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भक्ति का साधन है ज्ञान

 

भक्ति का साधन है ज्ञान

बद्रीनाथ धाम में सनत्कुमार आदि चार ऋषि साधना में लीन थे। अचानक एकदिन देवर्षि नारद वहाँ पहुँच गए । ऋषियों ने पहली बार मुनि नारदजी के चेहरे पर चिंता की लकीरें देखीं, तो हतप्रभ रह गए ।

सनत्कुमार ने नारदजी को ससम्मान बिठाया और बोले, देवर्षि, आप तो हर क्षण नारायण- नारायण के जाप की मस्ती में डूबे रहते हैं । आज किस कारण चिंता में डूबे हुए हैं । नारदजी ने कहा, मैं यह अनुभव कर रहा हूँ कि पृथ्वी लोक में भक्ति की उपेक्षा होने लगी है । सत्य, तप और दान भक्ति के प्रमुख स्तंभ हैं । लोगों ने इन्हें छोड़कर असत्य और लोभ - लालच का सहारा लेना शुरू कर दिया है ।

यह कहते - कहते नारदजी की आँखों से अश्रु छलक पड़े । कुछ क्षण मौन रहने के बाद उन्होंने कहा, ऋषियो! भक्ति के प्रति आस्था बढ़े, इसके लिए क्या उपाय किए जाएँ यह बताने की कृपा करें ।

सनत्कुमार आदि ऋषियों ने कहा, देवर्षि, भक्ति की अवहेलना को देखकर आपका चिंतित होना स्वाभाविक है । आप भगवन्नाम प्रचार के साथ- साथ धर्मशास्त्रों के स्वाध्याय की ओर मानव को प्रेरित करें । स्वाध्याय से ही ज्ञान की प्राप्ति होती है । ज्ञान ही सत्कर्मों, यज्ञादि की प्रेरणा देता है । यज्ञादि सत्कर्मों से वैराग्य की अनुभूति होती है । वैराग्य प्राप्त होते ही मानव भगवान् की निष्काम भक्ति कर मोक्ष का अधिकारी बनता है ।

मुनियों के श्रीमुख से उपदेश सुन नारदजी की निराशा दूर हो गई । वे स्वाध्याय की प्रेरणा देने में लग गए ।


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