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जैसा कर्म वैसा फल

 

जैसा कर्म वैसा फल

ब्रह्माजी के पौत्र महर्षि कश्यप नीतिशास्त्र के महान् व्याख्याता थे। एक बार राजा पुरुरवा उनसे राजधर्म का उपदेश लेने पहुँचे। महर्षि को पता था कि एक दुर्व्यसनी को सलाहकार बनाने के कारण पुरुरवा की प्रजा दुःखी है । महर्षि कश्यप ने राजा से कहा, राजा को स्वयं पूर्ण सदाचारी व धर्मपरायण होना चाहिए । साथ ही प्रधानमंत्री व मंत्री ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करना चाहिए, जो नैतिक गुणों से संपन्न हो । दुर्व्यसनों में लिप्त प्रधानमंत्री और राजकर्मचारी प्रजा का हित नहीं कर सकते । इससे राजा के प्रति आक्रोश पनपता है ।

राजा पुरुरवा ने प्रश्न किया, भगवन्, पृथ्वी तो पापियों और पुण्यात्माओं को समान रूप से धारण करती है । सूर्य बुरे - भले को समान ऊर्जा देते हैं । वायु और जल भी बुरे और भले दोनों का पोषण करते हैं, तो फिर कर्मफल में अंतर कैसे पड़ा ?

महर्षि ने कहा, राजन्, माँ अपने दो पुत्रों को अपना एक - सा दूध पिलाकर पुष्ट करती है, लेकिन आगे चलकर एक पुत्र संतजनों और अच्छे लोगों का सत्संग कर सत्कर्म करता है और ख्याति प्राप्त करता है । वहीं दूसरा कुसंग में पड़कर दुर्व्यसनी बनकर अपराधों में लिप्त हो जाता है । जो सद्कर्मी होता है, उसे इस लोक में ख्याति और परलोक में शांति मिलती है । कुकर्मी इस लोक में दुत्कारा जाता है और परलोक में नरक की यातनाएँ भोगता है । इसलिए कुसंगी, दुर्व्यसनी से दूर रहना और सद्पुरुषों का संग करना बहुत आवश्यक है ।

राजा की जिज्ञासा शांत हो गई । उसने प्रजा की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया ।

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