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ऋग्वेदभाष्ये प्रथममण्डले 91-100 सूक्तानि दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचितम्

 


ऋग्वेदभाष्ये प्रथममण्डले 91-100 सूक्तानि

दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचितम् 

अथास्यैकाधिकशततमस्यैकादशर्चस्य सूक्तस्याङ्गिरसः कुत्स ऋषिः। इन्द्रो देवता। 1,4 निचृज्जगती। 2,5,7 विराड्जगती छन्दः। निषादः स्वरः। 3 भुरिक् त्रिष्टुप्। 6 स्वराट् त्रिष्टुप्। 8,10 निचृत् त्रिष्टुप्। 9,11 त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ अथ शालाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ अब एक सौ एकवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में शाला का अधीश कैसा होवे, यह विषय कहा है॥ प्र म॒न्दिने॑ पितु॒मद॑र्चता॒ वचो॒ यः कृ॒ष्णग॑र्भा नि॒रह॑न्नृ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवो॒ वृष॑णं॒ वज्र॑दक्षिणं म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे॥1॥ प्र। म॒न्दिने॑। पि॒तु॒ऽमत्। अ॒र्च॒त॒। वचः॑। यः। कृ॒ष्णऽग॑र्भाः। निः॒ऽअह॑न्। ऋ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवः॑। वृष॑णम्। वज्र॑ऽदक्षिणम्। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒॥1॥ पदार्थः—(प्र) प्रकृष्टार्थे (मन्दिने) आनन्दित आनन्दप्रदाय (पितुमत्) सुसंस्कृतमन्नाद्यम् (अर्चत) प्रदत्तेन पूजयत। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (वचः) प्रियं वचनम् (यः) अनूचानोऽध्यापकः (कृष्णगर्भाः) कृष्णा विलिखिता रेखाविद्यादयो गर्भा यैस्ते (निरहन्) निरन्तरं हन्ति (ऋजिश्वना) ऋजवः सरलाः श्वानो वृद्धयो यस्मिन्नध्ययने तेन। अत्र श्वन्शब्दः श्विधातोः कनिन्प्रत्ययान्तो निपातित उणादौ। (अवस्यवः) आत्मनोऽवो रक्षणादिकमिच्छवः (वृषणम्) विद्यावृष्टिकर्त्तारम् (वज्रदक्षिणम्) वज्रा अविद्याछेदका दक्षिणा यस्मात्तम् (मरुत्वन्तम्) प्रशस्ता मरुतो विद्यावन्त ऋत्विजोऽध्यापका विद्यन्ते यस्मिँस्तम् (सख्याय) सख्युः कर्मणे भावाय वा (हवामहे) स्वीकुर्महे॥1॥ अन्वयः—यूयं य ऋजिश्वनाऽविद्यात्वं निरहंस्तस्मै मन्दिने पितुमद् वचः प्रार्चतावस्यवः कृष्णगर्भा वयं सख्याय यं वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तमध्यापकं हवामहे तं यूयमपि प्रार्चत॥1॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यस्माद्विद्या ग्राह्या स मनोवचः कर्मधनैः सदा सत्कर्त्तव्यः। येऽध्याप्यास्ते प्रयत्नेन सुशिक्ष्य विद्वांसः सम्पादनीयाः सर्वदा श्रेष्ठैर्मैत्रीं संभाव्य सत्कर्मनिष्ठा रक्षणीया॥1॥ पदार्थः—तुम लोग (यः) जो उपदेश करने वा पढ़ानेवाला (ऋजिश्वना) ऐसे पाठ से कि जिसमें उत्तम वाणियों की धारणाशक्ति की अनेक प्रकार से वृद्धि हो, उससे मूर्खपन को (नि, अहन्) निरन्तर हनें, उस (मन्दिने) आनन्दी पुरुष और आनन्द देनेवाले के लिये (पितुमत्) अच्छा बनाया हुआ अन्न अर्थात् पूरी, कचौरी, लड्डू, बालूशाही, जलेबी, इमरती, आदि अच्छे-अच्छे पदार्थोंवाले भोजन और (वचः) पियारी वाणी को (प्रार्चत) अच्छे प्रकार निवेदन कर उसका सत्कार करो। और (अवस्यवः) अपने को रक्षा आदि व्यवहारों को चाहते हुए (कृष्णगर्भाः) जिन्होंने रेखागणित आदि विद्याओं के मर्म खोले हैं, वे हम लोग (सख्याय) मित्र के काम वा मित्रपनके लिये (वृषणम्) विद्या की वृद्धि करनेवाले (वज्रदक्षिणम्) जिससे अविद्या का विनाश करनेवाली वा विद्यादि धन देनवाली दक्षिणा मिले (मरुत्वन्तम्) जिसके समीप प्रशंसित विद्या वाले ऋत्विज् अर्थात् आप यज्ञ करें दूसरे को करावें, ऐसे पढ़ानेवाले हों उस अध्यापक अर्थात् उत्तम पढ़ानेवाले को (हवामहे) स्वीकार करते हैं, उनको तुम लोग भी अच्छे प्रकार सत्कार के साथ स्वीकार करो॥1॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि जिससे विद्या लेवें, उसका सत्कार मन, वचन, कर्म और धन से सदा करें और पढ़ानेवालों को चाहिये कि जो पढ़ाने योग्य हों, उन्हें अच्छे यत्न के साथ उत्तम-उत्तम शिक्षा देकर विद्वान् करें और सब दिन श्रेष्ठों के साथ मित्रभाव रख उत्तम-उत्तम काम में चित्तवृत्ति की स्थिरता रक्खें॥1॥ अथ सभासेनाध्यक्षः किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ अब सभा और सेना का अध्यक्ष क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ यो व्यं॑सं जाहृषा॒णेन॑ म॒न्युना॒ यः शम्ब॑रं॒ यो अह॒न् पिप्रु॑मव्र॒तम्। इन्द्रो॒ यः शुष्ण॑म॒शुषं॒ न्यावृ॑णङ् म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे॥2॥ यः। विऽअं॑सम्। ज॒हृ॒षा॒णेन॑। म॒न्युना॑। यः। शम्ब॑रम्। यः। अह॑न्। पिप्रु॑म्। अ॒व्र॒तम्। इन्द्रः॑। यः। शुष्ण॑म्। अ॒शुष॑म्। नि। अवृ॑णक्। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒॥2॥ पदार्थः—(यः) सभासेनाध्यक्षः (व्यंसम्) विगता अंसाः स्कन्धा यस्य तत् (जाहृषाणेन) सज्जनानां सन्तोषकेन। अत्र हृष तुष्टावित्स्माल्लिटः कानच्। तुजादित्वाद्दीर्घश्च (मन्युना) क्रोधेन (यः) शौर्यादिगुणोपेतो वीरः (शम्बरम्) अधर्मसम्बन्धिनम्। अत्र शम्बधातोरौणादिकोऽरन् प्रत्ययः। (यः) धर्मात्मा (अहन्) हन्यात् (पिप्रुम्) उदरम्भरम्। अत्र पृधातोर्बाहुलकादौणादिकः कुः प्रत्ययः सन्वद्भावश्च। (अव्रतम्) ब्रह्मचर्यरीत्याचरणादिनियमपालनरहितम् (इन्द्रः) सकलैश्वर्ययुक्तः (यः) अतिबलवान् (शुष्णम्) बलवन्तम् (अशुषम्) शोकरहितं हर्षितम् (नि) (अवृणक्) वर्जयेत्। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (मरुत्वन्तं॰) इति पूर्ववत्॥2॥ अन्वयः—य इन्द्रो जाहृषाणेन मन्युना दुष्टं शत्रुं व्यंसं न्यहन्, यः शम्बरं न्यहन्, यः पिप्रुं न्यहन्, योऽव्रतमवृणक् शुष्णमशुषं मरुत्वन्तमिन्द्रं सख्याय वयं हवामहे स्वीकुर्मः॥2॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यः प्रदीप्तेन क्रोधेन दुष्टान् हत्वा विद्योन्नतये ब्रह्मचर्यादि व्रतानि प्रचार्याविद्याकुशिक्षा निषिध्य सर्वेषां सुखाय सततं प्रयतते, स एव सुहृन्मन्तव्यः॥2॥ पदार्थः—(यः) जो सभा सेना आदि का अधिपति (इन्द्रः) समस्त ऐश्वर्य को प्राप्त (जाहृषाणेन) सज्जनों को सन्तोष देनेवाले (मन्युना) अपने क्रोधों से दुष्ट और शत्रुजनों को (व्यंसम्, नि, अहन्) ऐसा मारे कि जिससे कन्धा अलग हो जाये वा (यः) जो शूरता आदि गुणों से युक्त वीर (शम्बरम्) अधर्म से सम्बन्ध करनेवाले को अत्यन्त मारे वा (यः) धर्मात्मा सज्जन पुरुष (पिप्रुम्) जो कि अधर्मी अपना पेट भरता उसको निरन्तर मारे और (यः) जो अति बलवान् (अव्रतम्) जिसके कोई नियम नहीं अर्थात् ब्रह्मचर्य, सत्यपालन आदि व्रतों को नहीं करता उसको (अवृणक्) अपने से अलग करे, उस (शुष्णम्) बलवान् (अशुषम्) शोकरहित हर्षयुक्त (मरुत्वन्तम्) अच्छे प्रशंसित पढ़नेवालों को रखनेहारे सकल ऐश्वर्ययुक्त सभापति को (सख्याय) मित्रों के काम वा मित्रपन के लिये हम लोग (हवामहे) स्वीकार करते हैं॥2॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि जो चमकते हुए क्रोध से दुष्टों को मारकर विद्या की उन्नति के लिये ब्रह्मचर्यादि नियमों को प्रचारित और मूर्खपन और खोटी सिखावटों को रोक के सबके सुखके लिये निरन्तर अच्छा यत्न करे, वही मित्र मानने योग्य है॥2॥ अथेश्वरसभाध्यक्षौ कीदृशगुणावित्युपदिश्यते॥ अब ईश्वर और सभाध्यक्ष कैसे-कैसे गुणवाले होते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ यस्य॒ द्यावा॑पृथि॒वी पौंस्यं॑ म॒॒हद् यस्य॑ व्र॒ते वरु॑णो॒ यस्य॒ सूर्यः॑। यस्येन्द्र॑स्य॒ सिन्ध॑वः॒ सश्च॑ति व्र॒तं म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे॥3॥ यस्य॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। पौंस्य॑म्। म॒हत्। यस्य॑। व्र॒ते। वरु॑णः। यस्य॑। सूर्यः॑। यस्य॑। इन्द्र॑स्य। सिन्धवः॑। सश्च॑ति। व्र॒तम्। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒॥3॥ पदार्थः—(यस्य) (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी इव क्षमान्यायप्रकाशो (पौंस्यम्) पुरुषार्थयुक्तं बलम् (महत्) महोत्तमगुणविशिष्टम् (यस्य) (व्रते) सामर्थ्ये शीले वा (वरुणः) चन्द्र एतद्गुणो वा (यस्य) (सूर्य्यः) सवितृलोकः। एतद्गुणो वा (यस्य) (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतो जगदीश्वरस्य सभाध्यक्षस्य वा (सिन्धवः) समुद्राः (सश्चति) प्राप्नोति। सश्चति गतिकर्म्मा। (निघं॰2.14) (व्रतम्) सामर्थ्यं शीलं वा (मरुत्वन्तम्) सर्वप्राणियुक्तमृत्विग्युक्तं वा। अन्यत्पूर्ववत्॥3॥ अन्वयः—वयं यस्येन्द्रस्य व्रते महत्पौंस्यमस्ति यस्य द्यावापृथिवी यस्य व्रतं वरुणो यस्य व्रतं सूर्य्यः सिन्धवश्च सश्चति, तं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे॥3॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्या यस्य सामर्थ्येन विना पृथिव्यादीनां स्थितिर्न संभवतीति, यस्य सभाद्यध्यक्षस्य प्रकाशवद्विद्या पृथिवीवत् क्षमा चन्द्रवच्छान्तिः सूर्य्यवन्नीतिप्रदीप्तिः समुद्रवद् गाम्भीर्यं वर्त्तते तं विहायाऽन्यं सुहृदं नैव कुर्य्युः॥3॥ पदार्थः—हम लोग (यस्य) जिस (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्यवान् जगदीश्वर वा सभाध्यक्ष राजा के (व्रते) सामर्थ्य वा शील में (महत्) अत्यन्त उत्तम गुण और (पौंस्यम्) पुरुषार्थयुक्त बल है (यस्य) जिसका (द्यावापृथिवी) सूर्य्य और भूमि के सदृश सहनशीलता और नीति का प्रकाश वर्त्तमान है (यस्य) जिसके (व्रतम्) सामर्थ्य वा शील को (वरुणः) चन्द्रमा वा चन्द्रमा का शान्ति आदि गुण (यस्य) जिसके सामर्थ्य वा शील को (सूर्यः) सूर्यमण्डल वा उसका गुण (सश्चति) प्राप्त होता और (सिन्धवः) समुद्र प्राप्त होते हैं, उस (मरुत्वन्तम्) समस्त प्राणियों से और समय-समय पर यज्ञादि करनेहारों से युक्त सभाध्यक्ष को (सख्याय) मित्र के काम वा मित्रपन के लिये (हवामहे) स्वीकार करते हैं॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जिस परमेश्वर के सामर्थ्य के विना पृथिवी आदि लोकों की स्थिति अच्छे प्रकार नहीं होती तथा जिस सभाध्यक्ष के स्वभाव और वर्त्ताव की प्रकाश के समान विद्या, पृथिवी के समान सहनशीलता, चन्द्रमा के तुल्य शान्ति, सूर्य्य के तुल्य नीति का प्रकाश और समुद्र के समान गम्भीरता है, उसको छोड़के और को अपना मित्र न करें॥3॥ अथ सभाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ अब सभाध्यक्ष कैसा होता, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यो अश्वा॑नां॒ यो गवां॒ गोप॑तिर्व॒शी य आ॑रि॒तः कर्म॑णिकर्मणि स्थि॒रः। वी॒ळोश्चि॒दिन्द्रो॒ यो असु॑न्वतो व॒धो म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे॥4॥ यः। अश्वा॑नाम्। यः। गवा॑म्। गोऽप॑तिः। व॒शी। यः। आ॒रि॒तः। कर्म॑णिऽकर्मणि। स्थि॒रः। वी॒ळोः। चि॒त्। इन्द्रः॑। यः। असु॑न्वतः। व॒धः। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒॥4॥ पदार्थः— (यः) सभाद्यध्यक्षः (अश्वानाम्) तुरङ्गानाम् (यः) (गवाम्) गवां पृथिव्यादीनां वा (गोपतिः) गवां स्वेषामिन्द्रियाणां स्वामी (वशी) वशं कर्त्तुं शीलः (यः) (आरितः) सभया विज्ञापितः (कर्मणिकर्मणि) क्रियायां क्रियायाम् (स्थिरः) निश्चलप्रवृत्तिः (वीळोः) बलवतः (चित्) इव (इन्द्रः) दुष्टानां विदारयिता (यः) (असुन्वतः) यज्ञकर्त्तुं विरोधिनः (वधः) वज्र इव। वध इति वज्रनामसु पठितम्। (निघं॰ 2.20) (मरुत्वन्तं॰) इति पूर्ववत्॥4॥ अन्वयः—य इन्द्रः सभाद्यध्यक्षोऽश्वानामधिष्ठाता यो गवां रक्षकः यो गोपतिर्वश्यारितः सन् कर्मणिकर्मणि स्थितो भवेद्योऽसुन्वतो वीळोर्वधश्चिद्धन्ता स्यात् तं मरुत्वन्तं सख्याय वयं हवामहे॥4॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यः सर्वपालको जितेन्द्रियः शान्तो यत्र यत्र सभयाऽऽज्ञापितस्तस्मिँस्तस्मिन्नेव कर्मणि स्थिरबुद्ध्या प्रवर्त्तमानो दुष्टानां बलवतां शत्रूणां विजयकर्त्ता वर्त्तते तेन सह सततं मित्रतां संभाव्य सुखानि सदा भोक्तव्यानि॥4॥ पदार्थः— (यः) जो (इन्द्रः) दुष्टों का विनाश करनेवाला सभा आदि का अधिपति (अश्वानाम्) घोड़ों का अध्यक्ष (यः) जो (गवाम्) गौ आदि पशु वा पृथिवी आदि की रक्षा करनेवाला (यः) जो (गोपतिः) अपनी इन्द्रियों का स्वामी अर्थात् जितेन्द्रिय होकर अपनी इच्छा के अनुकूल उन इन्द्रियों को चलाने (वशी) और मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को यथायोग्य वश में रखनेवाला (आरितः) सभा से आज्ञा को प्राप्त हुआ (कर्मणिकर्मणि) कर्म-कर्म में (स्थिरः) निश्चित (यः) जो (असुन्वतः) यज्ञकर्त्ताओं से विरोध करनेवाले (वीळोः) बलवान् को (वधः चित्) वज्र के तुल्य मारनेवाला हो, उस (मरुत्वन्तम्) अच्छे प्रशंसित पढ़ानेवालों को राखनेहारे सभापति को (सख्याय) मित्रता वा मित्र के काम के लिये (हवामहे) हम स्वीकार करते हैं॥4॥ भावार्थः—यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो सबकी पालना करनेवाला जितेन्द्रिय, शान्त और जिस-जिस कर्म में सभा की आज्ञा को पावे, उसी-उसी कर्म में स्थिरबुद्धि से प्रवर्त्तमान, बलवान्, दुष्ट शत्रुओं को जीतनेवाला हो, उसके साथ निरन्तर मित्रता की संभावना करके सुखों को सदा भोगें॥4॥ अथ सेनाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ अब सेनाध्यक्ष कैसा होता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ यो विश्व॑स्य॒ जग॑तः प्राण॒तस्पति॒र्यो ब्र॒ह्मणे॑ प्रथ॒मो गा अवि॑न्दत्। इन्द्रो॒ यो दस्यूँ॒रध॑राँ अ॒वाति॑रन्म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे॥5॥ यः। विश्व॑स्य। जग॑तः। प्रा॒ण॒तः। पतिः॑। यः। ब्र॒ह्मणे॑। प्र॒थ॒मः। गाः। अवि॑न्दत्। इन्द्रः॑। यः। दस्यू॑न्। अध॑रान्। अ॒व॒ऽअति॑रत्। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒॥5॥ पदार्थः— (यः) सेनापतिः (विश्वस्य) समग्रस्य (जगतः) जङ्गमस्य (प्राणतः) प्राणतो जीवतः। अत्र षष्ठ्याः पतिपुत्र॰। (अष्टा॰8.3.53) इति विसर्जनीयस्य सः। (पतिः) अधिष्ठाता (यः) प्रदाता (ब्रह्मणे) चतुर्वेदविदे (प्रथमः) सर्वस्य प्रथयिता। अत्र प्रथेरमच्। (उणा॰5.68) (गाः) पृथिवीरिन्द्रियाणि प्रकाशयुक्तान् लोकान् वा (अविन्दन्) प्राप्नोति (इन्द्रः) इन्द्रियवान् जीवः (यः) शौर्यादिगुणयुक्तः (दस्यून्) सहसा परपदार्थहर्त्तॄन् (अधरान्) नीचान् (अवातिरत्) अधः प्रापयति (मरुत्वन्त॰) इति पूर्ववत्॥5॥ अन्वयः—यः प्रथम इन्द्रो ब्रह्मणे गा अविन्दत्। यो दस्यूनधरानवातिरत्। यो विश्वस्य जगतः प्राणतस्पतिर्वत्तते, तं मरुत्वन्तं सख्याय वयं हवामहे॥5॥ भावार्थः—पुरुषार्थेन विना विद्याऽन्नधनप्राप्तिर्न जायते शत्रुपराजयश्च। यो धार्मिकः सेनाध्यक्षः सुहृद्भावेन स्वप्राणवत् सर्वान् प्रीणयति, तस्य कदाचित्खलु दुःखं न जायते तस्मादेतत्सदाचरणीयम्॥5॥ पदार्थः— (यः) जो उत्तमदानशील (प्रथमः) सबका विख्यात करनेवाला (इन्द्रः) इन्द्रियों से युक्त जीव (ब्रह्मणे) चारों वेदों के जाननेवाले के लिये (गाः) पृथिवी, इन्द्रियों और प्रकाशयुक्त लोकों को (अविन्दत्) प्राप्त होता वा (यः) जो शूरता आदि गुणवाला वीर (दस्यून्) हठ से औरों का धन हरनेवालों को (अधरान्) नीचता को प्राप्त कराता हुआ (अवातिरत्) अधोगति को पहुंचाता वा (यः) जो सेनाधिपति (विश्वस्य) समग्र (जगतः) जङ्गमरूप (प्राणतः) जीवसमूह का (पतिः) अधिपति अर्थात् स्वामी हो, उस (मरुत्वन्तम्) अपने समीप पढ़ानेवालों को रखनेवाले सभाध्यक्ष को हम लोग (सख्याय) मित्रपन के लिये (हवामहे) स्वीकार करते हैं॥5॥ भावार्थः—पुरुषार्थ के विना विद्या, अन्न और धन की प्राप्ति तथा शत्रुओं का पराजय नहीं हो सकता, जो धार्मिक सेनाध्यक्ष सुहृद्भाव से अपने प्राण के समान सबको प्रसन्न करता है, उस पुरुष को निश्चय है कि कभी दुःख नहीं होता, इससे उक्त विषय का आचरण सदा करना चाहिये॥5॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यः शूरे॑भि॒र्हव्यो॒ यश्च॑ भी॒रुभि॒र्यो धाव॑द्भिर्हू॒यते॒ यश्च॑ जि॒ग्युभिः॑। इन्द्रं॒ यं विश्वा॒ भुव॑ना॒भि सं॑द॒धुर्म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ ह॒वामहे॥6॥12॥ यः। शूरे॑भिः। हव्यः॑। यः। च॒। भी॒रुऽभिः॑। यः। धाव॑त्ऽभिः। हू॒यते॑। यः। च॒। जि॒ग्युऽभिः॑। इन्द्र॑म्। यम्। विश्वा॑। भुव॑ना। अ॒भि। स॒म्ऽद॒धुः। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒॥6॥ पदार्थः—(यः) सेनाध्यक्षः (शूरेभिः) शूरवीरैः (हव्यः) आहवनीयः (यः) (च) निर्भयैः (भीरुभिः) कातरैः (यः) (धावद्भिः) वेगवद्भिः (हूयते) स्पर्द्ध्यते (यः) (च) आसीनैर्गच्छद्भिर्वा (जिग्युभिः) विजेतृभिः (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यवन्तं सेनाध्यक्षम् (यम्) (विश्वा) अखिलानि (भुवना) लोकाः प्राणिनश्च (अभि) आभिमुख्ये (संदधुः) संदधति (मरुत्वन्तं॰) इति पूर्ववत्॥6॥ अन्वयः—य इन्द्रः शूरेभिर्हव्यो यो भीरुभिश्च यो धावद्भिर्हूयते यश्च जिग्युभिर्यमिन्द्रं विश्वा भुवनाभिसंदधुस्तं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे॥6॥ भावार्थः—यः परमात्मा सेनाधीशश्च सर्वांल्लोकान् सर्वतो मेलयति स सर्वैः सेवनीयः सुहृद्भावेन मन्तव्यश्च॥6॥ पदार्थः—(यः) जो परमैश्वर्यवान् सेना आदि का अधिपति (शूरेभिः) शूरवीरों से (हव्यः) आह्वान करने अर्थात् चाहने योग्य (यः) जो (भीरुभिः) डरनेवालों (च) और निर्भयों से तथा (यः) जो (धावद्भिः) दौड़ते हुए मनुष्यों से वा (यः) जो (च) बैठे और चलते हुए उनसे (जिग्युभिः) वा जीतनेवालो लोगों से (हूयते) बुलाया जाता वा (यम्) जिस (इन्द्रम्) उक्त सेनाध्यक्ष को (विश्वा) समस्त (भुवना) लोकस्थ प्राणी (अभि) सम्मुखता से (संदधुः) अच्छे प्रकार धारण करते हैं, उस (मरुत्वन्तम्) अच्छे पढ़ानेवालों को रखनेहारे सेनाधीश को (सख्याय) मित्रपन के लिये हम लोग (हवामहे) स्वीकार करते हैं, उसको तुम भी स्वीकार करो॥6॥ भावार्थः—जो परमात्मा और सेना का अधीश सब लोकों का सब प्रकार से मेल करता है, वह सबको सेवन करने और मित्रभाव से मानने के योग्य है॥6॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ रु॒द्राणा॑मेति प्र॒दिशा॑ विचक्ष॒णो रु॒द्रेभि॒र्योषा॑ तनुते पृ॒थु ज्रयः॑। इन्द्रं॑ मनी॒षा अ॒भ्य॑र्चति श्रु॒तं म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे॥7॥ रु॒द्राणा॑म्। ए॒ति॒। प्र॒ऽदिशा॑। वि॒ऽच॒क्ष॒णः। रु॒द्रेभिः। योषा॑। त॒नु॒ते॒। पृ॒थु। ज्रयः॑। इन्द्र॑म्। म॒नी॒षा। अ॒भि। अ॒र्च॒ति॒। श्रु॒तम्। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒॥7॥ पदार्थः—(रुद्राणाम्) प्राणानामिव दुष्टान् श्रेष्ठांश्च रोदयिताम् (एति) प्राप्नोति (प्रदिशा) प्रदेशेन ज्ञानमार्गेण। अत्र घञर्थे कविधानमिति कः सुपां सुलुगित्यकारादेशश्च। (विचक्षणः) प्रशस्तचातुर्यादिगुणोपेतः (रुद्रेभिः) प्राणैर्विद्यार्थिभिः सह (योषा) विद्याभिर्मिश्रिताया अविद्याभिः पृथग्भूतायाः स्त्रियाः। अत्र युधातोर्बाहुलकात् कर्मणि सः प्रत्ययः। (तनुते) विस्तृणाति (पृथु) विस्तीर्णम्। प्रथिभ्रदिभ्रस्जां संप्रसारणं सलोपश्च। (उणा॰1.28) इति प्रथधातोः कुः प्रत्ययः संप्रासरणं च। (ज्रयः) तेजः (इन्द्रम्) शालाद्यधिपतिम् (मनीषा) मनीषया प्रशस्तबुद्ध्या। अत्र सुपां सुलुगिति तृतीयाया एकवचनस्याकारादेशः। (अभि) (अर्चति) सत्करोति (श्रुतम्) प्रख्यातम् (मरुत्वन्तं॰) इति पूर्ववत्॥7॥ अन्वयः—विचक्षणो विद्वान् रुद्राणां प्रदिशा पृथु ज्रय एति रुद्रेभिर्योषा तत्तनुते चातो यो विचक्षणो मनीषा श्रुतमिन्द्रमभ्यर्चति तं मरुत्वन्तं सख्याय वयं हवामहे॥7॥ भावार्थः—यैर्मनुष्यैः प्राणायामैः प्राणान् सत्कारेण श्रेष्ठान् तिरस्कारेण दुष्टान् विजित्य सकला विद्या विस्तार्य्य परमेश्वरमध्यापकं वाभ्यर्च्योपकारेण सर्वे प्राणिनः सत्क्रियन्ते ते सुखिनो भवन्ति॥7॥ पदार्थः—(विचक्षणः) प्रशंसित चतुराई आदि गुणों से युक्त विद्वान् (रुद्राणाम्) प्राणों के समान बुरे-भलों को रुलाते हुए विद्वानों के (प्रदिशा) ज्ञानमार्ग से (पृथु) विस्तृत (ज्रयः) प्रताप को (एति) प्राप्त होता है और (रुद्रेभिः) प्राण वा छोटे-छोटे विद्यार्थियों के साथ (योषा) विद्या से मिली और मूर्खपन से अलग हुई स्त्री उसको (तनुते) विस्तारती है, इससे जो विचक्षण विद्वान् (मनीषा) प्रशंसित बुद्धि से (श्रुतम्) प्रख्यात (इन्द्रम्) शाला आदि के अध्यक्ष का (अभ्यर्चति) सब ओर से सत्कार करता, उस (मरुत्वन्तम्) अपने समीप पढ़ानेवालों को रखनेवाले को (सख्याय) मित्रपन के लिये हम लोग (हवामहे) स्वीकार करते हैं॥7॥ भावार्थः—जिन मनुष्यों से प्राणायामों से प्राणों को, सत्कार से श्रेष्ठों और तिरस्कार से दुष्टों को वश में कर समस्त विद्याओं को फैलाकर परमेश्वर वा अध्यापक का अच्छे प्रकार मान-सत्कार करके उपकार के साथ सब प्राणी सत्कारयुक्त किये जाते हैं, वे सुखी होते हैं॥7॥ अथ शालाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ अब शाला आदि का अधिपति कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ यद्वा॑ मरुत्वः पर॒मे स॒धस्थे॒ यद्वा॑व॒मे वृ॒जने॑ मा॒दया॑से। अत॒ आ या॑ह्यध्व॒रं नो॒ अच्छा॑ त्वा॒या ह॒विश्च॑कृमा सत्यराधः॥8॥ यत्। वा॒। म॒रु॒त्वः॒। प॒र॒मे। स॒धऽस्थे॑। यत्। वा॒। अ॒व॒मे। वृ॒जने॑। मा॒दया॑से। अतः॑। आ। या॒हि॒। अ॒ध्व॒रम्। नः॒। अच्छ॑। त्वा॒ऽया। ह॒विः। च॒कृ॒म॒। स॒त्य॒ऽरा॒॒धः॒॥8॥ पदार्थः—(यत्) यतः (वा) उत्तमे (मरुत्वः) प्रशस्तविद्यायुक्त (परमे) अत्यन्तोत्कृष्टे (सधस्थे) स्थाने (यत्) यः (वा) मध्यमे व्यवहारे (अवमे) निकृष्टे (वृजने) वर्जन्ति दुःखानि जना यत्र तस्मिन् व्यवहारे (मादयासे) हर्षयसे। लेट्प्रयोगोऽयम्। (अतः) कारणात् (आ) (याहि) प्राप्नुयाः (अध्वरम्) अध्ययना- ध्यापनाख्यमहिंसनीयं यज्ञम् (नः) अस्माकम् (अच्छ) उत्तमरीत्या। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (त्वाया) त्वया सुपां सुलुगिति तृतीयास्थानेऽयाजादेशः। (हविः) आदेयं विज्ञानम् (चकृम) कुर्याम। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (सत्यराधः) सत्यानि राधांसि विद्यादिधनानि यस्य तत्सम्बुद्धौ॥8॥ अन्वयः—हे मरुत्वः सत्यराधो विद्वान्! यद्यतस्त्वं परमे सधस्थे यद्यतो वाऽवमे वा वृजने व्यवहारे मादयासेऽतो नोऽस्माकमध्वरमच्छायाहि त्वया सह वर्त्तमाना वयं हविश्चकृम॥8॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यो विद्वान् सर्वत्रानन्दयिता विद्याप्रदाता सत्यगुणकर्मस्वभावोऽस्ति, तत्सङ्गेन सततं सर्वा विद्याः सुशिक्षाश्च प्राप्य सर्वदानन्दितव्यम्॥8॥ पदार्थः—हे (मरुत्वः) प्रशंसित विद्यायुक्त (सत्यराधः) विद्या आदि सत्यधनों वाले विद्वान्! (यत्) जिस कारण आप (परमे) अत्यन्त उत्कृष्ट (सधस्थे) स्थान में और (यत्) जिस कारण (वा) उत्तम (अवमे) अधम (वा) वा मध्यम व्यवहार में (वृजने) कि जिसमें मनुष्य दुःखों को छोड़ें (मादयासे) आनन्द देते हैं, (अतः) इस कारण (नः) हम लोगों के (अध्वरम्) पढ़ने-पढ़ाने के अहिंसनीय अर्थान् न छोड़ने योग्य यज्ञ को (अच्छ) अच्छे प्रकार (आ, याहि) आओ प्राप्त होओ (त्वाया) आपके साथ हम लोग (हविः) ग्रहण करने योग्य विशेष ज्ञान को (चकृम) करें अर्थात् उस विद्या को प्राप्त होवें॥8॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि जो विद्वान् सर्वत्र आनन्दित कराने और विद्या का देनेहारा सत्यगुण, कर्म और स्वभावयुक्त है, उसके संग से निरन्तर समस्त विद्या और उत्तम शिक्षा को पाकर सर्वदा आनन्दित होवें॥8॥ पुनस्तत्सङ्गेन किं कार्य्यं स चास्माकं यज्ञे किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर उसके सङ्ग से क्या करना चाहिये और वह हम लोगों के यज्ञ में क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ त्वा॒येन्द्र॒ सोमं॑ सुषुमा सुदक्ष त्वा॒या ह॒विश्च॑कृमा ब्रह्मवाहः। अधा॑ नियुत्वः॒ सग॑णो म॒रुद्भि॑र॒स्मिन् य॒ज्ञे ब॒र्हिषि॑ मादयस्व॥9॥ त्वा॒ऽया। इ॒न्द्र॒। सोम॑म्। सु॒सु॒म॒। सु॒ऽद॒क्ष॒। त्वा॒ऽया। ह॒विः। च॒कृ॒म॒। ब्र॒ह्म॒ऽवा॒हः॒। अध॑। नि॒यु॒त्वः॒। सऽग॑णः। म॒रुत्ऽभिः॑। अ॒स्मिन्। य॒ज्ञे। ब॒र्हिषि॑। मा॒द॒य॒स्व॒॥9॥ पदार्थः—(त्वाया) त्वया सहिताः (इन्द्रः) परमविद्यैश्वर्ययुक्त (सोमम्) ऐश्वर्यकारकं वेदशास्त्रबोधम् (सुसुम) सुनुयाम प्राप्नुयाम। वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीतीडभावः। अन्येषामपीति दीर्घश्च। (सुदक्ष) शोभनं दक्षं चातुर्य्ययुक्तं बलं यस्य तत्सम्बुद्धौ। (त्वाया) त्वया सह संयुक्ताः (हविः) क्रियाकौशलयुक्तं कर्म (चकृम) विदध्याम। अत्राप्यन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (ब्रह्मवाहः) अनन्तधन वेदविद्याप्रापक (अध) अथ। अत्र वर्णव्यत्ययेन धकारो निपातस्य चेति दीर्घश्च। (नियुत्वः) समर्थ (सगणः) गणैर्विद्यार्थिनां समूहैः सह वर्त्तमानः (मरुद्भिः) ऋत्विग्भिः सहितः (अस्मिन्) प्रत्यक्षे (यज्ञे) अध्ययनाध्यापनसत्कारप्राप्ते व्यवहारे (बर्हिषि) अत्युत्तमे (मादयस्व) आनन्दय हर्षितो वा भव॥9॥ अन्वयः—हे इन्द्र! त्वाया त्वया सह वर्त्तमाना वयं सोमं सुसुम। हे सुदक्ष! ब्रह्मवाहस्त्वाया त्वया सहिता वयं हविश्चकृम। हे नियुत्वोऽधाथा मरुद्भिः सहितः सगणस्त्वामस्मिन् बर्हिषि यज्ञेऽस्मान् मादयस्व॥9॥ भावार्थः—नहि विदुषां सङ्गेन विना कश्चित् खलु विद्यैश्वर्य्यमानन्दं च प्राप्तुं शक्नोति, तस्मात्सर्वे मनुष्या विदुषः सदा सत्कृत्यैतेभ्यो विद्यासुशिक्षाः प्राप्य सर्वथा सत्कृता भवन्तु॥9॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) परम विद्यारूपी ऐश्वर्य से युक्त विद्वान्! (त्वाया) आपके साथ हुए हम लोग (सोमम्) ऐश्वर्य करनेवाले वेदशास्त्र के बोध को (सुसुम) प्राप्त हों। हे (सुदक्ष) उत्तम चतुराईयुक्त बल और (ब्रह्मवाहः) अनन्तधन तथा वेदविद्या की प्राप्ति करानेहारे विद्वान्! (त्वाया) आपके सहित हम लोग (हविः) क्रियाकौशलयुक्त काम का (चकृम) विधान करें। हे (नियुत्वः) समर्थ! (अधा) इसके अनन्तर (मरुद्भिः) ऋत्विज् अर्थात् पढ़ानेवालों और (सगणः) अपने विद्यार्थियों के गोलों के साथ वर्त्तमान आप (अस्मिन्) इस (बर्हिषि) अत्यन्त उत्तम (यज्ञे) पढ़ने-पढ़ाने के सत्कार से पाये हुए व्यवहार में (मादयस्व) आनन्दित होओ और हम लोगों को आनन्दित करो॥9॥ भावार्थः—विद्वानों के संग के विना निश्चय है कि कोई ऐश्वर्य्य और आनन्द को नहीं पा सकता है, इससे सब मनुष्यों विद्वानों का सदा सत्कार कर इनसे विद्या और अच्छी-अच्छी शिक्षाओं को प्राप्त होकर सब प्रकार से सत्कार युक्त होवें॥9॥ पुनः सेनाध्यक्षः किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर सेना आदि का अध्यक्ष क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ मा॒दय॑स्व॒ हरि॑भि॒र्ये त॑ इन्द्र॒ वि ष्य॑स्व॒ शिप्रे॒ वि सृ॑जस्व॒ धेने॑। आ त्वा॑ सुशिप्र॒ हर॑यो वहन्तू॒शन्ह॒व्यानि॒ प्रति॑ नो जुषस्व॥10॥ मा॒दय॑स्व। हरि॑ऽभिः। ये। ते॒। इ॒न्द्र॒। वि। स्य॒स्व॒। शिप्रे॒ इति॑। वि। सृ॒ज॒स्व॒। धेने॒ इति॑। आ। त्वा॒। सु॒ऽशि॒प्र॒। हर॑यः। व॒ह॒न्तु॒। उ॒शन्। ह॒व्यानि॑। प्रति॑। नः॒। जु॒ष॒स्व॒॥10॥ पदार्थः—(मादयस्व) हर्षयस्व (हरिभिः) प्रशस्तैर्युद्धकुशलैः सुशिक्षितैरश्वादिभिः (ये) (ते) तव (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त सेनाधिपते (वि, ष्यस्व) स्वराज्येन विशेषतः प्राप्नुहि (शिप्रे) सर्वसुखप्रापिके द्यावापृथिव्यौ। शिप्रे इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰4.1) (विसृजस्व) (धेने) धेनावत्सर्वानन्दरसप्रदे (आ) (त्वा) त्वाम् (सुशिप्र) सुष्ठु सुखप्रापक (हरयः) अश्वादयः (वहन्तु) प्रापयन्तु (उशन्) कामयमानः (हव्यानि) आदातुं योग्यानि युद्धादिकार्य्याणि (प्रति) (नः) अस्मान् (जुषस्व) प्रीणीहि॥10॥ अन्वयः—हे सुशिप्र इन्द्र! ये ते तव हरयः सन्ति तैर्हरिभिर्नोऽस्मान् मादयस्व। शिप्रे धेने विष्यस्व विसृजस्व च। ये हरयस्त्वा त्वामावहन्तु यैरुशन्कामयमानस्त्वं हव्यानि जुषसे तान् प्रति नोऽस्माञ्जुषस्व॥10॥ भावार्थः—सेनाधिपतिना सर्वाणि सेनाङ्गानि पूर्णबलानि सुशिक्षितानि साधयित्वा सर्वान् विघ्नान् निवार्य्य स्वराज्यं सुपाल्य सर्वाः प्रजाः सततं रञ्जयितव्याः॥10॥ पदार्थः—हे (सुशिप्र) अच्छा सुख पहुंचानेवाले (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त सेना के अधीश! (ये) जो (ते) आपके प्रशंसित युद्ध में अतिप्रवीण और उत्तमता से चालें सिखाये हुए घोड़े हैं, उन (हरिभिः) घोड़ों से (नः) हम लोगों को (मादयस्व) आनन्दित कीजिये (शिप्रे) और सर्व सुखप्राप्ति कराने तथा (धेने) वाणी के समान समस्त आनन्दरस को देनेहारे आकाश और भूमि लोक को (वि ष्यस्व) अपने राज्य से निरन्तर प्राप्त हो (विसृजस्व) और छोड़ अर्थात् वृद्धावस्था में तप करने के लिये उस राज्य को छोड़ दे, जो (हरयः) घोड़े (त्वाम्) आपको (आ, वहन्तु) ले चलते हैं वा जिनसे (उशन्) आप अनेक प्रकार की कामनाओं को करते हुए (हव्यानि) ग्रहण करने योग्य युद्ध आदि के कामों को सेवन करते हैं, उन कामों के प्रति (नः) हम लोगों को (जुषस्व) प्रसन्न कीजिये॥10॥ भावार्थः—सेनापति को चाहिये कि सेना के समस्त अङ्गों को पूर्ण बलयुक्त और अच्छी-अच्छी शिक्षा दे, उनके युद्ध के योग्य सिद्ध कर, समस्त विघ्नों की निवृत्ति कर और अपने राज्य की उत्तम रक्षा करके सब प्रजा को निरन्तर आनन्दित करे॥10॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ म॒रुत्स्तो॑त्रस्य वृ॒जन॑स्य गो॒पा व॒यमिन्द्रे॑ण सनुयाम॒ वाज॑म्। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौः॥11॥13॥ म॒रुत्ऽस्तो॑त्रस्य। वृ॒जन॑स्य। गो॒पाः। व॒यम्। इन्द्रे॑ण। स॒नु॒या॒म॒। वाज॑म्। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः॥11॥ पदार्थः—(मरुत्स्तोत्रस्य) मरुतां वेगादिगुणैः स्तुतस्य (वृजनस्य) दुःखवर्जितस्य व्यवहारस्य (गोपाः) रक्षकः (वयम्) (इन्द्रेण) ऐश्वर्य्यप्रदेन सेनापतिना सह वर्त्तमानाः (सनुयाम) संभजेमहि। अत्र विकरणव्यत्ययः। (वाजम्) संग्रामम् (तत्) तस्मात् (नः) अस्मान् (मित्रो वरु॰) इति पूर्ववत्॥11॥ अन्वयः—यो मरुत्स्तोत्रस्य वृजनस्य गोपा सेनाधिपतिरस्ति तेनेन्द्रेणैश्वर्यप्रदेन सह वर्त्तमाना वयं यतो वाजं सनुयाम तन्मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्नोऽस्मान् मामहन्तां सत्कारहेतवः स्युः॥11॥ भावार्थः—न खलु संग्रामे केषांचित् पूर्णबलेन सेनाधिपतिना विना शत्रुपराजयो भवितुं शक्यः। नैव किल कश्चित् सेनाधिपतिः सुशिक्षितया पूर्णबलया साङ्गोपाङ्गया हृष्टपुष्टया सेनया विना शत्रून् विजेतुं राज्यं पालयितुं च शक्नोति। नैतावदन्तरेण मित्रादयः सुखकारका भवितुं योग्यास्तस्मादेतत्सर्वं सर्वैर्मनुष्यैर्यथावन्मन्तव्यमिति॥11॥ अत्रेश्वरसभासेनाशालाद्यध्यक्षाणां गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोद्धव्यम्॥ इत्येकाधिकशततमं 101 सूक्तं त्रयोदशो 13 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—जो (मरुस्तोत्रस्य) पवन आदि के वेगादि गुणों से प्रशंसा को प्राप्त (वृजनस्य) और दुःखवर्जित अर्थात् जिसमें दुःख नहीं होता, उस व्यवहार का (गोपाः) रखनेवाला सेनाधिपति है, उस (इन्द्रेण) ऐश्वर्य के देनेवाले सेनापति के साथ वर्त्तमान (वयम्) हम लोग जिस कारण (वाजम्) संग्राम का (सनुयाम) सेवन करें (तत्) इस कारण (मित्रः) मित्र (वरुणः) उत्तम गुणयुक्त जन (अदितिः) समस्त विद्वान् मण्डली (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) सूर्यलोक (नः) हम लोगों के (मामहन्ताम्) सत्कार करने के हेतु हों॥11॥ भावार्थः—निश्चय है कि संग्राम में किसी पूर्णबली सेनाधिपति के विना शत्रुओं का पराजय नहीं हो सकता और न कोई सेनाधिपति अच्छी शिक्षा की हुई पूर्ण, बल, अङ्ग और उपाङ्ग सहित आनन्दित और पुष्ट सेना के विना शत्रुओं के जीतने वा राज्य की पालना करने को समर्थ हो सकता है। न उक्त व्यवहारों के विना मित्र आदि सुख करने के योग्य होते हैं, इससे उक्त समस्त व्यवहार सब मनुष्यों को यथावत् मानना चाहिये॥11॥ इस सूक्त में ईश्वर, सभा, सेना और शाला आदि के अधिपतियों के गुणों का वर्णन है। इससे इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये॥ यह एकसौ एकवां 101 सूक्त और तेरहवां 13 वर्ग समाप्त हुआ॥


अथ द्व्यधिकशततमस्यैकादशर्चस्य सूक्तस्याङ्गिरसः कुत्स ऋषिः। इन्द्रो देवता। 1 जगती। 3,5-8 निचृज्जगती छन्दः। निषादः स्वरः। 2,4,9 स्वराड् त्रिष्टुप्। 10,11 निचृत् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ अथ शालाद्यध्यक्षेण किं किं स्वीकृत्य कथं भवितव्यमित्युपदिश्यते॥ अब शाला आदि के अध्यक्ष को क्या-क्या स्वीकार कर कैसा होना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ इ॒मां ते॒ धियं॒ प्र भ॑रे म॒हो म॒हीम॒स्य स्तो॒त्रे धि॒षणा॒ यत्त॑ आन॒जे। तमु॑त्स॒वे च॑ प्रस॒वे च॑ सास॒हिमिन्द्रं॑ दे॒वासः॒ शव॑सामद॒न्ननु॑॥1॥ इ॒माम्। ते॒। धिय॑म्। प्र। भ॒रे॒। म॒हः। म॒हीम्। अ॒स्य। स्तो॒त्रे। धि॒षणा॑। यत्। ते॒। आ॒न॒जे। तम्। उ॒त्ऽस॒वे। च॒। प्र॒ऽस॒वे। च॒। स॒स॒हिम्। इन्द्र॑म्। दे॒वासः॑। शव॑सा। अ॒म॒द॒न्। अनु॑॥1॥ पदार्थः—(इमाम्) प्रत्यक्षाम् (ते) तव विद्याशालाधिपतेः (धियम्) प्रज्ञां कर्म वा (प्र) (भरे) धरे (महः) महतीम् (महीम्) पूज्यतमाम् (अस्य) (स्तोत्रे) स्तोतव्ये व्यवहारे (धिषणा) विद्यासुशिक्षिता वाक् (यत्) या यस्य वा (ते) तव (आनजे) सर्वैः काम्यते प्रकट्यते विज्ञायते। अत्राञ्जूधातोः कर्मणि लिट्। (तम्) (उत्सवे) हर्षनिमित्ते व्यवहारे (च) दुःखनिमित्ते वा (प्रसवे) उत्पत्तौ (च) मरणे वा (सासहिम्) अतिषोढारम् (इन्द्रम्) विद्यैश्वर्यप्रापकम् (देवासः) विद्वांसः (शवसा) बलेन (अमदन्) हृष्येयुर्हर्षयेयुर्वा (अनु)॥1॥ अन्वयः—हे सर्वविद्याप्रद शालाद्यधिपते! यद्या ते तवास्य धिषणा सर्वैरानजे तस्य ते तव यामिमां महो महीं धियमहं स्तोत्रे प्रभरे। उत्सवेऽनुत्सवे च प्रसवे मरणे च यं त्वां सासहिमिन्द्रं देवासः शवसाऽन्वमदन् तं त्वामहमप्यन्वमदेयम्॥1॥ भावार्थः—सर्वैर्मनुष्यैः सर्वेषां धार्मिकाणां विदुषां विद्यां प्रज्ञाः कर्माणि च धृत्वा स्तुत्या च व्यवहाराः सेवनीयाः। येभ्यो विद्यासुखे प्राप्येते ते सर्वान् सुखदुःखव्यवहारयोर्मध्ये सत्कृत्यैव सर्वदानन्दयेयुरिति॥1॥ पदार्थः—हे सर्व विद्या देनेवाले शाला आदि के अधिपति! (यत्) जो (ते) (अस्य) इन आपकी (धिषणा) विद्या और उत्तम शिक्षा की हुई वाणी (आनजे) सब लोगों ने चाही प्रकट की और समझी है, जिन (ते) आपके (इमाम्) इस (महः) बड़ी (महीम्) सत्कार करने योग्य (धियम्) बुद्धि को (स्तोत्रे) प्रशंसनीय व्यवहार में (प्रभरे) अतीव धरे अर्थात् स्वीकार करे वा (उत्सवे) उत्सव (च) और साधारण काम में वा (प्रसवे) पुत्र आदि के उत्पन्न होने और (च) गमी होने में जिन (सासहिम्) अति क्षमापन करने (इन्द्रम्) विद्या और ऐश्वर्य्य की प्राप्ति करानेवाले आपको (देवासः) विद्वान् जन (शवसा) बल से (अनु, अमदन्) आनन्द दिलाते वा आनन्दित होते हैं (तम्) उन आपको मैं भी अनुमोदित करूं॥1॥ भावार्थः—सब मनुष्यों को चाहिये कि सब धार्मिक विद्वानों की विद्या, बुद्धियों और कामों को धारण और उनकी स्तुति कर उत्तम-उत्तम व्यवहारों का सेवन करें, जिनसे विद्या और सुख मिलते हैं, वे विद्वान् जन सबको सुख और दुःख के व्यवहारों में सत्कारयुक्त करके ही सदा आनन्दित करावें॥1॥ अथेश्वराध्यापककर्मणा किं जायत इत्युपदिश्यते॥ अब ईश्वर और अध्यापक के काम से क्या होता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒स्य श्रवो॑ न॒द्यः स॒प्त बि॑भ्रति॒ द्यावा॒क्षामा॑ पृथि॒वी द॑र्श॒तं वपुः॑। अ॒स्मे सू॑र्याचन्द्र॒मसाभि॒चक्षे॑ श्र॒द्धे कमि॑न्द्र चरतो वितर्तु॒रम्॥2॥ अ॒स्य। श्रवः॑। न॒द्यः॑। स॒प्त। बि॒भ्र॒ति॒। द्यावा॒क्षामा॑। पृ॒थि॒वी। द॒र्श॒तम्। वपुः॑। अ॒स्मे इति॑। सू॒र्या॒च॒न्द्र॒मसा॑। अ॒भि॒ऽचक्षे॑। श्र॒द्धे। कम्। इ॒न्द्र॒। च॒र॒तः॒। वि॒ऽत॒तुर्॒रम्॥2॥ पदार्थः—(अस्य) अखिलविद्यस्य जगदीश्वरस्य सर्वविद्याध्यापकस्य वा (श्रवः) सामर्थ्यमन्नं वा (नद्यः) सरितः (सप्त) सप्तविद्याः स्वादोदकाः (बिभ्रति) धरन्ति पोषयन्ति वा (द्यावाक्षामा) प्रकाशभूमी। अत्र दिवो द्यावा। (अष्टा॰6.3.29) अनेन दिव् शब्दस्य द्यावादेशः। (पृथिवी) अन्तरिक्षम् (दर्शतम्) द्रष्टव्यम् (वपुः) शरीरम् (अस्मे) अस्माकम् (सूर्याचन्द्रमसा) सूर्यचन्द्रादिलोकसमूहौ (अभिचक्षे) आभिमुख्येन दर्शनाय (श्रद्धे) श्रद्धारणाय (कम्) सुखकारकम् (इन्द्र) विद्यैश्वर्यप्रद (चरतः) प्राप्नुतः। (वितर्तुरम्) अतिशयेन विविधप्लवे तरणार्थम्। अत्र यङलुङन्तात्तृधातोरच् प्रत्ययो बहुलं छन्दसीत्युत्वम्॥2॥ अन्वयः—हे इन्द्रास्य तव श्रवः सप्त नद्यो दर्शतं वितर्त्तुरं कं वपुर्बिभ्रति द्यावाक्षामा पृथिवी सूर्य्याचन्द्रमसा च बिभ्रत्येते सर्व अस्मे अभिचक्षे श्रद्धे चरन्ति चरतः चरन्ति चरतो वा॥2॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः। परमेश्वरस्य सर्जनेन पृथिव्यादयो लोकास्तत्रस्थाः पदार्थाश्च स्वं स्वं रूपं धृत्वा सर्वेषां प्राणिनां दर्शनाय श्रद्धायै च भूत्वा सुखं सम्पाद्य गमनागमनादिव्यवहारहेतवो भवन्ति। नहि कथंचिद् विद्यया विनैतेभ्यः सुखानि संजायन्ते तस्मादीश्वरस्योपासनेन विदुषां सङ्गेन च लोकविद्याः प्राप्य सर्वैः सदा सुखयितव्यम्॥2॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य के देनेवाले! (अस्य) निःशेष विद्यायुक्त जगदीश्वर का वा समस्त विद्या पढ़ानेहारे आप लोगों का (श्रवः) सामर्थ्य वा अन्न और (सप्त) सात प्रकार की स्वादयुक्त जलवाली (नद्यः) नदी (दर्शतम्) देखने और (वितर्त्तुरम्) अनेक प्रकार के नौका आदि पदार्थों से तरने योग्य महानद में तरने के अर्थ (कम्) सुख करनेहारे (वपुः) रूप को (बिभ्रति) धारण करतीं वा पोषण करातीं तथा (द्यावाक्षामा) प्रकाश और भूमि मिल कर वा (पृथिवी) अन्तरिक्ष (सूर्याचन्द्रमसा) सूर्य और चन्द्रमा आदि लोक धरते पुष्ट कराते हैं, ये सब (अस्मे) हम लोगों के (अभिचक्षे) सुख के सम्मुख देखने (श्रद्धे) और श्रद्धा कराने के लिये प्रकाश और भूमि वा सूर्य-चन्द्रमा दो-दो (चरतः) प्राप्त होते तथा अन्तरिक्ष प्राप्त होता और भी उक्त पदार्थ प्राप्त होते हैं॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। परमेश्वर की रचना से पृथिवी आदि लोक और उनमें रहनेवाले पदार्थ अपने-अपने रूप को धारण करके सब प्राणियों के देखने और श्रद्धा के लिये हो और सुख को उत्पन्न कर चालचलन के निमित्त होते हैं, परन्तु किसी प्रकार विद्या के विना इन सांसारिक पदार्थों से सुख नहीं होता। इससे सबको चाहिये कि ईश्वर की उपासना और विद्वानों के संग से लोकसम्बन्धी विद्या को पाकर सदा सुखी होवें॥2॥ पुनः सेनाधिपतिः किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर सेना का अधिपति क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ तं स्मा॒ रथं॑ मघव॒न्प्राव॑ सा॒तये॑ जैत्रं॒ यं ते॑ अनु॒मदा॑म संग॒मे। आ॒जा न॑ इन्द्र॒ मन॑सा पुरुष्टुत त्वा॒यद्भ्यो॑ मघव॒ञ्छर्म॑ यच्छ नः॥3॥ तम्। स्म॒। रथ॑म्। म॒घ॒ऽव॒न्। प्र। अ॒व॒। सा॒तये॑। जैत्र॑म्। यम्। ते। अ॒नु॒ऽमदा॑म। स॒म्ऽग॒मे। आ॒जा। नः॒। इ॒न्द्र॒। मन॑सा। पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒। त्वा॒यत्ऽभ्यः॑। म॒घ॒ऽव॒न्। शर्म॑। य॒च्छ॒। नः॒॥3॥ पदार्थः—(तम्) (स्म) आश्चर्यगुणप्रकाशे। निपातस्य चेति दीर्घः। (रथम्) विमानादियानसमूहम् (मघवन्) प्रशस्तपूज्यधनयुक्त (प्र, अव) प्रापय (सातये) बहुधनप्राप्तये (जैत्रम्) जयन्ति येन तम्। अत्र जि धातोः सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्निति ष्ट्रन् प्रत्ययो बाहुलकाद् वृद्धिश्च। (यम्) (ते) तव (अनुमदाम) अनुहृष्येम। अत्र विकरणव्यत्ययेन शप्। (संगमे) संग्रामे। संगम इति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं॰2.17) (आजा) अजन्ति सङ्गच्छन्ते वीराः शत्रुभिर्यस्मिन् (नः) अस्माकम् (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (मनसा) विज्ञानेन (पुरुष्टुत) बहुभिः शूरैः प्रशंसित (त्वायद्भ्यः) आत्मनस्त्वामिच्छद्भ्यः (मघवन्) प्रशंसितधन (शर्म) सुखम् (यच्छ) देहि (नः) अस्मभ्यम्॥3॥ अन्वयः—हे मघवन्निन्द्र सेनाधिपते! त्वं नोऽस्माकं सातये तं जैत्रं स्म रथं योजयित्वाऽऽजा सङ्गमे प्राव तं कमित्यपेक्षायामाह यं ते तव रथं वयमनुमदाम। हे पुरुष्टुत मघवन्! त्वं मनसा त्वायद्भ्यो नोऽस्मभ्यं शर्म यच्छ॥3॥ भावार्थः—यदा शूरवीरैर्भृत्यैः सेनाधिपतिना च संग्रामं कर्त्तुं गम्यते तदाऽन्योऽन्यमनुमोद्य संरक्ष्य शत्रुभिः संयोध्य तेषां पराजयं कृत्वा स्वकीयान् हर्षयित्वा शत्रूनपि संतोष्य सदा वर्त्तितव्यम्॥3॥ पदार्थः—हे (मघवन्) प्रशंसित और मान करने योग्य धनयुक्त (इन्द्र) परमैश्वर्य्य के देनेवाले सेना के अधिपति! आप (नः) हम लोगों के (सातये) बहुत से धन की प्राप्ति होने के लिये (जैत्रम्) जिससे संग्रामों में जीतें (तम्) उस (स्म) अद्भुत-अद्भुत गुणों को प्रकाशित करनेवाले (रथम्) विमान आदि रथसमूह को जुता के (आजा) जहाँ शत्रुओं से वीर जा-जा मिलें उस (संगमे) संग्राम में (प्र, अव) पहुंचाओ अर्थात् अपने रथ को वहाँ ले जाओ, कौन रथ को? कि (यम्) जिस (ते) आपके रथ को हम लोग (अनु, मदाम) पीछे से सराहें। हे (पुरुष्टुत) बहुत शूरवीर जनों से प्रशंसा को प्राप्त (मघवन्) प्रशंसित धनयुक्त! आप (मनसा) विशेष ज्ञान से (त्वायद्भ्यः) अपने को आप की चाहना करते हुए (नः) हम लोगों के लिये अद्भुत (शर्म) सुख को (यच्छ) देओ॥3॥ भावार्थः—जब शूरवीर सेवकों के साथ सेनापति को संग्राम करने को जाना होता है, तब परस्पर अर्थात् एक-दूसरे का उत्साह बढ़ा के अच्छे प्रकार रक्षा, शत्रुओं के साथ अच्छा युद्ध, उनकी हार और अपने जनों को आनन्द देकर शत्रुओं को भी किसी प्रकार सन्तोष देकर सदा अपना वर्त्ताव रखना चाहिये॥3॥ पुनस्तेन सह किं कर्तव्यमित्युपदिश्यते॥ फिर उसके साथ क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ व॒यं ज॑येम॒ त्वया॑ यु॒जा वृत॑म॒स्माक॒मंश॒मुद॑वा॒ भरे॑भरे। अ॒स्मभ्य॑मिन्द्र॒ वरि॑वः सु॒गं कृ॑धि॒ प्र शत्रू॑णां मघव॒न् वृष्ण्या॑ रुज॥4॥ व॒यम्। ज॒ये॒म॒। त्वया॑। यु॒जा। वृत॑म्। अ॒स्माक॑म्। अंश॑म्। उत्। अ॒व॒। भरे॑ऽभरे। अ॒स्मभ्य॑म्। इ॒न्द्र॒। वरि॑वः। सु॒ऽगम्। कृ॒धि॒। प्र। शत्रू॑णा॒म्। म॒घ॒ऽव॒न्। वृष्ण्या॑। रु॒ज॒॥4॥ पदार्थः—(वयम्) योद्धारः (जयेम) शत्रून् विजयेमहि (त्वया) सेनाधिपतिना सह वर्त्तमानाः (युजा) युक्तेन (वृतम्) स्वीकर्तव्यम् (अस्माकम्) (अंशम्) सेवाविभागम्। भोजनाच्छादनधनयानशस्त्रकोशविभागं वा (उत्) उत्कृष्टे (अव) रक्षादिकं कुर्याः। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (भरे-भरे) संग्रामे संग्रामे (अस्मभ्यम्) (इन्द्र) शत्रुदलविदारक (वरिवः) सेवनम् (सुगम्) सुष्ठु गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति यस्मिँस्तत्। (कृधि) कुरु (प्र) (शत्रूणाम्) वैरिणां सेनाः (मघवन्) प्रशस्तबल (वृष्ण्या) वृष्णां वर्षकाणां शस्त्रवृष्टये हितया सेनया (रुज) भङ्ग्धि॥4॥ अन्वयः—हे इन्द्र! त्वं भरे भरेऽस्माकं वृतमंशमवास्मभ्यं वरिवः सुगं कृधि। हे मघवंस्त्वं वृष्ण्या स्वसेनया शत्रूणां सेनाः प्ररुज। एवंभूतेन त्वया युजा सह वर्त्तमाना वयं शत्रून्नुज्जयेम॥4॥ भावार्थः—राजपुरुषा यदा यदा युद्धाऽनुष्ठानाय प्रवर्त्तेरन् तदा तदा धनशस्त्रकोशयानसेनासामग्रीः पूर्णाः कृत्वा प्रशस्तेन सेनापतिना रक्षिता भूत्वा प्रशस्तविचारेण युक्त्या च शत्रुभिः सह युद्ध्वा शत्रुपृतनाः सदा विजयेरन्। नैवं पुरुषार्थेन विना कस्यचित् खलु विजयो भवितुमर्हति तस्मादेतत्सदाऽनुतिष्ठेयुः॥4॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) शत्रुओं के दल को विदीर्ण करनेवाले सेना आदि के अधीश! तुम (भरेभरे) प्रत्येक संग्राम में (अस्माकम्) हम लोगों के (वृतम्) स्वीकार करने योग्य (अंशम्) सेवाविभाग को (अव) रक्खो, चाहो, जानो, प्राप्त होओ, अपने में रमाओ, मांगो, प्रकाशित करो, उससे आनन्दित होने आदि क्रियाओं से स्वीकार करो वा भोजन, वस्त्र, धन, यान, कोश को बांट लेओ तथा (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (वरिवः) अपना सेवन (सुगम्) (कृधि) करो। हे (मघवन्) प्रशंसित बलवाले! तुम (वृष्ण्या) शस्त्र वर्षानेवालों की शस्त्रवृष्टि के लिये हितरूप अपनी सेना से (शत्रूणाम्) शत्रुओं की सेनाओं को (प्र, रुज) अच्छी प्रकार काटो और ऐसे साथी (त्वया, युजा) जो आप उनके साथ (वयम्) युद्ध करनेवाले हम लोग शत्रुओं के बलों को (उत् जयेम) उत्तम प्रकार से जीतें॥4॥ भावार्थः—राजपुरुष जब-जब युद्ध करने को प्रवृत्त होवें तब-तब धन, शस्त्र, यान, कोश, सेना आदि सामग्री को पूरी कर और प्रशंसित सेना के अधीश से रक्षा को प्राप्त होकर, प्रशंसित विचार और युक्ति से शत्रुओं के साथ युद्ध कर, उनकी सेनाओं को सदा जीतें। ऐसे पुरुषार्थ के विना किये किसी को जीत होने योग्य नहीं, इससे इस वर्त्ताव को सदा वर्त्तें॥4॥ पुनस्तैः परस्परं तत्र कथं वर्त्तितव्यमित्युपदिश्यते॥ फिर उनको परस्पर युद्ध में कैसे वर्त्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ नाना॒ हि त्वा॒ हव॑माना॒ जना॑ इ॒मे धना॑नां धर्त॒रव॑सा विप॒न्यवः॑। अ॒स्माकं॑ स्मा रथ॒मा ति॑ष्ठ सा॒तये॒ जैत्रं॒ ही॑न्द्र॒ निभृ॑तं॒ मन॒स्तव॑॥5॥14॥ नाना॑। हि। त्वा॒। हव॑मानाः। जनाः॑। इ॒मे। धना॑नाम्। ध॒र्त्तः॒। अव॑सा। वि॒प॒न्यवः॑। अ॒स्माक॑म्। स्म॒। रथ॑म्। आ। ति॒ष्ठ॒। सा॒तये॑। जैत्र॑म्। हि। इ॒न्द्र॒। निऽभृ॑तम्। मनः॑। तव॑॥5॥ पदार्थः—(नाना) अनेकप्रकाराः (हि) खलु (त्वा) त्वाम् (हवमानाः) स्पर्द्धमानाः (जनाः) शौर्य्यधनुर्वेदकुशला अतिरथा मनुष्याः (इमे) प्रत्यक्षतया सुपरीक्षिताः (धनानाम्) राज्यविभूतीनाम् (धर्त्तः) धारक (अवसा) रक्षणादिना सह वर्त्तमानाः (विपन्यवः) विविधव्यवहारकुशला मेधाविनः (अस्माकम्) (स्म) हर्षे। पूर्ववदत्र दीर्घः। (रथम्) विजयहेतुं विमानादियानम् (आ) (तिष्ठ) (सातये) संविभागाय (जैत्रम्) दृढं वैयाघ्रं विजयनिमित्तम् (हि) प्रसिद्धम् (इन्द्र) यथावद्वीराणां रक्षक (निभृतम्) नितरां धृतम् (मनः) मननशीलान्तःकरणवृत्तिः (तव)॥5॥ अन्वयः—हे इन्द्र! त्वं धनानां सातये स्म यत्र तव मनो निभृतं तमस्माकं जैत्रं रथं ह्यातिष्ठ। हे धर्त्तस्तवाज्ञायां स्थिता अवसा सह वर्त्तमाना नाना हवमाना विपन्यवो जना इमे वयं त्वानुकूलं हि वर्तेमहि॥5॥ भावार्थः—यदा मनुष्या युद्धादिव्यवहारे प्रवर्तेरंस्तदा विरोधेर्ष्याभयालस्यं विहाय परस्पररक्षायां तत्परा भूत्वा शत्रून् विजित्य विजितधनानां विभागान् कृत्वा सेनापत्यादयो यथायोग्यं योद्धृभ्यः सत्कारायैतानि दद्युर्यतोऽग्रेऽप्युत्साहो वर्धेत। सर्वथाऽऽदानमप्रियकरं दानञ्च प्रियकारकमिति बुद्ध्वैतत्सदाऽनुतिष्ठेयुः॥5॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) यथायोग्य वीरों के रखनेवाले! तुम (धनानाम्) राज्य की विभूतियों के (सातये) अलग-अलग बांटने के लिये (स्म) आनन्द ही के साथ जिसमें (तव) तुम्हारी (मनः) विचार करनेवाली चित्त की वृत्ति (निभृतम्) निरन्तर धरी हो, उस (अस्माकम्) हमारे (जैत्रम्) जो बड़ा दृढ़ जिससे शत्रु जीते जायें, (रथम्) ऐसे विजय करानेवाले विमानादि यान (हि) ही को (आ तिष्ठ) अच्छे प्रकार स्वीकार कर स्थित हो। हे (धर्त्तः) धारण करनेवाले! तुम्हारी आज्ञा में अपना वर्त्ताव रखते हुए (अवसा) रक्षा आदि आपके गुणों के साथ वर्त्तमान (नाना) अनेक प्रकार (हवमानाः) चाहे हुए (विपन्यवः) विविध व्यवहारों में चतुर बुद्धिमान् (जनाः) जन (इमे) ये प्रत्यक्षता से परीक्षा किये हम लोग (त्वाम्) तुम्हारे अनुकूल (हि) ही वर्त्ताव रक्खें॥5॥ भावार्थः—जब मनुष्य युद्ध आदि व्यवहारों में प्रवृत्त होवें तब विरोध, ईर्ष्या, डर और आलस्य को छोड़ एक-दूसरे की रक्षा में तत्पर हो शत्रुओं को जीत और जीते हुए धनों को बांट कर सेनापति आदि लड़नेवालों की योग्यता के अनुकूल उनके सत्कार के लिये देवें कि जिससे लड़ने का उत्साह आगे को बढ़े। सब प्रकार से ले लेना प्रीति करनेवाला नहीं और देना प्रसन्नता करनेवाला होता है, यह विचार कर सदा उक्त व्यवहार को वर्त्तें॥5॥ पुनः स सेनापतिः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह सेनापति कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ गो॒जिता॑ बा॒हू अमि॑तक्रतुः सि॒मः कर्म॑न्कर्मञ्छ॒तमू॑तिः खजंक॒रः। अ॒क॒ल्प इन्द्रः॑ प्रति॒मान॒मोज॒साथा॒ जना॒ वि ह्व॑यन्ते सिषा॒सवः॑॥6॥ गो॒ऽजिता॑। बा॒हू इति॑। अमि॑तऽक्रतुः। सि॒मः। कर्म॑न्ऽकर्मन्। श॒तम्ऽऊ॑तिः। ख॒ज॒म्ऽक॒रः। अ॒क॒ल्पः। इन्द्रः॑। प्र॒ति॒ऽमान॑म्। ओज॑सा। अथ॑। जनाः॑। वि। ह्व॒य॒न्ते॒। सि॒सा॒सवः॑॥6॥ पदार्थः—(गोजिता) गाः पृथिवीर्जयति याभ्यां तौ। अत्र कृतो बहुलमिति करणे क्विप्। सुपां सुलुगिति विभक्तेराकारादेशश्च। (बाहू) अतिबलपराक्रमयुक्तौ भुजौ (अमितक्रतुः) अमिताः क्रतवः प्रजा यस्यः सः (सिमः) व्यवस्थया शत्रूणां बन्धकः (कर्म्मन्कर्म्मन्) कर्मणि कर्मणि (शतमूतिः) शतमसंख्याता ऊतयो रक्षणादिका क्रिया यस्य सः। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति सुपो लुगभावः। (खजङ्करः) यः संग्रामं करोति सः। अत्र खज मन्थने इति धातोः कर्मण्यण् (अष्टा॰3.2.1) इत्यण्। वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति वृद्ध्यभावः। सुपो लुगभावश्च। (अकल्पः) कल्पैरन्यैः समर्थैरसदृशोऽन्येभ्योऽधिक इति (इन्द्रः) अनेकैश्वर्य्यः (प्रतिमानम्) अतिसमर्थानामुपमा (ओजसा) बलेन (अथ) आनन्तर्ये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (जनाः) विद्वांसः (वि) (ह्वयन्ते) स्पर्द्धन्ते (सिषासवः) सनितुं संभजितुमिच्छवः॥6॥ अन्वयः—हे सभापते! यस्य ते गोजिता बाहू यो भवानिन्द्र ओजसा कर्मन्कर्मनमितक्रतुरकल्पः सिमः खजङ्करः शतमूतिः प्रतिमानं वर्त्ततेऽथ तं त्वां सिषासवो जनाः विह्वयन्ते॥6॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यः सर्वथा समर्थः प्रतिकर्मकर्त्तुं वेत्ताऽन्यैरजेयः सर्वेषां जेता सर्वैः स्पृहणीयोऽनुपमो मनुष्यो वर्त्तते, तं सेनाधिपतिं कृत्वा विजयादीनि कार्य्याणि साधनीयानि॥6॥ पदार्थः—हे सभापति! जिन आपकी (गोजिता) पृथिवी की जितानेवाली (बाहू) अत्यन्त बल पराक्रमयुक्त भुजा (अथ) इसके अनन्तर जो आप (इन्द्रः) अनेक ऐश्वर्य्ययुक्त (ओजसा) बल से (कर्मन्कर्मन्) प्रत्येक को काम में (अमितक्रतुः) अतुल बुद्धिवाले (अकल्पः) और बड़े-बड़े समर्थ जनों से अधिक (सिमः) व्यवस्था से शत्रुओं के बांधने और (खजङ्करः) संग्राम करने वाले (शतमूतिः) जिनकी सैकड़ों रक्षा आदि क्रिया हैं। (प्रतिमानम्) जिनको अत्यन्त सामर्थ्यवालों की उपमा दी जाती है, उन आपको (सिषासवः) सेवन करने की इच्छा करनेवाले (जनाः) विद्वान् जन (वि, ह्वयन्ते) चाहते हैं॥6॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि जो सर्वथा समर्थ, प्रत्येक काम के करने को जानता, औरों से न जीतने योग्य, आप सबको जीतनेवाला, सबके हित चाहने योग्य और अनुपम मनुष्य हो, उसको सेनाधिपति करके विजय आदि कामों को साधें॥6॥ पुनः स कीदृशः किं करोतीत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा और क्या करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ उत्ते॑ श॒तान्म॑घव॒न्नुच्च॒ भूय॑स॒ उत्स॒हस्रा॑द्रिरिचे कृ॒ष्टिषु॒ श्रवः॑। अ॒मा॒त्रं त्वा॑ धि॒षणा॑ तित्विषे म॒ह्यधा॑ वृ॒त्राणि॑ जिघ्नसे पुरंदर॥7॥ उत्। ते॒। श॒तात्। म॒घ॒ऽव॒न्। उत्। च॒। भूय॑सः। उत्। स॒हस्रा॑त्। रि॒रि॒चे॒। कृ॒ष्टिषु॑। श्रवः॑। अ॒मा॒त्रम्। त्वा॒। धि॒षणा॑। ति॒त्वि॒षे॒। म॒ही। अध॑। वृ॒त्राणि॑। जि॒घ्न॒से॒। पु॒र॒म्ऽद॒र॒॥7॥ पदार्थः—(उत्) उत्कृष्टे (ते) तव (शतात्) असंख्यात् (मघवन्) असंख्यातैश्वर्य्य (उत्) (च) (भूयसः) अधिकात् (उत्) (सहस्रात्) असंख्येयात् (रिरिचे) अतिरिच्यते (कृष्टिषु) मनुष्येषु (श्रवः) कीर्तनं श्रवणं धनं वा (अमात्रम्) अपरिमितम् (त्वा) त्वाम् (धिषणा) विद्यासुशिक्षिता वाक् प्रज्ञा वा (तित्विषे) त्वेषति प्रदीप्यते (मही) महागुणविशिष्टा (अध) आनन्तर्ये। निपातस्य चेति दीर्घः। (वृत्राणि) यथा मेघावयवान् सूर्य्यस्तथा शत्रून् (जिघ्नसे) हन्याः। अत्र हनधातोर्लेटि शपः स्थाने श्लुः। व्यत्येनात्मनेपदं च। (पुरन्दर) यः शत्रूणां पुरो दृणाति तत्सम्बुद्धौ॥7॥ अन्वयः—हे मघवन्निन्द्र! ते कृष्टिषु श्रवः शतादुद्रिरिचे सहस्रादुद्रिरिचे भूयसश्चोद्रिरिचेऽधाऽमात्रं त्वा मही धिषणा तित्विषे। हे पुरन्दर! वृत्राणि सूर्य्य इव त्वं शत्रून् जिघ्नसे॥7॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा सूर्योऽन्धकारमेघादिकं हत्वाऽपरिमितं स्वकीयं तेजः प्रकाश्य सर्वेषु तेजस्विष्वधिको वर्त्तते, तथाभूतं विद्वांसं सभापतिं मत्वा शत्रवः पराजेयाः॥7॥ पदार्थः—हे (मघवन्) असंख्यात ऐश्वर्य्य से युक्त सेनापति! (ते) आपका (कृष्टिषु) मनुष्यों में (श्रवः) कीर्त्तन, श्रवण वा धन (शतात्) सैकड़ों से (उत्) ऊपर (रिरिचे) निकल गया (सहस्रात्) हजारों से (उत) ऊपर (च) और (भूयसः) अधिक से भी (उत्) ऊपर अर्थात् अधिक निकल गया। (अध) इसके अनन्तर (अमात्रम्) परिमाणरहित (त्वा) आपकी (मही) महागुणयुक्त (धिषणा) विद्या और अच्छी शिक्षा को पाये हुई वाणी वा बुद्धि (तित्विषे) प्रकाशित करती है। हे (पुरन्दर) शत्रुओं के पुरों के विदारनेवाले! (वृत्राणि) जैसे मेघ के अङ्ग अर्थात् बद्दलों को सूर्य्य हनन करता है, वैसे आप शत्रुओं को (जिघ्नसे) मारते हो॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे सूर्य्य अन्धकार और मेघ आदि का हनन करके अपरिमित अर्थात् जिसका परिमाण न हो सके उस अपने तेज को प्रकाशित करके, सब तेजवाले पदार्थों में बढ़ के वर्त्तमान है, वैसे विद्वान् को सभा का अधीश मान के शत्रुओं को जीतें॥7॥ अथेश्वरः सभापतिश्च कीदृश इत्युपदिश्यते॥ अब ईश्वर और सभापति कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ त्रि॒वि॒ष्टि॒धातु॑ प्रति॒मान॒मोज॑सस्ति॒स्रो भूमी॑र्नृपते॒ त्रीणि॑ रोच॒ना। अती॒दं विश्वं॒ भुव॑नं ववक्षिथाश॒त्रुरि॑न्द्र ज॒नुषा॑ स॒नाद॑सि॥8॥ त्रि॒वि॒ष्टि॒ऽधातु॑। प्र॒ति॒ऽमान॑म्। ओज॑सः। ति॒स्रः। भूमीः॑। नृ॒ऽप॒ते॒। त्रीणि॑। रो॒च॒ना। अति॑। इ॒दम्। विश्व॑म्। भुव॑नम्। व॒व॒क्षि॒थ॒। अ॒श॒त्रुः। इ॒न्द्र॒। ज॒नुषा॑। स॒नात्। अ॒सि॒॥8॥ पदार्थः—(त्रिविष्टिधातु) त्रिधोत्तममध्यमनिकृष्टा विष्टयो व्याप्तयो धातूनां पृथिव्यादीनां यस्मिँस्तत् (प्रतिमानम्) प्रतिमीयते यत् (ओजसः) बलात् (तिस्रः) त्रिविधाः (भूमीः) अधऊर्ध्वमध्यस्था उत्तमाधममध्यमाः क्षितीः (नृपते) नृणां स्वामिन्नीश्वर नृप वा (त्रीणि) त्रिविधानि (रोचना) रोचनानि विद्याशब्दसूर्य्यादीनि न्यायबलराज्यपालनादीनि च (अति) (इदम्) प्रत्यक्षम् (विश्वम्) समग्रम् (भुवनम्) भवन्ति भूतानि यस्मिञ्जगति तत् (ववक्षिथ) वोढुमिच्छसि। अत्र लडर्थे लिट्। सन्नन्तस्य वहधातोरयं प्रयोगः। बहुलं छन्दसीत्यनेनाभ्यासस्येत्वाभावः। (अशत्रुः) न सन्ति शत्रवो यस्य सः (इन्द्र) बह्वैश्वर्य्ययुक्त (जनुषा) प्रादुर्भूतेन कर्मणा (सनात्) सनातनात् कारणात् (असि) भवसि॥8॥ अन्वयः—हे नृपत इन्द्र! बह्वैश्वर्यवतोऽशत्रुस्त्वं त्रिविष्टिधातु प्रतिमानं सनादोजसो जनुषा तिस्रो भूमिस्त्रीणि रोचना निर्वहन्नसि त्रिविष्टिधातु प्रतिमानमिदं विश्वं भुवनमतिववक्षिथ तस्मात्सत्कर्त्तव्योऽसि॥8॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्येनाप्रतिमेश्वरेण कारणात्सर्वं कार्यं जगन्निर्माय संरक्ष्य संह्रियते स एवेष्टो माननीयस्तथा योऽतुलसामर्थ्यो सभाधिपतिः प्रसिद्धैर्न्यायादिगुणैः सर्वं राज्यं संतोषयति, स च सत्कर्त्तव्यः॥8॥ पदार्थः—हे (नृपते) मनुष्यों के स्वामी ईश्वर वा राजन्! (इन्द्र) बहुत ऐश्वर्य से युक्त (अशत्रुः) शत्रुरहित आप (त्रिविष्टिधातु) जिसमें तीन प्रकार की पृथिवी, जल, तेज, पवन, आकाश की व्याप्ति अर्थात् परिपूर्णता है, उस संसार की (प्रतिमानम्) परिमाण वा उपमान जैसे हो वैसे (सनात्) सनातन कारण वा (ओजसः) बल वा (जनुषा) उत्पन्न किये हुए काम से (तिस्रः) तीन प्रकार (भूमीः) अर्थात् नीचली, ऊपरली, और बीचली उत्तम, अधम और मध्यम भूमि तथा (त्रीणि) तीन प्रकार के (रोचना) प्रकाशयुक्त विद्या, शब्द और सूर्य्य और न्याय करने, बल और राज्यपालन आदि काम के तुम दोनों यथायोग्य निर्वाह करनेवाले (असि) हो और उक्त पञ्चभूतमय (इदम्) इस (विश्वम्) समस्त (भुवनम्) जिसमें कि प्राणी होते हैं, उस जगत् के (अति, ववक्षिथ) अतीव निर्वाह करने की इच्छा करते हो, इससे ईश्वर उपासना करने योग्य और विद्वान् आप सत्कार करने योग्य हो॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जिसकी उपमा नहीं है, उस ईश्वर ने कारण से सब कार्य्यरूप जगत् को रच और उसकी रक्षा कर उसका संहार किया है, वही इष्टदेव मानने योग्य है तथा जो अतुल सामर्थ्ययुक्त सभापति प्रसिद्ध न्याय आदि गुणों से समस्त राज्य को सन्तोषित करता है, सो भी सदा सत्कार करने योग्य है॥8॥ अथ सेनाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ अब सेना का अध्यक्ष कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ त्वां दे॒वेषु॑ प्रथ॒मं ह॑वामहे॒ त्वं ब॑भूथ॒ पृत॑नासु सास॒हिः। सेमं नः॑ का॒रुमु॑पम॒न्युमु॒द्भिद॒मिन्द्रः॑ कृणोतु प्रस॒वे रथं॑ पु॒रः॥9॥ त्वाम्। दे॒वेषु॑। प्र॒थ॒मम्। ह॒वा॒म॒हे॒। त्वम्। ब॒भू॒थ॒। पृत॑नासु। स॒स॒हिः। सः। इ॒मम्। नः॒। का॒रुम्। उ॒प॒ऽम॒न्युम्। उ॒त्ऽभिद॑म्। इन्द्रः॑। कृ॒णो॒तु॒। प्र॒ऽस॒वे। रथ॑म्। पु॒रः॥9॥ पदार्थः—(त्वाम्) सर्वसेनाधिपतिम् (देवेषु) विद्वत्सु (प्रथमम्) आदिमम् (हवामहे) स्वीकुर्महे (त्वम्) (बभूथ) भवसि। बभूथाततन्थ॰ इतीडभावो निपातनात्। (पृतनासु) स्वेषां शत्रूणां वा सेनासु (सासहिः) अतिशयेन षोढा (सः) सोऽचि लोपे चेत्पादपूरणमिति सुलोपः। (इमम्) प्रत्यक्षम् (नः) अस्मभ्यम् (कारुम्) शिल्पकार्यकर्त्तारम् (उपमन्युम्) उपसमीपे मन्तुं योग्यम् (उद्भिदम्) पृथिवीं भित्वा जातेन काष्ठेन निर्मितम् (इन्द्रः) अखिलैश्वर्यकारकः (कृणोतु) (प्रसवे) प्रकृष्टतया सुवन्ति प्रेरयन्ति वीरान् यस्मिन् राज्ये तस्मिन् (रथम्) विमानादियानम् (पुरः) पुरःसरम्॥9॥ अन्वयः—हे सेनापते! यतस्त्वं पृतनासु सासहिर्बभूथ तस्माद् देवेषु प्रथमं त्वां वयं हवामहे। स इन्द्रो भवान् प्रसव उद्भिदं रथं पुरः करोति स नोऽस्मभ्यमिममुपमन्युं कारुं कृणोतु॥9॥ भावार्थः—मनुष्यैर्य उत्तमो विद्वान् स्वसेनापालने शत्रुबलविदारणे चतुरः शिल्पवित् प्रियो युद्धे पुरःसरणादतियोद्धा वर्तते, स एव सेनापतिः कर्त्तव्यः॥9॥ पदार्थः—हे सेनापते! जिस कारण (त्वम्) आप (पृतनासु) अपनी वा शत्रुओं की सेनाओं में (सासहिः) अतीव सहनशील (बभूथ) होते हैं, इससे (देवेषु) विद्वानों में (प्रथमम्) पहिले (त्वाम्) समग्र सेना के अधिपति तुमको (हवामहे) हम लोग स्वीकार करते हैं, जो (इन्द्रः) समस्त ऐश्वर्य के प्रकट करनेहारे आप (प्रसवे) जिसमें वीरजन चिताये जाते हैं, उस राज्य में (उद्भिदम्) पृथिवी का विदारण करके उत्पन्न होनेवाले काष्ठ विशेष से बनाये हुए (रथम्) विमान आदि रथ को (पुरः) आगे करते हैं (सः) वह आप (नः) हम लोगों के लिये (इमम्) इस (उपमन्युम्) समीप में मानने योग्य (कारुम्) क्रिया कौशल काम के करनेवाले जन को (कृणोतु) प्रसिद्ध करें॥9॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि जो उत्तम विद्वान्, अपनी सेना को पालन और शत्रुओं के बल को विदारने में चतुर, शिल्पकार्य्यों को जाननेवाला, प्रेमी, युद्ध में आगे होने से अत्यन्त युद्ध करता है, उसी को सेना का अधीश करें॥9॥ पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ त्वं जि॑गेथ॒ न धना॑ रुरोधि॒थार्भे॑ष्वा॒जा म॑घवन्म॒हत्सु॑ च। त्वामु॒ग्रमव॑से॒ सं शि॑शीम॒स्यथा॑ न इन्द्र॒ हव॑नेषु चोदय॥10॥ त्वम्। जि॒गे॒थ॒। न। धना॑। रु॒रो॒धि॒थ॒। अर्भे॑षु। आ॒जा। म॒घ॒ऽव॒न्। म॒हत्ऽसु॑। च॒। त्वाम्। उ॒ग्रम्। अव॑से। सम्। शि॒शी॒म॒सि॒। अथ॑। नः॒। इ॒न्द्र॒। हव॑नेषु। चो॒द॒य॒॥10॥ पदार्थः—(त्वम्) चतुरङ्गसेनायुक्तः (जिगेथ) जितवानसि (न) निषेधे (धना) धनानि (रुरोधिथ) रुद्धवानसि (अर्भेषु) अल्पेषु (आजा) आजिषु संग्रामेषु (मघवन्) परमपूज्यधनादिसामग्रीयुक्त (महत्सु) (च) मध्यस्थेषु (त्वाम्) (उग्रम्) शत्रुबलविदारणक्षमम् (अवसे) रक्षणाद्याय (सम्) (शिशीमसि) शत्रून् सूक्ष्मान् जीर्णान् कुर्मः। अत्र शो तनूकरण इत्यस्माल्लटि श्यनः स्थाने व्यत्ययेन श्लुः। छन्दस्युभयथेति श्लोरार्द्धधातुकत्वादाकारादेशः। (अथ) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नः) अस्माकमस्मान् वा (इन्द्र) शत्रूणां विदारक (हवनेषु) आदानयोग्येषु कर्मसु (चोदय)॥10॥ अन्वयः—हे मघवन्निन्द्र! यस्त्वमर्भेषु महत्सु मध्यस्थेषु चाजा शत्रून् जिगेथ धना न रुरोधिथ तमुग्रं त्वामवसे स्वीकृत्य शत्रून् संशिशीमसि। अथ हवनेषु नोऽस्मान् चोदय॥10॥ भावार्थः—यो मनुष्यः शत्रूणां समयं प्राप्य धनानां च विजेता सत्कर्मसु प्रेरको दुष्टानां छेत्तास्ति, स एव सर्वैः सेनापतिर्मन्तव्यः॥10॥ पदार्थः—हे (मघवन्) परम सराहने योग्य धन आदि सामग्री लिये हुए (इन्द्र) शत्रुओं के विदारनेवाले सेनापति! जो (त्वम्) आप चतुरङ्ग अर्थात् चौतरफी नाकेबन्दी की सेना सहित (अर्भेषु) थोड़े (महत्सु) बड़े (च) और मध्यम (आजा) संग्रामों में शत्रुओं को (जिगेथ) जीते हुए हो और उक्त संग्रामों में (धना) धन आदि पदार्थों को (न) न (रुरोधिथ) रोकते हो, उन (उग्रम्) शत्रुओं के बल को विदीर्ण करने में अत्यन्त बली (त्वाम्) आपको (अवसे) रक्षा आदि के लिये स्वीकार करके हम लोग शत्रुओं को (संशिशीमसि) अच्छे प्रकार निर्मूल नष्ट करते हैं, (अथ) इसके अनन्तर आप भी ऐसा कीजिये की (हवनेषु) ग्रहण करने योग्य कामों में (नः) हम लोगों को (चोदय) प्रवृत्त कराइये॥10॥ भावार्थः—जो मनुष्य शत्रुओं और समय को पाकर धनों को जीतने, श्रेष्ठ कामों में सबको लगाने और दुष्टों को छिन्न-भिन्न करनेवाला हो, वही सबको सेनाओं का अधीश मानना चाहिये॥10॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ वि॒श्वाहेन्द्रो॑ अधिव॒क्ता नो॑ अ॒स्त्वप॑रिह्वृताः सनुयाम॒ वाज॑म्। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौः॥11॥15॥ वि॒श्वाहा॑। इन्द्रः॑। अ॒धि॒ऽव॒क्ता। नः॒। अ॒स्तु॒। अप॑रिऽह्वृताः। स॒नु॒या॒म॒। वाज॑म्। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः॥11॥ पदार्थः—(विश्वाहा) विश्वान् सर्वान् हन्ति सः (इन्द्रः) परमैश्वर्यः सभाध्यक्षः (अधिवक्ता) यथावदनुशासिता (नः) अस्माकम् (अस्तु) भवतु (अपरिह्वृताः) अपरिवर्जिताः (सनुयाम) दद्याम (वाजम्) सुसंस्कृतमन्नम् (तत्) (नः) अस्माकम् (मित्रः) इति पूर्ववत्॥11॥ अन्वयः—अपरिह्वृताः वयं यो विश्वाहेन्द्रो नोऽअस्माकमधिवक्ताऽस्तु तस्मै वाजं सनुयाम येन तन्मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्नोऽस्मान् मामहन्ताम्॥11॥ भावार्थः—सर्वेषां भृत्यानामियं रीतिः स्याद् यदा यादृशीमाज्ञां स्वस्वामी कुर्यात्तदैव साऽनुष्ठातव्या, योऽखिलविद्यस्तस्मादेवोपदेशाः श्रोतव्या इति ॥11॥ अत्र शालाद्यध्यक्षेश्वराध्यापकसेनाधिपतीनां गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोद्धव्यम्॥ इति द्व्युत्तरशततमं 102 सूक्तं पञ्चदशो 15 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—(अपरिह्वृताः) आज्ञा को पाये हुए हम लोग जो (विश्वाहा) सब शत्रुओं को मारनेवाला (इन्द्रः) परमैश्वर्य्ययुक्त सभाध्यक्ष (नः) हम लोगों को (अधिवक्ता) यथावत् शिक्षा देनेवाला (अस्तु) हो, उसके लिये (वाजम्) अच्छे संस्कार किये हुए अन्न को (सनुयाम) देवें, जिससे (तत्) उसको (नः) हम लोगों के (मित्रः) मित्रजन (वरुणः) उत्तम गुणयुक्त (अदितिः) समस्त विद्वान् अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) सूर्य्यलोक (मामहन्ताम्) बढ़ावें॥11॥ भावार्थः—सब सेवकों की यह रीति हो कि जब अपना स्वामी जैसे आज्ञा करे, उसी समय उसको वैसे ही करें और जो समग्र विद्या पढ़ा हो उसी से उपदेश सुनने चाहिए॥11॥ इस सूत्र में शाला आदि के अधिपति ईश्वर, पढ़ानेवाले और सेनापति के गुणों के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ से एकता है, यह जानना चाहिये॥ यह एक सौ दो वां 102 सूक्त और पन्द्रहवां 15 वर्ग समाप्त हुआ॥


अथ त्र्युत्तरशततमस्याष्टर्चस्य सूक्तस्याङ्गिरसः कुत्स ऋषिरिन्द्रो देवता। 1,3,5,6 निचृत्त्रिष्टुप्। 2,4 विराट् त्रिष्टुप्। 7,8 त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ अथ परमेश्वरस्य कार्ये जगति कीदृशं प्रसिद्धं लिङ्गमस्तीत्युपदिश्यते॥ अब एक सौ तीनवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में यह उपदेश है कि ईश्वर का कार्य्य जगत् में कैसा प्रसिद्ध चिह्न है॥ तत्त॑ इन्द्रि॒यं प॑र॒मं प॑रा॒चैरधा॑रयन्त क॒वयः॑ पु॒रेदम्। क्ष॒मेदम॒न्यद्दि॒व्यन्यद॑स्य॒ समी॑ पृच्यते सम॒नेव॑ के॒तुः॥1॥ तत्। ते॒। इ॒न्द्रि॒यम्। प॒र॒मम्। प॒रा॒चैः। अधा॑रयन्त। क॒वयः॑। पु॒रा। इ॒दम्। क्ष॒मा। इ॒दम्। अ॒न्यत्। दि॒वि। अ॒न्यत्। अ॒स्य॒। सम्। ई॒म् इति॑। पृ॒च्य॒ते॒। स॒म॒नाऽइ॑व। के॒तुः॥1॥ पदार्थः—(तत्) (ते) तव (इन्द्रियम्) इन्द्रस्य परमैश्वर्य्यवतस्तव जीवस्य च लिङ्गम् (परमम्) प्रकृष्टम् (पराचैः) बाह्यचिह्नैर्युक्तम् (अधारयन्त) धृतवन्तः (कवयः) मेधाविनो विद्वांसः (पुरा) पूर्वम् (इदम्) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षं सामर्थ्यम् (क्षमा) सर्वसहनयुक्ता पृथिवी (इदम्) वर्त्तमानम् (अन्यत्) भिन्नम् (दिवि) प्रकाशवति सूर्य्यादौ (अन्यत्) विलक्षणम् (अस्य) संसारस्य मध्ये (सम्) (ई) ईमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) छन्दसो वर्णलोपो वेति मलोपः। (पृच्यते) संयुज्यते (समनेव) यथा युद्धे प्रवृत्ता सेना तथा (केतुः) विज्ञापकः॥1॥ अन्वयः—हे जगदीश्वर! यत्ते तव जीवस्य च सृष्टाविदं परममिन्द्रियं कवयः पराचैः पुरा धारयन्त क्षमा पृथिवीदं धृतवती यद्दिवीदं वर्त्तते यदन्यत्कारणेऽस्त्यस्य संसारस्य मध्ये ई-ईमुदकं धरति यदन्यददृष्टे कार्य्ये भवति तत्सर्वं समनेव केतुः सन् प्रकाशयति तच्चात्र सम्पृच्यते॥1॥ भावार्थः—हे मनुष्या! यद्यदस्मिञ्जगति रचनाविशेषयुक्तं सुष्ठु वस्तु वर्त्तते तत्तत्सर्वं परमेश्वरस्य रचनेनैव प्रसिद्धमस्तीति विजानीत, नहीदृशं विचित्रं जगद्विधात्रा विना संभवितुमर्हति तस्मादस्ति खल्वस्य जगतो निर्मातेश्वरो जैवीं सृष्टिं कर्त्ता जीवश्चेति निश्चयः॥1॥ पदार्थः—हे जगदीश्वर! जो (ते) आप वा जीव की सृष्टि में (इदम्) यह प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष सामर्थ्य (परमम्) प्रबल अति उत्तम (इन्द्रियम्) परम ऐश्वर्य्ययुक्त आप और जीव का एक चिह्न जिसको (कवयः) बुद्धिमान् विद्वान् जन (पराचैः) ऊपर के चिह्नों से सहित (पुरा) प्रथम (अधारयन्त) धारण करते हुए (क्षमा) सबको सहनेवाली पृथिवी (इदम्) इस वर्त्तमान चिह्न को धारण करती जो (दिवि) प्रकाशमान सूर्य्य आदि लोक में वर्त्तमान वा जो (अन्यत्) उससे भिन्न कारण में वा (अस्य) इस संसार के बीच में है, इसको (ई) जल धारण करता वा जो (अन्यत्) और विलक्षण न देखे हुए कार्य्य में होता है (तत्) उस सबको (समनेव) जैसे युद्ध में सेना आ जुटे, ऐसे (केतुः) विज्ञान देनेवाले होते हुए आप वा जीव प्रकाशित करता,यह सब इस जगत् में (सम्पृच्यते) सम्बद्ध होता है॥1॥ भावार्थः—हे मनुष्यो! इस जगत् में जो-जो रचना विशेष चतुराई के साथ अच्छी-अच्छी वस्तु वर्त्तमान है, वह-वह सब परमेश्वर की रचना से ही प्रसिद्ध है, यह तुम जानो, क्योंकि ऐसा विचित्र जगत् विधाता के विना कभी होने योग्य नहीं। इससे निश्चय है कि इस जगत् का रचनेवाला परमेश्वर है और जीव सम्बन्धी सृष्टि का रचनेवाला जीव है॥1॥ अथैतस्मिञ्जगति तद्रचितोऽयं सूर्य्यः किं कर्माऽस्तीत्युपदिश्यते॥ अब इस जगत् में परमेश्वर से बनाया हुआ यह सूर्य्य क्या काम करता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ स धा॑रयत् पृथि॒वीं प॒प्रथ॑च्च॒ वज्रे॑ण ह॒त्वा निर॒पः स॑सर्ज। अह॒न्नहि॒मभि॑नद्रौहि॒णं व्यह॒न् व्यं॑सं म॒घवा॒ शची॑भिः॥