मोक्ष का अधिकारी
युधिष्ठिर प्राय: भीष्म पितामह के चरणों में बैठकर उनका सत्संग करने को
लालायित रहते थे। वे उनके समक्ष अपनी जिज्ञासाएँ प्रस्तुत कर उनका समाधान प्राप्त
किया करते थे । एक बार उन्होंने प्रश्न किया कि गृहस्थ पुरुष के कल्याण का सूत्र
बताने की कृपा करें । भीष्म ने कहा, गृहस्थ पुरुष सत्य - सरलता का पालन करे । वृद्धजनों व अतिथि का
आदर - सत्कार करे । भगवान् की भक्ति करे और अपनी स्त्री से ही अनुराग रखे, ऐसा आचरण करने वाले गृहस्थ के कल्याण में कोई
संशय नहीं ।
सद्गृहस्थ जनकजी का उदाहरण देते हुए भीष्म पितामह ने कहा, जनक गृहस्थ रहते हुए भी भगवान् की भक्ति में
हमेशा लीन रहते थे। उन्हें दुःख - सुख का अंतर पता नहीं लगता था । ऐसा सद्गृहस्थ
किसी संन्यासी से कम नहीं होता । युधिष्ठिर ने प्रश्न किया, पितामह, मोक्ष का अधिकारी कौन है? भीष्म ने समझाया, जो व्यक्ति लोभ, मोह जैसे दोषों का त्याग करता है, जिसके लिए मिट्टी और सोना समान है, जो आसक्तिरहित है, वह मोक्ष का अधिकारी होता है । गेरुआ वस्त्र
धारण करना, कमंडल धारण
करना — ये सभी संन्यास
मार्ग का परिचय देने वाले चिह्न मात्र हैं । इनसे मोक्ष नहीं मिलता । काम, क्रोध, लोभ, भय आदि का त्याग करने वाले, पूर्ण संयमी संन्यासी और भगवान् की भक्ति व प्रेम में डूबे रहने वाले साधु
को ही मुक्ति प्राप्त होती है । धर्मराज युधिष्ठिर को अपने प्रश्नों का संतोषजनक
उत्तर मिल गया ।
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