ज्ञान ही शाश्वत है
एक बार प्रजापति दक्ष, भारद्वाज, वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि ऋषि भगवान् ब्रह्माजीके पास
सत्संग के लिए पहुँचे। उन्होंने ब्रह्माजी से प्रश्न किया, भगवन् , लोक - परलोक के कल्याण का सरल साधन बताने की कृपा करें ।
ब्रह्माजी ने कहा , महर्षियो , समस्त संग्रह का अंत है विनाश, उत्थान का अंत है पतन , संयोग का अंत है वियोग और जीवन का अंत है
मृत्यु । केवल ज्ञान ही ऐसा तत्त्व है, जिसका विनाश नहीं होता । इसलिए सांसारिक वस्तुओं का मोह त्यागकर
ज्ञान की उपासना करना ही मानव का कर्तव्य है । जो व्यक्ति पंच भौतिक देह का अभिमान
त्याग देता है, ज्ञान और
भक्ति में चित्त लगाता है, उसके लोक - परलोक, दोनों कल्याणकारी बन जाते हैं । उन्होंने बताया, जो संपूर्ण प्राणियों में समान भाव रखता है, लोभ और कामना से रहित है, जिसकी सर्वत्र समान दृष्टि रहती है, वह ज्ञानी पुरुष ही परम गति को प्राप्त होता
है । गृहस्थ को सद्पुरुषों के आचरण का तथा सत्य, अहिंसा, संतोष आदि नियमों का पालन करना चाहिए ।
__ संन्यासी के कर्तव्य बताते हुए ब्रह्माजी ने कहा, साधु- संन्यासी को तनिक भी संग्रह नहीं करना
चाहिए । उसे जिह्वा के स्वाद का परित्याग कर भिक्षा से अपना जीवन निर्वाह करना
चाहिए । अहंकार से दूर रहकर उसे इंद्रियों पर पूर्ण संयम रखना चाहिए । समस्त
प्रकार की आसक्तियों से दूर रहकर उसे भगवान् की भक्ति और प्राणियों के सुख के लिए
तत्पर रहना चाहिए । ऋषियों की जिज्ञासा का समाधान हो गया ।
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