2॥ सः। धा॒र॒य॒त्। पृ॒थि॒वीम्। प॒प्रथ॑त्। च॒। वज्रे॑ण। ह॒त्वा। निः। अ॒पः। स॒स॒र्ज॒। अह॑न्। अहि॑म्। अभि॑नत्। रौ॒हि॒णम्। वि। अह॑न्। विऽअं॑सम्। म॒घऽवा॑। शची॑भिः॥2॥ पदार्थः—(सः) (धारयत्) धरति (पृथिवीम्) भूमिम् (पप्रथत्) स्वतेजो विस्तार्य स्वेन तेजसा सर्वं जगत् प्रकाशयति (च) एवं विद्युदादीन् (वज्रेण) किरणसमूहेन (हत्वा) (निः) निरन्तरम् (अपः) जलानि (ससर्ज) सृजति (अहन्) हन्ति (अहिम्) मेघम् (अभिनत्) भिनत्ति (रौहिणम्) रोहिण्यां प्रादुर्भूतम् (वि) (अहन्) हन्ति (व्यंसम्) विगता अंसा यस्य तम् (मघवा) सूर्यः (शचीभिः) कर्मभिः॥2॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यो मघवा शचीभिः पृथिवीं धारयत्स्वतेजः पप्रथद्विद्युदादींश्च वज्रेण मेघं हत्वाऽपो निःससर्ज पुनरहिमहन् रौहिणमभिनत् न केवलं साधारणमेव हन्ति, किन्तुं व्यंसं यथा स्यात् तथा व्यहन् स ईश्वरेण रचितोऽस्तीति विजानीत॥2॥ भावार्थः—मनुष्यैरिदं द्रष्टव्यं प्रसिद्धो यः सूर्य्यलोकोऽस्ति, स विदारणाकर्षणप्रकाशनादिकर्मभिर्वृष्टिं कृत्वा पृथिवीं धृत्वाऽव्यक्तपदार्थान् प्रकाश्य सर्वान् प्राणिनो व्यवहारयति, स परमात्मनो रचनेन विना कदाचिदपि संभवितुं नार्हति॥2॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जो (मघवा) सूर्य्यलोक (शचीभिः) कामों से (पृथिवीम्) पृथिवी को (धारयत्) धारण करता अपने तेज (च) और बिजुली आदि को (पप्रथत्) फैलाता उस अपने तेज से सब जगत् को प्रकाशित करता (वज्रेण) अपने किरणसमूह से मेघ को (हत्वा) मार के (अपः) जलों को (निः) (ससर्ज) निरन्तर उत्पन्न करता, फिर (अहिम्) मेघ को (अहन्) हनता (रौहिणम्) रोहिणी नक्षत्र में उत्पन्न हुए मेघ को (अभिनत्) विदारण करता (व्यंसम्) (वि, अहन्) केवल साधारण ही विदारता हो सो नहीं, किन्तु कटि जाय भुजा आदि जिसकी ऐसे रुण्ड, मुण्ड, मुचण्ड, उद्दण्ड, वीर के समान विशेष करके मेघों को हनता है (सः) वह सूर्य्यलोक ईश्वर ने रचा है, यह जानो॥2॥ भावार्थः—मनुष्यों को यह देखना चाहिये कि प्रसिद्ध जो सूर्यलोक है, वह मेघों के विदारण, लोकों के खीचनें और प्रकाश आदि कामों से जल, वर्षा, पृथिवी को धारण और अप्रकट अर्थात् अन्धकार से ढंपे हुए जो पदार्थ हैं, उनको प्रकाशित कर सब प्राणियों को व्यवहार में चलाता है, वह परमात्मा के बनाने के विना उत्पन्न नहीं हो सकता॥2॥ अथ सेनाद्यध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ अब सेना आदि का अध्यक्ष कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ स जा॒तूभ॑र्मा श्र॒द्दधा॑न॒ ओजः॒ पुरो॑ विभि॒न्दन्न॑चर॒द्वि दासीः॑। वि॒द्वान् व॑ज्रि॒न् दस्य॑वे हे॒तिम॒स्यार्यं॒ सहो॑ वर्धया द्यु॒म्नमि॑न्द्र॥3॥ सः। जा॒तूऽभ॑र्मा। श्र॒त्ऽदधा॑नः। ओजः॑। पुरः॑। वि॒ऽभि॒न्दन्। अ॒च॒र॒त्। वि। दासीः॑। वि॒द्वान्। व॒ज्रि॒न्। दस्य॑वे। हे॒तिम्। अ॒स्य॒। आर्य॑म्। सहः॑। व॒र्ध॒य॒। द्यु॒म्नम्। इ॒न्द्र॒॥3॥ पदार्थः—(सः) (जातूभर्मा) यो जातान् जन्तून् बिभर्ति सः। अत्र जनीधातोस्तुः प्रत्ययो नकारस्याकारादेशोऽन्येषामपीति दीर्घः। (श्रद्दधानः) सत्कर्मसु प्रीतियुक्तः (ओजः) पराक्रमम् (पुरः) नगरी (विभिन्दन्) विदारयन् सन् (अचरत्) चरति (वि) (दासीः) दासीशीला नगरीः। अत्र दंसेष्टटनौ न आ च। (उणा॰5.10) (विद्वान्) (वज्रिन्) प्रशस्तशस्त्रसमूहयुक्त (दस्यवे) दुष्टकर्मकर्त्रे (हेतिम्) सुखवर्धकं वज्रम् (अस्य) दुष्टस्य (आर्य्यम्) आर्य्याणामर्याणां वा इदम् (सहः) बलम् (वर्धय) अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (द्युम्नम्) धनम् (इन्द्र) प्रकृष्टपदार्थप्रद॥3॥ अन्वयः—हे वज्रिन्निन्द्र! यो जातूभर्मा श्रद्दधानो विद्वान् भवानस्य दुष्टस्य दासीः पुरो दस्यवे विभिन्दन् सन् व्यचरत् स त्वं श्रेष्ठेभ्यो हेतिमार्य्यं सहो द्युम्नमोजश्च वर्धय॥3॥ भावार्थः—यो मनुष्यो दस्यून् विनाश्य श्रेष्ठान् संहर्ष्य शरीरात्मबलं सम्पाद्य धनादिभिः सुखानि वर्धयति, स एव सर्वैः श्रद्धेयः॥3॥ पदार्थः—हे (वज्रिन्) प्रशंसित शस्त्रसमूहयुक्त (इन्द्र) अच्छे-अच्छे पदार्थोंर् के देनेवाले सेना आदि के स्वामी! जो (जातूभर्मा) उत्पन्न हुए सांसारिक पदार्थों को धारण (श्रद्दधानः) और अच्छे कामों में प्रीति करनेवाले (विद्वान्) विद्वान् आप (अस्य) इस दुष्ट जन की (दासीः) नष्ट होनेहारीसी दासी प्रधान (पुरः) नगरियों को (दस्यवे) दुष्ट काम करते हुए जन के लिये (विभिन्दन्) विनाश करते हुए (व्यचरत्) विचरते हो (सः) वह आप श्रेष्ठ सज्जनों के लिये (हेतिम्) सुख के बढ़ानेवाले वज्र को (आर्य्यम्) श्रेष्ठ वा अति श्रेष्ठों के इस (सहः) बल (द्युम्नम्) धन वा (ओजः) और पराक्रम को (वर्धय) बढ़ाया करो॥3॥ भावार्थः—जो मनुष्य समस्त डाकू, चोर, लवाड़, लम्पट, लड़ाई करनेवालों का विनाश और श्रेष्ठों को हर्षित कर शारीरिक और आत्मिक बल का सम्पादन कर, धन आदि पदार्थों से सुख को बढ़ाता है, वही सबको श्रद्धा करने योग्य है॥3॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ तदू॒चुषे॒ मानु॑षे॒मा यु॒गानि॑ की॒र्तेन्यं॑ म॒घवा॒ नाम॒ बिभ्र॑त्। उ॒प॒प्र॒यन् द॑स्यु॒हत्या॑य व॒ज्री यद्ध॑ सू॒नुः श्रव॑से॒ नाम॑ द॒धे॥4॥ तत्। ऊ॒चुषे॑। मानु॑षा। इ॒मा। यु॒गानि॑। की॒र्तेन्य॑म्। म॒घऽवा॑। नाम॑। बिभ्र॑त्। उ॒प॒ऽप्र॒यन्। द॒स्यु॒ऽहत्या॑य। व॒ज्री। यत्। ह॒। सू॒नुः। श्रव॑से। नाम॑। द॒धे॥4॥ पदार्थः—(तत्) (ऊचुषे) वक्तुमर्हाय (मानुषा) मानुषेषु भवानि (इमा) इमानि (युगानि) वर्षाणि (कीर्तेन्यम्) कीर्तनीयम् (मघवा) भूयांसि मघानि धनानि विद्यन्ते यस्य सः (नाम) प्रसिद्धिं जलं वा (बिभ्रत्) धारयन् (उपप्रयन्) साधुसामीप्यङ्गच्छन् (दस्युहत्याय) दस्यूनां हत्या यस्मै तस्मै (वज्री) प्रशस्तशस्त्रसमूहयुक्तः सेनाधिपतिः (यत्) (ह) खलु (सूनुः) वीरपुत्रः (श्रवसे) धनाय (नाम) प्रसिद्धं कर्म (दधे) दधाति॥4॥ अन्वयः—मघवा सूनुर्वज्री सेनापतिर्यथा सूर्यस्तथोचुषे दस्युहत्याय श्रवसे इमा मानुषा युगानि कीर्त्तेन्यं नाम बिभ्रदुपप्रयन् यन्नाम दधे तद्ध खलु वयमपि दधीमहि॥4॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यः कालावयवान् जलं च धृत्वा सर्वप्राणिसुखायान्धकारं हत्वा सर्वान् सुखयति, तथैव सेनाधिपतिः सुखपूर्वकं संवत्सरान् कीर्तिं च धृत्वा शत्रुहननेन सर्वसुखाय धनं जनयेत्॥4॥ पदार्थः—जो (मघवा) बहुत धनोंवाला (सूनुः) वीर का पुत्र (वज्री) प्रशंसित शस्त्र-अस्त्र बांधे हुए सेनापति जैसे सूर्य प्रकाशयुक्त है, वैसे प्रकाशित होकर (ऊचुषे) कहने की योग्यता के लिये वा (दस्युहत्याय) जिसके लिये डाकुओं को हनन किया जाये, उस (श्रवसे) धन के लिये (इमा) इन (मानुषा) मनुष्यों में होनेवाले (युगानि) वर्षों को तथा (कीर्तेन्यम्) कीर्त्तनीय (नाम) प्रसिद्ध और जल को (बिभ्रत्) धारण करता हुआ (उपप्रयन्) उत्तम महात्मा के समीप जाता हुआ (यत्) जिस (नाम) प्रसिद्ध काम को (दधे) धारण करता है, (तत्) उस उत्तम काम को (ह) निश्चय से हम लोग भी धारण करें॥4॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य-काल के अवयव अर्थात् संवत्सर, महीना, दिन, घड़ी आदि और जल को धारण कर सब प्राणियों के सुख के लिये अन्धकार का विनाश करके सबको सुख देता है, वैसे ही सेनापति सुखपूर्वक संवत्सर और कीर्त्ति को धारण करके शत्रुओं के मारने से सबके सुख के लिये धन को उत्पन्न करे॥4॥ मनुष्यैस्तस्मात् किं किं कर्म धार्यमित्युपदिश्यते॥ मनुष्यों को उससे कौन-कौन काम धारण करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ तद॑स्ये॒दं प॑श्यता॒ भूरि॑ पु॒ष्टं श्रदिन्द्र॑स्य धत्तन वी॒र्या॑य। स गा अ॑विन्द॒त् सो अ॑विन्द॒दश्वा॒न्त्स ओष॑धीः॒ सो अ॒पः स वना॑नि॥5॥16॥ तत्। अ॒स्य॒। इ॒दम्। प॒श्य॒त॒। भूरि॑। पु॒ष्टम्। श्रत्। इन्द्र॑स्य। ध॒त्त॒न॒। वी॒र्या॑य। सः। गाः। अ॒वि॒न्द॒त्। सः। अ॒वि॒न्द॒त्। अश्वा॑न्। सः। ओष॑धीः। सः। अ॒प। सः। वना॑नि॥5॥ पदार्थः—(तत्) कर्म (अस्य) सेनापतेः (इदम्) प्रत्यक्षम् (पश्यत) अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (भूरि) बहु (पुष्टम्) दृढम् (श्रत्) सत्याचरणम्। श्रदिति सत्यनामसु पठितम्। (निघं॰3.10) (इन्द्रस्य) सेनाबलयुक्तस्य (धत्तन) धरत (वीर्याय) बलाय (सः) सूर्य इव (गाः) पृथिवीः (अविन्दत्) लभते (सः) (अविन्दत्) लभते (अश्वान्) महतः पदार्थान्। अश्व इति महन्नामसु पठितम्। (निघं॰3.3) (सः) (ओषधीः) गोधूमाद्या ओषधीः (सः) (अपः) कर्माणि जलानि वा (सः) (वनानि) जङ्गलान् किरणान् वा॥5॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यः स सेनाधिपतिः सूर्य इव गा अविन्दत् सोऽश्वानविन्दत् स ओषधीरविन्दत् स अपोऽविन्दत् स वनान्यविन्दत्तदस्येन्द्रस्येदं भूरि पुष्टं श्रत् सत्याचरणं यूयं पश्यत वीर्याय धत्तन॥5॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्योत्तमेन सत्याचरणेन प्राप्तिः सैव धार्या नैतया विना सत्यः पराक्रमः सर्वपदार्थलाभश्च जायते॥5॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जो (सः) वह सेनापति सूर्य के तुल्य (गाः) भूमियों को (अविन्दत्) प्राप्त होता (सः) वह (अश्वान्) बड़े पदार्थों को (अविन्दत्) प्राप्त होता (सः) वह (ओषधीः) ओषधियों अर्थात् गेहूं, उड़द, मूँग, चना आदि को प्राप्त होता (सः) वह (अपः) सूर्य्य जलों को जैसे वैसे कर्मों को प्राप्त होता (सः) तथा वह सूर्य (वनानि) किरणों को जैसे वैसे जङ्गलों को प्राप्त होता है, (अस्य) इस (इन्द्रस्य) सेना बलयुक्त सेनापति के (तत्) उस कर्म को वा (इदम्) इस (भूरि) बहुत (पुष्टम्) दृढ़ (श्रत्) सत्य के आचरण को तुम (पश्यत) देखो और (वीर्य्याय) बल होने के लिये (धत्तन) धारण करो॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो श्रेष्ठ जनों के सत्य आचरण से प्राप्ति है, उसी को धारण करें। उसके विना सत्य पराक्रम और सब पदार्थों का लाभ नहीं होता॥5॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ भूरि॑कर्मणे वृष॒भाय॒ वृष्णे॑ स॒त्यशु॑ष्माय सुनवाम॒ सोम॑म्। य आ॒दृत्या॑ परिप॒न्थीव॒ शूरोऽय॑ज्वनो वि॒भज॒न्नेति॒ वेदः॑॥6॥ भूरि॑ऽकर्मणे। वृ॒ष॒ऽभाय॑। वृष्णे॑। स॒त्यऽशु॑ष्माय। सु॒न॒वा॒म॒। सोम॑म्। यः। आ॒ऽदृत्य॑। प॒रि॒प॒न्थीऽइ॑व। शूरः॑। अय॑ज्वनः। वि॒ऽभज॑न्। एति॑। वेदः॑॥6॥ पदार्थः—(भूरिकर्मणे) बहुकर्मकारिणे (वृषभाय) श्रेष्ठाय (वृष्णे) सुखप्रापकाय (सत्यशुष्माय) नित्यबलाय (सुनवाम) निष्पादयेम (सोमम्) ऐश्वर्य्यसमूहम् (यः) (आदृत्य) आदरं कृत्वा (परिपन्थीव) यथा दस्युस्तथा चौराणां प्राणपदार्थहर्त्ता (शूरः) निर्भयः (अयज्वनः) यज्ञविरोधिनः (विभजन्) विभागं कुर्वन् (एति) प्राप्नोति (वेदः) धनम्॥6॥ अन्वयः—वयं यः शूर आदृत्य परिपन्थीव विभजन्नयज्वनो वेद एति तस्मै भूरिकर्मणे वृषभाय वृष्णे सत्यशुष्मायेन्द्राय सेनापतये यथा सोमं सुनवाम तथा यूयमपि सुनुत॥6॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यो दस्युवत् प्रगल्भः साहसी सन् चौराणां सर्वस्वं हृत्वा सत्कर्मणामादरं विधाय पुरुषार्थी बलवानुत्तमो वर्त्तते, स एव सेनापतिः कार्य्यः॥6॥ पदार्थः—हम लोग (यः) जो (शूरः) निडर, शूरवीर पुरुष (आदृत्य) आदर सत्कार कर (परिपन्थीव) जैसे सब प्रकार से मार्ग में चले हुए डाकू दूसरे का धन आदि सर्वस्व हर लेते हैं, वैसे चोरों के प्राण और उनके पदार्थों को छीन-छान हर लेवे वह (विभजन्) विभाग अर्थात् श्रेष्ठ और दुष्ट पुरुषों को अलग-अलग करता हुआ उनमें से (अयज्वनः) जो यज्ञ नहीं करते उनके (वेदः) धन को (एति) छीन लेता, उस (भूरिकर्मणे) भारी काम के करनेवाले (वृषभाय) श्रेष्ठ (वृष्णे) सुख पहुंचानेवाले (सत्यशुष्माय) नित्य बली सेनापति के लिये जैसे (सोमम्) ऐश्वर्य्य समूह को (सुनवाम) उत्पन्न करें, वैसे तुम भी करो॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो ऐसा ढीठ है कि जैसे डाकू आदि होते हैं और साहस करता हुआ चोरों के धन आदि पदार्थों को हर सज्जनों का आदर कर पुरुषार्थी बलवान् उत्तम से उत्तम हो, उसी को सेनापति करें॥6॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ तदि॑न्द्र॒ प्रेव॑ वी॒र्यं॑ चकर्थ॒ यत्स॒सन्तं॒ वज्रे॑णाबो॑ध॒योऽहि॑म्। अनु॑ त्वा॒ पत्नी॑र्हृषि॒तं वय॑श्च॒ विश्वे॑ दे॒वासो॑ अमद॒न्ननु॑ त्वा॥7॥ तत्। इ॒न्द्र॒। प्रऽइ॑व। वी॒र्य॑म्। च॒क॒र्थ॒। यत्। स॒सन्त॑म्। वज्रे॑ण। अबो॑धयः। अहि॑म्। अनु॑। त्वा॒। पत्नीः॑। हृ॒षि॒तम्। वयः॑। च॒। विश्वे॑। दे॒वासः॑। अ॒म॒द॒न्। अनु॑। त्वा॒॥7॥ पदार्थः—(तत्) (इन्द्र) सेनाध्यक्ष (प्रेव) प्रकटं यथा स्यात्तथा (वीर्य्यम्) स्वकीयं बलम् (चकर्थ) करोषि (यत्) (ससन्तम्) स्वपन्तं चिन्तारहितं वा (वज्रेण) तीक्ष्णशस्त्रेण (अबोधयः) बोधयसि (अहिम्) सर्प्पं शत्रुं वा (अनु) (त्वा) त्वाम् (पत्नीः) पत्न्यः (हृषितम्) जातहर्षम् (वयः) ज्ञानिनः (च) (विश्वे) अखिलाः (देवासः) विद्वांसः (अमदन्) हर्षयन्ति (अनु) (त्वा) त्वाम्॥7॥ अन्वयः—हे इन्द्र! ससन्तमहिं यद् वज्रेणाबोधयस्तद्वीर्यं प्रेव चकर्थानुहृषितं पत्नीर्वयो विश्वेदेवासश्चाऽन्वमदन्॥7॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। बलवता सेनापतिना दुष्टप्राणिनो दुष्टशत्रवश्च यथाविधि हन्यन्ते॥7॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सेनाध्यक्ष! आप (ससन्तम्) सोते हुए वा चिन्तारहित (अहिम्) सर्प्प वा शत्रु को (यत्) जो (वज्रेण) तीक्ष्ण शस्त्र से (अबोधयः) सचेत कराते हो (तत्) सो (वीर्य्यम्) अपने बल को (प्रेव) प्रकट सा (चकर्थ) करते हो (अनु) उसके पीछे (हृषितम्) उत्पन्न हुआ है आनन्द जिनको उन (त्वा) आपको (पत्नीः) आपके स्त्री जन और (वयः) ज्ञानवान् (विश्वे) समस्त (देवासश्च) विद्वान् जन भी (त्वा) आपको (अन्वमदन्) अनुकूलता से प्रसन्न करते हैं॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। बलवान सेनापति से दुष्ट जीव तथा दुष्ट शत्रुजन मारे जाते हैं॥7॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ शुष्णं॒ पिप्रुं॒ कुय॑वं वृ॒त्रमि॑न्द्र य॒दाव॑धी॒र्वि पुरः॒ शम्ब॑रस्य। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौः॥8॥17॥ शुष्ण॑म्। पिप्रु॑म्। कुय॑वम्। वृ॒त्रम्। इ॒न्द्र॒। य॒दा। अव॑धीः। वि। पुरः॑। शम्ब॑रस्य। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः॥8॥ पदार्थः—(शुष्णम्) बलवन्तम् (पिप्रुम्) प्रपूरकम्। अत्र पॄधातोर्बाहुलकादौणादिकः कुः प्रत्ययः। (कुयवम्) कौ पृथिव्यां यवा यस्मात् तम् (वृत्रम्) मेघं शत्रुं वा (इन्द्र) (यदा) (अवधीः) हंसि (वि) (पुरः) पुराणि (शम्बरस्य) मेघस्य बलवतः शत्रोर्वा। शम्बर इति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰1.10) बलनामसु च। (निघं॰2.9) (तन्नो॰ मित्रो॰) इति पूर्ववत्॥8॥ अन्वयः—हे इन्द्र! यदा त्वं यथा सूर्यः शुष्णं कुवयं पिप्रुं वृत्रं शम्बरस्य पुरश्च व्यवधीस्तन् मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्नोऽस्मान् मामहन्ताम्, सत्कारहेतवो भवेयुः॥8॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा सूर्यगुणास्तानुपमीकृत्य स्वैगुणर्भृत्यादिभ्यः पृथिव्यादिभ्यश्चोपकारान् सङ्गृह्य शत्रून् हत्वा सततं सुखयितव्यम्॥8॥ अत्रेश्वरसूर्य्यसेनाधिपतीनां गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥ इति त्र्युत्तरमेकशततमं 103 सूक्तं सप्तदशो वर्गश्च 17 समाप्तः॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सेनापति (यदा) जब सूर्य (शुष्णम्) बलवान् (कुवयम्) जिससे कि यवादि होते और (पिप्रुम्) जल आदि पदार्थों को परिपूर्ण करता उस (वृत्रम्) मेघ वा (शम्बरस्य) अत्यन्त वर्षनेवाले बलवान् मेघ की (पुरः) पूरी-पूरी घटा और घुमड़ी हुई मण्डलियों को हनता है, वैसे शत्रुओं की नगरियों को (वि, अवधीः) मारते हो (तत्) तब (मित्रः) मित्र (वरुणः) उत्तम गुणयुक्त (अदितिः) अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) सूर्यलोक (नः) हम लोगों के (मामहन्ताम्) सत्कार कराने के हेतु होते हैं॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे सूर्य्य के गुण हैं, उनकी उपमा अर्थात् अनुसार लेकर अपने गुणों से, सेवकादिकों से और पृथिवी आदि लोकों से उपकारों को ले और शत्रुओं को मारकर निरन्तर सुखी हों॥8॥ इस सूक्त में ईश्वर, सूर्य और सेनाधिपति के गुणों के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये॥ यह एकसौ तीनवाँ 103 सूक्त और सत्रहवाँ 17 वर्ग समाप्त हुआ॥


अथास्य नवर्चस्य चतुरधिकशततमस्य सूक्तस्याङ्गिरसः कुत्स ऋषिः। इन्द्रो देवता। 1 पङ्क्तिः। 2,4,5 स्वराट् पङ्क्तिः। 6 भुरिक् पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः। 3,7 त्रिष्टुप्। 8,9 निचृत्त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ पुनः स सभापतिः किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ अब नव ऋचावाले एकसौ चार सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में फिर सभापति क्या करे, यह उपदेश किया है॥ योनि॑ष्ट इन्द्र नि॒षदे॑ अकारि॒ तमा निषी॑द स्वा॒नो नार्वा॑। वि॒मु॒च्या॒ वयो॑ऽव॒सायाश्वा॑न्दो॒षा वस्तो॒र्वही॑यसः प्रपि॒त्वे॥1॥ योनिः॑। ते॒। इ॒न्द्र॒। नि॒ऽसदे॑। अ॒का॒रि॒। तम्। आ। नि। सी॒द॒। स्वा॒नः। न। अर्वा॑। वि॒ऽमुच्य॑। वयः॑। अ॒व॒ऽसाय॑। अश्वा॑न्। दो॒षा। वस्तोः॑। वही॑यसः। प्र॒ऽपि॒त्वे॥1॥ पदार्थः—(योनिः) न्यायासनम् (ते) तव (इन्द्र) न्यायाधीश (निषदे) स्थित्यर्थम् (अकारि) क्रियते (तम्) (आ) (नि) (सीद) आस्व (स्वानः) शब्दं कुर्वन् (न) इव (अर्वा) अश्वः (विमुच्य) त्यक्त्वा। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (वयः) पक्षिणो जीवनं वा (अवसाय) रक्षणाद्याय (अश्वान्) वेगवतस्तुरङ्गान् (दोषा) रात्रौ (वस्तोः) दिने (वहीयसः) सद्यो देशान्तरे प्रापकानग्न्यादीन् (प्रपित्वे) प्राप्तव्ये समये स्थाने वा। प्रपित्वेऽभीक इत्यासन्नस्य, प्रपित्वे प्राप्तेऽभीकेऽभ्यक्ते। (निरु॰3.20)॥1॥ अन्वयः—हे इन्द्र! ते निषदे योनिः सभासद्भिरस्माभिरकारि तं त्वमानिषीद स्वानोऽर्वा न प्रपित्वे जिगमिषुस्त्वं वयोऽवसायाश्वान् विमुच्य दोषा वस्तोर्वहीयसोऽभियुङ्क्ष्व॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। न्यायाधीशैर्न्यायासनेषु स्थित्वा प्रसिद्धैः शब्दैरर्थिप्रत्यर्थीन् संबोध्य प्रतिदिनं यथावन्न्यायं कृत्वा प्रसन्नान् सम्पाद्य सर्वे ते सुखयितव्याः। अतिपरिश्रमेणावश्यं वयोहानिर्भवतीति विमृश्य त्वरितगमनाय क्रियाकौशलेनाग्न्यादिभिर्विमानादियानानि सम्पादनीयानि॥1॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) न्यायाधीश! (ते) आपके (निषदे) बैठने के लिये (योनिः) जो राज्यसिंहासन हम लोगों ने (अकारि) किया है (तम्) उस पर आप (आ निषीद) बैठो और (स्वानः) हींसते हुए (अर्वा) घोड़े के (न) समान (प्रपित्वे) पहुंचने योग्य स्थान में किसी समय पर जाया चाहते हुए आप (वयः) पक्षी वा अवस्था की (अवसाय) रक्षा आदि व्यवहार के लिये (अश्वान्) दौड़ते हुए घोड़ों को (विमुच्य) छोड़ के (दोषा) रात्रि वा (वस्तोः) दिन में (वहीयसः) आकाश मार्ग से बहुत शीघ्र पहुंचानेवाले अग्नि आदि पदार्थों को जोड़ो अर्थात् विमानादि रथों को अग्नि, जल आदि की कलाओं से युक्त करो॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। न्यायाधीशों को चाहिये कि न्यायासन पर बैठ के चलते हुए प्रसिद्ध शब्दों से अर्थी-प्रत्यर्थी अर्थात् लड़ने और दूसरी ओर से लड़नेवालों को अच्छी प्रकार समझा कर प्रतिदिन यथोचित न्याय करके उन सबको प्रसन्न कर सुखी करें। और अत्यन्त परिश्रम से अवस्था की अवश्य हानि होती है, जैसे डाक आदि में अति दौड़ने से घोड़ा मरते हैं, इसको विचार कर बहुत शीघ्र जाने-आने के लिये क्रियाकौशल से विमान आदि यानों को अवश्य रचें॥1॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ ओ त्ये नर॒ इन्द्र॑मू॒तये॑ गु॒र्नू चि॒त्तान्त्स॒द्यो अध्व॑नो जगम्यात्। दे॒वासो॑ म॒न्युं दास॑स्य श्चम्न॒न्ते न॒ आ व॑क्षन्त्सुवि॒ताय॒ वर्ण॑म्॥2॥ ओ इति॑। त्ये। नरः॑। इन्द्र॑म्। ऊ॒तये॑। गुः॒। नु। चि॒त्। तान्। स॒द्यः। अध्व॑नः। ज॒ग॒म्या॒त्। दे॒वासः॑। म॒न्युम्। दास॑स्य। श्च॒म्न॒न्। ते। नः॒। आ। व॒क्ष॒न्। सु॒वि॒ताय॑। वर्ण॑म्॥2॥ पदार्थः—(ओ) आभिमुख्ये (त्ये) ये (नरः) (इन्द्रम्) सभादिपतिम् (ऊतये) रक्षार्थम् (गुः) प्राप्नुवन्ति (नु) शीघ्रम् (चित्) अपि (तान्) (सद्यः) (अध्वनः) सन्मार्गान् (जगम्यात्) भृशं गच्छेत् (देवासः) विद्वांसः (मन्युम्) क्रोधम्। मन्युरिति क्रोधनामसु पठितम्। (निघं॰2.13) (दासस्य) सेवकस्य (श्चम्नन्) हिंसन्तु। श्चमुधातुहिंसार्थः। (ते) (नः) अस्माकम् (आ) (वक्षन्) वहन्तु प्रापयन्तु (सुविताय) प्रेरिताय दासाय (वर्णम्) आज्ञापालनस्वीकरणम्॥2॥ अन्वयः—त्ये ये नर ऊतय इन्द्रं सद्य ओ गुस्तांश्चिदयमध्वनो जगम्यात् ये देवासो दासस्य मन्युं श्चम्नन्ते नोऽस्माकं सुविताय प्रेरिताय दासाय वर्णं न्वावक्षन्॥2॥ भावार्थः—ये प्रजासेनास्था मनुष्याः सत्यपालनाय सभाद्यध्यक्षादीनां शरणं प्राप्नुयुस्तानेते यथावद् रक्षेयुः, ये विद्वांसो वेदसुशिक्षाभ्यां मनुष्याणां दोषान्निवार्य्य शान्त्यादीन् सेवयेयुस्ते सर्वैः सेवनीयाः॥2॥ पदार्थः—(त्ये) जो (नरः) सज्जन (ऊतये) रक्षा के लिये (इन्द्रम्) सभा सेना आदि के अधीश के (सद्यः) शीघ्र (ओ, गुः) सम्मुख प्राप्त होते हैं (तान्) उनको (चित्) भी यह सभापति (अध्वनः) श्रेष्ठ मार्गों को (जगम्यात्) निरन्तर पहुंचावे। तथा जो (देवासः) विद्वान् जन (दासस्य) अपने सेवक के (मन्युम्) क्रोध को (श्चम्नन्) निवृत्त करें (ते) वे (नः) हम लोगों की (सुविताय) प्रेरणा को प्राप्त हुए दास के लिये (वर्णम्) आज्ञपालन करने को (नु) शीघ्र (आ, वक्षन्) पहुंचावें॥2॥ भावार्थः—जो प्रजा वा सेना के जन सत्य के राखने को सभा आदि के अधीशों के शरण को प्राप्त हों, उनकी वे यथावत् रक्षा करें। जो विद्वान् लोग वेद और उत्तम शिक्षाओं से मनुष्यों के क्रोध आदि दोषों को निवृत्त कर शान्ति आदि गुणों का सेवन करावें, वे सबको सेवन करने के योग्य हैं॥2॥ अथ राजप्रजे परस्परं कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते॥ अब राजा और प्रजा परस्पर कैसे वर्त्तें, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥ अव॒ त्मना॑ भरते॒ केत॑वेदा॒ अव॒ त्मना॑ भरते॒ फेन॑मु॒दन्। क्षी॒रेण॑ स्नातः॒ कुय॑वस्य॒ योषे॑ ह॒ते ते स्या॑तां प्रव॒णे शिफा॑याः॥3॥ अव॑। त्मना॑। भ॒र॒ते॒। केत॑ऽवेदाः। अव॑। त्मना॑। भ॒र॒ते॒। फेन॑म्। उ॒दन्। क्षी॒रेण॑। स्ना॒तः॒। कुय॑वस्य। योषे॒ इति॑। ह॒ते इति॑। ते इति॑। स्या॒ता॒म्। प्र॒व॒णे। शिफा॑याः॥