तलवार नहीं उठी
राजगृह में कारु कसूरी नामक कसाई रहता था । वह पशुओं का मांस बेचकर अपनी
जीविका चलाता था । राजगृह में बौद्ध संत आते रहते थे। वह कभी - कभी उनके दर्शन के
लिए भी चला जाता था । संत अहिंसा को सर्वोपरि धर्म बताकर किसी भी प्रकार की हिंसा
न करने की प्रेरणा दिया करते थे। कारु कसूरी कहता था कि वह अपने पुरखों के धंधे को
कैसे छोड़ दे?
एक दिन कारु ने एक मोटे -तगड़े भैंसे के सिर पर तलवार चलाई । तलवार छिटककर
पास खड़े उसके बेटे सुलस के पैर पर लगी । बालक दर्द से कराह उठा । पिता ने यह देखा, तो सोचा कि जब बेटे को मामूली चोट से इतनी
पीड़ा हुई, तो पशुओं पर
क्या बीतती होगी ? उसने पशुओं
का वध करना छोड़ दिया , लेकिन कुछ दिनों बाद साथियों के उकसावे पर उसने फिर वही काम शुरू कर दिया ।
कारु कसाई की मृत्यु का समय आया, तो उसने अपनी तलवार बेटे को सौंप दी । कसाइयों की पंचायत में
सुलस से कहा गया कि कुलदेवी की प्रतिमा के समक्ष भैंसे की बलि दो । सुलस का हृदय
पशुओं के वध के समय उसकी छटपटाहट देखकर द्रवित हो उठता था । अतः उससे तलवार नहीं
उठी । कसाइयों के मुखिया ने दोबारा उससे कहा, बेटे, यह हमारी कुल परंपरा है । देवी को प्रसन्न करने के लिए रक्त निकालना पड़ता
है ।
सुलस ने भैंसे की जगह अपने पैर पर तलवार का वार कर दिया । पैर से खून बहने
लगा । उस दिन के बाद उसके परिवार में पशु वध बंद कर दिया गया ।
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