गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्
देवियो, भाइयो! कई बार ऐसा होता है कि बाप- दादों की बहुत- सी दौलत हमारे हाथ लग जाती है। बच्चे चाहे कमाएँ या न कमाएँ, माता- पिता बहुत- सा धन बच्चे के लिए छोड़ कर चले जाते हैं। जो लड़के समझदार होते हैं, वे पैतृक धन के रहते हुए भी अपनी आमदनी का कोई- न कोई जरिया निकाल ही लेते हैं, जिससे पैतृक धन में कमी न आने पाए। लेकिन कुछ ऐसे भी लड़के होते हैं, जो माता- पिता के धन को जुआ खेलने में, शराब पीने में गँवा देते हैं। इस तरह बुरे व्यसनों से उनका समस्त धन नष्ट हो जाता है और वे विनाश के कगार पर पहुँच जाते हैं। बुराइयों के गर्त में गिर जाते हैं।
भगवान् ने अपनी औलाद के लिए अपने अलग नियम व तरीके बनाए हैं और उसका नाम रखा है, ‘‘मनुष्य।’’ मनुष्य क्या है? मनुष्य भगवान् की नकल है। हम इसी से अंदाज लगा सकते हैं कि भगवान् बड़े रूप में कैसा होगा? जैसे इनसान है, भगवान् भी वैसा ही होगा। ऐसे ही हम अनुमान लगा सकते हैं कि समुद्र कैसा होगा? जैसा कि तालाब है, हम वैसा ही कुछ अंदाज लगा सकते हैं। कुछ ऐसी शक्तियाँ भी सृष्टि में हैं, जो छोटे तालाब को बड़े समुद्र में बदल सकती हैं।
श्रेष्ठतम कृति है मानव
मित्रो! भगवान् ने अपनी सर्वश्रेष्ठ प्रतिमा इनसान के रूप में ही बनाई है। शेर जब बच्चा पैदा करेगा, तो अपने समान ही पैदा करेगा, बिल्ली पैदा नहीं करेगा। इसी प्रकार सभी जीव
अपने समान ही संतानोत्पत्ति करते हैं। इसी प्रकार भगवान् ने अपने प्रतिरूप में इनसान को बनाया है। इनसान को उसने इसलिए बनाया है कि वह संसार को सुंदर एवं महत्त्वपूर्ण
बनाने में अपना योगदान दे। फिर हमारी आपकी मिट्टी पलीद कैसे हो गई?
हर आदमी दुःखी क्यों पाया जाता है? पूरे संसार में अनाचार और भ्रष्टाचार क्यों फैला हुआ है? पूरा संसार
अज्ञानता के अंधकार में क्यों डूब रहा है? इसका क्या कारण है? भगवान् चुप क्यों है? भगवान् को सत्यम्- शिवम् कहा जाता है, फिर उसके राजकुमार इनसान में इस बात की कमी
कैसे रही गई? क्या बात हुई कि इनसान ने भगवान् के दिए हुए गुणों को एकदम भुला दिया!
स्रष्टा ने सृष्टि का जो प्रत्येक घटक बनाया है, उसकी छोटी- से कलाकृति का नाम ‘एटम’ है। क्या आपने ‘एटम’ को कभी देखा है? एटम में बहुत ताकत होती है। समूचे सौरमण्डल में
सूर्य केन्द्र में रहता है, परंतु एटम को कभी देखा है? एटम में बहुत ताकत होती है। समूचे सौरमण्डल में सूर्य केन्द्र में रहता है, परंतु एटम के अंदर ऐसा भूचाल रहता है कि वह वह
सूर्य को भी अपनी ताकत से ढक लेता है। जिस तरह से अंतरिक्ष में नवग्रह चक्कर काटते रहते हैं, उसी तरह से एटम भी अपने आप में पूर्ण शक्तिशाली है व सूर्य के चारों ओर चक्कर
काटता रहता है। एटम न्यूट्रानों, और प्रोट्रानों व इलेक्ट्रानों के रूप में बराबर चक्कर काटता रहता है।
भगवान् बड़ा है, यह भी मैं मानता हूँ। एटम और इनसान दोनों बहुत ही सूक्ष्म हैं, किंतु मनुष्य की प्रकृति भगवान् ने ऐसी बना दी है कि उसमें ताकतों और चमत्कारों का समावेश कर दिया है। भगवान् और इनसान का तरीका एक ही है, सत्यम्- शिवम् का। जैसे आदमी बड़ा होता है और बच्चा छोटा होता है, पर भूख दोनों की एक ही होती है। ऐसे ही भगवान् और
इनसान की प्रकृति एक ही होती है।
फिर यह फर्क कैसे पड़ा? मैं बताता हूँ- आपको जैसे बड़े लोग, संपन्न लोग अपव्यय के कारण गरीब हो जाते हैं, उनकी जागीरें नीलाम हो जाती हैं। ये सब कैसे हुआ? ये सब लड़कों
के अपव्यय के कारण हुआ। लड़कों ने किसी अच्छे कार्य में उस धन को नहीं लगाया, जिससे उनका जीवन आज खानाबदोशों की तरह से हो गया।
आदमी के पास कमाई के बहुत
सारे साधन हैं। उसकी उन्नति के लिए, लक्ष्य प्राप्ति के लिए और उसके अपने परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बहुत धन एकत्र हो सकता है, परंतु उसने ईश्वर प्रदत्त धन का
अपव्यय किया।
मित्रो! आज हमारे सामने उपयोग की समस्या है। उत्पादन की समस्या नहीं है, कमाने की समस्या नहीं है, वरन् समस्या यह है कि धन को किस तरह से खरच किया जाए। हमें कमाने
से ज्यादा उसकी चिंता करनी चाहिए, जो हमारे पास है। हमें उसकी रखवाली करनी चाहिए। एक कहावत है, ‘अंधी पीसे कुत्ता खाए।’ यह कहावत हम और आप जैसे लोगों के लिए
ही किसी ने बना दी है, क्योंकि क्यों हमें अंधी की तरह दिखाई नहीं देता। जिस तरह से उसके आटे को कुत्ता खा गया था और वह बैठी अनाज पीसती रही, उसी प्रकार हमारे ईश्वरप्रदत्त
धन को कोई और ही निरर्थक खा जाता है और हम कमाते रहते हैं। इसी से मिलती हुई एक और कहावत है- अंधा रस्सी बँटता जाए। बछड़ा उसे खाता जाए’ आपके और हमारे
सामने भी ऐसी ही समस्या है।
आत्मिक प्रगति के चार मार्ग
साथियो! मैं आपको अध्यात्म के चार रास्ते बताने जा रहा हूँ। उसमें से एक साधना के बारे में है। अभी जो बछड़ा और कुत्ता का उदाहरण दिया है, वो भवसागर है। पारस को छूकर
लोहे के सोना बनने की बात आपको बता चुका हूँ। पर अब मैं यह कहता हूँ कि भगवान् को छूकर आदमी भगवान् बन जाता है।
रामचंद्र जी, कृष्ण जी माँ के गर्भ से पैदा हुए और
जलसमाधि में या श्मशान घाट में जलाए गए। इसलिए इनसान कहलाए। जो पैदा होता है, वह मर सकता है, क्या वह आदमी भगवान् नहीं हो सकता, इनसान ही रहता है?
