आकांक्षाएँ पाप का कारण
हैं
भगवान् बुद्ध सत्संग के लिए आने वाले विभिन्न वर्गों के लोगों की जिज्ञासाओं
का समाधान कर उन्हें अपना जीवन सफल बनाने की प्रेरणा दिया करते थे। एक दिन
श्रावस्ती का एक धनिक भक्त भगवान् बुद्ध के सत्संग के लिए आया । बुद्ध को पता था
कि वह सेठ धर्म व सत्कर्म में समय न लगाकर हर क्षण धनार्जन में लगा रहता है ।
सेठ ने हाथ जोड़कर पूछा, भगवन्, मुझे तप व
पूजा - उपासना का उपाय बताएँ, जिससे मेरे मन को शांति मिल सके । बुद्ध ने कहा, आकांक्षाएँ और धन - संपत्ति की चाह में घिरा
व्यक्ति अशांति व असंतोष को निमंत्रण देता है । जिसकी आकांक्षाएँ समाप्त नहीं
होंगी, उसे किसी प्रकार की
पूजा - आराधना से शांति नहीं मिल सकती । बिना परिश्रम कमाए गए धन से पनपे पापों से
शुद्धि न नंगे रहने से हो सकती है और न फाका ( उपवास) करने से । गलत तरीके से
अर्जित धन और मन की असीमित आकांक्षाएँ तो पहले के अर्जित पुण्यों को भी समूल नष्ट
कर डालती हैं । श्रद्धालुओं को उपदेश देते हुए बुद्ध ने आगे कहा, सुचरित धर्म का आचरण करो । कर्मनिष्ठ बनो ।
आलस्य को पास न फटकने दो । दुर्व्यसनी दुष्ट मित्रों का तुरंत त्याग कर दो ।
सदाचारी व गुणी व्यक्तियों का संग करने से ही बुद्धि सत्कर्मों में लगी रहती है ।
जो व्यक्ति सच बोलता है , क्रोध नहीं करता , कुछ- न- कुछ दान करता रहता है, वह देवताओं का कृपापात्र हो जाता है । उसका हमेशा कल्याण होता
है ।
सेठ की जिज्ञासा का समाधान हो गया ।
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