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भगीरथ की अनूठी विरक्ति

 

भगीरथ की अनूठी विरक्ति

राजा भगीरथ सांसारिक सुखों व राजकीय ऐश्वर्य से ऊब गए । वे अपने गुरुदेव महात्मा त्रितल की शरण में पहुँचे और उन्हें अपने हृदय की वेदना बताई । महात्मा त्रितल ने कहा, राजन् , किसी भी प्रकार के सांसारिक आकर्षण, लालसा या अहंकार से मुक्त होने के बाद ही इस वेदना से मुक्ति मिल सकेगी । राजा भगीरथ ने अपनी सभी संपत्ति लुटा दी और अपना राज्य शत्रु के हवाले कर वन में जाकर तपस्या करने लगे । कुछ दिनों बाद वे भिक्षा लेने राजधानी पहुँचे। जो कभी उनका शत्रु था , उस राजा के महल के द्वार पर पहुँचकर भिक्षा की अलख जगाई ।

राजा और मंत्री तुरंत उनके सामने पहुँचे । राजा ने अत्यंत आदर से भिक्षा दी । उनकी विनम्रता एवं विरक्ति की भावना से अभिभूत होकर शत्रु राजा ने प्रार्थना की , आप अपना राज्य वापस ले लें । तपस्वी भगीरथ ने कहा, मैं भगवान् की कृपा से आनंद में सराबोर होकर पूर्ण संतुष्ट हूँ । भगीरथ एक बार दूसरे राज्य में पहुँचे। अचानक उस राज्य के संतानविहीन राजा की मृत्यु हो गई । प्रजा राजा के न रहने से कष्ट में जीवन बिताने लगी । एक दिन भगवान् ने स्वप्न में भगीरथ से कहा, भगीरथ, तुम विरक्ति की चरम स्थिति में पहुँच चुके हो । इस समय प्रजा का कल्याण करना ही तुम्हारा धर्म है ।

मंत्रियों के अनुरोध पर वे पुनः राजा बने , लेकिन कुछ ही वर्ष बाद उन्होंने राज्य त्याग दिया । घोर तपस्या कर पृथ्वी का उद्धार करने के उद्देश्य से उन्होंने गंगा को भूमंडल पर प्रवाहित कराया तथा अमर हो गए ।


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