सच्चा प्रायश्चित्त
प्राचीन समय की बात है । पुरुषोत्तमपुरी में रहनेवाला भद्रतनु नामक ब्राह्मण
कुसंग में पड़कर पाप कर्मों में लिप्त रहने लगा । वह पिता के श्राद्ध के दिन भी
दुष्कर्म में लगा था । किसी ने उससे कहा, तुझे धिक्कार है कि अपने पिता का श्राद्ध न कर तू आज भी अधर्म
के कामों में प्रवृत्त है । इस वाक्य ने उसकी आँखें खोल दीं । वह मार्कंडेय मुनि
के पास पहुँचा और अपनी व्यथा से उन्हें परिचित कराया ।
मुनि ने कहा, तुम्हारी
बुद्धि पाप से अलग हुई, इसे भगवान् की कृपा मानो । हृदय से प्रायश्चित्त करने मात्र से तमाम पाप
कर्मों से मुक्ति मिल जाती है । उन्होंने उसे दंत मुनि की शरण में जाने को कहा ।
दंत मुनि के पास पहुँचकर भद्रतनु ने रोते हुए कहा, महात्मन, मुझे पाप -कर्मों से मुक्ति दिलाने का उपाय बताएँ । मुनि ने कहा, प्रायश्चित्त का यही तरीका है कि भविष्य में
कुसंग न करने का दृढ़ संकल्प लो । पाखंड, काम, क्रोध, लोभ आदि का
परित्याग कर निरंतर ओम नमो भगवते वासुदेवायः मंत्र का जाप करो। इसके फलस्वरूप
तुम्हारे किए गए तमाम पाप कर्म क्षीण हो जाएँगे ।
भद्रतनु भगवद् भजन में लग गया । उसकी भक्ति से भगवान् विष्णु प्रसन्न हो उठे
। एक दिन उन्होंने दर्शन देकर उसे वर माँगने को कहा । भद्रतनु ने कहा, मुझे न कोई सांसारिक सुख चाहिए और न मोक्ष की
कामना है । जन्म- जन्मांतर तक आपके चरणों में अनुराग अविचल रहे — यही आकांक्षा करता हूँ । भगवान् ने उसे यही वर
दिया । कालांतर में भद्रतनु की गणना प्रमुख विष्णु भक्तों में हुई ।
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