विद्या सर्वश्रेष्ठ
धन है
आचार्य भर्तृहरि उज्जयिनी में रहकर साधना किया करते थे। एक बार राजस्थान के
एक राजा अपने पुरोहित और सेना के साथ तीर्थयात्रा के उद्देश्य से उज्जयिनी पहुँचे।
उन्होंने आचार्य भर्तृहरि के दर्शन कर उनसे कल्याणकारी उपदेश देने की प्रार्थना की
। आचार्य ने कहा, राजा का
प्रथम कर्तव्य है अपनी प्रजा के कल्याण में लगे रहना । प्रजा की सेवा - सहायता को
भगवान् की पूजा - अर्चना मानने वाले राजा का यश हमेशा बना रहता है । किसी के साथ
पक्षपात या अन्याय न होने पाए — इसका पूरा ध्यान राजा को रखना चाहिए । उसे यह विशेष ध्यान रखना चाहिए कि कोई
भी धन व शक्ति के अहंकार में प्रजा के गरीब व असहाय वर्ग के किसी व्यक्ति का
उत्पीड़न न कर सके । जिस राज्य के लोग भगवद्भक्त और सदाचारी होते हैं , उसका यश हमेशा बना रहता है । राजा या शासक को
संत - महात्माओं व विद्वानों को समय- समय पर आमंत्रित कर सत्संग का आयोजन करना
चाहिए ।
__ एक विद्वान् ब्राह्मण द्वारा अपने को दरिद्र बताए जाने पर
आचार्य भर्तृहरि ने कहा, तुम भ्रम में हो कि धनी नहीं हो । सबसे बड़ा धन तो विद्या होता है, जिसे न कोई चुरा सकता है और न ही कोई दुरुपयोग
कर सकता है । विद्या ही यश और सच्चा सुख देने वाली देवी है । तुम विद्या दान करते
रहो, बच्चों और किशोरों
को संस्कारित करते रहो, दरिद्रता कभी नहीं सताएगी । विद्यावान व्यक्ति राजा से लेकर साधारण गृहस्थी
तक से सम्मान पाता है । विद्या, तप, दान , ज्ञान और शील ही मनुष्य के सर्वोच्च आभूषण हैं
।
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