सच्चे
संन्यासी बनो
वदे मातरम और आनंदमठ के रचयिता बंकिमचंद्र चटर्जी की विद्वता और प्रतिभा से
प्रभावित होकर अंग्रेज सरकार ने उन्हें न्यायाधीश नियुक्त किया था । पद पर रहते
हुए उन्होंने जनता पर किए गए अत्याचार के आरोप में अनेक गोरे अफसरों को दंडित कर
अपनी निर्भीकता और निष्पक्षता का परिचय दिया था ।
बंकिम बाबू के एक मित्र ने संन्यास ले लिया । वह गृहस्थ जीवन त्यागकर गेरुआ
वस्त्र पहनकर रहने लगे । एक दिन अचानक वह बंकिम बाबू के घर पहुँचे। बंकिमचंद्र ने
संन्यासी का खड़े होकर सम्मान किया और आदर से बिठाया । वे धर्म संबंधी चर्चा करने
लगे । मौका पाते ही संन्यासी ने कहा, मैं अपने एक रिश्तेदार के किसी कार्य के लिए आपका सिफारिशी पत्र
चाहता हूँ । यह सुनते ही बंकिम बाबू ने कहा, आप गृहस्थी त्यागकर संन्यासी बने हैं । अब भला आपको किसी
रिश्तेदार के हित की चिंता क्यों सता रही है ? संन्यासी को तो सांसारिक प्रपंचों से दूर रहते हुए केवल भक्ति -
साधना में लीन रहना चाहिए । यही संन्यास की सार्थकता है । बंकिम बाबू के शब्द
सुनकर संन्यासी को पसीना आ गया ।
बंकिम बाबू ने आनंदमठ लिखा, तो अंग्रेज अधिकारी कुपित हो उठे । बंकिम बाबू तो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई
को लेकर भी उपन्यास लिखना चाहते थे। उन्होंने अपने एक मित्र से कहा था , मैं इतिहास की इस तेजस्वी वीरांगना पर लिखना
चाहता हूँ, किंतु जब
आनंदमठ से ही गोरे साहब बिगड़े हुए हैं , तो इसे कैसे सहन करेंगे ?
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