3॥ पदार्थः—(अव) (त्मना) आत्मना (भरते) विरुद्धं धरति (केतवेदाः) केतः प्रज्ञातं वेदो धनं येन सः। केत इति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं॰3.9) (अव) (त्मना) आत्मना (भरते) अन्यायेन स्वीकरोति (फेनम्) चक्रवृद्ध्यादिना वर्धितं धनम् (उदन्) उदकमये जलाशये (क्षीरेण) जलेन। क्षीरमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) (स्नातः) स्नानं कुरुतः (कुयवस्य) कुत्सिता धर्माधर्ममिश्रिता व्यवहारा यस्य तस्य (योषे) कृतपूर्वापरविवाहे परस्परं विरुद्धे स्त्रियाविव (हते) हिंसिते (ते) (स्याताम्) (प्रवणे) निम्नप्रवाहे (शिफायाः) नद्याः। अत्र शिञ् निशाने धातोरौणादिकः फक् प्रत्ययः॥3॥ अन्वयः—यः केतवेदा राजपुरुषस्त्मना प्रजाधनमवभरतेऽन्यायेन स्वीकरोति यश्च प्रजापुरुषस्त्मना फेनं वर्धितं राजधनमवभरतेऽधर्मेण स्वीकरोति तौ क्षीरेणोदन् जलेन पूर्णे जलाशये स्नात उपरिष्टाच्छुद्धौ भवतोऽपि यथा कुयवस्य योषे शिफायाः प्रवणे हते स्यातां तथैव विनष्टौ भवतः॥3॥ भावार्थः—यः प्रजाविरोधी राजपुरुषो राजविरोधी वा प्रजापुरुषोऽस्ति न खलु तौ सुखोन्नतिं कर्त्तुं शक्नुतः। यो राजपुरुषः पक्षपातेन स्वप्रयोजनाय प्रजापुरुषान् पीडयित्वा धनं संचिनोति। यः प्रजापुरुषस्तेयकपटाभ्यां राजधनस्य नाशं च तौ यथा सपत्न्यौ परस्परस्य कलहक्रोधाभ्यां नद्या मध्ये निमज्य प्राणांस्त्यजतस्तथा सद्यो विनश्यतः। तस्माद्राजपुरुषः प्रजापुरुषेण प्रजापुरुषो राजपुरुषेण च सह विरोधं त्यक्त्वाऽन्योऽन्यस्य सहायकारी भूत्वा सदा वर्त्तेत॥3॥ पदार्थः—(केतवेदाः) जिसने धन जान लिया है, वह राजपुरुष (त्मना) अपने से प्रजा के धन को (अव, भरते) अपना कर धर लेता है अर्थात् अन्याय से ले लेता है और जो प्रजापुरुष (त्मना) अपने से (फेनम्) ब्याज पर ब्याज ले लेकर बढ़ाये हुए वा और प्रकार अन्याय से बढ़ाये हुए राजधन को (अव, भरते) अधर्म से लेता है, वे दोनों (क्षीरेण) जल से पूरे भरे हुए (उदन्) जलाशय अर्थात् नद-नदियों में (स्नातः) नहाते हैं, उससे ऊपर से शुद्ध होते भी जैसे (कुयवस्य) धर्म और अधर्म से मिले जिसके व्यवहार हैं, उस पुरुष की (योषे) अगले-पिछले विवाह की परस्पर विरोध करती हुई स्त्रियां (शिफायाः) अति काट करती हुई नदी के (प्रवणे) प्रबल बहाव में गिर कर (हते) नष्ट (स्याताम्) हों, वैसे नष्ट हो जाते हैं॥3॥ भावार्थः—जो प्रजा का विरोधी राजपुरुष वा राजा का विरोधी प्रजा पुरुष है, ये दोनों निश्चय है कि सुखोन्नति को नहीं पाते हैं। और जो राजपुरुष पक्षपात से अपने प्रयोजन के लिये प्रजापुरुषों को पीड़ा देके धन इकट्ठा करता तथा जो प्रजापुरुष चोरी वा कपट आदि से राजधन को नाश करता है, वे दोनों जैसे एक पुरुष की दो पत्नी परस्पर अर्थात् एक-दूसरे से कलह करके क्रोध से नदी के बीच गिर के मर जाती हैं, वैसे ही शीघ्र विनाश हो जाते हैं। इससे राजपुरुष प्रजा के साथ और प्रजापुरुष राजा के साथ विरोध छोड़ के परस्पर सहायकारी होकर सदा अपना वर्त्ताव रक्खें॥3॥ पुनस्तौ कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे वर्त्ताव वर्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ यु॒योप॒ नाभि॒रुप॑रस्या॒योः प्र पूर्वा॑भिस्तिरते॒ राष्टि॒ शूरः॑। अ॒ञ्ज॒सी कु॑लि॒शी वी॒रप॑त्नी॒ पयो॑ हिन्वा॒ना उ॒दभि॑र्भरन्ते॥4॥ यु॒योप॑। नाभिः॑। उप॑रस्य। आ॒योः। प्र। पूर्वा॑भिः। ति॒र॒ते॒। राष्टि॑। शूरः॑। अ॒ञ्ज॒सी। कु॒लि॒शी। वी॒रऽप॑त्नी। पयः॑। हि॒न्वा॒नाः। उ॒दऽभिः॑। भ॒र॒न्ते॒॥4॥ पदार्थः—(युयोप) युप्यति विमोहं करोति (नाभिः) बन्धनमिव (उपरस्य) मेघस्य। उपर इति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰1.10) (आयोः) प्राप्तुं योग्यस्य। छन्दसीणः। (उणा॰1.2) (प्र) (पूर्वाभिः) प्रजाभिस्सह (तिरते) प्लवते सन्तरति वा। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। विकरणव्यत्ययेन शश्च। (राष्टि) राजते। अत्र विकरणस्य लुक्। (शूरः) निर्भयेन शत्रूणां हिंसिता (अञ्जसी) प्रसिद्धा (कुलिशी) कुलिशेन वज्रेणाभिरक्ष्या (वीरपत्नी) वीरः पतिर्यस्याः सा (पयः) जलम् (हिन्वानाः) प्रीतिकारिका नद्यः (उदभिः) उदकैः (भरन्ते) पुष्यन्ति। अत्र पक्षेऽन्तर्गतो ण्यर्थः॥4॥ अन्वयः—यदा शूरः प्रपूर्वाभिस्तिरते राज्यं संतरति तत्र राष्टि प्रकाशते तदायोरुपरस्य नाभिर्युयोप सा न न्यूना किन्त्वञ्जसी कुलिशी वीरपत्नी नद्यः पयो हिन्वाना उदभिर्भरन्ते॥4॥ भावार्थः—सुराज्येन सर्वसुखं प्रजासु भवति सुराज्येन विना दुःखं दुर्भिक्षं च भवति। अतो वीरपुरुषेण रीत्या राज्यपालनं कर्त्तव्यमिति॥4॥ पदार्थः—जब (शूरः) निडर शत्रुओं का मारनेवाला शूरवीर (प्र, पूर्वाभिः) प्रजाजनों के साथ (तिरते) राज्य का यथावत् न्याय कर पार होता और (राष्टि) उस राज्य में प्रकाशित होता है तब (आयोः) प्राप्त होने योग्य (उपरस्य) मेघ की (नाभिः) बन्धन चारों ओर से घुमड़ी हुई बादलों की दवन (युयोप) सबको मोहित करती है अर्थात् राजधर्म से प्रजासुख के लिये जलवर्षा भी होती है, वह थोड़ी नहीं किन्तु (अञ्जसी) प्रसिद्ध (कुलिशी) जो सूर्य के किरणरूपी वज्र से सब प्रकार रही हुई अर्थात् सूर्य के विकट आतप से सूखने से बची हुई (वीरपत्नी) बड़ी-बड़ी नदी जिनसे बड़ा वीर समुद्र ही है, वे (पयः) जल को (हिन्वानाः) हिड़ोलती हुई (उदभिः) जलों से (भरन्ते) भर जाती हैं॥4॥ भावार्थः—अच्छे राज्य से सब सुख प्रजा में होता है और विना अच्छे राज्य के दुःख और दुर्भिक्ष आदि उपद्रव होते हैं, इससे वीर पुरुषों को चाहिये कि रीति से राज्य पालन करें॥4॥ पुनस्ते कथ वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे वर्त्ताव वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ प्रति॒ यत्स्या नीथाद॑र्शि॒ दस्यो॒रोको॒ नाच्छा॒ सद॑नं जान॒ती गा॑त्। अध॑ स्मा नो मघवञ्चर्कृ॒तादिन्मा नो॑ म॒घेव॑ निष्ष॒पी परा॑ दाः॥5॥18॥ प्रति॑। यत्। स्या। नीथा॑। अद॑र्शि। दस्योः॑। ओक॑ः। न। अच्छ॑। सद॑नम्। जा॒न॒ती। गा॒त्। अध॑। स्म॒। नः॒। म॒घ॒ऽव॒न्। च॒र्कृ॒तात्। इत्। मा। नः॒। म॒घाऽइ॑व। निष्प॒पी। परा॑। दाः॒॥5॥ पदार्थः—(प्रति) (यत्) या (स्या) सा प्रजा (नीथा) न्यायरक्षणे प्रापिता (अदर्शि) दृश्यते (दस्योः) परस्वादातुश्चोरस्य (ओकः) स्थानम् (न) इव (अच्छ) सुष्ठु निपातस्य चेति दीर्घः। (सदनम्) अवस्थितिम् (जानती) प्रबुध्यमाना (गात्) एति (अध) अथ (स्म) आनन्दे (नः) अस्मान् (मघवन्) सभाद्यध्यक्ष (चर्कृतात्) सततं कर्तुं योग्यात्कर्मणः (इत्) निश्चये (मा) निषेधे (नः) अस्माकम् (मघेव) यथा धनानि तथा (निष्षपी) स्त्रिया सह नितरां समवेता (परा) (दाः) द्येरवखण्डयेर्विनाशयेः॥5॥ एतन्मन्त्रस्य कानिचित्पदानि यास्क एवं समाचष्टे-निष्षपी स्त्रीकामो भवति विनिर्गतपसाः पसः पसतेः स्पृशतिकर्मणः। मा नो॑ म॒घेव॑ निष्ष॒पी परा॑ दाः। स यथा धनानि विनाशयति मा नस्त्वं तथा परादाः। (निरु॰5.16)॥5॥ अन्वयः—सभादिपतिना यद्या नीथा प्रजा दस्योरोको न यथा गृहं तथा पालितादर्शि स्या साऽच्छ जानती सदनं प्रतिगात् प्रत्येति। हे मघवन्! निष्षपी संस्त्वं नोऽस्मान् मघेव मा परादाः। अधेत्यनन्तरं नोऽस्माकं चर्कृतादिदेव विरुद्धं मा स्म दर्शय॥5॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा सुदृढं सम्यग्रक्षितं गृहं चोरेभ्यः शीतोष्णवर्षाभ्यश्च मनुष्यान् धनादिकं च रक्षति तथैव सभाधिपतिभी राजभिः सम्यग्रक्षिता प्रजैतान् पालयति। यथा कामुकः स्वशरीरधर्मविद्याशिष्टाचारान् विनाशयति, यथा च प्राप्तानि बहूनि धनानीर्ष्याभिमानयोगेन मनुष्या अन्यायेषु बद्ध्वा हीनानि कुर्वन्ति तथा प्रजाविनाशं नैव कुर्युः। किन्तु प्रजाकृतान् सततमुपकारान् बुद्धवा निरभिमानसंप्रीतिभ्यामेतान् सदा पालयेयुः, नैव कदाचित् दुष्टेभ्यः शत्रुभ्यो भीत्वा पलायनं कुर्युः॥5॥ पदार्थः—सभा आदि के स्वामी ने (यत्) जो (नीथा) न्याय रक्षा को पहुंचाई हुई प्रजा (दस्योः) पराया धन हरनेवाले डाकू के (ओकः) घर के (न) समान पाली सी (अदर्शि) देख पड़ती है (स्या) वह (अच्छ) अच्छा (जानती) जानती हुई (सदनम्) घर को (प्रति, गात्) प्राप्त होती अर्थात् घर को लौट जाती है। हे (मघवन्) सभा आदि के स्वामी! (निष्षपी) स्त्री के साथ निरन्तर लगे रहनेवाले तू (नः) हम लोगों को (मघेव) जैसे धनों को वैसे (मा, परा, दाः) मत बिगाड़े (अध) इसके अनन्तर (नः) हम लोगों के (चर्कृतात्) निरन्तर करने योग्य काम से (इत्) ही विरुद्ध व्यवहार मत (स्म) दिखावे॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे अच्छा दृढ़, अच्छे प्रकार रक्षा किया हुआ घर चोरों वा शीत, गर्मी और वर्षा से मनुष्य और धन आदि पदार्थों की रक्षा करता है, वैसे ही सभापति राजाओं से अच्छी प्रकार पाली हुई प्रजा इनको पालती है। जैसे कामी जन अपने शरीर, धर्म, विद्या और अच्छे आचरण को बिगाड़ता और जैसे पाये हुए बहुत धनों को मनुष्य ईर्ष्या और अभिमान से अन्यायों में फंस कर बहाते हैं, वैसे उक्त राजा जन प्रजा का विनाश न करें, किन्तु प्रजा के किये निरन्तर उपकारों को जान कर अभिमान छोड़ और प्रेम बढ़ाकर इनको सब दिन पालें और दुष्ट शत्रुजनों से डर के पालयन न करें॥5॥ पुनस्ते कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे अपना वर्त्ताव वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ स त्वं न॑ इन्द्र॒ सूर्ये॒ सो अ॒प्स्व॑नागा॒स्त्व आ भ॑ज जीवशं॒से। मान्त॑रां॒ भुज॒मा री॑रिषो नः॒ श्रद्धि॑तं ते मह॒त इ॑न्द्रि॒याय॑॥6॥ सः। त्वम्। नः॒। इ॒न्द्र॒। सूर्ये॑। सः। अ॒प्ऽसु। अ॒ना॒गाः॒ऽत्वे। आ। भ॒ज॒। जी॒व॒ऽशं॒से। मा। अन्त॑राम्। भुज॑म्। आ। रि॒रि॒षः॒। नः॒। श्रद्धि॑तम्। ते॒। म॒ह॒ते। इ॒न्द्रि॒याय॑॥6॥ पदार्थः—(सः) (त्वम्) (नः) अस्माकम् (इन्द्र) सभादिस्वामिन् (सूर्ये) सवितृमण्डले प्राणे वा (सः) (अप्सु) जलेषु (अनागास्त्वे) निष्पापभावे। अत्र वर्णव्यत्ययेनाकारस्य स्थान आकारः। (आ) (भज) सेवस्व (जीवशंसे) जीवानां शंसास्तुतिर्यस्मिँस्तस्मिन् व्यवहारे चोपमाम् (मा) (अन्तराम्) मध्ये पृथग्वा (भुजम्) भोक्तव्यां प्रजाम् (आ) (रीरिषः) हिंस्याः (नः) (श्रद्धितम्) श्रद्धा संजाताऽस्येति (ते) (महते) बृहते पूजिताय वा (इन्द्रियाय) धनाय। इन्द्रियमिति धननामसु पठितम्। (निघं॰2.10)॥6॥ अन्वयः—हे इन्द्र! यस्य ते महत इन्द्रियाय नोऽस्माकं श्रद्धितमस्ति स त्वं नोऽस्माकं भुजं प्रजामन्तरां मारीरिषः। स त्वं सूर्य्येऽप्स्वनागास्त्वे जीवशंसे चोपमामाभज॥6॥ भावार्थः—सभापतिभिर्याः प्रजा श्रद्धया राज्यव्यवहारसिद्धये महद्धनं प्रयच्छन्ति ताः कदाचिन्नैव हिंसनीयाः। यास्तु दस्युचोरभूताः सन्त्येताः सदैव हिंसनीयाः। यः सेनापत्यधिकारं प्राप्नुयात् स सूर्य्यवन्न्यायविद्याप्रकाशं जलवच्छान्तितृप्ती अन्यायापराधराहित्यं प्रजाप्रशंसनीयं व्यवहारं च सेवित्वा राष्ट्रं रञ्जयेत्॥6॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) सभा के स्वामी जिन (ते) आपके (महते) बहुत और प्रशंसा करने योग्य (इन्द्रियाय) धन के लिये (नः) हम लोगों का (श्रद्धितम्) श्रद्धाभाव है (सः) वह (त्वम्) आप (नः) हम लोगों के (भुजम्) भोग करने योग्य प्रजा को (अन्तराम्) बीच में (मा) मत (आ रीरिषः) रिषाइये मत मारिये और (सः) सो आप (सूर्य्ये) सूर्य्य, प्राण (अप्सु) जल (अनागास्त्वे) और निष्पाप में तथा (जीवशंसे) जिसमें जीवों की प्रशंसा स्तुति हो, उस व्यवहार में उपमा को (आ, भज) अच्छे प्रकार भजिये॥6॥ भावार्थः—सभापतियों को जो प्रजाजन श्रद्धा से राज्यव्यवहार की सिद्धि के लिये बहुत धन देवें, वे कभी मारने योग्य नहीं और जो प्रजाओं में डाकू वा चोर हैं, वे सदैव ताड़ना देने योग्य हैं। जो सेनापति के अधिकार को पावे वह सूर्य्य के तुल्य न्यायविद्या का प्रकाश, जल के समान शान्ति और तृप्ति कर, अन्याय और अपराध का त्याग और प्रजा के प्रशंसा करने योग्य व्यवहार का सेवन कर राज्य को प्रसन्न करे॥6॥ पुनरेताभ्यां परस्परं कथं प्रतिज्ञातव्यमित्युपदिश्यते॥ फिर इन दोनों को परस्पर कैसी प्रतिज्ञा करनी चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ अधा॑ मन्ये॒ श्रत्ते॑ अस्मा अधायि॒ वृषा॑ चोदस्व मह॒ते धना॑य। मा नो॒ अकृ॑ते पुरुहुत॒ योना॒विन्द्र॒ क्षुध्य॑द्भ्यो॒ वय॑ आसु॒तिं दाः॥7॥ अध॑। म॒न्ये॒। श्रत्। ते॒। अ॒स्मै॒। अ॒धा॒यि॒। वृषा॑। चो॒द॒स्व॒। म॒ह॒ते। धना॑य। मा। नः॒। अकृ॑ते। पु॒रु॒ऽहू॒त॒। योनौ॑। इन्द्र॑। क्षुध्य॑त्ऽभ्यः। वयः॑। आ॒ऽसु॒तिम्। दाः॒॥7॥ पदार्थः—(अध) अनन्तरम् (मन्ये) विजानीयाम् (श्रत्) श्रद्धां सत्याचरणं वा (ते) तव (अस्मै) (अधायि) धीयताम् (वृषा) सुखवर्षयिता (चोदस्व) प्रेर्स्व (महते) बहुविधाय (धनाय) (मा) निषेधे (नः) अस्माकमस्मान् वा (अकृते) अनिष्पादिते (पुरुहूत) अनेकैः सत्कृत (योनौ) निमित्ते (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद शत्रुविदारक (क्षुध्यद्भ्यः) बुभुक्षितेभ्यः (वयः) कमनीयमन्नम् (आसुतिम्) प्रजाम् (दाः) छिन्द्याः॥7॥ अन्वयः—हे पुरुहूतेन्द्र! वृषा त्वमकृते योनौ नोऽस्माकं वय आसुतिं च मा दाः त्वया क्षुध्यद्भ्योऽन्नादिकमधायि नोऽस्मान् महते धनाय चोदस्व। अधास्मै ते तवैतच्छ्रदहं मन्ये॥7॥ भावार्थः—न्यायाधीशादिभी राजपुरुषैरकृतापराधानां प्रजानां हिंसनं कदाचिन्नैव कार्य्यम्। सर्वदैताभ्यः करा ग्राह्याः एनाः सम्पाल्य वर्धयित्वा विद्यापुरुषार्थयोर्मध्ये प्रवर्त्याऽऽनन्दनीयाः। एतत्सभापतीनां सत्यं कर्म प्रजास्थैः सदैव मन्तव्यम्॥7॥ पदार्थः—हे (पुरुहूत) अनेकों से सत्कार पाये हुए (इन्द्र) परमैश्वर्य्य देने और शत्रुओं का नाश करनेहारे सभापति! (वृषा) अति सुख वर्षानेवाले आप (अकृते) विना किये विचारे (योनौ) निमित्त में (नः) हम लोगों के (वयः) अभीष्ट अन्न और (आसुतिम्) सन्तान को (मा, दाः) मत छिन्न-भिन्न करो और (क्षुध्यद्भ्यः) भूखों के लिये अन्न, जल आदि (अधायि) धरो, हम लोगों को (महते) बहुत प्रकार के (धनाय) धन के लिये (चोदस्व) प्रेरणा कर, (अध) इसके अनन्तर (अस्मै) इस उक्त काम के लिये (ते) तेरी (श्रत्) यह श्रद्धा वा सत्य आचरण मैं (मन्ये) मानता हूं॥7॥ भावार्थः—न्यायाधीश आदि राजपुरुषों को चाहिये कि जिन्होंने अपराध न किया हो, उन प्रजाजनों को कभी ताड़ना न करें, सब दिन इनसे राज्य का कर धन लेवें, तथा इनको अच्छे प्रकार पाल और उन्नति दिलाकर विद्या और पुरुषार्थ के बीच प्रवृत्त कराकर आनन्दित करावें। सभापति आदि के इस सत्य काम को प्रजाजनों को सदैव मानना चाहिये॥7॥ पुनरेताभ्यां कथं प्रतिज्ञातव्यमित्युपदिश्यते॥ फिर इनको कैसी प्रतिज्ञा करनी चाहिए, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ मा नो॑ वधीरिन्द्र॒ मा परा॑ दा॒ मा नः॑ प्रि॒या भोज॑नानि॒ प्र मो॒षीः। आ॒ण्डा मा नो॑ मघवञ्छक्र॒ निर्भे॒न्मा नः॒ पात्रा॑ भेत्स॒हजा॑नुषाणि॥8॥ मा। नः॒। व॒धीः॒। इ॒न्द्र॒। मा। परा॑। दाः॒। मा। नः॒। प्रि॒या। भोज॑नानि। प्र। मो॒षीः॒। आ॒ण्डा। मा। नः॒। म॒घ॒ऽव॒न्। श॒क्र॒। निः। भे॒त्। मा। नः॒। पात्रा॑। भे॒त्। स॒हऽजा॑नुषाणि॥8॥ पदार्थः—(मा) निषेधे (नः) अस्मान् प्रजस्थान्मनुष्यादीन् (वधीः) हिंस्याः (इन्द्र) शत्रुविनाशक (मा) (परा) (दाः) दद्याः (मा) (नः) अस्माकम् (प्रिया) प्रियाणि (भोजनानि) भोजनवस्तूनि (प्र) (मोषीः) स्तेनयेः (आण्डा) अण्डवद्गर्भे स्थितान् (मा) (नः) अस्माकम् (मघवन्) पूजितधनयुक्त (शक्र) शक्नोति सर्वं व्यवहारं कर्त्तुं तत्सम्बुद्धौ (निः) नितराम् (भेत्) भिन्द्याः। बहुलं छन्दसीतीडभावो झलो झलीति सलोपो हल्ङ्याब्भ्य इति सिब्लोपश्च। (मा) (नः) अस्माकम् (पात्रा) पात्राणि सुवर्णरजतादीनि (भेत्) भिन्द्याः (सहजानुषाणि) जनुर्भिर्जन्मभिर्निर्वृत्तानि जानुषाणि कर्माणि तैः सह वर्त्तमानानि॥8॥ अन्वयः—हे मघवञ्छक्रेन्द्र सभाधिपते! त्वं नो मा वधीः। मा परादाः। नः सहजानुषाणि प्रिया भोजनानि मा प्रमोषीः। नोऽस्माकमाण्डा मा निर्भेत्। नोऽस्माकं पात्रा मा भेत्॥8॥ भावार्थः—हे सभापते! त्वं यथान्यायेन कंचिदप्यहिंसित्वा कस्माच्चिदपि धार्मिकादपराङ्मुखो भूत्वा स्तेयादिदोषरहितो परमेश्वरो दयां प्रकाशयति, तथैव प्रवर्त्तस्व नह्येवं वर्त्तमानेन विना प्रजा संतुष्टा जायते॥8॥ पदार्थः—हे (मघवन्) प्रशंसित धनयुक्त (शक्र) सब व्यवहार के करने को समर्थ (इन्द्र) शत्रुओं को विनाश करनेवाले सभा के स्वामी आप (नः) हम प्रजास्थ मनुष्यों को (मा, वधीः) मत मारिये (मा, परा, दाः) अन्याय से दण्ड मत दीजिये, स्वाभाविक काम और (नः) हम लोगों के (सहजानुषाणि) जो जन्म से सिद्ध उन के वर्त्तमान (प्रिया) पियारे (भोजनानि) भोजन पदार्थों को (मा, प्र, मोषीः) मत चोरिये, (नः) हमारे (आण्डा) अण्डे के समान जो गर्भ में स्थित हैं, उन प्राणियों को (मा, निर्भेत्) विदीर्ण मत कीजिये, (नः) हम लोगों के (पात्रा) सोने चांदी के पात्रों को (मा, भेत्) मत बिगाड़िये॥8॥ भावार्थः—हे सभापति! तू जैसे अन्याय से किसी को न मार के किसी भी धार्मिक सज्जन से विमुख न होकर चोरी-चपारी आदि दोषरहित परमेश्वर दया का प्रकाश करता है, वैसे ही अपने राज्य के काम करने में प्रवृत्त हो, ऐसे वर्त्ताव के विना राजा से प्रजा सन्तोष नहीं पाती॥8॥ पुनः प्रजया तेन सह किं प्रतिज्ञातव्यमित्युपदिश्यते॥ फिर प्रजा को इस सभापति के साथ क्या प्रतिज्ञा करनी चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒र्वाङेहि॒ सोम॑कामं त्वाहुर॒यं सु॒तस्तस्य॑ पिबा॒ मदा॑य। उ॒रु॒व्यचा॑ ज॒ठर॒ आ वृष॑स्व पि॒तेव॑ नः शृणुहि हू॒यमा॑नः॥9॥19॥ अ॒र्वाङ्। आ। इ॒हि॒। सोम॑ऽकामम्। त्वा॒। आ॒हुः॒। अ॒यम्। सु॒तः। तस्य॑। पि॒ब॒। मदा॑य। उ॒रु॒ऽव्यचाः॑। ज॒ठरे॑। आ। वृ॒ष॒स्व॒। पि॒ताऽइ॑व। नः॒। शृ॒णु॒हि॒। हू॒यमा॑नः॥9॥ पदार्थः—(अर्वाङ्) अर्वाचीने व्यवहारे (आ, इहि) आगच्छ (सोमकामम्) अभिषुतानां पदार्थानां रसं कामयते यस्तम् (त्वा) त्वाम् (आहुः) कथयन्ति (अयम्) प्रसिद्धः (सुतः) निष्पादितः (तस्य) तम्। अत्र शेषत्वविवक्षायां कर्मणि षष्ठी। (पिब) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (मदाय) हर्षाय (उरुव्यचाः) उरु बहुविधं व्यचो विज्ञानं पूजनं सत्करणं वा यस्य सः (जठरे) जायन्ते यस्मादुदराद्वा तस्मिन्। जनेररष्ठ च। (उणा॰5.38) अत्र जन धातोऽरः प्रत्ययो नकारस्य ठकारश्च। (आ) (वृषस्व) सिञ्चस्व (पितेव) यथा दयमानः पिता तथा (नः) अस्माकम् (शृणुहि) (हूयमानः) कृताह्वानः सन्॥9॥ अन्वयः—हे सभाध्यक्ष! यतस्त्वा त्वां सोमकाममाहुरतस्त्वमर्वाङेहि। अयं सुतस्तस्य मदाय पिब। उरुव्यचास्त्वं जठरे आवृषस्व। अस्माभिर्हूयमानस्त्वं पितेव नः शृणुहि॥9॥ भावार्थः—प्रजास्थैः सभापत्यादयो राजपुरुषा अन्नपानवस्त्रधनयानमधुरभाषणादिभिः सदा हर्षयितव्याः। राजपुरुषैश्चः प्रजास्थाः प्राणिनः पुत्रवत्सततं पालनीया इति॥9॥ अत्र सभापते राज्ञः प्रजायाश्च कर्त्तव्यकर्मवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्बोध्या॥ इति चतुरधिकशतं 104 सूक्तमेकोनविंशो 19 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—हे सभाध्यक्ष! जिससे (त्वा) आपको (सोमकामम्) कूटे हुए पदार्थों के रस की कामना करनेवाले (आहुः) बतलाते हैं, इससे आप (अर्वाङ्) अन्तरङ्ग व्यवहार में (आ, इहि) आओ, (अयम्) यह जो (सुतः) निकाला हुआ पदार्थों का रस है (तस्य) उसको (मदाय) हर्ष के लिये (पिब) पिओ, (उरुव्यचाः) जिसका बहुत और अनेक प्रकार का पूजन सत्कार है, वह आप (जठरे) जिससे सब व्यवहार होते हैं, उस पेट में (आ, वृषस्व) आसेचन कर अर्थात् उस पदार्थ को अच्छी प्रकार पीओ तथा हम लोगो से (हूयमानः) प्रार्थना को प्राप्त हुए आप (पितेव) जैसे प्रेम करता हुआ पिता पुत्र की सुनता है, वैसे (नः) हमारी (शृणुहि) सुनिये॥9॥ भावार्थः—प्रजाजनों को चाहिये कि सभापति आदि राजपुरुषों को खान, पान, वस्त्र, धन, यान और मीठी-मीठी बातों से सदा आनन्दित बनाये रहें और राजपुरुषों को भी चाहिये कि प्रजाजनों को पुत्र के समान निरन्तर पालें॥9॥ इस सूक्त में सभापति राजा और प्रजा के करने योग्य व्यवहार के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये॥ यह एकसौ चारवाँ 104 सूक्त और उन्नीसवां 19 वर्ग पूरा हुआ॥