भगवान् आपसे यह कहता है कि यदि आपकी उपासना सही हो, तो आप साधारण मनुष्य से भगवान् बन सकते हैं। आप नर से नारायण बन सकते हैं। मुक्ति का रास्ता आपके लिए
भी खुला हुआ है। आप आग हैं, लकड़ी हैं या और भी कोई त्याज्य चीज हैं। जो भी हैं आप, घबराइए मत। आग से रिश्ता बनाइए और आग की भाँति दोषरहित जीवन बनाइए। जिस
प्रकार से बच्चे गुड्डे-गुड़ियों से खेलते हैं, उसी प्रकार आप भी पूजा- पाठ के द्वारा भगवान् से खेलते हैं। आपने कभी उपासना का महत्त्व ही नहीं समझा। यदि समझा होता, तो भगवान्
के नजदीक बैठने वाले जैसे उनके बराबरी के हिस्सेदार हो जाते हैँ, तो आप भी उसी प्रकार उनके बराबर हो जाते।
सही उपासना कैसी
मित्रो! यदि आप भगवान् की उपासना सही तरीके से करें, तो आप टिड्डे की तरह से हो जाएँगे। बरसात में जब चारों ओर हरियाली छाई रहती है, तो उस हरियाली को देखकर टिड्डा हरे रंग का हो जाता है। गर्मियों में घास सूखकर पीले रंग की हो जाती है, तो टिड्डा पीली घास को देखकर पीले रंग का हो जाता है। इसी तरह से जब आपको चारों तरफ से शैतान
दिखाई पड़ता है, तब आप शैतान हैं। जब आपको हैवान दिखाई पड़ता है, तब आप हैवान हैं। जब आपको इनसान दिखाई पड़ता है, तो आप इनसान हैं। यदि आप टिड्डे की तरह से
देखेंगे, तो आपको भगवान् दिखाई पड़ेगा। बताइए आपने कब की थी भगवान् की उपासना? गुरुजी! हमने तो कल ही की थी। भगवान् हमारी चौकी पर रखे हुए हैं। बेटे! भगवान् को
चौकी पर नहीं है, अपने हृदय में रखा जाता है। जिससे हमारे खून के साथ भगवान् घुल- मिल जाए। उपासना जीवन में समाहित की जाती है, साँसों में घोली, समाई जाती है। उपासना
जीवन का साइंस है, जो हमारे जीवन के प्रत्येक आचरण में छाई रहती है। गोमुखी में हाथ डालकर माला घुमाने से उपासना नहीं होती।
मित्रो! हम उपासना को आपके चिंतन में देखना चाहते हैं, आपके विचारों में देखना चाहते हैं। जैसे सूरदास के जीवन में भगवान् आ गया था, मीरा के जीवन में भगवान् आ गया था,
वैसे आपके जीवन में क्यों नहीं आया? क्योंकि क्यों भगवान् के चिंतन को आपने नहीं समझा। उसके स्वरूप को नहीं समझा। हिंदुस्तान के करोड़ से अधिक इनसान नकली उपासना
करते हैं। नकली उपासना से कभी भी आप भगवान् में समाविष्ट नहीं हो सकते। प्राचीन समय के सात ऋषियों को हम उपासना करने वाला मानते थे। उन्हें हम सप्तर्षि कहते थे। परंतु
आज हिं दुस्तान में न जाने कितने बाबाजी रंग- बिरंगे कपड़ा पहनकर उपासना करते हैं और जगह- जगह लोगों से अपमानित होते हुए डोलते हैं। क्यों? क्योंकि उनके पास नकली
उपासना है। जिस तरह से नकली दवाइयाँ होती हैं, नकली सोना होता है, उसी तरह से जो उपासना आप करते हैं, वह नकली है। आपको माला व पूजा- पाठ के जरिए बहकाया जा
रहा है। इस पूजा- पाठ से आप असली कर्मकाण्डों की तह तक नहीं पहुँच पाएँगे, और ईश्वर के ज्ञानरूपी चमत्कार से आप वंचित रह जाएँगे। अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर पाएँगे।
उपासना जीवन में उतरे
जिस प्रकार अकेले कलम से हम परीक्षा पास नहीं कर सकते, उसके साथ ही हमें अपने विषय का संपूर्ण ज्ञान आवश्यक है, उसी प्रकार माला फेरने से हम भगवान् को प्राप्त नहीं कर
सकते। अच्छी तस्वीर तब तक नहीं बन सकती, जब तक कलात्मकता कलाकार की आत्मा में प्रवेश न कर जाए। केवल रंगों व कागज के प्रयोग से ही अच्छी तस्वीर नहीं बन सकती।
आप उपकरणों से ही काम चलाना चाहते हैं, कर्मकाण्ड की तह तक नहीं जाना चाहते?
