भूखे की भाषा
बौद्ध साधक हुआंग पो एकांत में साधना किया करते थे। कई बार भिक्षा माँगने
गाँव न जा पाते , तो धरती
खोदकर कंद- मूल निकाल लेते और उससे ही अपनी क्षुधा मिटाते । एक दिन भूख से व्याकुल
संत हुआंग कंद की तलाश में जंगल पहुँचे । अचानक किसी ने पूछा , संत हुआंग पो का आश्रम कितनी दूर है ? क्या मुझे वहाँ तक पहुँचा सकते हैं ? संत के मुख से निकला, क्या करोगे उस भूखेभिखारी व पागल से मिलकर ।
कहीं भूख मिटाने की जुगाड़ में लगा होगा वह । अजनबी ने कहा, आप ऐसे महान् संत को पागल कहते हैं । मैं उनके
दर्शन को लालायित हूँ । संत ने जवाब दिया , कुछ देर बैठो । पहले मैं अपना काम पूरा कर लूँ, फिर तुम्हें वहाँ पहुँचा दूंगा । कंद मिलते ही
संत उसे लेकर कुटिया तक गए । उसे ठंडा पानी पिलाया और बोले, कुछ देर प्रतीक्षा करो । संत से मिलने का अवसर
मिलेगा ।
___ कंद खाने के बाद तृप्त होकर हुआंग पो कुटिया में लौटे और आगंतुक
से विनम्रता से बोले, अब बताओ, क्या चाहते
हो मुझसे ?
आगंतुक चकित हो उठा कि रूखा व्यवहार करनेवाला व्यक्ति ही संत हुआंग पो हैं ।
उसने पूछा, उस समय आपकी
वाणी में रूखापन था — अब विनम्रता । यह अंतर क्यों ?
__ संत ने कहा, वह भूख से व्याकुल भिक्षुक की भाषा थी और अब यह तृप्त ज्ञानी की वाणी है।
संत ने उसे उपदेश देते हुए कहा, भूखे-प्यासे को तृप्त करना ही सबसे बड़ा धर्म है । भूख से व्याकुल व्यक्ति
वाणी का संयम खो बैठता है । इसके तुम प्रत्यक्षदर्शी हो ।
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know