देवी यज्ञ
का महत्त्व
राजा जनमेजय एक बार वेदव्यासजी के चरणों में बैठकर सत्संग कर रहे थे।
व्यासजी ने विस्तार से उन्हें भगवती देवी के विभिन्न रूपों की जानकारी दी और बताया
कि सभी अवतारों तथा देवादिदेव शिवजी ने भी अनेक बार देवी की आराधना और कृपा
प्राप्त करके सफलता पाई । राजा जनमेजय ने प्रश्न किया, देवी की कृपा प्राप्त करने के लिए किए जाने
वाले यज्ञ में किन -किन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए ?
व्यासजी ने बताया , यदि शुद्ध द्रव्य अर्थात् पूर्ण ईमानदारी और परिश्रम से अर्जित कमाई को यज्ञ
में लगाया जाता है और पूर्ण शास्त्रीय विधि -विधान तथा शुद्ध मंत्रों से आहुति दी
जाती है, तो यज्ञ का
सुफल मिलता है । अन्याय द्वारा उपार्जित धन से यदि पुण्य कार्यकिए जाएँ, तो इस लोक में यश की प्राप्ति तो नहीं होती , परलोक में भी उसका फल नहीं मिलता । व्यासजी ने
कई उदाहरण देकर बताया कि अन्याय से अर्जित धन से किए गए यज्ञों से देवी - देवता
प्रसन्न नहीं , रुष्ट होते
हैं । उन्होंने कहा, यज्ञ करने
वाले को सर्वप्रथम मन को काम , क्रोध , लोभ जैसे
दुर्गुणों से मुक्त कर शुद्ध बनाना चाहिए । जब यज्ञकर्ताइंद्रियों के विषयों का
परित्याग कर पवित्र हो जाए, तभी यज्ञ करे । सदाचारी ही देवी - कृपा का अधिकारी होता है ।
उन्होंने बताया, किसी का अहित करने के उद्देश्य से किया गया यज्ञ विनाशकारी होता है । अतः
परमार्थ और धर्मरक्षार्थ ही यज्ञ करना चाहिए । यज्ञ का महत्त्व सुनकर राजा जनमेजय
ने विधिपूर्वक देवी - यज्ञ करने का संकल्प लिया ।
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