मित्रो! मैंने मैं कहा था कि आत्मा की प्राप्ति के लिए चार तरीके हैं। उनमें से एक न कम हो सकता है और न ज्यादा। आप भगवान् को अपना गुलाम मत बनाइए। भगवान् के चरणों में
अपना मस्तक झुकाइए और यह कहिए कि हम आपकी आज्ञानुसार चलेंगे। हम आपके सेवक हैं। आप इस लायक नहीं हैं कि अपनी हुकूमत भगवान् पर चला सकें। भगवान् को जो
कुछ आपको देना था, दे दिया। अब आपका काम है कि आप भगवान् का ब्याज चुकाएँ। भगवान् पर अपने कर्मों का रौब मत दिखाइए। पहले तो आप भगवान् से जो मनुष्य का
जीवन लेकर आए हैं, उसका ब्याज चुका दीजिए।
हमने तो पहले भी बैंक का ब्याज नहीं चुकाया था। बेटे! यह बैंक का ब्याज नहीं है, यह ईश्वर का दिया हुआ मानव- जीवन है।
गुरुजी! हमने तो ऐसे ही सुना था कि राम नाम लेने से ही सारे काम हो जाते हैं। फिर क्या जरूरत है- भगवान् का कर्ज चुकाने की।
मित्रो! एक समय की बात है। एक वकील और उनका एक मुवक्किल था। मुवक्किल किसी केस में फँस गया था। उसने कहा, वकील साहब! आप मुझे छुड़ा दें, तो मैं जन्म भर
आपका एहसान मानूँगा। वकील ने कहा, जन्म भर एहसान मत मान, बस तू मुझे पाँच हजार रुपये दे दे, मैं तेरा केस लड़ दूँगा। तू पागल बन जाना। मैं डॉक्टरों से मिलकर तेरे
पागलपन का सर्टीफिकेट बनवा दूँगा। जब तू अदालत में जाए, तो बस एक ही शब्द याद करके जाना। जब- जब तुझसे कोई सवाल पूछे तो तू कह दिया करना-मैं, क्योंकि हमारे देश में
पागलों के लिए कोई कानून नहीं है।
न्यायाधीश ने पूछा, क्या नाम है तेरा? उसने कहा, मैं। क्या तूने गलत काम किया है? मैं। न्यायाधीश कोई भी बात पूछते तो वह कहता, मैं। वकील ने कहा कि साहब यह तो पागल है।
यह बात उसने गवाहों व सबूतों के माध्यम से सिद्ध कर दी। जज साहब ने कहा कि इसे बरी किया जाए। छूटने के बाद वह आदमी वकील साहब की कोठी पर गया। वकील साहब ने
कहा, लाइए हमारी फीस के पाँच हजार रुपये। उस व्यक्ति ने कहा, मैं। इस तरह वकील साहब अपना माथा ठोकते रह गए।
भाइयो! आप और हम सब पागल ही तो हैं। आप सब राम- राम की मैं लगाए रहते हैं। आप वास्तविकता का मुकाबला कीजिए, नहीं तो जंजालों में भटक जाएँगे। आप जमीन पर
चलिए।
चमत्कार नहीं मर्म है।
भावराबिया एक संत थी। एक बार हसन राबिया के यहाँ आए, और उन पर अपना रौब गालिब करना चाहा। उन्होंने राबिया से कहा, आओ हम दोनों नमाज पढ़ेंगे। जमीन गंदी है,
इसलिए हम पानी पर बैठ कर नमाज पढ़ेंगे। हसन ने अपना ‘मुसल्ला’ पानी पर फेंक दिया। ‘मुसल्ला’ पानी के ऊपर तैरने लगा। ‘मुसल्ला’ नमाज पढ़ने के आसन को कहते हैं। हसन
के कहने पर राबिया ने सोचा, अच्छा तो ये पानी वाली बात कह कर मेरे ऊपर अपनी करामात दिखाना चाहते हैं। राबिया ने कहा, पानी पर ही क्यों? क्यों पानी को तो मछली, मेढक गंदे
करते रहते हैं। राबिया ने अपना मुसल्ला उठाया और हवा में फेंक दिया। मुसल्ला हवा में तैरने लगा। राबिया ने कहा, आइए हसन, हवा में बैठ कर नमाज पढ़ेंगे। हसन यह सब
देख कर दंग रह गए, क्योंकि क्यों वे राबिया पर अपने चमत्कार, सिद्धि दिखाने आए थे और अपना रौब जमाने आए थे।
राबिया ने कहा- हसन जो काम आप करने आए थे, वह तो एक मछली भी कर सकती है और जो हवा में तैरने का काम मैं करने वाली थी, उसे तो एक मक्खी भी कर सकती थी।
इसलिए न हमें पानी में तैरने की जरूरत है और न हवा में उड़ने की। हमें जमीन पर ही रहने की आवश्यकता है। हमें सचाई का मुकाबला करने की जरूरत है, क्योंकि हम जमीन
पर ही पैदा हुए हैं।
मित्रो! हमें भी रामनाम के चमत्कार देखने की आदत छोड़ देनी चाहिए। इनसान का हृदय तीन हजार रुपये का होता है। रामनाम सवा रुपये का होता है। तीन हजार रुपये की जमीन
पर आप सवा रुपये का बीज बोइए। फसल पैदा हो जाएगी। यह जमीन की कीमत है। बीज की कीमत बहुत कम है। खाली जमीन में घास पैदा हो सकती है। आप उसमें अपनी
बकरी चरा सकते हैं, परंतु बिना जमीन के आप बीज किसमें बोएँगे? भजन से अनेक काम पूरे हो सकते हैं, परंतु भजन को दृढ़ बनाने के लिए आदमी का दृढ़ चरित्र रहना, उदार
रहना अति आवश्यक है। संतों को चमत्कार आते हैं, हर एक को नहीं आते।
हमारा चरित्र हमेशा ऊँचा होना चाहिए। साधना का यही तरीका है, जिसे मैं आज तक आपको समझाता
चला आया हूँ।
स्वाध्याय की महत्ता
कल मैंने मैं आपसे यह निवेदन किया था कि स्वाध्याय को भी भजन का एक हिस्सा माना जाना चाहिए। हमें किसी साहित्य विशेष में कोई दिलचस्पी नहीं है। हम तो उन्हीं विचारों को
अपनाना चाहते हैं, जो नेकी के रास्ते पर चलने में मदद करें, चाहे वे विचार इनसान के मुँह से निकले हों, हों चाहे वे किताब में छपे हों।हों स्वाध्याय के लिए ऐसे ही प्रेरणाप्रद विचारों व
कथनों की आवश्यकता है। आप अपने अंदर से कुविचारों को निकाल फेंकिए, दृढ़ता से उनका मुकाबला कीजिए। अपने अंदर सुविचारों को पनपने दीजिए। छेनी से छेनी काटी जाती है, यदि आपके बुरे विचार आप पर हावी होते हैं, तो आपके पास ब्रह्मचर्य का हथियार है, उसका उपयोग कीजिए। यदि दोनों की कुश्ती करवाई जाए, तो बुरे विचारों को अच्छे विचार
