कर्म ही तप है
सप्तद्वीप नवखंड पर कई दशकों तक राज्य करने वाले राजराजेश्वर वैभवपूर्ण जीवन
जीने के बाद अपने अल्पायु पुत्र को सत्ता सौंपकर वन में चले गए । वहाँ वे घोर
तपस्या में लीन हो गए । वे केवल एक समय फलाहार करते ।
वर्षों तक साधना करने पर भी उन्हें आत्मिक शांति प्राप्त नहीं हुई । उन्हें
समाचार मिलते रहते थे कि उनके चले आने के कारण प्रजा बहुत परेशान है । सेवकगण
प्रजा का उत्पीड़न करते हैं । एक दिन राजराजेश्वर को खाने के लिए फल नहीं मिला ।
वे भोजन की तलाश में निकल पड़े । एक खलिहान केपास से जब वे गुजर रहे थे, तो खेत में श्रम करते एक किसान की दृष्टि उन
पर पड़ी । किसान ने उन्हें प्रणाम किया और बोला, पास आओ बाबा! किस वस्तु की तलाश में हो ? उसे जवाब मिला, भूख से व्याकुल हूँ । किसान ने कहा, मेरे पास दाल- चावल हैं । झोंपड़ी में चूल्हा
है । खिचड़ी पकाओ। दोनों खाकर भूख मिटाएँगे । राजराजेश्वर ने खिचड़ी पकाई । दोनों
ने भरपेट भोजन किया और फिर वृक्ष की छाया में लेट गए । पहली बार उन्हें गहरी नींद
आई । सपने में उन्होंने देखा कि एक विराट् पुरुष उनसे कह रहा है, राजन् , मैं कर्म हूँ । इस सृष्टि का परम तत्त्व । तुम प्रजा का हित
साधन करते हुए जो उच्च स्थिति प्राप्त कर सकते थे, वह वन में तपस्या से नहीं कर सके । अपने कर्तव्य का ईमानदारी से
पालन करना ही सबसे बड़ा तप है । राजराजेश्वर का विवेक जाग उठा । वे वापस लौट आए और
प्रजा के हित साधन में लग गए ।
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