दान का रहस्य
एक बार देवर्षि नारद सौराष्ट्र पहुँचे। वहाँ के राजा धर्म वर्मा परम प्रतापी
थे । __ वे प्रजा के पालन
के साथ -साथ तपस्या और शास्त्रों के अध्ययन में लगे रहते थे। एक बार दान के
महत्त्व संबंधी किसी श्लोक का अर्थ उनकी समझ में नहीं आ रहा था । जब देवर्षि नारद
उनसे मिलने पहुंचे, तो राजा ने
उन्हें प्रणाम कर पूछा, देवर्षि, शास्त्रों
में दान के दो हेतु और छह अधिष्ठान बताए गए हैं । वे दो हेतु कौन से हैं ? नारदजी ने बताया, राजन्, श्रद्धा और शक्ति दान के दो हेतु हैं । श्रद्धा से दिया गया दान
ही फलदायी होता है ।
यदि कोई लालच या दबाव में दान देता है, तो उसका पुण्य नहीं मिलता । इसी तरह शक्ति का अर्थ है — अपनी सामर्थ्य के अनुसार अर्थात् कुटुंब के
भरण - पोषण से जो अधिक हो, उसे ही दान में देना चाहिए । अपनी जरूरतों की पूर्ति न होने पाए , फिर भी दान देना — इसे वर्जित बताया गया है । नारदजी ने आगे कहा, जो धन किसी को सताकर न लाया गया हो , वही धन दान देने योग्य है । किसी प्रयोजन की
इच्छा न रखकर केवल धर्मबुद्धि से सुपात्र व्यक्तियों को दान देना ही धर्मदान है ।
जिसे दान दिया जाए, उसका बिना
किसी हीन भावना से सत्कार करना चाहिए । मन में यह धारणा रखनी चाहिए कि वह दान
स्वीकार कर हम पर कृपा कर रहा है । कुआँ, तालाब, औषधालय, धर्मशाला
बनाने आदि सर्वोपयोगी कार्यों में धन लगाना ख्याति बढ़ाने वाला दान है । देवर्षि
नारद के मुख से दान का महत्त्व सुनकर राजा की जिज्ञासा का समाधान हो गया ।
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