विशुद्ध मन
परमतीर्थ है
आदि शंकराचार्यजी ने धर्मशास्त्रों का गहन अध्ययन किया था । वह ज्ञान की
साक्षात् मूर्ति थे। बड़े- बड़े विद्वान् उनकी ख्याति सुनकर उनके पास पहुँचा करते
थे। हर कोई उनसे अपनी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए लालायित रहा करता था ।
एक बार एक जिज्ञासु उनके पास अपनी समस्याओं को लेकर पहुंचा । उसने प्रश्न
किया, दरिद्र कौन है? शंकराचार्यजी ने बताया, जिसकी तृष्णा असीमित है, वह दरिद्र है । उस जिज्ञासु ने दूसरा प्रश्न
किया, धनी कौन है ? उत्तर मिला, जो पूर्ण संतोषी है, वही धनी है । संतोष से बड़ा धन दूसरा नहीं है ।
शंकराचार्यजी से पूछा गया , जीवित रहते हुए भी कौन मर चुका है ?
जवाब था, उद्यमहीन और
निराश व्यक्ति ही जीवित होते हुए भी मृतक के समान हैं ।
श्री शंकराचार्य बताते हैं , श्रुतिजनित आत्मज्ञान को सांसारिक बंधन कहते हैं । सच्चरित्रता
सबसे महत्त्वपूर्ण भूषण है । विशुद्ध मन परम तीर्थ है । कामिनी कंचन की आसक्ति पतन
का कारण बनती है । सत्संग , दान, सद्विचार और
संतोष ब्रह्म प्राप्ति के सरल साधन हैं । सच्चा संत वही है, जो समस्त विषयों से वीतराग, मोहरहित और ब्रह्मनिष्ठ शंकराचार्यजी ने कहा, प्राणियों का ज्वर चिंता है । विवेकहीन
व्यक्ति मूर्ख है । जो ब्रह्म की प्राप्ति कराती है, वही विद्या है । जिसने मन को जीत लिया, समझो, उसने जगत को जीत लिया ।
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