धन का उपयोग
धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि धन का सदुपयोग या तो जरूरतमंदों की
आवश्यकताओं की पूर्ति करने में अथवा अपने परिवार व समाज के लिए मर्यादापूर्वक
उपभोग करने में निहित है । जो व्यक्ति कृपण होता है, उसका धन मिट्टी-पत्थर के समान पड़ा रह जाता है । ऐसा धन असीम
दुःख का कारण भी बनता है ।
आदि शंकराचार्यजी ने कहा था, दानं संविभाग अर्थात् संपत्ति
का सम्यक् विभाजन ही दान है । बाइबिल में कहा गया है कि वैसा दान ही सार्थक होता
है, जिसमें दाएँ हाथ से
दिए गए दान का पता बाएँ हाथ को भी न चले ।
माघ जितने बड़े कवि थे, उतने ही बड़े दानी । अपने दरवाजे पर आने वाले याचक को दान देने से उन्हें
संतोष मिलता था । एक दिन राजा ने राजसभा में उनके द्वारा रचित काव्य की पंक्तियाँ
सुनकर उन्हें इनाम के रूप में धन दिया । उन्होंने तमाम धनराशि रास्ते में याचकों
को बाँट दी । घर पहुंचे, तो द्वार पर भी याचक खड़ा था । उसे देने के लिए उनके पास कुछ नहीं बचा था ।
याचक ने आँखों में आँसू भरकर कहा, मेरी बूढ़ी माँ बीमार है । दवा के लिए भी पैसे नहीं हैं ।
माघ ने सुनते ही द्रवित होकर प्रार्थना की, हे मेरे प्राण, इस विवशता में आप स्वयं मुझे छोड़ चलिए । आत्महत्या पाप है, अन्यथा मैं प्राण त्याग देता । अचानक उनका एक
मित्र पहुँचा । वह देखते ही सब समझ गया । उसने अपनी जेब से मुद्रा निकाली और याचक
को दे दी । माघ ने मित्र में भी भगवान् के दर्शन किए, जिसने उनकी लाज बचा ली ।
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