अथैकोनविंशत्यृचस्य पञ्चाधिकशततमस्य सूक्तस्याप्त्यस्त्रित ऋषिराङ्गिरसः कुत्सो वा। विश्वेदेवा देवताः। 1,2,12,16,17 निचृत्पङ्क्तिः। 3,4,6,9,15,18 विराट्पङ्क्तिः। 8,10 स्वराट् पङ्क्तिः। 11,14 पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः। 5 निचृद्बृहती। 7 भुरिग्बृहती। 13 महाबृहती छन्दः। मध्यमः स्वरः। 19 निचृत्त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ अथ चन्द्रलोकः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ अब एकसौ पांचवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में चन्द्रलोक कैसा है, इस विषय को कहा है॥ च॒न्द्रमा॑ अ॒प्स्वन्तरा सु॑प॒र्णो धा॑वते दि॒वि। न वो॑ हिरण्यनेमयः प॒दं वि॑न्दन्ति विद्युतो वित्तं॒ मे॑ अ॒स्य रो॑दसी॥1॥ च॒न्द्रमाः॑। अ॒प्ऽसु। अ॒न्तः। आ। सु॒ऽप॒र्णः। धा॒व॒ते॒। दि॒वि। न। वः॒। हि॒र॒ण्य॒ऽने॒म॒यः॒। प॒दम्। वि॒न्द॒न्ति॒। वि॒द्यु॒तः॒। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑॥1॥ पदार्थः—(चन्द्रमाः) आह्लादकारकः इन्दुलोकः (अप्सु) प्राणभूतेषु वायुषु (अन्तः) (आ) (सुपर्णः) शोभनं पर्णं पतनं गमनं यस्य (धावते) (दिवि) सूर्य्यप्रकाशे (न) निषेधे (वः) युष्माकम् (हिरण्यनेमयः) हिरण्यस्वरूपा नेमिः सीमा यासां ताः (पदम्) विचारमयं शिल्पव्यवहारम् (विन्दन्ति) लभन्ते (विद्युतः) सौदामिन्यः (वित्तम्) विजानीतम् (मे) मम पदार्थविद्याविदः सकाशात् (अस्य) (रोदसी) द्यावापृथिव्याविव राजप्रजे जनसमूहौ॥1॥ अन्वयः—हे रोदसी! मे मम सकाशाद् योऽप्स्वन्तः सुपर्णश्चन्द्रमा दिव्याधावते हिरण्यनेमयो विद्युतश्च धावत्योः वः पदं न विन्दन्त्यस्य पूर्वोक्तस्येमं पूर्वोक्तं विषयं युवां वित्तम्॥1॥ भावार्थः—हे राजप्रजापुरुषौ! यश्चन्द्रमसश्छायान्तरिक्षजलसंयोगेन शीतलत्वप्रकाशस्तं विजानीतम्। या विद्युतः प्रकाशन्ते ताश्चक्षुर्ग्राह्या भवन्ति याः प्रसीनास्तासां चिह्नं चक्षुषा ग्रहीतुमशक्यम्। एतत्सर्वं विदित्वा सुखं सम्पादयेतम्॥1॥ पदार्थः—हे (रोदसी) सूर्यप्रकाश वा भूमि के तुल्य राज और प्रजा जनसमूह! (मे) मुझ पदार्थ विद्या जाननेवाले की उत्तेजना से जो (अप्सु) प्राणरूपी पवनों के (अन्तः) बीच (सुपर्णः) अच्छा गमन करने वा (चन्द्रमाः) आनन्द देनेवाला चन्द्रलोक (दिवि) सूर्य के प्रकाश में (आ, धावते) अति शीघ्र घूमता है और (हिरण्यनेमयः) जिनको सुवर्णरूपी चमक-दमक चिलचिलाहट है, वे (विद्युतः) बिजली लपट-झपट से दौड़ती हुईं (वः) तुम लोगों की (पदम्) विचारवाली शिल्प चतुराई को (न) नहीं (विन्दन्ति) पाती हैं अर्थात् तुम उनको यथोचित काम में नहीं लाते हो (अस्य) इस पूर्वोक्त विषय को तुम (वित्तम्) जानो॥1॥ भावार्थः—हे राजा और प्रजा के पुरुष! जो चन्द्रमा की छाया और अन्तरिक्ष के जल के संयोग से शीतलता का प्रकाश है, उसको जानो तथा जो बिजुली लपट-झपट से दमकती हैं, वे आखों से देखने योग्य हैं और जो विलाय जाती हैं, उनका चिह्न भी आँख से देखा नहीं जा सकता, इस सबको जानकर सुख को उत्पन्न करो॥1॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ फिर वे राजा और प्रजा कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ अर्थ॒मिद्वा उ॑ अ॒र्थिन॒ आ जा॒या यु॑वते॒ पति॑म्। तु॒ञ्जाते॒ वृष्ण्यं॒ पयः॑ परि॒दाय॒ रसं॑ दुहे वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी॥2॥ अर्थ॑म्। इत्। वै। ऊ॒म्ऽइति॑। अ॒र्थिनः॑। आ। जा॒या। यु॒व॒ते॒। पति॑म्। तु॒ञ्जाते॒ इति॑। वृष्ण्य॑म्। पयः॑। प॒रि॒ऽदाय॑। रस॑म्। दु॒हे॒। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑॥2॥ पदार्थः—(अर्थम्) य ऋच्छति प्राप्नोति तम् (इत्) अपि (वै) खलु (उ) वितर्के (अर्थिनः) प्रशस्तोऽर्थः प्रयोजनं येषान्ते (आ) (जाया) स्त्रीव (युवते) युनते बध्नन्ति। अत्र विकरणव्यत्ययेन शः। (पतिम्) स्वामिनम् (तुञ्जाते) दुःखानि हिंस्तः। व्यत्ययेनात्रात्मनेपदम्। (वृष्ण्यम्) वृषसु साधुम् (पयः) अन्नम्। पय इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰2.7) (परिदाय) सर्वतो दत्वा (रसम्) स्वादिष्ठमोषध्यादिभ्यो निष्पन्नं सारम् (दुहे) वर्धयेयम् (वित्तं, मे॰) इति पूर्ववत्॥2॥ अन्वयः—यथार्थिनोऽर्थं वै पतिं जायेव आयुवते यथा राजप्रजे यद् वृष्ण्यं पयो रसमित् परिदाय दुःखानि तुञ्जाते तथा तच्चाहमपि दुहे। अन्यत् पूर्ववत्॥2॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा स्त्रीष्टं पतिं प्राप्य पुरुषश्चेष्टां स्त्रियं वाऽऽनन्दयतस्तथाऽर्थ- साधनतत्परा विद्युत्पृथिवीसूर्यप्रकाशविद्यां गृहीत्वा पदार्थान् प्राप्य सदा सुखयति नह्येतद्विद्याविदां सङ्गेन विनैषा विद्या भवितुमर्हति दुःखविनाशश्च संभवति। तस्मादेषा सर्वैः प्रयत्नेन स्वीकार्य्या॥2॥ पदार्थः—जैसे (अर्थिनः) प्रशंसित प्रयोजनवाले जन (अर्थम्) जो प्राप्त होता है, उसको (वै) ही (पतिम्) पति का (जाया) सम्बन्ध करनेवाली स्त्री के समान (आ, युवते) अच्छे प्रकार सम्बन्ध करते हैं (उ) या तो जैसे राजा-प्रजा जिस (वृष्ण्यम्) श्रेष्ठों में उत्तम (पयः) अन्न (इत्) और (रसम्) स्वादिष्ठ ओषधियों से निकाले रस को (परिदाय) सब ओर से देके दुःखों को (तुञ्जाते) दूर करते हैं, वैसे उस-उस को मैं भी (दुहे) बढ़ाऊँ। शेष अर्थ प्रथम मन्त्र में कहे समान जानना चाहिये॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे स्त्री अपनी इच्छा के अनुकूल पति को वा पति अपनी इच्छा के अनुकूल स्त्री को पाकर परस्पर आनन्दित करते हैं, वैसे प्रयोजन सिद्ध कराने में तत्पर बिजुली, पृथिवी और सूर्यप्रकाश की विद्या के ग्रहण से पदार्थों को प्राप्त होकर सदा सुख देती है। इसकी विद्या को जाननेवालों के संग के विना यह विद्या होने को कठिन है और दुःख का भी विनाश अच्छी प्रकार नहीं होता। इससे सबको चाहिये कि इस विद्या को यत्न से लेवें॥2॥ अत्र जगति विद्वांसः कथं प्रष्टव्या इत्युपदिश्यते॥ इस जगत् में विद्वान् जन कैसे पूछने के योग्य हैं, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥ मो षु दे॑वा अ॒दः स्वरव॑ पादि दि॒वस्परि॑। मा सो॒म्यस्य॑ शं॒भुवः॒ शूने॑ भूम॒ कदा॑ च॒न वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी॥3॥ मो इति॑। सु। दे॒वाः॒। अ॒दः। स्वः॑। अव॑। पा॒दि॒। दि॒वः। परि॑। मा। सो॒म्यस्य॑। श॒म्ऽभुवः॑। शूने॑। भू॒म॒। कदा॑। च॒न। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑॥3॥ पदार्थः—(मो) निषेधे (सु) शोभने। अत्र सुषामादित्वात् षत्वम्। (देवाः) विद्वांसः (अदः) प्राप्स्यमानम् (स्वः) सुखम् (अव) विरुद्धे (पादि) प्रतिपद्यतां प्राप्यताम् (दिवः) सूर्यप्रकाशात् (परि) उपरिभावे। अत्र पञ्चम्याः परावध्यर्थे। (अष्टा॰8.3.51) इति विसर्जनीयस्य सः। (मा) निषेधे (सोम्यस्य) सोममैश्वर्यमर्हस्य (शंभुवः) सुखं भवति यस्मात्तस्य। अत्र कृतो बहुलमित्यपादाने क्विप्। (शूने) वर्धने। अत्र नपुंसके भावे क्तः। (अष्टा॰3.3.114) (भूम) भवेम (कदा) कस्मिन् काले (चन) अपि वित्तं, मे, अस्येति पूर्ववत्॥3॥ अन्वयः—देवा युष्माभिर्दिवस्पर्य्यदः स्वः कदाचन मोऽवपादि वयं सोम्यस्य शंभुवः सुशूने विरुद्धकारिणः कदाचिन्मा भूम। अन्यत्पूर्ववत्॥3॥ भावार्थः—मनुष्यैरस्मिन् संसारे धर्मसुखविरुद्धं कर्म नैवाचरणीयम्। पुरुषार्थेन सुखोन्नतिः सततं कार्या॥3॥ पदार्थः—हे (देवाः) विद्वानो! तुम लोगों से (दिवः) सूर्य के प्रकाश से (परि) ऊपर (अदः) वह प्राप्त होनेहारा (स्वः) सुख (कदा, चन) कभी (मो, अव, पादि) विरुद्ध न उत्पन्न हुआ है। हम लोग (सोम्यस्य) ऐश्वर्य के योग्य (शंभुवः) सुख जिससे हो उस व्यवहार की (सु, शूने) सुन्दर उन्नति में विरुद्ध भाव से चलनेहारे कभी (मा) (भूम) मत होवें। और अर्थ प्रथम मन्त्र के समान जानना चाहिये॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि इस संसार में धर्म और सुख से विरुद्ध काम नहीं करें और पुरुषार्थ से निरन्तर सुख की उन्नति करें॥3॥ पुनस्तैः प्रष्टृभिः समाधातृभिश्च परस्परं कथं वर्त्तित्वा विद्यावृद्धिकार्येत्युपदिश्यते॥ फिर पूंछने और समाधान देनेवालों को परस्पर कैसे वर्त्ताव रख कर विद्या की वृद्धि करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ य॒ज्ञं पृ॑च्छाम्यव॒मं स तद्दू॒तो वि वो॑चति। क्व॑ ऋ॒तं पू॒र्व्यं ग॒तं कस्तद् बि॑भर्ति॒ नूत॑नो वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी॥4॥ य॒ज्ञम्। पृ॒च्छा॒मि॒। अ॒व॒मम्। सः। तत्। दू॒तः। वि। वो॒च॒ति॒। क्व॑। ऋ॒तम्। पू॒र्व्यम्। ग॒तम्। कः। तत्। बि॒भ॒र्ति॒ नूत॑नः। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑॥4॥ पदार्थः—(यज्ञम्) सर्वविद्यामयम् (पृच्छामि) (अवमम्) रक्षादिसाधकमुत्तममर्वाचीनं वा (सः) भवान् (तत्) (दूतः) इतस्ततो वार्ताः पदार्थान् वा विजानन् (वि) विविच्य (वोचति) उच्याद्वदेत्। अत्र लेटि वचधातोर्व्यत्ययेनौकारादेशः। (क्व) कुत्र (ऋतम्) सत्यमुदकं वा (पूर्व्यम्) पूर्वैः कृतम् (गतम्) प्राप्तम् (कः) (तत्) (बिभर्ति) दधाति (नूतनः) नवीनः। वित्तं मे॰ इति पूर्ववत्॥4॥ अन्वयः—हे विद्वन्नहं त्वां प्रति यमवमं यज्ञं पूर्व्यमृतं क्व गतं को नूतनस्तद्बिभर्तीति पृच्छामि स दूतो भवांस्तत्सर्वं विवोचति विविच्योपदिशतु। अन्यत्पूर्ववत्॥4॥ भावार्थः—विद्यां चिकीर्षुभिर्ब्रह्मचारिभिर्विदुषां समीपं गत्वाऽनेकविधान् प्रश्नान् कृत्वोत्तराणि प्राप्य विद्या वर्धनीया। भो अध्यापका विद्वांसो! यूयं स्वगतमागच्छत मत्तोऽस्य संसारस्य पदार्थसमूहस्य विद्या अभिज्ञाय सर्वानन्यानेवमेवाध्याप्य सत्यमसत्यं च यथार्थतया विज्ञापयत॥4॥ पदार्थः—हे विद्वन्! मैं आपके प्रति जिस (अवमम्) रक्षा आदि करनेवाले उत्तम वा निकृष्ट (यज्ञम्) समस्त विद्या से परिपूर्ण (पूर्व्यम्) पूर्वजों ने सिद्ध किया (ऋतम्) सत्यमार्ग वा उत्तम जल स्थान (क्व) कहाँ (गतम्) गया (कः) और कौन (नूतनः) नवीन जन (तत्) उसको (बिभर्ति) धारण करता है, इसको (पृच्छामि) पूछता हूँ (सः) सो (दूतः) इधर-उधर से बातचीत वा पदार्थों को जानते हुए आप (तत्) उस सब विषय को (वि वोचति) विवेक कर कहो। और अर्थ सब प्रथम के तुल्य जानना॥4॥ भावार्थः—विद्या को चाहते हुए ब्रह्मचारियों को चाहिये कि विद्वानों के समीप जाकर अनेक प्रकार के प्रश्नों को करके और उनसे उत्तर पाकर विद्या को बढ़ावें और हे पढ़ानेवाले विद्वानो! तुम लोग अच्छा गमन जैसे हो वैसे आओ और हमसे इस संसार के पदार्थों की विद्या को सब प्रकार से जान, औरों को पढ़ा कर सत्य और असत्य को यथार्थभाव से समझाओ॥4॥ पुनरेते परस्परं कथं किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते॥ फिर ये परस्पर कैसे क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒मी ये दे॑वाः॒ स्थन॑ त्रि॒ष्वारो॑च॒ने दि॒वः। कद्व॑ ऋ॒तं कदनृ॑तं॒ क्व॑ प्र॒त्ना व॒ आहु॑तिर्वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी॥5॥20॥ अ॒मी इति॑। ये। दे॒वाः॒। स्थन॑। त्रि॒षु। आ। रो॒च॒ने। दि॒वः। कत्। वः॒। ऋ॒तम्। कत्। अनृ॑तम्। क्व॑। प्रत्॒ना। वः॒। आऽहु॑तिः। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑॥5॥ पदार्थः—(अमी) प्रत्यक्षाऽप्रत्यक्षाः (ये) (देवाः) दिव्यगुणाः पृथिव्यादयो लोकाः (स्थन) सन्ति। अत्र तप्तनप्तनथनाश्चेति थनादेशः। (त्रिषु) नामस्थानजन्मसु (आ) समन्तात् (रोचने) प्रकाशविषये (दिवः) द्योतकस्य सूर्यमण्डलस्य (कत्) कुत्र। पृषोदरादित्वात् क्वेत्यस्य स्थाने कत्। (वः) एषां मध्ये (ऋतम्) सत्यं कारणम् (कत्) (अनृतम्) कार्यम् (क्व) (प्रत्ना) प्राचीनानि (वः) एतेषाम् (आहुतिः) होमः प्रलयः। अन्यत्पूर्ववत्॥5॥ अन्वयः—हे विद्वांसो! यूयं दिवो रोचने त्रिष्वमी ये देवा आस्थन वस्तेषामृतं कदनृतं कत्। वस्तेषां प्रत्ना आहुतिश्च क्व भवतीत्येषामुत्तराणि ब्रूत। अन्यत्पूर्ववत्॥5॥ भावार्थः—यदा सर्वेषां लोकानामाहुतिः प्रलयो जायते तदा कार्यं कारणं जीवाश्च क्व तिष्ठन्तीति प्रश्नः। एतदुत्तरं सर्वव्यापक ईश्वर आकाशे च कारणरूपेण सर्वं जगत्सुषुप्तवज्जीवाश्च वर्त्तन्त इति। एकैकस्य सूर्यस्य प्रकाशाकर्षणविषये यावन्तो यावन्तो लोका वर्त्तन्ते तावन्तस्तावन्तः सर्व ईश्वरेण रचयित्वा धृत्वा व्यवस्थाप्यन्त इति वेद्यम्॥5॥ पदार्थः—हे विद्वानो! तुम (दिवः) प्रकाश करनेवाले सूर्य्य के (रोचने) प्रकाश में (त्रिषु) तीन अर्थात् नाम, स्थान और जन्म में (अमी) प्रकट और अप्रकट (ये) जो (देवाः) दिव्य गुणवाले पृथिवी आदि लोक (आ) अच्छी (स्थन) स्थिति करते हैं (वः) इनके बीच (ऋतम्) सत्य कारण (कत्) कहाँ और (अनृतम्) झूंठ कार्यरूप (कत्) कहाँ और (वः) उनके (प्रत्ना) पुराने पदार्थ तथा उनका (आहुतिः) होम अर्थात् विनाश (क्व) कहाँ होता है, इन सब प्रश्नों के उत्तर कहो? शेष मन्त्र का अर्थ पूर्व के तुल्य जानना चाहिये॥5॥ भावार्थः—प्रश्न-जब सब लोकों की आहुति अर्थात् प्रलय होता है, तब कार्य्यकारण और जीव कहाँ ठहरते हैं? इसका उत्तर-सर्वव्यापी ईश्वर और आकाश में कारण रूप से सब जगत् और अच्छी गाढ़ी नींद में सोते हुए के समान जीव रहते हैं। एक-एक सूर्य्य के प्रकाश और आकर्षण के विषय में जितने-जितने लोक हैं उतने-उतने सब ईश्वर ने बनाये धारण किये तथा इनकी व्यवस्था की है, यह जानना चाहिये॥5॥ पुनरेतैः परस्परं किं किं प्रष्टव्यं समाधातव्यं चेत्युपदिश्यते॥ फिर इनको परस्पर क्या-क्या पूछना और समाधान करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ कद्व॑ ऋ॒तस्य॑ धर्ण॒सि कद्वरु॑णस्य॒ चक्ष॑णम्। कद॑र्य॒म्णो म॒हस्प॒थाति॑ क्रामेम दू॒ढ्यो॑ वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी॥6॥ कत्। वः॒। ऋ॒तस्य॑। ध॒र्ण॒सि। कत्। वरु॑णस्य। चक्ष॑णम्। कत्। अ॒र्य॒म्णः। म॒हः। प॒था। अति॑। क्रा॒मे॒म॒। दुः॒ऽध्यः॑। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑॥6॥ पदार्थः—(कत्) क्व (वः) एतेषाम् (ऋतस्य) कारणस्य (धर्णसि) धर्त्ता। अत्र सुपां सुलुगिति विभक्तेर्लुक्। (कत्) (वरुणस्य) जलादिकार्यस्य (चक्षणम्) दर्शनम् (कत्) केन (अर्यम्णः) सूर्यस्य (महः) महतः (पथा) मार्गेण (अति) (क्रामेम) उल्लङ्घयेम (दूढ्यः) दुःखेन ध्यातुं योग्यो व्यवहारः (वित्तं, मे अस्य, रोदसी) इति पूर्ववत्॥6॥ अन्वयः—हे विद्वांसो! व एतेषां स्थूलानां पदार्थानामृतस्य सत्यकारणस्य धर्णसि कत् क्वास्ति वरुणस्य चक्षणं कदस्ति महोऽर्यम्णे यो दूढ्यो व्यवहारस्तं कत् केन पथाऽतिक्रामेम तस्य पारं गच्छाम तद्विद्यया परिपूर्णा भवेमेति यावत्। अन्यत् पूर्ववत्॥6॥ भावार्थः—विद्या चिकीर्षुभिर्विदुषां सविधं प्राप्य कार्यकारणविद्यामार्गप्रश्नान् कृत्वोत्तराणि लब्ध्वा क्रियाकौशलेन कार्याणि संसाध्य दुःखं निहत्य सुखानि लब्धव्यानि॥6॥ पदार्थः—हे विद्वानो! (वः) इन स्थूल पदार्थों के (ऋतस्य) सत्य कारण का (धर्णसि) धारण करनेवाला (कत्) कहाँ है (वरुणस्य) जल आदि कार्यरूप पदार्थों का (चक्षणम्) देखना (कत्) कहाँ है तथा (महः) महान् (अर्यम्णः) सूर्य्यलोक का जो (दूढ्यः) अति गम्भीर दुःख से ध्यान में आने योग्य व्यवहार है, उसको (कत्) किस (पथा) मार्ग से हम (अति, क्रामेम) पार हों अर्थात् उस विद्या से परिपूर्ण हों। और शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के तुल्य जानना चाहिये॥6॥ भावार्थः—विद्या प्राप्ति की इच्छावाले पुरुषों को चाहिये कि विद्वानों के समीप जाकर कार्य्य और कारण के विद्यामार्ग विषयक प्रश्नों को कर उनसे उत्तर पाकर क्रियाकुशलता से कामों को सिद्ध करके दुःख का नाश कर सुख पावें॥6॥ अथ विदुष एतेषामुत्तराण्येवं दद्युरित्युपदिश्यते॥ अब विद्वान् जन इनके उत्तर ऐसे देवें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒हं सो अ॑स्मि॒ यः पु॒रा सु॒ते वदा॑मि॒ कानि॑ चि॒त्। तं मा॑ व्यन्त्या॒ध्यो॒ वृको॒ न तृ॒ष्णजं॑ मृ॒गं वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी॥7॥ अ॒हम्। सः। अ॒स्मि॒। यः। पु॒रा। सु॒ते। वदा॑मि। कानि॑। चि॒त्। तम्। मा॒। व्य॒न्ति॒। आ॒ऽध्यः॑। वृक॑ः। न। तृ॒ष्णऽज॑म्। मृ॒गम्। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑॥7॥ पदार्थः—(अहम्) अहमीश्वरो विद्वान् वा (सः) (अस्मि) (यः) (पुरा) सृष्टेर्विद्योत्पत्तेः प्राग्वा (सुते) उत्पन्नेऽस्मिन् कार्य्ये जगति (वदामि) उपदिशामि (कानि) (चित्) अपि (तम्) (मा) माम् (व्यन्ति) कामयन्ताम्। वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीतीयङभावे यणादेशः लेट्प्रयोगोऽयम्। (आध्यः) समन्ताद् ध्यायन्ति चिन्तयन्ति ये ते (वृकः) स्तेनो व्याधः। वृक इति स्तेननामसु पठितम्। (निघं॰3.24) (न) इव (तृष्णजम्) तृष्णा जायते यस्मात्तम्। अत्र जन धातोर्डः। ङ्यापोः संज्ञाछन्दसोर्बहुलमिति ह्रस्वत्वम्। (मृगम्) (वित्तं मे॰) इति पूर्ववत्॥7॥ अन्वयः—हे मनुष्या! योऽहं सृष्टिकर्ता विद्वान् वा सुतेऽस्मिञ्जगति कानिचित्पुरा वदामि सोऽहमस्मि सेवनीयः। तं माध्यो भवन्तो वृकस्तृष्णजं मृगं न व्यन्ति कामयन्तामन्यत्पूर्ववत्॥7॥ भावार्थः—अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। सर्वान् मनुष्यान् प्रतीश्वर उपदिशति हे मानवा! यूयं यथा मया सृष्टिं रचयित्वा वेदद्वारा यादृशा उपदेशाः कृताः सन्ति तान् तथैव स्वीकुरुत। उपास्यं मां विहायाऽन्यं कदाचिन्नोपासीरन्। यथा कश्चिन्मृगयायां प्रवर्त्तमानश्चोरो व्याधो वा मृगं प्राप्तुं कामयते, तथैव सर्वान् दोषान् हित्वा मां कामयध्वम्। एवं विद्वांसमपि॥7॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! (यः) जो (अहम्) संसार का उत्पन्न करनेवाला (सुते) उत्पन्न हुए इस जगत् में (कानि) (चित्) किन्हीं व्यवहारों को (पुरा) सृष्टि के पूर्व वा विद्वान् मैं उत्पन्न हुए संसार में किन्हीं व्यवहारों को विद्या की उत्पत्ति से पहिले (वदामि) कहता हूं (सः) वह मैं सेवन करने योग्य (अस्मि) हूं (तम्) उस (मा) मुझको (आध्यः) अच्छी प्रकार चिन्तन करनेवाले आप लोग जैसे (वृकः) चोर वा व्याघ्र (तृष्णजम्) पियासे (मृगम्) हरिण को (न) वैसे (व्यन्ति) चाहो। और शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के तुल्य जानना चाहिये॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। सब मनुष्यों के प्रति ईश्वर उपदेश करता है कि हे मनुष्यो! तुम लोग जैसे मैंने सृष्टि को रच के वेद द्वारा जैसे-जैसे उपदेश किये हैं, उनको वैसे ही ग्रहण करो और उपासना करने योग्य मुझको छोड़ के अन्य किसी की उपासना कभी मत करो। जैसे कोई जीव मृग या रसिक चोर वा बधेरा हरिण को प्राप्त करना चाहता है, वैसे ही सब दोषों को निर्मूल छोड़कर मेरी चाहना करो और ऐसे विद्वान् को भी चाहो॥7॥ अथ न्यायाधीशस्य समीपेऽर्थिप्रत्यर्थिनौ किंचित् क्लेशादिकं निवेदयेतां तयोर्यथावन्न्यायं स कुर्य्यादित्युपदिश्यते॥ अब न्यायाधीश के समीप वाद-विवाद करनेवाले वादी-प्रतिवादी जन अपने कुछ क्लेश का निवेदन करें और वह उनका न्याय यथावत् करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ सं मा॑ तपन्त्य॒भितः॑ स॒पत्नी॑रिव॒ पर्श॑वः। मूषो॒ न शि॒श्ना व्य॑दन्ति मा॒ध्यः॑ स्तो॒तारं॑ ते शतक्रतो वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी॥8॥ सम्। मा॒। त॒प॒न्ति॒। अ॒भितः॑। स॒पत्नीः॑ऽइव। पर्श॑वः। मूषः॑। न। शि॒श्ना। वि। अ॒द॒न्ति॒। मा॒। आ॒ऽध्यः॑। स्तो॒तार॑म्। ते॒। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒दसी इति॑॥8॥ पदार्थः—(सम्) (मा) मां प्रजास्थं वा पुरुषम् (तपन्ति) क्लेशयन्ति (अभितः) सर्वतः (सपत्नीरिव) यथाऽनेकाः पत्न्यः समानमेकपतिं दुःखयन्ति (पर्शवः) परानन्यान् शृणन्ति हिंसन्ति ते पर्शवः पार्श्वस्था मनुष्यादयः प्राणिनः। (मूषः) आखवः। अत्र जातिपक्षमाश्रित्यैकवचनम्। (न) इव (शिश्ना) अशुद्धानि सूत्राणि (वि) विविधार्थे (अदन्ति) विच्छिद्य भक्षयन्ति (मा) (आध्यः) परस्य मनसि शोकादिजनकाः (स्तोतारम्) धर्मस्य स्तावकम् (ते) तव (शतक्रतो) असंख्यातोत्तमप्रज्ञ बहूत्तमकर्मन् वा न्यायाध्यक्ष (वित्तं, मे, अस्य, रोदसी) इति पूर्ववत्॥8॥ अत्राह निरुक्तकारः—मूषो मूषिका इत्यर्थः। मूषिकाः पुनर्मुष्णातेः। मूषोऽप्येतस्मादेव। सन्तपन्ति मामभितः सपत्न्य इवेमाः पर्शवः कूपपर्शवः। मूषिका इवास्नातानि सूत्राणि व्यदन्ति। स्वाङ्गाभिधानं वा स्यात्। शिश्नानि व्यदन्तीति वा। सन्तपन्ति माध्यः कामाः। स्तोतारं ते शतक्रतो वित्तं मे अस्य रोदसी। जानीतं मेऽस्य द्यावापृथिव्याविति। त्रितं कूपेऽवहितमेतत्सूक्तं प्रतिबभौ। तत्र ब्रह्मेतिहासमिश्रमृङ्मिश्रं गाथामिश्रं भवति। त्रितस्तीर्णतमो मेधया बभूव। अपि वा सङ्ख्यानामैवाभिप्रेतं स्यात्। एकतो द्वितस्त्रित इति त्रयो बभूवुः। (निरु॰4.5-6)॥8॥ अन्वयः—हे शतक्रतो न्यायाधीश! ते तव प्रजास्थं स्तोतारं मा मां ये पर्शवः सपत्नीरिवाभितः संतपन्ति य आध्यो मूषः शिश्ना व्यदन्ति न मा मामभितः संतपन्ति तानन्यायकारिणो जनांस्त्वं यथावच्छाधि। अन्यत्पूर्ववत्॥8॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। हे न्यायाध्यक्षादयो मनुष्या! यूयं यथा सपत्न्यः स्वपतिमुद्वेजयन्ति, यथा वा स्वार्थसिद्ध्यसिद्धिका मूषिकाः परद्रव्याणि विनाशयन्ति, यथा च व्यभिचारिण्यो गणिकादयः स्त्रियः सौदामन्य इव प्रकाशवत्यः कामिनः शिश्नादिरोगद्वारा धर्मार्थकाममोक्षानुष्ठानप्रतिबन्धकत्वेन तं पीडयन्ति, तथा ये दस्य्वादयो मिथ्यानिश्चयकर्मवचनादस्मान् क्लेशयन्ति तान् संदण्ड्यैतानस्मांश्च सततं पालयत, नैवं विना सततं राज्यैश्वर्ययोगोऽधिको भवितुं शक्यः॥8॥ पदार्थः—हे (शतक्रतो) असंख्य उत्तम विचारयुक्त वा अनेकों उत्तम-उत्तम कर्म करनेवाले न्यायाधीश! (ते) आपकी प्रजा वा सेना में रहने और (स्तोतारम्) धर्म का गानेवाला मैं हूं (मा) मुझको जो (पर्शवः) औरों को मारने और तीर के रहनेवाले मनुष्य आदि प्राणी (सपत्नीरिव) (अभितः, सम्, तपन्ति) जैसे एक पति को बहुत स्त्रियां दुःखी करती हैं, ऐसे दुःख देते हैं। जो (आध्यः) दूसरे के मन में व्यथा उत्पन्न करनेहारे (मूषः) मूषे जैसे (शिश्ना) अशुद्ध सूतों को (वि, अदन्ति) विदार-विदार अर्थात् काट-काट खाते हैं (न) वैसे (मा) मुझको संताप देते हैं, उन अन्याय करनेवाले जनों को तुम यथावत् शिक्षा करो। और शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के समान जानिये॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे न्याय करने के अध्यक्ष आदि मनुष्यो! तुम जैसे सौतेली स्त्री अपने पति को कष्ट देती है वा जैसे अपने प्रयोजन मात्र का बनाव-बिगाड़ देखनेवाले मूषे पराये पदार्थों का अच्छी प्रकार नाश करते हैं और जैसे व्यभिचारिणी वेश्या आदि कामिनी दामिनी स्त्री दमकती हुई कामीजन के लिङ्ग आदि रोगरूपी कुकर्म्म के द्वारा उसके धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष के करने की रुकावट से उस कामीजन को पीड़ा देती हैं, वैसे ही जो डाकू, चोर, चवाई, अताई, लड़ाई, भिड़ाई, करनेवाले झूठ की प्रतीति और झूठे कामों की बातों में हम लोगों को क्लेश देते हैं, उनको अच्छे प्रकार दण्ड देकर हम लोगों को तथा उनको भी निरन्तर पालो, ऐसे करने के विना राज्य का ऐश्वर्य्य नहीं बढ़ सकता॥8॥ अथ न्यायाधीशादिभिः सह प्रजाः कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते॥ अब न्यायाधीशों के साथ प्रजाजन कैसे वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒मी ये स॒प्त र॒श्मय॒स्तत्रा॑ मे नाभि॒रात॑ता। त्रि॒तस्तद्वे॑दा॒प्त्यः स जा॑मि॒त्वाय॑ रेभति वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी॥9॥ अ॒मी इति॑। ये। स॒प्त। र॒श्मयः॑। तत्र॑। मे। नाभिः॑। आऽत॑ता। त्रि॒तः। तत्। वे॒द॒। आ॒प्त्यः। सः। जा॒मि॒ऽत्वाय॑। रे॒भ॒ति॒। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑॥9॥ पदार्थः—(अमी) (ये) (सप्त) सप्ततत्वाङ्गमिश्रितस्य भावाः सप्तधा (रश्मयः) (तत्र) तस्मिन्। ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (मे) मम (नाभिः) शरीरमध्यस्था सर्वप्राणबन्धनाङ्गम् (आतता) समन्ताद्विस्तृता (त्रितः) त्रिभ्यो भूतभविष्यद्वर्त्तमानकालेभ्यः (तत्) तान् (वेद) जानाति (आप्त्यः) य आप्तेषु भवः सः (सः) (जामित्वाय) कन्यावत्पालनाय प्रजाभावाय (रेभति) अर्चति। अन्यत् पूर्ववत्॥9॥ अन्वयः—यत्रामी ये सप्त रश्मय इव सप्तधा नीतिप्रकाशाः सन्ति, तत्र मे नाभिरातता यत्र नैरन्तर्येण स्थितिर्मम तद् य आप्त्यो विद्वान् त्रितो वेद स जामित्वाय राजभोगाय प्रजा रेभति। अन्यत्सर्वं पूर्ववत्॥9॥ भावार्थः—यथा सूर्येण सह रश्मीनां शोभासङ्गौ स्तस्तथा राजपुरुषैः प्रजानां शोभासङ्गौ भवेताम्। यो मनुष्यः कर्मोपासनाज्ञानानि यथावत् विजानाति, सः प्रजापालने पितृवद्भूत्वा सर्वाः प्रजा रञ्जयितुं शक्नोति नेतरः॥9॥ पदार्थः—जहाँ (अमी) (ये) ये (सप्त) सात (रश्मयः) किरणों के समान नीतिप्रकाश हैं (तत्र) वहाँ (मे) मेरी (नाभिः) सब नसों को बांधनेवाली तोंद (आतता) फैली है, जिसमें निरन्तर मेरी स्थिति है (तत्) उसको जो (आप्त्यः) सज्जनों में उत्तम जन (त्रितः) तीनों अर्थात् भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान काल से (वेद) जाने अर्थात् रात-दिन विचारे (सः) वह पुरुष (जामित्वाय) राज्य भोगने के लिये कन्या के तुल्य (रेभति) प्रजाजनों की रक्षा तथा प्रशंसा और चाहना करता है। और अर्थ प्रथम मन्त्रार्थ के समान जानो॥9॥ भावार्थः—जैसे सूर्य्य के साथ किरणों की शोभा और सङ्ग है, वैसे राजपुरुषों के साथ प्रजाजनों की शोभा और सङ्ग हो तथा जो मनुष्य कर्म, उपासना और ज्ञान को यथावत् जानता है, वह प्रजा के पालने में पितृवत् होकर समस्त प्रजाजनों का मनोरञ्जन कर सकता है, और नहीं॥9॥ पुनरेते परस्परं कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते॥ फिर ये परस्पर कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒मी ये पञ्चो॒क्षणो॒ मध्ये॑ त॒स्थुर्म॒हो दि॒वः। दे॒व॒त्रा नु प्र॒वाच्यं॑ सध्रीची॒ना नि वा॑वृतुर्वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी॥10॥21॥ अ॒मी इति॑। ये। पञ्च॑। उ॒क्षणः॑। मध्ये॑। त॒स्थुः। म॒हः। दि॒वः। दे॒व॒ऽत्रा। नु। प्र॒ऽवाच्य॑म्। स॒ध्री॒ची॒नाः। नि। व॒वृ॒तुः॒। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑॥10॥ पदार्थः—(अमी) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षाः (ये) (पञ्च) यथाग्निवायुमेघविद्युत्सूर्य्यमण्डलप्रकाशास्तथा (उक्षणः) जलस्य सुखस्य वा सेक्तारो महान्तः। उक्षा इति महन्नामसु पठितम्। (निघं॰3.3) (मध्ये) (तस्थुः) तिष्ठन्ति (महः) महतः (दिवः) दिव्यगुणपदार्थयुक्तस्याकाशस्य (देवत्रा) देवेषु विद्वत्सु वर्त्तमानाः (नु) शीघ्रम् (प्रवाच्यम्) अध्यापनोपदेशार्थं विद्याऽऽज्ञापकं वचः (सध्रीचीनाः) सहवर्त्तमानाः (नि) (वावृतुः) वर्त्तन्ते। अत्र वर्त्तमाने लिट्। व्यत्ययेन परस्मैपदम्। तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्येति दीर्घत्वम्। अन्यत् पूर्ववत्॥10॥ अन्वयः—हे सभाध्यक्षादयो जना! युष्माभिर्यथाऽमी उक्षणः पञ्च महो दिवो मध्ये तस्थुर्यथा च सध्रीचीना देवत्रा निवावृतुस्तथा ये नितरां वर्त्तन्ते तान् प्रजाराजप्रसङ्गिनः प्रति विद्यान्यायप्रकाशवचो नु प्रवाच्यम्। अन्यत् पूर्ववत्॥10॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यादयो घटपटादिपदार्थेषु संभुज्य वृष्ट्यादिद्वारा महत्सुखं सम्पादयन्ति सर्वेषु पृथिव्यादिपदार्थेष्वाकर्षणादिना सहिता वर्त्तन्ते च। तथैव सभाद्यध्यक्षादयो महद्गुणविशिष्टान् मनुष्यान् सम्पाद्यैतैः सह न्यायप्रीतिभ्यां सह वर्त्तित्वा सुखिनः सततं कुर्युः॥10॥ पदार्थः—हे सभाध्यक्ष आदि सज्जनो! तुमको जैसे (अमी) प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष (उक्षणः) जल सींचने वा सुख सींचनेहारे बड़े (पञ्च) अग्नि, पवन, बिजुली, मेघ और सूर्य्यमण्डल का प्रकाश (महः) अपार (दिवः) दिव्यगुण और पदार्थयुक्त आकाश के (मध्ये) बीच (तस्थुः) स्थिर हैं और जैसे (सध्रीचीनाः) एक साथ रहनेवाले गुण (देवत्रा) विद्वानों में (नि, वावृतुः) निरन्तर वर्त्तमान हैं, वैसे (ये) जो निरन्तर वर्त्तमान हैं, उन प्रजा तथा राजाओं के संगियों के प्रति विद्या और न्याय प्रकाश की बात (नु) शीघ्र (प्रवाच्यम्) कहनी चाहिये। और शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के समान जानना चाहिये॥10॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य आदि घटपटादि पदार्थों में संयुक्त होकर वृष्टि आदि के द्वारा अत्यन्त सुख को उत्पन्न करते हैं और समस्त पृथिवी आदि पदार्थों में आकर्षणशक्ति से वर्त्तमान हैं वैसे ही सभाध्यक्ष आदि महात्मा जनों के गुणों वा बड़े-बड़े उत्तम गुणों से युक्त मनुष्यों को सिद्ध करके इनसे न्याय और प्रीति के साथ वर्त्तकर निरन्तर सुखी करें॥10॥ पुनरेतैः सह प्रजापुरुषाः कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते॥ फिर इन राजपुरुषों के साथ प्रजापुरुष कैसे वर्त्ताव रक्खें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ सु॒प॒र्णा ए॒त आ॑सते॒ मध्य॑ आ॒रोध॑ने दि॒वः। ते से॑धन्ति प॒थो वृकं॒ तर॑न्तं य॒ह्वती॑र॒पो वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी॥11॥ सु॒ऽप॒र्णाः। ए॒ते। आ॒स॒ते॒। मध्ये॑। आ॒ऽरोध॑ने। दि॒वः। ते॒। से॒ध॒न्ति॒। प॒थः। वृक॑म्। तर॑न्तम्। य॒ह्वतीः॑। अ॒पः। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑॥11॥ पदार्थः—(सुपर्णाः) सूर्यस्य किरणाः (एते) (आसते) (मध्ये) (आरोधने) (दिवः) सूर्यप्रकाशयुक्तस्याकाशस्य (ते) (सेधन्ति) निवर्त्तयन्तु (पथः) मार्गान् (वृकम्) विद्युतम् (तरन्तम्) संप्लावकम् (यह्वतीः) यह्वान् महत इवाचरन्ती। यह्व इति महन्नामसु पठितम्। (निघं॰3.3) यह्वशब्दादाचारे क्विप्। (अपः) जलानि प्राणवती प्रजा वा। अन्यत् पूर्ववत्॥11॥ अन्वयः—हे प्रजास्था मनुष्या! यथैते सुपर्णा दिवो मध्य आरोधने आसते। यथा च ते तरन्तं वृकं प्रक्षिप्य यह्वतीरपः पथश्च सेधन्ति, तथैव यूयं राजकर्माणि सेवध्वम्। अन्यत्पूर्ववत्॥11॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेश्वरनियमे सूर्यकिरणादयः पदार्था यथावद्वर्त्तन्ते तथैव प्रजास्थैर्युष्माभिरपि राजनीतिनियमे च वर्त्तितव्यम्। यथैते सभाद्यध्यक्षादयो दुष्टान् मनुष्यान् निवर्त्य प्रजा रक्षन्ति तथैव युष्माभिरप्येते सदैवेर्ष्यादीन्निवर्त्य रक्ष्याः॥11॥ पदार्थः—हे प्रजाजनो! आप लोग जैसे (एते) ये (सुपर्णाः) सूर्य्य की किरणें (दिवः) सूर्य्य के प्रकाश से युक्त आकाश के (मध्ये) बीच (आरोधने) रुकावट में (आसते) स्थिर हैं और जैसे (ते) वे (तरन्तम्) पार कर देनेवाली (वृकम्) बिजुली को गिरा के (यह्वतीः) बड़ों के वर्त्ताव रखते हुए (अपः) जलों और (पथः) मार्गों को (सेधन्ति) सिद्ध करते हैं, वैसे ही आप लोग राज कामों को सिद्ध करो। और शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के तुल्य जानना चाहिये॥11॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ईश्वर के नियमों में सूर्य की किरणें आदि पदार्थ यथावत् वर्त्तमान हैं, वैसे ही तुम प्रजा-पुरुषों को भी राजनीति के नियमों में वर्त्तना चाहिये। जैसे सभाध्यक्ष आदि जन दुष्ट मनुष्यों की निवृत्ति करके प्रजाजनों की रक्षा करते हैं, वैसे तुम लोगों को भी ये ईर्ष्या, अभिमान आदि दोषों को निवृत्त करके रक्षा करने योग्य हैं॥11॥ पुनरेतान् प्रति विद्वांसः किं किमुपदिशेयुरित्युपदिश्यते॥ फिर विद्वान् जन इनके प्रति क्या-क्या उपदेश करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ नव्यं॒ तदु॒क्थ्यं॑ हि॒तं देवा॑सः सुप्रवाच॒नम्। ऋ॒तम॑र्षन्ति॒ सिन्ध॑वः स॒त्यं ता॑तान॒ सूर्यो॑ वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी॥12॥ नव्य॑म्। तत्। उ॒क्थ्य॑म्। हि॒तम्। देवा॑सः। सु॒ऽप्र॒वा॒च॒नम्। ऋ॒तम्। अ॒र्ष॒न्ति॒। सिन्ध॑वः। स॒त्यम्। त॒ता॒न॒। सूर्यः॑। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑॥12॥ पदार्थः—(नव्यम्) उत्तमेषु नवेषु नूतनेषु व्यवहारेषु भवम् (तत्) (उक्थ्यम्) उक्थेषु प्रशंसनीयेषु भवम् (हितम्) सर्वाविरुद्धम् (देवासः) विद्वांसः (सुप्रवाचनम्) सुष्ठ्वध्यापनमुपदेशनं यथा तथा (ऋतम्) वेदसृष्टिक्रमप्रत्यक्षादिप्रमाणविद्वदाचरणानुभवस्वात्मपवित्रतानामनुकूलम् (अर्षन्ति) प्रापयन्तु। लेट् प्रयोगोऽयम्। (सिन्धवः) यथा समुद्राः (सत्यम्) जलम्। सत्यमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰1.12) (ततान) विस्तारयति। तुजादित्वाद्दीर्घः। (सूर्य्यः) सविता। अन्यत् पूर्ववत्॥12॥ अन्वयः—हे देवासो! भवन्तो यथा सिन्धवः सत्यमर्षन्ति सूर्यश्च ततान तथा यद्दतं नव्यमुक्थ्यं हितं तत् सुप्रवाचनमर्षन्तु। अन्यत् पूर्ववत्॥12॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सागरेभ्यो जलमुत्थितमूर्ध्वं गत्वा सूर्यातपेन वितत्य प्रवर्ष्य च सर्वेभ्यः प्रजाजनेभ्यः सुखं प्रयच्छति तथा विद्वज्जनैर्नित्यनवीनविचारेण गूढा विद्या ज्ञात्वा प्रकाश्य सकलहितं सम्पाद्य सत्यधर्मं विस्तार्य प्रजाः सतत सुखयितव्याः॥12॥ पदार्थः—हे (देवासः) विद्वानो! आप जैसे (सिन्धवः) समुद्र (सत्यम्) जल की (अर्षन्ति) प्राप्ति करावें और (सूर्य्यः) सूर्य्यमण्डल (ततान) उसका विस्तार कराता अर्थात् वर्षा कराता है, वैसे जो (ऋतम्) वेद, सृष्टिक्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाण, विद्वानों के आचरण, अनुभव अर्थात् आप ही आप कोई बात मन से उत्पन्न होना और आत्मा की शुद्धता के अनुकूल (नव्यम्) उत्तम नवीन-नवीन व्यवहारों और (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय वचनों में होनेवाला (हितम्) सबका प्रेमयुक्त पदार्थ (तत्) उसको (सुप्रवाचनम्) अच्छी प्रकार पढ़ाना, उपदेश करना जैसे बने वैसे प्राप्त कीजिये। शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के समान जानना चाहिये॥12॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे समुद्रों से उड़कर जल ऊपर को चढ़ा हुआ, सूर्य्य के ताप से फैल कर, बरस के, सब प्रजाजनों को सुख देता है, वैसे विद्वान् जनों को नित्य नवीन-नवीन विचार से गूढ़ विद्याओं को जान और प्रकाशित कर सबके हित का सम्पादन और सत्य धर्म्म के विचार से प्रजा को निरन्तर सुख देना चाहिये॥12॥ पुनर्विद्वान् प्रजासु किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर विद्वान् प्रजाजनों में क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ अग्ने॒ तव॒ त्यदु॒क्थ्यं॑ दे॒वेष्व॒स्त्याप्य॑म्। स नः॑ स॒त्तो म॑नु॒ष्वदा दे॒वान् य॑क्षि वि॒दुष्ट॑रो वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी॥13॥ अग्ने॑। तव॑। त्यत्। उ॒क्थ्य॑म्। दे॒वेषु॑। अ॒स्ति॒। आप्य॑म्। सः। नः॒। स॒त्तः। म॒नु॒ष्वत्। आ। दे॒वान्। य॒क्षि॒। वि॒दुःऽत॑रः। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑॥13॥ पदार्थः—(अग्ने) सकलविद्याविज्ञातः (तव) (त्यत्) तत् (उक्थ्यम्) प्रकृष्टं विद्यावचः (देवेषु) विद्वत्सु (अस्ति) वर्त्तते (आप्यम्) आप्तुं योग्यम्। अत्राप्लृधातोर्बाहुलकादौणादिको यन् प्रत्ययः। (सः) (नः) अस्मान् (सत्तः) अविद्यादिदोषान् हिंसित्वा विज्ञानप्रदः। अत्र बाहुलकाद् सद्लृधातोरौणादिकः क्तः प्रत्ययः। (मनुष्वत्) मनुषु मनुष्येष्विव (आ) (देवान्) विदुषः (यक्षि) सङ्गमयेत् (विदुष्टरः) अतिशयेन विद्वान्। अन्यत् पूर्ववत्॥13॥ अन्वयः—हे अग्ने विद्वन्! यस्य तव त्यद्यदाप्यं मनुष्वदुक्थ्यं देवेष्वस्ति स सत्तो विदुष्टरस्त्वं नोऽस्मान् देवान् सम्पादयन्नायक्षि। अन्यत् पूर्ववत्॥13॥ भावार्थः—यः सर्वा विद्या अध्याप्य विद्वत्सम्पादने कुशलोऽस्ति तस्मात् सकलविद्याधर्मोपदेशान् सर्वे मनुष्या गृह्णीयुः, नेतरस्मात्॥13॥ पदार्थः—हे (अग्ने) समस्त विद्याओं को जाने हुए विद्वान् जन! (तव) आपका (त्यत्) वह जो (आप्यम्) पाने योग्य (मनुष्वत्) मनुष्यों में जैसा हो वैसा (उक्थ्यम्) अति उत्तम विद्यावचन (देवेषु) विद्वानों में (अस्ति) है। (सः) वह (सत्तः) अविद्या आदि दोषों को नाश करनेवाले (विदुष्टरः) अति विद्या पढ़े हुए आप (नः) हम लोगों को (देवान्) विद्वान् करते हुए उनकी (आ यक्षि) संगति को पहुंचाइये अर्थात् विद्वानों की पदवी को पहुंचाइये। और मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के समान है॥13॥ भावार्थः—जो विद्वान् समस्त विद्या को पढ़ाकर विद्वान्पन के उत्पन्न कराने में कुशल है, उससे समस्त विद्या और धर्म के उपदेशों को सब मनुष्य ग्रहण करें, और से नहीं॥3॥ पुनः स तत्र किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर वह विद्वान् वहाँ क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ स॒त्तो होता॑ मनु॒ष्वदा दे॒वाँ अच्छा॑ वि॒दुष्ट॑रः। अ॒ग्निर्ह॒व्या सु॑षूदति दे॒वो दे॒वेषु॒ मेधि॑रो वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी॥14॥ स॒त्तः। होता॑। म॒नु॒ष्वत्। आ। दे॒वान्। अच्छ॑। वि॒दुःऽत॑रः। अ॒ग्निः। ह॒व्या। सु॒सू॒द॒ति॒। दे॒वः। दे॒वेषु॑। मेधि॑रः। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑॥14॥ पदार्थः—(सत्तः) विज्ञानवान् दुःखहन्ता (होता) ग्रहीता (मनुष्वत्) यथोत्तमा मनुष्या श्रेष्ठानि कर्माण्यनुष्ठाय पापानि त्यक्त्वा सुखिनो भवन्ति तथा (आ) (देवान्) विदुषो दिव्यक्रियायोगान् वा (अच्छ) सम्यग्रीत्या। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (विदुष्टरः) अतिशयेन वेत्ता (अग्निः) सद्विद्याया वेत्ता विज्ञापयिता वा (हव्या) दातुं ग्रहीतुं योग्यानि (सुषूदति) ददाति (देवः) प्रशस्तो विद्वान्मनुष्यः (देवेषु) विद्वत्सु (मेधिरः) मेधावी। अत्र मेधारथाभ्यामीरन्निरचौ। (अष्टा॰वा॰5.2।109) इति वार्त्तिकेन मत्वर्थीय ईरन् प्रत्ययः। (वित्तं, मे॰) इति पूर्ववत्॥14॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यः सत्तो देवान् होता विदुष्टरोऽग्निर्मेधिरो देवेषु देवो मनुष्वद्धव्याच्छ सुषूदति तस्मात् सर्वैर्विद्याशिक्षे ग्राह्ये। अन्यत्पूर्ववत्॥14॥ भावार्थः—ईदृशो भाग्यहीनः को मनुष्यः स्याद्यो विदुषां सकाशाद् विद्याशिक्षे अगृहीत्वैषां विरोधी भवेत्॥14॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जो (सत्तः) विज्ञानवान् दुःख दुःख हरनेवाला (देवान्) विद्वान् वा दिव्य-दिव्य क्रियायोगों का (होता) ग्रहण करनेवाला (विदुष्टरः) अत्यन्त ज्ञानी (अग्निः) श्रेष्ठ विद्या का जानने वा समझानेवाला (मेधिरः) बुद्धिमान् (देवेषु) विद्वानों में (देवः) प्रशंसनीय विद्वान् मनुष्य (मनुष्वत्) जैसे उत्तम मनुष्य श्रेष्ठ कर्मों का अनुष्ठान कर पापों को छोड़ सुखी होते हैं, वैसे (हव्या) देने-लेने योग्य पदार्थों को (अच्छ आ, सुषूदति) अच्छी रीति से अत्यन्त देता है, उस उत्तम विद्वान् से विद्या और शिक्षा को ग्रहण करनी चाहिये॥14॥ भावार्थः—ऐसा भाग्यहीन कौन जन होवे जो विद्वानों के समीप से विद्या और शिक्षा न लेके और इनका विरोधी हो॥14॥ पुनरेतं कीदृशं प्राप्नुयादित्युपदिश्यते॥ फिर कैसे इसको पावे, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ ब्रह्मा॑ कृणोति॒ वरु॑णो गातु॒विदं॒ तमी॑महे। व्यू॑र्णोति हृ॒दा म॒तिं नव्यो॑ जायतामृ॒तं वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी॥15॥22॥ ब्रह्म॑। कृ॒णो॒ति॒। वरु॑णः। गा॒तु॒ऽविद॑म्। तम्। ई॒म॒हे॒। वि। ऊ॒र्णो॒ति॒। हृ॒दा। म॒तिम्। नव्यः॑। जा॒य॒ता॒म्। ऋ॒तम्। वि॒त्त॒म्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑॥15॥ पदार्थः—(ब्रह्म) परमेश्वरः। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (कृणोति) करोति (वरुणः) सर्वोत्कृष्टः (गातुविदम्) वेदवाग्वेत्तारम् (तम्) (ईमहे) याचामहे (वि) (ऊर्णोति) निष्पादयति (हृदा) हृदयेन। अत्र पद्दन्नो॰। (अष्टा॰6.1.63) इति हृदयस्य हृदादेशः। (मतिम्) विज्ञानम् (नव्यः) नवीनो विद्वान् (जायताम्) (ऋतम्) सत्यरूपम् (वित्तं, मे, अस्य॰) इति पूर्ववत्॥15॥ अन्वयः—वयं यदृतं ब्रह्म वरुणो गातुविदं कृणोति तमीमहे तत्कृपया यो नव्यो विद्वान् हृदा मतिं व्यूर्णोति सोऽस्माकं मध्ये जायताम्। अन्यत् पूर्ववत्॥15॥ भावार्थः—नहि कस्यचिन्मनुष्यस्योपरि प्राक्पुण्यसंचयविशुद्धक्रियमाणाभ्यां कर्मभ्यां विना परमेश्वरानुग्रहो जायते। नह्येतेन विना कश्चित्पूर्णां विद्यां प्राप्तुं शक्नोति तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैरस्माकं मध्ये प्राप्तपूर्णविद्याः शुभगुणकर्मस्वभावयुक्ता मनुष्याः सदा भूयासुरिति परमात्मा प्रार्थनीयः। एवं नित्यं प्रार्थितः सन्नयं सर्वव्यापकतया तेषामात्मानं सम्प्रकाशयतीति निश्चयः॥15॥ पदार्थः—हम लोग जो (ऋतम्) सत्यस्वरूप (ब्रह्म) परमेश्वर वा (वरुणः) सबसे उत्तम विद्वान् (गातुविदम्) वेदवाणी के जाननेवाले को (कृणोति) करता है (तम्) उसको (ईमहे) याचते अर्थात् उससे मांगते हैं कि उसकी कृपा से जो (नव्यः) नवीन विद्वान् (हृदा) हृदय से (मतिम्) विशेष ज्ञान को (व्यूर्णोति) उत्पन्न करता है अर्थात् उत्तम-उत्तम रीतियों को विचारता है, वह हम लोगों के बीच (जायताम्) उत्पन्न हो। शेष अर्थ प्रथम मन्त्र के तुल्य जानना चाहिये॥15॥ भावार्थः—किसी मनुष्य पर पिछले पुण्य इकट्ठे होने और विशेष शुद्ध क्रियमाण कर्म करने के विना परमेश्वर की दया नहीं होती और उक्त व्यवहार के विना कोई पूरी विद्या नहीं पा सकता, इससे सब मनुष्यों को परमात्मा की ऐसी प्रार्थना करनी चाहिये कि हम लोगों में परिपूर्ण विद्यावान् अच्छे-अच्छे गुण, कर्म, स्वभावयुक्त मनुष्य सदा हों। ऐसी प्रार्थना को नित्य प्राप्त हुआ परमात्मा सर्वव्यापकता से उनके आत्मा का प्रकाश करता है, यह निश्चय है॥15॥ अथायं मार्गः कीदृश इत्युपदिश्यते॥ अब यह मार्ग कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ अ॒सौ यः पन्था॑ आदि॒त्यो दि॒वि प्र॒वाच्यं॑ कृ॒तः। न स दे॑वा अति॒क्रमे॒ तं म॑र्तासो॒ न प॑श्यथ वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी॥16॥ अ॒सौ। यः। पन्थाः॑। आ॒दि॒त्यः। दि॒वि। प्र॒ऽवाच्य॑म्। कृ॒तः। न। सः। दे॒वाः। अ॒ति॒ऽक्रमे॑। तम्। म॒र्ता॒सः॒। न। प॒श्य॒थ॒। वि॒त्त॒म्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑॥16॥ पदार्थः—(असौ) (यः) (पन्थाः) वेदप्रतिपादितो मार्गः (आदित्यः) विनाशरहितः सूर्य्यवत्प्रकाशकः (दिवि) सर्वविद्याप्रकाशे (प्रवाच्यम्) प्रकृष्टतया वक्तुं योग्यं यथास्यात्तथा (कृतः) नितरां स्थापितः (न) निषेधे (सः) (देवाः) विद्वांसः (अतिक्रमे) अतिक्रमितुमुल्लङ्घितुम् (तम्) मार्गम् (मर्त्तासः) मरणधर्माणः (न) निषेधे (पश्यथ) (वित्तं, मे, अस्य) इति पूर्ववत्॥16॥ अन्वयः—हे देवा! असावादित्यो यः पन्था दिवि प्रवाच्यं कृतः स युष्माभिर्नातिक्रमेऽतिक्रमितुं न उल्लङ्घितुं न योग्यः। हे मर्त्तासस्तं पूर्वोक्तं यूयं न पश्यथ। अन्यत् पूर्ववत्॥16॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यो वेदोक्तो मार्गः स एव सत्य इति विज्ञाय सर्वाः सत्यविद्याः प्राप्य सदानन्दितव्यम्। सोऽयं विद्वद्भिर्नैव कदाचित् खण्डनीयो विद्यया विनाऽयं विज्ञातोऽपि न भवति॥16॥ पदार्थः—हे (देवाः) विद्वान् लोगो! (असौ) यह (आदित्यः) अविनाशी सूर्य्य के तुल्य प्रकाश करनेवाला (यः) जो (पन्थाः)वेद से प्रतिपादित मार्ग (दिवि) समस्त विद्या के प्रकाश में (प्रवाच्यम्) अच्छे प्रकार से कहने योग्य जैसे हो वैसे (कृतः) ईश्वर ने स्थापित किया (सः) वह तुम लोगों को (अतिक्रमे) उल्लङ्घन करने योग्य (न) नहीं है। हे (मर्त्तासः) केवल मरने-जीने वाले विचाररहित मनुष्यो! (तम्) उस पूर्वोक्त मार्ग को तुम (न) नहीं (पश्यथ) देखते हो। शेष मन्त्रार्थ पूर्व के तुल्य जानना चाहिये॥16॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि जो वेदोक्त मार्ग है वही सत्य है, ऐसा जान और समस्त सत्यविद्याओं को प्राप्त होकर सदा आनन्दित हों, सो यह वेदोक्त मार्ग विद्वानों को कभी खण्डन करने योग्य नहीं और यह मार्ग विद्या के विना विशेष जाना भी नहीं जाता॥16॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ त्रि॒तःकूपेऽव॑हितो दे॒वान् ह॑वत ऊ॒तये॑। तच्छु॑श्राव॒ बृह॒स्पतिः॑ कृ॒ण्वन्नं॑हूर॒णादु॒रु वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी॥17॥ त्रि॒तः। कूपे॑। अव॑ऽहितः। दे॒वान्। ह॒व॒ते॒। ऊ॒तये॑। तत्। शु॒श्रा॒व॒। बृह॒स्पतिः॑। कृ॒ण्वन्। अं॒हू॒र॒णात्। उ॒रु। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑॥17॥ पदार्थः—(त्रितः) यस्त्रीन् विषयान् विद्याशिक्षाब्रह्मचर्याणि तनोति सः। अत्र त्र्युपपदात्तनोतेरौणादिको डः प्रत्ययः। (कूपे) कूपाकारे हृदये (अवहितः) अवस्थितः (देवान्) दिव्यगुणान्वितान् विदुषो दिव्यान् गुणान् वा (हवते) गृह्णाति। अत्र बहुलं छन्दसीति शपः स्थाने श्लोरभावः। (ऊतये) रक्षणाद्याय (तत्) विद्याध्यापनम् (शुश्राव) श्रुतवान् (बृहस्पतिः) बृहत्या वाचः पालकः (कृण्वन्) कुर्वन् (अंहूरणात्) अंहूरं पापं विद्यतेऽस्मिन् व्यवहारे ततः (उरु) बहु (वित्तं, मे, अस्य॰) इति पूर्ववत्॥17॥ अन्वयः—य उरु तच्छ्रवणं शुश्राव स विज्ञानं कृण्वन् त्रितः कूपेऽवहितो बृहस्पतिरंहूरणात् पृथग्भूत्वोतये देवान् हवते। अन्यत् पूर्ववत्॥17॥ भावार्थः—यो मनुष्यो देहधारी जीवास्स्वबुद्ध्या प्रयत्नेन विदुषां सकाशात् सर्वा विद्याः श्रुत्वा मत्वा निदिध्यास्य साक्षात्कृत्वा दुष्टगुणस्वभावपापानि त्यक्त्वा विद्वान् जायते, स आत्मशरीररक्षणादिकं प्राप्य बहुसुखं प्राप्नोति॥17॥ पदार्थः—जो (उरु) बहुत (तत्) उस विद्या के पाठ को (शुश्राव) सुनता है, वह विज्ञान को (कृण्वन्) प्रकट करता हुआ (त्रितः) विद्या, शिक्षा और ब्रह्मचर्य्य इन तीन विषयों का विस्तार करने अर्थात् इनको बढ़ाने (कूपे) कूआ के आकार वाले अपने हृदय में (अविहतः) स्थिरता रखने और (बृहस्पतिः) बड़ी वेदवाणी का पालनेहारा (अंहूरणान्) जिस व्यवहार में अधर्म है, उससे अलग होकर (ऊतये) रक्षा, आनन्द, कान्ति, प्रेम, तृप्ति आदि अनेकों सुखों के लिये (देवान्) दिव्य गुणयुक्त विद्वानों वा दिव्य गुणों को (हवते) ग्रहण करता है। और शेष मन्त्रार्थ प्रथम के तुल्य जानना चाहिये॥17॥ भावार्थः—जो मनुष्य वा देहधारी जीव अर्थात् स्त्री आदि भी अपनी बुद्धि से प्रयत्न के साथ पण्डितों की उत्तेजना से समस्त विद्याओं को सुन, मान, विचार और प्रकट कर खोटे गुण, स्वभाव वा खोटे कामों को छोड़ कर विद्वान् होता है, वह आत्मा और शरीर की रक्षा आदि को पाकर बहुत सुख पाता है॥17॥ पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥ फिर वह कैसा है, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥ अ॒रु॒णो मा॑ स॒कृद् वृक॑ः प॒था यन्तं॑ द॒दर्श॒ हि। उज्जि॑हीते नि॒चाय्या॒ तष्टे॑व पृष्ट्याम॒यी वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी॥18॥ अ॒रु॒णः। मा॒। स॒कृत्। वृक॑ः। प॒था। यन्त॑म्। द॒दर्श॑। हि। उत्। जि॒ही॒ते॒। नि॒ऽचाय्य॑। तष्टा॑ऽइव। पृ॒ष्टि॒ऽआ॒म॒यी। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑॥18॥ पदार्थः—(अरुणः) य ऋच्छति सर्वा विद्या स आरोचको वा। अत्र ऋधातोरौणादिक उनच् प्रत्ययः। (मा, सकृत्) मामेकवारम्। अथवैकपद्यम्, मासानां चार्द्धमासादीनां च कर्त्ता। अत्र मासकृदित्येकं पदं निरुक्तकारप्रामाण्यादनुमीयते। अथ शाकल्यस्तु (मा, सकृत्) इति पदद्वयमभिजानीते। (वृकः) यथा चन्द्रमाः शान्तगुणस्तथा (पथा) उत्तममार्गेण (यन्तम्) गच्छन्तं प्राप्नुवन्तं वा। इण् धातोः शतृ प्रत्ययः। (ददर्श) पश्यति (हि) खलु (उत्) उत्कृष्टे (जिहीते) विज्ञापयति (निचाय्य) समाधाय। अत्र निशामनार्थस्य चायृ धातोः प्रयोगः। अन्येषामपीति दीर्घश्च। (तष्टेव) यथा तक्षकः शिल्पी शिल्पविद्याव्यवहारान् विज्ञापयति तथा (पृष्ट्यामयी) पृष्टौ पृष्ठ आमयः क्लेशरूपो रोगो विद्यते यस्य सः। अन्यत्पूर्ववत्॥18॥ अत्र निरुक्तम्। वृकश्चन्द्रमा भवति। विवृतज्योतिष्को वा। विकृतज्योतिष्को वा। विक्रान्तज्योतिष्को वा। अरुण आरोचनः। मासकृन्मासानां चार्धमासानां च कर्ता भवति। चन्द्रमा वृकः। पथा यन्तं ददर्श नक्षत्रगणम्। अभिजिहीते निचाय्य येन येन योक्ष्यमाणो भवति चन्द्रमाः। तक्ष्णुवन्निव पृष्ठरोगी। जानीतं मेऽस्य द्यावापृथिव्याविति। (निरु॰5.20-21)॥