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डाकू का प्रायश्चित्त

 

डाकू का प्रायश्चित्त

 

उतंक मुनि भगवान् विष्णु के परम भक्त थे। वह सौबीरनगर के एक मंदिर में रहकर भगवान् की भक्ति, शास्त्राध्ययन तथा गृहस्थजनों को सदुपदेश देने में लगे रहते थे। राजा मुनि के त्याग-तपस्यामय जीवन से बहुत प्रभावित था । उसने उस मंदिर को तीर्थ मानकर सोने का शिखर भेंट किया ।

उस क्षेत्र में डाकू कणिक का बहुत आतंक था । वह धनी लोगों के घर धावा बोलकर लूटपाट करता था । एक दिन वह अपने गिरोह के साथ मंदिर के पास से निकला, तो सूर्य की किरणों से चमचमाते स्वर्णशिखर को देखकर रुक गया । उसने सोचा, जब मंदिर का शिखर सोने का बना है, तो यहाँ रहने वाले पुजारी के पास भी अवश्य धन होगा । कणिक ने उसी रात मंदिर पर धावा बोल दिया । हाथ में तलवार लिये वह मंदिर में घुस गया । उसने देखा कि एक महात्मा मंदिर में बैठे भगवान् के ध्यान में लीन हैं । उसने महात्मा पर तलवार तानते हुए कहा, सोना हमारे हवाले करो, अन्यथा काट डालूँगा ।

___ मुनि निर्भीक संत थे। वे ध्यान लगाए बैठे रहे । कणिक ने उन्हें धक्का देकर पटक दिया, लेकिन उसने देखा कि मुनि की आँखों से तेज बरस रहा है । उसके हाथ से तलवार बरबस ही छूटकर गिर पड़ी । वह मुनि के सामने हाथ बांधकर खड़ा हो गया ।

मुनि उतंक ने मुसकराते हुए उससे पूछा, भैया , तुम लूटपाट क्यों करते हो ? किसी को सताकर प्राप्त किए गए धन से भला कभी नहीं होता ।

__ पश्चात्ताप से भरे कणिक ने सिर पटक - पटककर अपनी जान दे दी । मुनि ने उसके शव पर भगवान् विष्णु का चरणामृत छिड़क दिया । कणिक को मुक्ति मिल गई ।


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