एक ही टक्कर में चित्त कर देंगे। आपको अपनी दिनचर्या में स्वाध्याय के लिए महत्त्वपूर्ण समय रखना ही चाहिए, नहीं तो कामुकता के अश्लील विचार दिमाग में छाए रहेंगे और आप
किसी भी लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाएँगे।
संयम एक सस्ती औषधि
साथियो! हम आपसे यही निवेदन करना चाहते हैं कि आप अपनी बरबादी को बंद कीजिए, संयमशील बनिए। असंयम कहते हैं- बरबादी को। जो गुण हमें पूर्वजों द्वारा विरासत में
मिले हुए हैं, उनको हम अपव्यय करने में लगे हुए हैं।
मथुरा में एक कोतवाल साहब थे। वे बहुत ही रिश्वत लेते थे। नोटों से उन्होंनेन्हों थैले और पेटियाँ भरकर रखी हुई थीं।थीं उनके लड़के
नोटों को पतंग में बाँधकर छत से उड़ाया करते थे। बच्चों से कहते कि जो हमारी पतंग को काटेगा, हम उसे दस का नोट देंगे। कभी- कभी उनके लड़के दस के नोट की सिगरेट
बनाकर पी लेते थे। नोट में तंबाकू रखी और सिगरेट बनाकर पी गए। पाँच- दस वर्ष में उन्होंनेन्हों बाप की सारी कमाई को नष्ट कर दिया और गरीबी का जीवन जीने लगे। वह कोतवाल
और उसके बेटे बरबाद हो गए। यही हालत आपकी है और आप हैं कि कहते हैं कि कोतवाल के लड़के बड़े उद्दंड थे। हम और आप भी तो धन की बरबादी करने पर आमादा हैं।
प्रकृति का प्रत्येक जानवर लंबे समय तक जीता है। मौत तो सबको आती है, परंतु कोई भी जानवर कभी बीमार नहीं पड़ा। लेकिन आदमी बीमार पड़ता है। उसके साथ रहने वाले
जानवर भी जरूर बीमार पड़ते हैं। इसकी वजह क्या है? भगवान् ने जानवरों का शरीर इस तरह से बनाया है कि वह कभी बीमार नहीं पड़ते। यदि यह मान लिया जाए कि वायरस या
कीटाणु आपको बीमार करते हैं, तो अस्पताल में टी०बी० के मरीजों के कपड़े धोने वाले धोबियों को तो यह बीमारी होती ही नहीं।हीं तब वायरस कहाँ जाते हैं।
मित्रो! ये सारे कीटाणु असंयम से आते हैं, जिसकी वजह से आपने अपनी सेहत खराब कर ली है। मनुष्य अपनी जीभ की नोंकनों से अपनी कब्र तैयार करता है। हमने जो बीमारियाँ
अपने लिए पैदा की हैं, वे सब जीभ की नोंकनों द्वारा पैदा की हुई हैं, क्योंकिक्यों हमने जीभ की नोंकनों को संयम में नहीं रखा। इससे क्या हो जाता है। जिस तरह पहले आप परीक्षा में प्रथम
आते थे, अब फेल होते चले जा रहे हैं। नजर कमजोर हो गई है, उस पर चश्मा चढ़ गया है। हमारे पड़ोस में एक किरायेदार थे, मकान में दो नल लगे हुए थे। जब कभी ऊपर वालों
को परेशान करना होता, तो नीचे का नल खोल देते थे। तब ऊपर वाले को पानी लेने के लिए नीचे के कई चक्कर लगाने पड़ते थे। वे चिल्लाते रहते थे पानी के लिए।
मित्रो! हमारी आँखें कहती हैं कि हमें तेज चाहिए हमारे कान कहते हैं कि हमें ताकत चाहिए। हमारा दिमाग कहता है कि हमें खुराक चाहिए। आपके अंदर हर तरह का ‘वर्चस्’
चाहिए। स्वामी दयानंद सरस्वती एक बार शौच के लिए बाहर गए, तो मार्ग में दो साँड कुश्ती लड़ रहे थे। दोनों ही बड़े बलिष्ठ थे और क्रोध में लड़ते हुए लहूलुहान हो रहे थे। आपस में
फिर से टक्कर मारने चले, तो स्वामी दयानंद ने कहा, क्यों रे! तुम नहीं मानोगे साँड़ फिर भी नहीं माने तो स्वामी जी ने लोटे को जमीन पर रख दिया और एक साँड़ का सींगसीं एक हाथ
से तथा दूसरे का सींगसीं दूसरे हाथ से पकड़कर घुमा दिया। इससे एक साँड़ गिर गया और दूसरा भाग गया। यह ताकत उनमें कहाँ से आई? संयम से। आपको भी जरूरत है संयम
की। आप सभी संयम की दवाई खाइए। यह दवाई शंकराचार्य, भीष्म पितामह, हनुमान् जी आदि सभी ने खाई थी। आप कहते हैं कि बाजार की दवाइयों में बहुत ताकत होती है, सो
ऐसी बात नहीं है। वे दस पैसे की चीज का एक रुपये वसूल करते हैं। इसी से आप उसकी ताकत का अंदाजा लगा सकते हैं। इसलिए आप संयम की सस्ती दवा खाइए। यही आपको
लाभ पहुँचाएगी। इसी से आपका दिल- दिमाग और स्वस्थ बनेगा।
मित्रो! संयम ही जीवन है। संयम चार तरह के हैं। पहला है, इंद्रिय संयम। इंद्रिय संयम से मतलब है, जीभ का संयम, जिसने आपका पेट खराब कर दिया और आप बीमार रहने लगे।
जरूरत से ज्यादा आप खाते चले गए और शरीर में जहर फैल गया। आप ठीक हो सकते हैं, बशर्ते आप अपने पेट पर कृपा कीजिए, जरूरत से ज्यादा मत खाइए।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस विवाहित थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम शारदा था। वे उन्हें भरपूर प्यार करते थे, परंतु कोई जरूरी नहीं कि एक- दूसरे के शरीर को बरबाद किया जाए। एकदूसरे के शरीर में बीमारी को प्रवेश करा दिया जाए। क्या इसी से आपका प्यार होता है? क्या मतलब है आपके प्यार से! मर्द औरत को खाएगा और औरत मर्द को खाएगी, क्या यही
अर्थ है विवाह का? गाँधी जी ने एक किताब लिखी है, ‘संयम की राह पर’। उसमें लिखा है कि स्त्री और पुरुष बहन- भाई की तरह भी रह सकते हैं। आप पशुओं से भी कुछ सीखिए।
साँड़ गायों झुंड में रहता है, परंतु बिना गाय की आवश्यकता के वह गायों की तरफ देखता भी नहीं है। वह भी ब्रह्मचर्य का पालन करता है। जब पशु संयम से रह सकते हैं, तो आप
क्यों नहीं रह सकते?
