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भिक्षु का उपदेश

 

भिक्षु का उपदेश

एक बार बौद्ध भिक्षु बोधिधर्म धर्म का प्रचार करने चीन गए । चीन का सम्राट बौद्ध था । उसे बोधिधर्म के विद्वत्तापूर्ण उपदेशों ने बहुत प्रभावित किया । एक दिन सम्राट ने बोधिजी को अपने महल में आमंत्रित किया । उसने उनसे पूछा, संतप्रवर, मैं भगवान् बुद्ध के बताए मार्ग पर चलने का प्रयास करता हूँ, फिर भी मुझ पर क्रोध हावी हो जाता है और मेरा मन अशांत रहता है । क्रोध से बचने के लिए क्या करना चाहिए? भिक्षु बोधिधर्म ने कहा , अपनी आँखें बंद करो और ध्यान एकाग्र करो, तुम्हें क्रोध नहीं आएगा । कुछ क्षण रुककर बौद्धभिक्षु ने कहा, जो दुर्गुण मानव पर सदा हावी नहीं रहते, उन्हें अभ्यास करके छोड़ा जा सकता है, लेकिन जो व्यक्ति लोभ, लालसा और मोह में अंधा बनकर हर समय भोग-विलास और संग्रह के चिंतन में लगा रहता है, उसमें सुधार की गुंजाइश नहीं होती ।

सम्राट को उपदेश देते हुए उन्होंने आगे कहा, अपना व्यक्तिगत जीवन और ज्यादा सरल व सात्त्विक बनाओ। सुख से ज्यादा सुखी न होने तथा दुःख से ज्यादा परेशान न होने का अभ्यास करते - करते तुम क्रोध, लालच आदि दुर्गुणों से स्वतः मुक्ति पा जाओगे । शरीर की जगह आत्मा को महत्त्व देने वाला व्यक्ति कभी दुःखी व अशांत नहीं रह सकता ।

सम्राट ने उसी दिन से अपने जीवन को और सरल , सात्त्विक व पवित्र बनाने का अभ्यास शुरू कर दिया ।


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