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उपहार में पाप दे दो

 

उपहार में पाप दे दो

संत जेरोम जैसा उपदेश देते थे, वैसा ही आचरण भी करते थे। उनकी कथनी और करनी में कोई भेद नहीं था । वे सादगी, सरलता और सात्त्विकता की साक्षात् मूर्ति थे। जेरोम प्रतिदिन अपने हाथों से किसी-न -किसी असहाय - अनाथ व्यक्ति की सेवा अवश्य करते । इतना करने के बावजूद वे हमेशा कहा करते थे, मैं संसार का सबसे बड़ा पापी हूँ । जाने - अनजाने अनेक पाप मुझसे होते हैं । ईसा मसीह उनकी इस सरलता से बहुत प्रभावित थे । एक बार क्रिसमस की रात अचानक संत जेरोम की भेंट ईसा मसीह से हो गई । ईसा ने कहा, आज मेरा जन्मदिन है । क्या जन्मदिन का उपहार नहीं दोगे ? संत जेरोम ने कहा, मेरे पास देने को क्या है भला! मैं अपना हृदय आपको भेंट कर सकता हूँ ।

ईसा ने कहा , मुझे आपका हृदय नहीं , कुछ और चाहिए । संत ने कहा , वैसे तो मैं अपना पूरा शरीर आपको भेंट कर सकता हूँ , पर मैं पापी हूँ । यदि मेरे खजाने में पुण्य होते, तो मैं उन्हें आपको जन्मदिन के उपहारस्वरूप जरूर भेंट कर देता । ईसा ने कहा , जब आपके खजाने में पाप -ही - पाप हैं , तो फिर उन्हें ही मुझे उपहार में दे दें । आप अपना कोई अवगुण मुझे दे दें । मैं आपके तमाम पापों का फल भोग लूँगा ।

___ ईसा की प्रेमभरी वाणी सुनकर संत जेरोम की आँखों से अश्रुधारा बह निकली । ईसा ने उन्हें प्यार से गले लगा लिया ।

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