शुद्ध अंतःकरण तीर्थ
है
महामुनि अगस्त्यजी श्रीशैल पर्वत पर अपनी पत्नी लोपामुद्रा से धर्मचर्चा कर
रहे थे। लोपामुद्रा परम विदुषी थीं ।
__ लोपामुद्रा ने प्रश्न किया, पतिदेव, धर्मशास्त्रों में पवित्र तीर्थों की महिमा भरी पड़ी है । तीर्थयात्रा व
तीर्थ निवास को अनेक पुण्यों का प्रदाता माना जाता है । जो साधनहीन व्यक्ति, वृद्ध और अपाहिज तीर्थ न कर पाएँ, उन्हें इस कर्तव्य का पालन कैसे करना चाहिए?
___ महर्षि अगस्त्य ने बताया, तीर्थ भ्रमण में मानसी तीर्थों की महिमा सर्वोपरि है । साधनहीन
व्यक्ति घर बैठे ही सदाचार का पालन कर तीर्थयात्रा का पुण्य प्राप्त कर सकता है ।
कुछ क्षण रुककर उन्होंने कहा, सत्य और क्षमा तीर्थ हैं । इंद्रियों को वश में रखना भी तीर्थ का पुण्य देता
है । जो व्यक्ति दयावान होता है और जिसका अंत: करण शुद्ध- सात्त्विक होता है, वह घर बैठे ही तीर्थों का पुण्य प्राप्त करने
का अधिकारी होता है ।
महर्षि ने कहा, यदि मन का भाव शुद्ध न हो, तो दान, यज्ञ, तप, शास्त्रों का श्रवण, स्वाध्याय — सभी व्यर्थ हो जाते हैं । ज्ञान रूपी जल से स्नान करके अनेक पवित्र नदियों
के स्नान का पुण्य प्राप्त होता है । ज्ञान रूपी जल राग द्वेषमय मल को दूर करने की
अनूठी क्षमता रखता है । हे देवी ! जिसका मन डाँवाँडोल रहता है, वह तीर्थ का पूर्ण फल नहीं प्राप्त कर पाता है
। असंयमी, अश्रद्धालु
व संशयात्मा कितने ही तीर्थों की खाक छान ले, उसे पुण्य कदापि नहीं मिलता ।
अपने महामुनि पति के श्रीमुख से सच्चे तीर्थों की महिमा जानकर लोपामुद्रा
भाव विभोर होकर नतमस्तक हो उठीं ।
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