मित्रो! आप अपनी जीभ को बुरे वचन बोलने और भक्ष्य खाने से रोकिए, क्योंकि इन दोनों से ही जीभ जलती है। जली हुई जीभ से भगवान् का भजन नहीं किया जा सकता। ‘‘जैसा
खाए अन्न- वैसा बने मन- आपकी यही नियति बन गई है। अतः आप संयम का आरंभ जीभ से करिए। उससे कहिए कि हम आपको भगवान् की पूजा के लायक बनाना चाहते हैं।
स्वाद के लिए हम कोई भी ऐसी चीज नहीं खाएँगे, जो हमारे शरीर के लिए हानिकारक हो। हम किसी से ऐसे शब्द नहीं बोलेंगे, जो दूसरों को गुमराह करने वाले हों, हों दूसरों को पतन
के मार्ग पर ले जाने वाले हों।हों आप संयम जीभ से शुरू कीजिए, फिर देखिए कि आपकी वाणी में चमत्कार कैसे पैदा होता है?
आप इस संबंध में हमसे पूछते हैं कि गुरुजी! आपने अपनी वाणी को कैसे शुद्ध बनाया? बेटे! हमने संयम किया है। चौबीस वर्षों तक जौ की रोटी और छाछ का सेवन किया। इससे
हमारी जीभ इस योग्य हुई। नमक हमने बिलकुल नहीं खाया। इस्लाम धर्म के संस्थापक बिना पढ़े थे, परंतु जीभ के संयम से उन्होंनेन्हों अपने अंदर अपनी बात मनवाने का गुण पैदा
किया। ऋषियों की जीभ से निकले हुए वचन भी मंत्र थे। उन्होंनेन्हों भी संयम किया था, इसलिए आपको भी उनके बताए मार्ग पर चलना चाहिए। आप भी अपने जीवन के उचित लक्ष्य
को प्राप्त कीजिए। धनुष की प्रत्यंचा जितनी खींची जाएगी, तीर उतना ही तेज चलेगा। धनुष से तात्पर्य है, हमारी जीभ से, जो मंत्र के उच्चारण के लिए है। ऋषियों की जीभ से निकले
हुए मंत्रों ने राजा दशरथ के चार बच्चों को जन्म दिया था। लोमश ऋषि ने राजा परीक्षित को शाप दिया था कि जा तुझे सातवें दिन साँप काट खाएगा। उनका शाप सच्चा इसलिए था,
क्योंकिक्यों ऋषि संयमशील थे। अक्षरों में कोई ताकत नहीं है। ताकत तो वाणी के संयम से आती है। शक्ति का स्रोत संयम ही है।
आप दोनों में से कोई भी चीज ले लीजिए, भौतिक या आध्यात्मिक। दोनों में ही संयम की आवश्यकता है। अतः आप इंद्रियों का संयम कीजिए। इंद्रियों के संयम का अर्थ है कि आपने
अपने जीवन में चार सूराख कर रखे हैं, उनमें से एक- एक को बंद करना। अगर आपने एक भी सूराख को बंद कर दिया, तो आप में ताकत आती चली जाएगी। सूराख बंद करते ही
आप यह महसूस कर सकते हैं कि आप में ताकत आनी शुरू हो गई। आपको इसके चमत्कार अच्छे स्वास्थ्य के रूप में, दीर्घजीवन के रूप में दिखाई देने लगेंगे।
आप तो हर समय परायी पत्तल ही चाटने की कोशिश करते हैं। आप अपने ऊपर विश्वास करना सीखिए। अपनी ताकत को पहचानिए। संयम की शक्ति का अंदाजा लगाइए। संयम
को हम तप कहते हैं। आप खाना खाएँ चाहे न खाएँ। शरीर को धूप में खड़ा रखने से भी कुछ बनता- बिगड़ता नहीं, हीं अनेकों ऋषि धूप में खड़े रहते हैं, परंतु उच्चस्तरीय उपलब्धियाँ
संयम के कारण ही मिलती हैं, अन्यथा धूप में खड़े रहने पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
दूसरा संयम है, मन का संयम, विचारों का संयम। यह इस तरह से है, जिस तरह से आवारा लड़के मारे- मारे फिरते हैं। यह भी इसी तरीके का है। आपके मन में हमेशा बेकार के
विचार आते रहते हैं। यदि आप थोड़ा भी संयम विचार को एकत्र करने में लगाएँ, तो आप देखेंगे कि आपके विचार क्या से क्या बन जाएँगे। साहित्यकार एवं वैज्ञानिकों में क्या विशेषता होती है? कुछ भी नहीं।हीं बस ये विचारों को एकत्र करते हैं- मन की शक्ति से। सर्कस में काम करने वा ली लड़कियों में बस एकाग्रता की शक्ति होती है। वे अपने मन को भागने से रोके
रखती हैं, तभी तो वे ऊँचे झूलेझू लेसे झूलकर जाल में कूद पड़ती हैं और उनको जरा भी चोट नहीं आती । आप यदि एक काम पर पूरा विचार करना सीख जाएँ, तो आप क्या से क्या बन
सकते हैं? हमने अपने जीवन में स्वाध्याय का नियमित समय एक घंटे के हिसाब से रखा। पंद्रह वर्ष की उम्र से सत्तर वर्ष की उम्र तक हमने सत्तर लाख पन्ने पढ़े हैं। ये सब विचारों का
संयम है।
आप रा त को पिक्चर देखकर आते हैं और हीरोइनों के सपने देखने लगते हैं। हीरोइनों के फोटो खरीद कर लाते हैं। पहले आप यह बताइए कि आपका वेतन कितना है? महाराज जी
तीन सौ रुपये। अरे! तीन सौ रुपये तो एक हीरोइन अपने सेंट पर खरच कर देती है। आप इसी बल पर हीरोइन से दोस्ती करने की सोच रहे थे। अपने विचारों पर संयम करना सीखो।
अपने विचारों को समाज- सुधार के लिए अच्छी दिशा दो। आपके दिमाग व शरीर की शक्ति आपको कहाँ- से पहुँचा सकती है।
