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विशालहृदयता

 

विशालहृदयता

राजा उत्तानपाद अपनी छोटी रानी सुरुचि से काफी प्रेम करते थे। एक दिन बड़ी रानी सुनीति का पाँच वर्षीय पुत्र धुर्व पिता की गोद में आ बैठा । सुरुचि ने अहंकार से ग्रस्त होकर बालक को गोद से उतारते हुए कहा, यदि पिता की गोद या सिंहासन चाहिए, तो भगवान् की आराधना करो और मेरे पुत्र के रूप में जन्म लो । इस अपमानजनक व्यवहार से क्षुब्ध होकर ध्रुव अपनी माँ के पास पहुँचा। सुनीति ने अपने पुत्र के क्रोध को शांत करते हुए कहा, विमाता ने ठीक ही तो कहा है । भगवान् की भक्ति से ही किसी को श्रेष्ठ पद की प्राप्ति हो सकती है और भक्ति के लिए वैर व घृणा की भावना से मुक्त होना जरूरी है ।

पाँच वर्षीय ध्रुव वन की ओर चल पड़ा । मार्ग में उसे देवर्षि नारद मिले । नारदजी ने पहले तो उसे समझाकर घर लौटने को कहा, किंतु भक्ति व तपस्या के लिए अटल धुरव को उन्होंने द्वादशाक्षर की दीक्षा देकर मथुरा क्षेत्र में यमुना तट पर तपस्या करने को कहा ।

ध्रुव ने भूखा- प्यासा रहकर कठोर तप किया । एक अल्पायु बालक की श्रद्धा- भक्ति और कठोर तप ने भगवान् को व्याकुल कर दिया । भगवान् ने प्रकट होकर दर्शन दिए- आर्शीवाद दिया । धुरव घर वापस पहुँचे। अपनी विमाता के चरण स्पर्श कर बोले, यदि आप उस दिन मुझे प्रेरणा नहीं देतीं, तो मैं भगवान् की कृपा प्राप्त करने को उद्यत नहीं होता । सुरुचि उसकी विनम्रता को देखकर हतप्रभ थी । उसने भक्त धुरव को गोद में बिठाकर धन्यता का एहसास किया ।


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