अहंकार का
दुष्परिणाम
दैत्यराज विकटासुर ब्रह्माजी का परम भक्त था । उसने ब्रह्माजी को प्रसन्न
करनेके लिए घोर तपस्या की । प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उससे कहा, धर्म का अनुकरण ही कल्याणकारी होता है । तुम
दैत्यकुल में जन्मे हो , अत: तुम्हें दैत्यों के धर्म व मर्यादा विरोधी दुष्कृत्यों को त्यागकर
देवताओं की तरह धर्ममय जीवन जीना चाहिए । इसी से कल्याण होगा । इसके बाद उन्होंने
उसे कोई वर माँगने को कहा ।
विकटासुर के हृदय में अनेक इच्छाएँ पैदा हो उठीं । उसने कहा, हे देव , मैं लंबे समय तक सुखी जीवन भोगना चाहता हूँ । अत: ऐसा वरदान दें
कि मेरी मृत्यु कभी न हो ।
ब्रह्माजी ने कहा , जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित है, लेकिन मैं यह वरदान देता हूँ कि तुम स्त्री को छोडकर अन्य किसी के हाथों न
मारे जा सको । वरदान पाकर विकटासुर अहंकार में अंधा हो उठा । उसने दैत्यों के साथ
मिलकर देवताओं व सद्पुरुषों पर अत्याचार शुरू कर दिए । जब उसके अत्याचार चरम सीमा
पर पहुँच गए, तो देवताओं
ने भगवती नारायणी की आराधना कर उनसे मुक्ति दिलाने की गुहार लगाई ।
भगवती नारायणी ने कहा , विकटासुर के पापों का घड़ा भर चुका है । जाओ, निश्चिंत होकर धर्मकार्य में लगे रहो । विकटासुर ने जैसे ही
भगवती नारायणी को अपनी ओर आते देखा , उसे वरदान की बात याद हो आई । वह भागकर सागर तल में छिप गया ।
देवी नारायणी ने वहाँ से खींचकर उसका वध कर डाला ।
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