मित्रो! एक और संयम है और वह है समय का संयम। आपने जितनी अधिक समय की बरबादी की है, यह उसी का परिणाम है कि आप दुः खी जीवन जी रहे हैं। समय भगवान् ने
आपको इसलिए दिया है कि समय की कीमत से आप दुनिया की कीमती- से वस्तु खरीद सकते हैं। आप चाहें तो समय की कीमत से लोकसेवी बन सकते हैं, साहित्यकार बन सकते
हैं। समाज- सुधारक बन सकते हैं, परंतु आपने समय के मूल्य को नहीं पहचाना। आपने अपने जीवन का सारा समय वैसे ही व्यर्थ में नष्ट कर दिया। जिन लोगों ने समय का उपयोग
किया है, वे उन्नति के ऊँचे शिखर पर चढ़ते चले गए। चमार, धोबी, मोची, भंगी भी रात्रि पाठशाला में जाकर दो घंटे प्रतिदिन के हिसाब से पढ़कर ऊँचे पद पर तरक्की कर जाते हैं।
समय का सदुपयोग करने के कारण ही आज वे अनेकों संस्थाओं में कार्यरत हैं। लेकिन आप तो कहते हैं कि क्या करें साहब! हमारे पिताजी मर गए थे, इसलिए हम प्राइमरी तक ही
पढ़ पाए। तो क्या पिताजी अपने साथ आपका शरीर भी ले गए? मित्रो, आपने समय की कीमत नहीं पहचानी।
एक ड्रा इंग मास्टर थे। साठ वर्ष की आयु में वे रिटायर हुए। रिटायर होने के बाद उन्होंनेन्हों संस्कृत पढ़ना शुरू किया। संस्कृत पढ़कर वे वेदों के भाष्यकार कहलाए। उन्हें ‘पद्मभूषण’ की
उपाधि भी मिली थी। उन्हों नेन्हों संस्कृत में भी बहुत सा हित्य लिखा है। आप क्या करते हैं रिटायर्ड होकर? हमारा बेटा कमाकर लाता है और हम बेकार बैठे रहते हैं। बताइए हम क्या
करें? बेकार बैठे रहना भगवान् की दी हुई संपदा का तिरस्कार करना है। उसके नियमों की अवहेलना करना है। आदमी जब तक श्रमशील नहीं होगा, तब तक उन्नतिशील नहीं हो
सकता। आप अपने श्रम का उपयोग समाज की उन्नति के लिए कीजिए, जिससे हमारा समाज अच्छा और सुंदर बने।
रावण की कथा है। रावण ने एक दिन काल को पकड़ लिया। पकड़कर पाटी से बाँध लिया और फिर काल की पिटाई लगाई। काल चीखने- चिल्लाने लगा। रावण ने कहा कि काल तू
मुझे धन दे और विद्या दे। काल ने डर के मारे लंका को सोने की बना दिया और रावण को विद्वान बना दिया। काल का क्या अर्थ है? आप तो काल को भूत- प्रेत या देवता मानते हैं,
परंतु वास्तव में काल समय को कहते हैं। इसका जो सदुपयोग करते हैं वे महान् उपलब्धियों के स्वामी बनते हैं।
बिहार में हजारी नाम का एक किसान था। उसने अपना सारा समय आम के बगीचे लगाने में लगाया। बिहार में उसने एक हजार बाग लगाए। हजार बागों की वजह से उस जिले का
नाम ‘हजारी बाग’ रखा गया। आप तो अपना समय गप्पें हाँकने में लगाते हैं। समय की कीमत समझिए। आप अपने समय को आध्यात्मिक उन्नति में लगाइए। जिससे आपका जीवन
सफल हो जाए। आप समय की दिनचर्या बनाइए।
साथियो! आपकी दौलत चा र तरह की है। पहली है- इंद्रिय संयम। इसे अपने जीवन में महत्त्व दीजिए। इंद्रियों का संयम न करने से आप अपने आप को तबाह करते जाते हैं। आप
अपने विचारों की संपदा को किन्हीं उपयोगी कार्यों में लगाना सीखिए। यदि आप ने विचारों का संयम करना प्रारंभ कर दिया, तो आपका दिमाग जिसे हम ब्रह्मलोक कहते हैं, सद्विचारों का भंडार हो जाएगा। यही अतीन्द्रिय क्षमता का मालिक है, आपकी शालीनता का, सुख- समृद्धि का स्वामी है। यह दिमाग एक कंप्यूटर की तरह से है, जिसकी क्षमता असीम है।
तीसरा संयम- समय का संयम है। इसके लिए आप अपनी दिनचर्या बनाकर चलिए। गाँधी जी ने देश के लिए अनेकों कार्य किए। अपने समय की दिनचर्या उन्होंनेन्हों बनाकर रखी थी।
सब कार्य वे नियत समय पर करते थे। समय को बिलकुल भी व्यर्थ नहीं गँवाते थे। उन्होंनेन्हों बहुत सारा साहित्य लिखा।
मित्रो! हम मशीन की तरह से जीते हैं। आठ बजे का समय हमारा सोने का है। मित्र आते हैं और कहते हैं कि हमसे बात कीजिए। हम कहते हैं कि हम नहीं करेंगे आप से बात, यदि
आप ना राज होते हैं, तो हो जाइए हमारी बला से। हम प्रतिदिन चार घंटे लेखन करते हैं। नौ अखबारों का हम संपादन करते हैं, अखण्ड ज्योति का संपादन करते हैं, अपने मनोयोग
और तन के सहयोग से। हम दोनों काम इसलिए कर लेते हैं कि हमारा अपना मन और तन दोनों एक साथ लगते हैं, परंतु आपकी कभी ‘तन डोले’ तो ‘कभी मन डोले’ वाली स्थिति
रहती है। इसलिए आप काम में अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाते हैं।
गुरुजी! आपकी उन्नति में कौन- कौन सहायक हुआ है? बेटे! आध्यात्मिक दृष्टि से गायत्री मंत्र हुआ है, किंतु इन सबके पीछे जो चमत्कार आपको दिखाई देता है, उसका कारण है,
