१ ।।

 

दुर्योधनं समागच्छन्नर्हणानि ततस्ततः ।

मणिकाञ्चनरत्नानि गोहस्त्यश्वधनानि च ॥१३२ ।।

 विचित्राणि च वासांसि प्रावारावरणानि च।

कम्बलाजिनरत्नानि राङ्कवास्तरणानि च ।। १३३ ।।

 

उस समय इधर-उधर विभिन्न देशों तथा नृपतियोंके यहाँसे मणि, सुवर्ण, रत्न, गाय, हाथी, घोड़े, धन-सम्पत्ति, विचित्र वस्त्र, तम्बू, कनात, परदे. उत्तम कम्बल, श्रेष्ठ मृगचर्म तथा रंकुनामक मृगके बालोंसे बने हुए कोमल बिछौने आदि जो उपहारकी बहुमूल्य वस्तुएँ आतीं, वे दुर्योधनके हाथमें दी जाती-उसीकी देख-रेखमें रखी जाती थीं ।। १३२-१३३ ।।

 

समृद्धां तां तथा दृष्ट्वा पाण्डवानां तदा श्रियम्।

ईर्ष्यासमुत्थः सुमहांस्तस्य मन्युरजायत ।।१३४ ।।

 

उस समय पाण्डवोंकी वह बढ़ी-चढ़ी समृद्धि-सम्पत्ति देखकर दुर्योधनके मनमें ईर्ष्याजनित महान् रोष एवं दुःखका उदय हुआ।। १३४ ।।


महाभारत आदिपर्व अनुक्रमणिका -01

महाभारत आदिपर्व अनुक्रमणिका 03

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