वाणी का महत्त्व
धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि शब्द ब्रह्म होता है । अतः एक - एक शब्द का
उपयोग सोच- समझकर करना चाहिए । न किसी की निंदा करनी चाहिए और न ही व्यर्थ में
किसी की प्रशंसा करनी चाहिए । हमेशा सत्य और प्रिय वचन बोलना चाहिए । किसी को केवल
प्रसन्न करने के लिए भी शब्दों का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए । एक बार भर्तृहरि ने
चातक को संबोधित करते हुए एक श्लोक की रचना की । उसमें कहा गया था, प्रिय मित्र चातक, क्षणभर के लिए मेरी बात ध्यान से सुनो । आकाश
में कई प्रकार के बादल होते हैं, किंतु सभी तृप्त नहीं करते । उनमें से कुछ तो पृथ्वी पर जल बरसाते हैं और
कुछ व्यर्थ ही गरजते हैं । अतः तुम जिसको भी देखो, उसके सम्मुख दैन्यसूचक शब्दों का प्रयोग मत करो ।
महाभारत में कहा गया है, किसी से कठोर वचन न बोलो । कटुवचन रूपी बाण से आहत मनुष्य शोक और चिंता में
डूबा रहता है । अतः गुणी जनों को दूसरों के प्रति निष्ठुर वचनों के प्रयोग से बचना
चाहिए । कहा गया है, नित पवित्र
वचन बोलें । दूसरे के कटुवचन सह लें, परंतु किसी को कटुवचन बोलकर शब्दों और वाणी का दुरुपयोग न करें
। भविष्य पुराण में कहा गया है, शीतल जल, चंदन का रस
अथवा ठंडी छाया भी मनुष्य के लिए उतनी आह्लादकारी नहीं होती, जितनी मीठी वाणी । इसीलिए भगवान् ने वाणी संयम
को तप की संज्ञा दी है और बताया है कि जो वचन किसी को उद्विग्न करनेवाला न हो तथा
सत्य, प्रिय और हितकारक
हो, वही सार्थक वाणी है
।
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