समय का संयम। हम समय के गुलाम हैं। हमारी प्रेमिका कौन है, जिसे देखे बिना हमें चैन नहीं पड़ता? वह है हमारी घड़ी, जो हर समय हमारी मेज पर रखी रहती है। आपके पास भी
है घड़ी? हाँ साहब! हमारे पास और हमारी पत्नी- दोनों के पास घड़ी है। तब तो आपकी पत्नी ने एम०ए० पास कर लिया होगा? नहीं साहब, उसे तो घर के कामों से ही समय नहीं
मिलता है। तो दिखाइए अपनी घड़ी और बताइए कि कितने बज रहे हैं? साहब, इसमें तो साढ़े उनतीस बज रहे हैं। समय देखना आता नहीं और घड़ी लिए फिरते हैं।
चौथा एक और महत्त्वपूर्ण संयम है। उसका नाम है- अर्थसंयम अर्थसंयम का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है। ‘‘सादा जीवन- उच्च विचार’’ उन आदमियों का जीवन है, जिन्होंनेन्हों अपना
जीवन पहले चरण के हिसाब से जिया है। जो आदमी जमीन को चूमते हैं, आसमान को चूमते हैं, वे आदमी बेईमान होते हैं, कर्जदार होते हैं। जिन्होंनेन्हों अध्यात्म में प्रवेश किया है और
पैसे की दृष्टि से सामंजस्य नहीं रखा, उन्हें आगे चलकर बहुत कठिनाई उठानी पड़ सकती है। मित्रो! उन्हें जीवन की उन्नति के लिए कोई रास्ता नहीं मिलेगा। बच्चों की शिक्षा व पालनपोषण का वे उचित प्रबंध नहीं कर सकेंगे। हमेशा उनके ऊपर फिजूलखर्ची छाई रहेगी। आध्यात्मिक दृष्टि से फिजूलखर्ची एक गुनाह है। कानून चाहे आपके ऊपर मुकदमा चलाए या
न चलाए, लेकिन अध्यात्म आपके ऊपर मुकदमा जरूर चलाएगा। जिस देश व समाज में आप पैदा हुए हैं, उसके औसत के हिसाब से आप खरच कीजिए। आप कमा तो सकते हैं,
लेकिन अपनी कमाई को खरच नहीं कर सकते। आप अपनी कमाई में से कुछ बचत कीजिए।
अर्थसंयम के बारे में मैं अक्सर ईश्वरचंद्र विद्यासागर का नाम लेता हूँ। उनको पाँच सौ रुपये वेतन मिला था। उन्होंनेन्हों अपने घरवालों को बुलाया और कहा कि ये लीजिए पचास रुपये।
हिन्दुस्तान का व्यक्ति इससे ज्यादा खरच नहीं कर सकता। जो रुपये हमारे पास बच जाते हैं, इसको हम विद्यार्थियों के लिए खरच करेंगे। हमारा देश बहुत गरीब है। विद्यार्थियों की
भीड़ उनके दरवाजे पर लगी रहती थी। आप तो जरूरत से ज्यादा खरच करते हैं। आपने- अपने जीवन में बेकार की जरूरतों को पाल रखा है। फिजूलखर्ची बंद कीजिए।
मित्रो! एक बार हमने आपको बताया था कि जब हमारे बाप- दादा मरे थे, तो जो पैसा हमें मिला था वो सारा हमने गायत्री तपोभूमि पर लगा दिया। हमने अपनी जमीन स्कूल के नाम
दान कर दी। अपने लिए हमने कुछ नहीं बचाया। जब से हम अखण्ड ज्योति में रहे हैं, हम अपने परिवार में पाँच प्राणी हैं, दो बच्चे, एक हमारी माताजी और हम दो पति- पत्नी परंतु
पाँच आदमियों का हमारा खरच दो सौ रुपये मात्र रहा है। भारत के नागरिकों को बड़े ही किफायत से धन खरच करना चाहिए। गाँधी जी ने बहुत कम धन में गुजारा किया।
अमेरिका के एक सज्जन थे। पुराने कपड़े पहनते थे। खाने में भी किफायत करते थे, लेकिन वे करोड़पति थे। उनके पास एक महिला आई और कहने लगी कि हम आप से विवाह करना चाहते हैं। उस सज्जन ने कहा कि विवाह तो हम कर लेंगे, परंतु आप हमें देंगी क्या? क्या कमाएँगी हमारे लिए? महिला ने कहा, इस कंजूस के साथ कोई शादी नहीं करेगा।
उस व्यक्ति के बारे में विख्यात हो गया कि वह बड़ा कृपण है। एक बार एक विश्वविद्यालय को चंदे की आवश्यकता पड़ी। कमेटी के लोग कंजूस के पास गए और कहने लगे कि
साइंस की एक प्रयोगशाला बनाई जा रही है। विद्यार्थियों के लिए आप कुछ धन दीजिए।
कहने को तो उसने नमस्ते कर लिया। उसकी मेज पर तीन मोमबत्तियाँ जल रही थीं।थीं उसने एक मोमबत्ती बुझा दी। लोग यह देखकर हँस पड़े। कंजूस ने पूछा कि आपको कितना
पैसा चाहिए? कमेटी के लोगों ने डरते हुए कहा पाँच सौ रुपये। कंजूस ने तुरंत पचास हजार रुपये का चेक काट दिया। लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। कहने लगे हमने तो आपसे पाँच
सौ रुपये माँगे थे और आपने इतना दे दिया। ये क्या किया आपने? उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था। कंजूस व्यक्ति कहने लगा कि मैं अपने जीवन भर प्रयोगशाला बनाने का सपना देखता
रहा, पर पूरा न कर सका। अच्छी बात है- जो आप इस काम को करने जा रहे हैं। लीजिए यह पहली किश्त है। मैं आपके विश्वविद्यालय को देखने आऊँगा। अगर काम सही तरीके से
हुआ तो आगे भी धन दूँगा। मैं अपनी सारी दौलत आपको देकर के जाऊँगा? मैं इसे रखकर क्या करूँगा।
मित्रो! हम व्यक्तिगत जीवन में भी किफायत कर सकते हैं। पैसा तो ऐसी चीज है कि जरा- सी मुट्ठी खुलते ही समाप्त हो जाता है। फिजूलखर्ची को ही चोरी कहते हैं। इससे कभी भी
पूरा नहीं पड़ सकता। अतः आप संयमशील बनिए और उतना ही खरच कीजिए, जिससे आपका शरी र जिंदा रह सके, परंतु अभी तो आप शरीर के लिए कम तथा विलासिता के लिए
अधिक खरच करते हैं। हमारे चारों सूराखों में से हमारी उन्नति, अध्यात्म, पुण्य और लक्ष्य टपक जाता है।
अध्यात्म- जीवन में संयम को तप कहते हैं। तप चा र तरह के होते हैं। यदि आप चारों तरह के तप करना शुरू करेंगे, तो तपस्वी को जो सिद्धियाँ मिलती हैं, वे सिद्धियाँ आपको प्राप्त
हो जाएँगी। एक बार आप फिर समझ लें कि तप माने इंद्रियनिग्रह, तप माने मनोनिग्रह, विचारों का निग्रह। तप माने समय का संयम और तप माने अर्थ का निग्रह।
एक बात और देवताओं के अनुग्रह की बात आप समझ लें। देवता नाम इसलिए रखा गया है कि वे दया करते हैं। देवता का अर्थ है, देने वाला। देवता हर समय कुछ न कुछ देते रहते
हैं, लेते नहीं हैं, हम माँगते हैं और वे देते हैं, परंतु यहाँ यह विचार करना पड़ेगा कि देवता क्या देते हैं? देवता के पास जो चीजें होंगी हों वही तो वह देगा। जिसके पास जो चीज नहीं होगी,
तो वह क्या देगा? जो चीज बैंक में मिलती है वह है रुपया और कुछ नहीं मिलता है बैंक में। रुपये के बदले में आपको सब चीज मिल सकती है। रुपये में ताकत तो है, लेकिन देवता में
जो चीज है- वह है- देवत्व यही देवता हमें दे सकते हैं। देवत्व कहते हैं- गुण कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता को। गुणों की दृष्टि से श्रेष्ठ, कर्मों की दृष्टि से श्रेष्ठ, स्वभाव की दृष्टि से श्रेष्ठ- इतना
काम करने के बाद देवता निश्चिंत हो जाते हैं, अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं।
मित्रो! दुनिया में सफलता एक चीज के माध्यम से मिलती है और वह है- उत्कृष्ट व्यक्तित्व। जिस व्यक्ति ने बिना मेहनत के कोई चीज प्राप्त कर ली है, उसे कहते हैं, तरकीब और
तिकड़म। यदि इस तरीके से आपने कोई चीज प्राप्त कर ली है, तो वह वस्तु आपके पास नहीं ठहरेगी। आप में हजम करने की ताकत हो, तो ही आप सब चीज खा सकते हैं। दौलत
को हजम करने का तरीका होना चाहिए। जैसे- जैसे आपके पास पैसा बढ़ता जाएगा, तो आपके अंदर दोष बढ़ते जाएँगे। आप गरीबों से भी बुरे पड़ेंगे। जीवन में ऐसी विसंगतियाँ बढ़ती
जाएँगी, जो आपको दौलत का फायदा पहुँचाना तो दूर आपको नुकसान ही पहुँचाएँगी। यह दौलत आपको तबाह कर देगी। संतानें बिगड़ जाएँगी, इससे तो गरीबी अच्छी है।
दौलत को हजम करने की आपके शरीर में ताकत होनी चाहिए। अच्छे विचार मन में होने चाहिए। तभी आप दौलत को हजम कर सकेंगे, नहीं तो आप बुरे कार्य करेंगे। हिम्मत से
बुराइयों का मुकाबला कीजिए। आपका भीम के तरीके से बलवान होना समाज के लिए अभिशाप साबित हो सकता है। इसलिए आप अपनी ताकत को उचित कार्यों में लगाइए। मैं
मानवता का पुजारी हूँ। दुनिया में तबाही पढ़े- लिखे लोगों ने ही मचाई है। तो क्या हम पढ़ना- लिखना छोड़ दें? पढ़ाई छोड़ने से हमारे आगे वही हालात पैदा हो जाएँगे, जैसे गाँवों में
पहले एक ही आदमी पढ़ा- लिखा होता था। बाकी सब निरक्षर रहते थे। हम आपसे बार- बार कहते हैं कि किताब वालों के पास जाइए, स्वाध्याय करिए। उनका सत्संग करिए। मित्रो! मेरा ख्याल है कि यदि सबके सब बिना पढ़े रह जाएँ, तो दुनिया में शांति कायम रह सकती है, क्योंकिक्यों तब आदमी की अक्ल का विस्तार सीमित होगा। वह सीमित क्षेत्र में ही
बुराइयाँ करेगा, क्योंकिक्यों उसकी अक्ल का विस्तार ही नहीं हुआ है। तो क्या मैं शिक्षा विरोधी हूँ? क्या मैं साक्षरता विरोधी हूँ? नहीं, हीं मैं शिक्षा का विरोधी नहीं हूँ, परंतु शिक्षा को अपने
अंदर आत्मसात् करने का गुण होना चाहिए। शिक्षा के साथ मनुष्य में जिम्मेदारी भी आनी चाहिए- इसका मैं हिमायती हूँ। बहुत सारी चीजें दुनिया में हैं। देवता आपको हजम करने की
शक्ति देते हैं। दुनिया की दौलत को हजम करने की भी विशेषता आप में होनी चाहिए। यदि देवत्व आपको प्राप्त हो जाए, तो आप संसार की समस्त वस्तुओं से लाभान्वित हो सकते
हैं। इन्हीं सब बातों पर चलकर आप पूर्णमिदं बन सकते हैं।
पं श्री राम शर्मा
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