18॥ अन्वयः—योऽरुणो वृको मासकृत् पथा यन्तं ददर्श स निचाय्य पृष्ट्यामयी तष्टे वोज्जिहीते हि। अन्यत्पूर्ववत्॥18॥ भावार्थः—अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यो विद्वान् चन्द्रवच्छान्तस्वभावं सूर्य्यवत् विद्याप्रकाशकरणं स्वीकृत्य विश्वस्मिन् सर्वा विद्याः प्रसारयति स एवाप्तोऽस्ति॥18॥ पदार्थः—जो (अरुणः) समस्त विद्याओं को प्राप्त होता वा प्रकाशित करता (वृकः) शान्ति आदि गुणयुक्त चन्द्रमा के समान विद्वान् (मा, सकृत्) मुझको एक बार (पथा, यन्तम्) अच्छे मार्ग में चलते हुए को (ददर्श) देखता वा उक्त गुणयुक्त महीना आदि काल विभागों को करनेवाले चन्द्रमा के तुल्य विद्वान् अच्छे मार्ग से चलते हुए को देखता है, वह (निचाय्य) यथायोग्य समाधान देकर (पृष्ट्यामयी) पीठ में क्लेशरूप रोगवान् (तष्टेव) शिल्पी विद्वान् जैसे शिल्प व्यवहारों को समझाता वैसे (उज्जिहीते) उत्तमता से समझाता (हि) ही है। शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के तुल्य जानना चाहिये॥18॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो विद्वान् चन्द्रमा के तुल्य शान्तस्वभाव और सूर्य्य के तुल्य विद्या के प्रकाश करने को स्वीकार करके संसार में समस्त विद्याओं को फैलाता है, वही आप्त अर्थात् अति उत्तम विद्वान् है॥18॥ पुनस्तेन युक्ता वयं कीदृशा भवेमेत्युपदिश्यते॥ फिर उससे युक्त हम लोग कैसे होवें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ ए॒नाङ्गू॒षेण॑ व॒यमिन्द्र॑वन्तो॒ऽभि ष्या॑म वृ॒जने॒ सर्व॑वीराः। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौः॥19॥23॥15॥ ए॒ना। आ॒ङ्गू॒षेण॑। व॒यम्। इन्द्र॑ऽवन्तः। अ॒भि। स्या॒म॒। वृ॒जने॑। सर्व॑ऽवीराः। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः॥19॥ पदार्थः—(एना) एनेन (आङ्गूषेण) परमविदुषा (वयम्) (इन्द्रवन्तः) परमैश्वर्य्ययुक्त इन्द्रस्तद्वन्तः (अभि) आभिमुख्ये (स्याम) भवेम (वृजने) विद्याधर्मयुक्ते बले। वृजनमिति बलनामसु पठितम्। (निघं॰2.9) (सर्ववीराः) सर्वे च ते वीराश्च। अन्यत् पूर्ववत्॥19॥ अन्वयः—येनैनाङ्गूषेण विदुषा सर्ववीरा इन्द्रवन्तो वयं वृजनेऽभिष्याम नस्तन्मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्मामहन्ताम्॥19॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यस्याध्यापनेन विद्यासुशिक्षे वर्धेतां तस्य सङ्गेन सर्वा विद्याः सर्वथा निश्चेतव्याः॥19॥ अत्र विश्वेषां देवानां गुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम्॥ इति पञ्चोत्तरशततमं 105 सूक्तं पञ्चदशोऽनुवाकस्त्रयोविंशो 23 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—जिस (एना) इस (आङ्गूषेण) परम विद्वान् से (सर्ववीराः) समस्त वीरजन (इन्द्रवन्तः) जिनका परमैश्वर्य्ययुक्त सभापति है व (वयम्) हम लोग (वृजने) विद्याधर्मयुक्त बल में (अभि, स्याम) अभिमुख हों, अर्थात् सब प्रकार से उसमें प्रवृत्त हों (नः) हम लोगों के (तत्) उस विज्ञान को (मित्रः) प्राण (वरुणः) उदान (अदितिः) अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) सूर्य्य प्रकाश वा विद्या का प्रकाश ये सब (मामहन्ताम्) बढ़ावें॥19॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि जिसके पढ़ाने से विद्या और अच्छी शिक्षा बढ़े, उसके सङ्ग से समस्त विद्याओं का सर्वथा निश्चय करें॥19॥ इस सूक्त में समस्त विद्वानों के गुण और काम के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये॥ यह एकसौ पांचवाँ 105 सूक्त पन्द्रहवां 15 अनुवाक और तेईसवाँ 23 वर्ग पूरा हुआ॥


अथ षडुत्तरस्य शततमस्य सप्तर्च्चस्य सूक्तस्याङ्गिरसः कुत्स ऋषिः। विश्वे देवा देवताः। 1-6 जगतीच्छन्दः। निषादः स्वरः। 7 निचृत् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ अथ विश्वस्थानां देवानां गुणकर्माण्युपदिश्यन्ते॥ अब एकसौ छः वें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में संसार में ठहरनेवाले विद्वानों के गुण और कामों को वर्णन किया है॥ इन्द्रं॑ मि॒त्रं वरु॑णम॒ग्निमू॒तये॒ मारु॑तं॒ शर्धो॒ अदि॑तिं हवामहे। रथं॒ न दु॒र्गाद्व॑सवः सुदानवो॒ विश्व॑स्मान्नो॒ अंह॑सो॒ निष्पि॑पर्तन॥1॥ इन्द्र॑म्। मि॒त्रम्। वरु॑णम्। अ॒ग्निम्। ऊ॒तये॑। मारु॑तम्। शर्धः॑। अदि॑तिम्। ह॒वा॒म॒हे॒। रथ॑म्। न। दुः॒ऽगात्। व॒स॒वः॒। सु॒ऽदा॒न॒वः॒। विश्व॑स्मात्। नः॒। अंह॑सः। निः। पि॒प॒तर्॒न॒॥1॥ पदार्थः—(इन्द्रम्) विद्युतं परमैश्वर्यवन्तं सभाध्यक्षं वा (मित्रम्) सर्वप्राणं सर्वसुहृदं वा (वरुणम्) क्रियाहेतुमुदानं वरगुणयुक्तं विद्वांसं वा (अग्निम्) सूर्यादिरूपं ज्ञानवन्तं वा (ऊतये) रक्षणाद्यर्थाय (मारुतम्) मरुतां वायूनां मनुष्याणामिदं वा (शर्द्धः) बलम् (अदितिम्) मातरं पितरं पुत्रं जातं सकलं जगत् तत्कारणं जनित्वं वा (हवामहे) कार्यसिद्ध्यर्थं गृह्णीमः स्वीकुर्मः (रथम्) विमानादिकं यानम् (न) इव (दुर्गात्) कठिनाद् भूजलान्तरिक्षस्थमार्गात् (वसवः) विद्यादिशुभगुणेषु ये वसन्ति तत्सम्बुद्धौ (सुदानवः) शोभना दानवो दानानि येषां तत्सम्बुद्धौ (विश्वस्मात्) अखिलात् (नः) अस्मान् (अंहसः) पापाचरणात् तत्फलाद् दुःखाद्वा (निः) नितराम् (पिपर्तन) पालयन्तु॥1॥ अन्वयः—हे सुदानवो वसवो विद्वांसो! यूयं रथं न दुर्गान्नोऽस्मान् विश्वस्मादंहसो निष्पिपर्तन वयमूतय इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमदितिं मारुतं शर्द्धश्च हवामहे॥1॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा मनुष्याः सम्यङ् निष्पादितेन विमानादियानेनातिकठिनेषु मार्गेष्वपि सुखेन गमनागमने कृत्वा कार्याणि संसाध्य सर्वस्माद् दारिद्र्यादिदुःखान्मुक्त्वा जीवन्ति तथैवेश्वरसृष्टिस्थान् पृथिव्यादि- पदार्थान् विदुषो वा विदित्वोपकृत्य संसेव्यातुलं सुखं प्राप्तुं शक्नुवन्ति॥1॥ पदार्थः—(सुदानवः) जिनके उत्तम-उत्तम दान आदि काम वा (वसवः) जो विद्यादि शुभ गुणों में वस रहे हों वे हे विद्वानो! तुम लोग (रथम्) विमान आदि यान को (न) जैसे (दुर्गात्) भूमि, जल वा अन्तरिक्ष के कठिन मार्ग से बचा लाते हो वैसे (नः) हम लोगों को (विश्वस्मात्) समस्त (अंहसः) पाप के आचरण से (निष्पिपर्तन) बचाओ, हम लोग (ऊतये) रक्षा आदि प्रयोजन के लिये (इन्द्रम्) बिजुली वा परम ऐश्वर्य्यवाले सभाध्यक्ष (मित्रम्) सब के प्राणरूपीवन वा सर्वमित्र (वरुणम्) काम करानेवाले उदान वायु वा श्रेष्ठगुणयुक्त विद्वान् (अग्निम्) सूर्य्य आदि रूप अग्नि वा ज्ञानवान् जन (अदितिम्) माता, पिता, पुत्र उत्पन्न हुए समस्त जगत् के कारण वा जगत् की उत्पत्ति (मारुतम्) पवनों वा मनुष्यों के समूह और (शर्द्धः) बल को (हवामहे) अपने कार्य की सिद्धि के लिये स्वीकार करते हैं॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य अच्छी प्रकार सिद्ध किये हुए विमान आदि यान से अति कठिन मार्गों में भी सुख से जाना-आना करके कामों को सिद्ध कर समस्त दरिद्रता आदि दुःख से छूटते हैं, वैसे ही ईश्वर की सृष्टि के पृथिवी आदि पदार्थों वा विद्वानों को जान उपकार में लाकर उनका अच्छे प्रकार सेवन कर बहुत सुख को प्राप्त हो सकते हैं॥1॥ पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ त आ॑दित्या॒ आ ग॑ता स॒र्वता॑तये भू॒त दे॑वा वृत्र॒तूर्ये॑षु शं॒भुवः॑। रथं॒ न दु॒र्गाद्व॑सवः सुदानवो॒ विश्व॑स्मान्नो॒ अंह॑सो॒ निष्पि॑पर्तन॥2॥ ते। आ॒दि॒त्याः॒। आ। ग॒त॒। स॒र्वऽता॑तये। भू॒त। दे॒वाः॒। वृ॒त्र॒तूर्ये॑षु। श॒म्ऽभुवः॑। रथ॑म्। न। दुः॒ऽगात्। व॒स॒वः॒। सु॒ऽदा॒न॒वः॒। विश्व॑स्मात्। नः॒। अंह॑सः। निः। पि॒प॒तर्॒न॒॥2॥ पदार्थः—(ते) (आदित्याः) कारणरूपेण नित्याः सूर्यादयः पदार्थाः (आ) क्रियायोगे (गत) गच्छत। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (सर्वतातये) सर्वस्मै सुखाय (भूत) भवत। अत्र गत भूतेत्युभयत्र लोटि मध्यमबहुवचने बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (देवाः) दिव्यगुणवन्तस्तत्संबुद्धौ दिव्यगुणा वा (वृत्रतूर्येषु) वृत्राणां शत्रूणां मेघावयवानां वा तूर्येषु हिंसनकर्मसु संग्रामेषु (शंभुवः) ये शं सुखं भावयन्ति ते। (रथं, न, दुर्गात्) इति पूर्ववत्॥2॥ अन्वयः—हे देवा विद्वांसो! यथा ये आदित्या देवाः सूर्यादयः पदार्थास्ते वृत्रतूर्येषु शंभुवो भवन्ति, तथैव यूयमस्माकं सनीडमागतागत्य वृत्रतूर्येषु सर्वतातये शंभुवो भूत। अन्यत् पूर्ववत्॥2॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेश्वरेण सृष्टाः पृथिव्यादयः पदार्थाः सर्वेषां प्राणिनामुपकाराय वर्त्तन्ते, तथैव सर्वेषामुपकाराय विद्वद्भिर्नित्यं वर्त्तितव्यम्। यथा सुदृढस्य यानस्योपरि स्थित्वा देशान्तरं गत्वा व्यापारेण विजयेन वा धनप्रतिष्ठे प्राप्य दारिद्र्याप्रतिष्ठाभ्यां विमुच्य सुखिनो भवन्ति, तथैव विद्वांस उपदेशेन विद्यां प्रापय्य सर्वान् सुखिनः सम्पादयन्तु॥2॥ पदार्थः—हे (देवाः) दिव्यगुणवाले विद्वान् जनो! जैसे (आदित्याः) कारणरूप से नित्य दिव्यगुण वाले जो सूर्य्य आदि पदार्थ हैं (ते)वे (वृत्रतूर्य्येषु) मेघावयवों अर्थात् बादलों का हिंसन विनाश करना जिनमें होता है, उन संग्रामों में (शंभुवः) सुख की भावना करानेवाले होते हैं, वैसे ही आप लोग हमारे समीप को (आ, गत) आओ और आकर शत्रुओं का हिंसन जिनमें हो उन संग्रामों में (सर्वतातये) समस्त सुख के लिये (शंभुवः) सुख की भावना करानेवाले (भूत) होओ। शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के समान जानना चाहिये॥2॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ईश्वर के बनाये हुए पृथिवी आदि पदार्थ सब प्राणियों के उपकार के लिये हैं, वैसे ही सबके उपकार के लिये विद्वानों को नित्य अपना वर्त्ताव रखना चाहिये। जैसे अच्छे दृढ़ विमान आदि यान पर बैठ देश-देशान्तर को जा-आकर व्यापार वा विजय से धन और प्रतिष्ठा को प्राप्त हो, दरिद्रता और अयश से छूट कर सुखी होते हैं, वैसे ही विद्वान् जन अपने उपदेश से विद्या को प्राप्त कराकर सबको सुखी करें॥2॥ पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥ अव॑न्तु नः पि॒तरः॑ सुप्रवाच॒ना उ॒त दे॒वी दे॒वपु॑त्रे ऋता॒वृधा॑। रथं॒ न दु॒र्गाद्व॑सवः सुदानवो॒ विश्व॑स्मान्नो॒ अंह॑सो॒ निष्पि॑पर्तन॥3॥ अव॑न्तु। नः॒। पि॒तरः॑। सु॒ऽप्र॒वा॒च॒नाः। उ॒त। दे॒वी इति॑। दे॒वपु॑त्रे॒ इति॑ दे॒वऽपु॑त्रे। ऋ॒त॒ऽवृधा॑। रथ॑म्। न। दुः॒ऽगात्। व॒स॒वः॒। सु॒ऽदा॒न॒वः॒। विश्व॑स्मात्। नः॒। अंह॑सः। निः। पि॒प॒तर्॒न॒॥3॥ पदार्थः—(अवन्तु) रक्षणादिभिः पालयन्तु (नः) अस्मान् (पितरः) विज्ञानवन्तो मनुष्याः (सुप्रवाचनाः) सुष्ठु प्रवाचनमध्यापनमुपदेशनं च येषां ते (उत) अपि (देवी) दिव्यगुणयुक्ते द्यावापृथिव्यौ भूमिसूर्यप्रकाशौ (देवपुत्रे) देवा दिव्या विद्वांसो दिव्यरत्नादियुक्ताः पर्वतादयो वा पुत्रा पालयितारो ययोस्ते (ऋतावृधा) ये ऋतेन कारणेन वर्धेतां ते (रथं, न॰) इति पूर्ववत्॥3॥ अन्वयः—देवपुत्रे ऋतावृधा देवी यथा नोऽस्मान्नवतस्तथैव सुप्रवाचनाः पितरोऽस्मानुतावन्तु। अन्यत् पूर्ववत्॥3॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा दिव्यौषध्यादिभिः प्रकाशादिभिश्च भूमिसवितारौ सर्वान् सुखेन वर्धयतः तथैवाप्ता विद्वांसः सर्वान् मनुष्यान् सुशिक्षाध्यापनाभ्यां विद्यादिसद्गुणेषु वर्धयित्वा सुखिनः कुर्वन्ति। यथा चोत्तमस्य यानस्योपरि स्थित्वा दुःखेन गम्यानां मार्गाणां सुखेन पारं गत्वा समग्रात् क्लेशाद्विमुच्य सुखिनो भवन्ति, तथैव ते दुष्टगुणकर्मस्वभावात् पृथक्कृत्याऽस्मान् धर्माचरणे वर्धयन्तु॥3॥ पदार्थः—(देवपुत्रे) जिनके दिव्य गुण अर्थात् अच्छे-अच्छे विद्वान् जन वा अच्छे रत्नों से युक्त पर्वत आदि पदार्थ पालनेवाले हैं वा जो (ऋतावृधा) सत्य कारण से बढ़ते हैं वे (देवी) अच्छे गुणोंवाले भूमि और सूर्य्य का प्रकाश जैसे (नः) हम लोगों की रक्षा करते हैं, वैसे ही (सुप्रवाचनाः) जिनका अच्छा पढ़ाना वा उपदेश है, वे (पितरः) विशेष ज्ञानवाले मनुष्य हम लोगों को (उत) निश्चय से (अवन्तु) रक्षादि व्यवहारों से पालें। शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्रार्थ के तुल्य समझना चाहिये॥3॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे दिव्य औषधियों और प्रकाश आदि गुणों से भूमि और सूर्य्यमण्डल सबको सुख के साथ बढ़ाते हैं, वैसे ही आप्त विद्वान् जन सब मनुष्यों को अच्छी शिक्षा और पढ़ाने से विद्या आदि अच्छे गुणों में उन्नति देकर सुखी करते हैं और जैसे उत्तम रथ आदि पर बैठ के दुःख से जाने योग्य मार्ग के पार सुखपूर्वक जाकर समग्र क्लेश से छूट के सुखी होते हैं, वैसे ही वे उक्त विद्वान् दुष्ट गुण, कर्म और स्वभाव से अलग कर हम लोगों को धर्म के आचरण में उन्नति देवें॥3॥ पुनस्तान् कथं भूतानुपयुञ्जीरन्नित्युपदिश्यते॥ फिर उनको कैसे उपयोग में लावें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ नरा॒शंसं॑ वा॒जिनं॑ वा॒जय॑न्नि॒ह क्ष॒यद्वी॑रं पू॒षणं॑ सु॒म्नैरी॑महे। रथं॒ न दु॒र्गाद्व॑सवः सुदानवो॒ विश्व॑स्मान्नो॒ अंह॑सो॒ निष्पि॑पर्तन॥4॥ नरा॒शंस॑म्। वा॒जिन॑म्। वा॒जय॑न्। इ॒ह। क्ष॒यत्ऽवी॑रम्। पू॒षण॑म्। सु॒म्नैः। ई॒म॒हे॒। रथ॑म्। न। दुः॒ऽगात्। व॒स॒वः॒। सु॒ऽदा॒न॒वः॒। विश्व॑स्मात्। नः॒। अंह॑सः। निः। पि॒प॒तर्॒न॒॥4॥ पदार्थः—(नराशंसम्) नृभिराशंसितुं योग्यं विद्वांसम् (वाजिनम्) विज्ञानयुद्धविद्याकुशलम् (वाजयन्) विज्ञापयन्तो योधयन्तो वा। अत्र सुपां सुलुगिति जसः स्थाने सुः। (इह) अस्यां सृष्टौ (क्षयद्वीरम्) क्षयन्तः शत्रूणां नाशकर्त्तारो वीरा यस्य सेनाध्यक्षस्य तम् (पूषणम्) शरीरात्मनोः पोषयितारम् (सुम्नैः) सुखैर्युक्तम् (ईमहे) प्राप्नुयाम्। अत्र बहुलं छन्दसीति श्यनो लुक्। (रथं, न॰) इति पूर्ववत्॥4॥ अन्वयः—हे विद्वन्! यथा वाजयन् वयमिह सुम्नैर्युक्तं नराशंसं वाजिनं क्षयद्वीरं पूषणं चेमहे तथा त्वं याचस्व। अन्यत् पूर्ववत्॥4॥ भावार्थः—वयं शुभगुणयुक्तान् सुखिनो मनुष्यान् मित्रतया प्राप्य श्रेष्ठयानयुक्ताः शिल्पिन इव दुःखात्पारं गच्छेम॥4॥ पदार्थः—हे विद्वान्! जैसे (वाजयन्) उत्तमोत्तम पदार्थों के विशेष ज्ञान कराने वा युद्ध करानेहारे हम लोग (इह) इस सृष्टि में (सुम्नैः) सुखों से युक्त (नराशंसम्) मनुष्यों के प्रार्थना कराने योग्य विद्वान् को तथा (वाजिनम्) विशेष ज्ञान और युद्धविद्या में कुशल (क्षयद्वीरम्) जिसके शत्रुओं को काट करनेहारे वीर और जो (पूषणम्) शरीर वा आत्मा की पुष्टि करानेहारा है, उस सभाध्यक्ष को (ईमहे) प्राप्त होवें, वैसे तू शुभ गुणों की याचना कर। शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के तुल्य जानना चाहिये॥4॥ भावार्थः—हम लोग शुभ गुणों से युक्त सुखी मनुष्यों की मित्रता को प्राप्त होकर श्रेष्ठ यानयुक्त हुए शिल्पियों के समान दुःख से पार हों॥4॥ पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ बृह॑स्पते॒ सद॒मिन्नः॑ सु॒गं कृ॑धि॒ शं योर्यत्ते॒ मनु॑र्हितं॒ तदी॑महे। रथं॒ न दु॒र्गाद्व॑सवः सुदानवो॒ विश्व॑स्मान्नो॒ अंह॑सो॒ निष्पि॑पर्तन॥5॥ बृह॑स्पते। सद॑म्। इत्। नः॒। सु॒ऽगम्। कृ॒धि॒। शम्। योः। यत्। ते॒। मनुः॑ऽहितम्। तत्। ई॒म॒हे॒। रथ॑म्। न। दुः॒ऽगात्। व॒स॒वः॒। सु॒ऽदा॒न॒वः॒। विश्व॑स्मात्। नः॒। अंह॑सः। निः। पि॒प॒तर्॒न॒॥5॥ पदार्थः—(बृहस्पते) परमाध्यापक (सदम्) (इत्) एव (नः) अस्मभ्यम् (सुगम्) सुष्ठु गच्छन्ति यस्मिन् (कृधि) कुरु निष्पादय (शम्) सुखम् (योः) धर्मार्थमोक्षप्रापणम् (यत्) (ते) (मनुर्हितम्) मनुषो मनसो हितकारिणम् (तत्) (ईमहे) याचामहे (रथं न॰) इति पूर्ववत्॥5॥ अन्वयः—हे बृहस्पते! ते तव यन्मनुर्हितं शं योश्चास्ति यत्सदमित्वं नोऽस्मभ्यं सुगं कृधि तद्वयमीमहे। अन्यत्पूर्ववत्॥5॥ भावार्थः—मनुष्यैर्यथाऽध्यापकाद्विद्या सङ्गृह्यते तथैव सर्वेभ्यो विद्वद्भ्यश्च स्वीकृत्य दुःखानि विनाशनीयानि॥5॥ पदार्थः—हे (बृहस्पते) परम अध्यापक अर्थात् उत्तम रीति से पढ़ानेवाले! (ते) आपका जो (मनुर्हितम्) मन का हित करनेवाला (शम्) सुख वा (योः) धर्म, अर्थ और मोक्ष की प्राप्ति कराना है तथा (यत्) जो (सदम् इत्) सदैव तुम (नः) हमारे लिये (सुगम्) सुख (कृधि) करो अर्थात् सिद्ध करो (तत्) उस उक्त समस्त सुख को हम लोग (ईमहे) मांगते हैं। शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के तुल्य समझना चाहिये॥5॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि जैसे गुरुजन से विद्या ली जाती है, वैसे ही सब विद्वानों से विद्या लेकर दुःखों का विनाश करें॥5॥ पुनरध्यापकोऽध्येता च किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते॥ फिर पढ़ने और पढ़ानेवाले क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ इन्द्रं॒ कुत्सो॑ वृत्र॒हणं॒ शची॒पतिं॑ का॒टे निवा॑ढ॒ ऋषि॑रह्वदू॒तये॑। रथं॒ न दु॒र्गाद्व॑सवः सुदानवो॒ विश्व॑स्मान्नो॒ अंह॑सो॒ निष्पि॑पर्तन॥6॥ इन्द्र॑म्। कुत्सः॑। वृ॒त्र॒ऽहन॑म्। शची॑ऽपति॑म्। का॒टे। निऽवा॑ढः। ऋषिः॑। अ॒ह्व॒त्। ऊ॒तये॑। रथ॑म्। न। दुः॒ऽगात्। व॒स॒वः॒। सु॒ऽदा॒न॒वः॒। विश्व॑स्मात्। नः॒। अंह॑सः। निः। पि॒प॒तर्॒न॒॥6॥ पदार्थः—(इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं शालाद्यध्यक्षम् (कुत्सः) विद्यावज्रयुक्तश्छेत्ता पदार्थानां भेत्ता वा। कुत्स इति वज्रनामसु पठितम्। (निघं॰2.20) कुत्स इत्येतत्कृन्ततेर्ऋषिः कुत्सो भवति कर्ता स्तोमानामित्यौपमन्यवोऽत्राप्यस्य वधकर्मैव भवति। (निरु॰3.11) (वृत्रहणम्) शत्रूणां हन्तारम्। अत्र हन्तेरत्पूर्वस्य। (अष्टा॰8.4.22) इति णत्वम्। (शचीपतिम्) वेदवाचः पालकम् (काटे) कटन्ति वर्षन्ति सकला विद्या यस्मिन्नध्यापने व्यवहारे तस्मिन् (निवाढः) नित्यं सुखानां प्रापयिता (ऋषिः) अध्यापकोऽध्येता वा (अह्वत्) अह्वयेत् (ऊतये) रक्षणाद्याय (रथं, न, दुर्गात्॰) इति पूर्ववत्॥6॥ अन्वयः—कुत्सो निवाढ ऋषिः काट ऊतये यं वृत्रहणं शचीपतिमिन्द्रमह्वत्, तं वयमप्याह्वयेम। अन्यत्पूर्ववत्॥6॥ भावार्थः—नहि विद्यार्थिना कपटिनोऽध्यापकस्य समीपे स्थातव्यं किन्तु विदुषां समीपे स्थित्वा विद्वान् भूत्वर्षिस्वभावेन भवितव्यम्। स्वात्मरक्षणायाधर्माद्भीत्वा धर्मे सदा स्थातव्यम्॥6॥ पदार्थः—(कुत्सः) विद्यारूपी वज्र लिये वा पदार्थों को छिन्न-भिन्न करने (निवाढः) निरन्तर सुखों को प्राप्त करानेवाला (ऋषिः) गुरु और विद्यार्थी (काटे) जिसमें समस्त विद्याओं की वर्षा होती है, उस अध्यापन व्यवहार में (ऊतये) रक्षा आदि के लिये जिस (वृत्रहणम्) शत्रुओं को विनाश करने वा (शचीपतिम्) वेदवाणी के पालनेहारे (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यवान् शाला आदि के अधीश को (अह्वत्) बुलावे, हम लोग भी उसी को बुलावें। शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के तुल्य जानना चाहिये॥6॥ भावार्थः—विद्यार्थी को कपटी पढ़ानेवाले के समीप ठहरना नहीं चाहिये, किन्तु आप्त विद्वानों के समीप ठहर और विद्वान् होकर ऋषिजनों के स्वभाव से युक्त होना चाहिये और अपने आत्मा की रक्षा के लिये अधर्म से डर कर धर्म में सदा रहना चाहिये॥6॥ पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ दे॒वैर्नो॑ दे॒व्यदि॑ति॒र्नि पा॑तु दे॒वस्त्रा॒ता त्रा॑यता॒मप्र॑युच्छन्। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौः॥7॥24॥ दे॒वैः। नः॒। दे॒वी। अदि॑तिः। नि। पा॒तु। दे॒वः। त्रा॒ता। त्रा॒य॒ता॒म्। अप्र॑ऽयुच्छन्। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः॥7॥ पदार्थः—(देवैः) विद्वद्भिर्दिव्यगुणैर्वा सह वर्त्तमानः (नः) अस्मान् (देवी) दिव्यगुणयुक्ता (अदितिः) प्रकाशमयी विद्या (नि) (पातु) (देवः) विद्वान् (त्राता) सर्वाभिरक्षकः (त्रायताम्) (अप्रयुच्छन्) अप्रमाद्यन् (तन्नो मित्रो॰) इति पूर्ववत्॥7॥ अन्वयः—यो देवैः सह वर्त्तमानोऽप्रयुच्छँस्त्राता देवो विद्वानस्ति स नो निपातु, या देव्यदितिः सर्वांस्त्रायताम्। तन्नो मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्मामहन्ताम्॥7॥ भावार्थः—मनुष्यैर्योऽप्रमादी विद्वत्सु विद्वान् विद्यारक्षको विद्यादानेन सर्वेषां सुखवर्द्धकोऽस्ति तं सत्कृत्य विद्याधर्मौ जगति प्रसारणीयौ॥7॥ अत्र विश्वेषां देवानां गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इति षडुत्तरशततमं 106 सूक्तं चतुर्विंशो 24 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—जो (देवैः) विद्वानों वा दिव्य गुणों के साथ वर्त्तमान (अप्रयुच्छन्) प्रमाद न करता हुआ (त्राता) सबकी रक्षा करनेवाला (देवः) विद्वान् है, वह (नः) हम लोगों की (नि, पातु) निरन्तर रक्षा करे तथा (देवी) दिव्य गुण भरी सब गुण अगरी (अदितिः) प्रकाशयुक्त विद्या सबकी (त्रायताम्) रक्षा करे (तत्) उस पूर्वोक्त समस्त कर्म को (नः) और हम लोगों को (मित्रः) मित्रजन (वरुणः) श्रेष्ठ विद्वान् (अदितिः) अखण्डित नीति (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) भूमि (उत) और (द्यौः) सूर्य्य का प्रकाश (मामहन्ताम्) बढ़ावें अर्थात् उन्नति देवें॥7॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि जो अप्रमादी, विद्वानों में विद्वान्, विद्या की रक्षा करनेवाला विद्यादान से सबके सुख को बढ़ाता है, उसका सत्कार करके विद्या और धर्म का प्रचार संसार में करें॥7॥ इस सूक्त में समस्त विद्वानों के गुणों का वर्णन है। इससे इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये॥ यह एक सौ छः वाँ 106 सूक्त और चौबीसवाँ 24 वर्ग पूरा हुआ॥


अथ त्र्यृचस्य सप्तोत्तरशततमस्य सूक्तस्याङ्गिरसः ऋषिः। विश्वे देवा देवताः। 1 विराट् त्रिष्टुप्। 2 निचृत् त्रिष्टुप्। 3 त्रिष्टुप् च च्छन्दः। धैवतः स्वरः॥ विश्वे देवाः कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ अब तीन ऋचावाले एकसौ सातवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में समस्त विद्वान् जन कैसे हों, यह उपदेश किया है॥ य॒ज्ञो दे॒वानां॒ प्रत्ये॑ति सु॒म्नमादि॑त्यासो॒ भव॑ता मृळ॒यन्तः॑। आ वो॒ऽर्वाची॑ सुम॒तिर्व॑वृत्यादं॒होश्चि॒द्या व॑रिवो॒वित्त॒रास॑त्॥1॥ य॒ज्ञः। दे॒वाना॑म्। प्रति॑। ए॒ति॒। सु॒म्नम्। आदि॑त्यासः। भव॑त। मृ॒ळ॒यन्तः॑। आ। वः॒। अ॒र्वाची॑। सु॒ऽम॒तिः। व॒वृ॒त्या॒त्। अं॒होः। चि॒त्। या। व॒रि॒वो॒वित्ऽत॑रा अस॑त्॥1॥ पदार्थः—(यज्ञः) सङ्गत्या सिद्धः शिल्पाख्यः (देवानाम्) (प्रति) (एति) प्राप्नोति प्रापयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (सुम्नम्) सुखम् (आदित्यासः) सूर्य्यवद्विद्यायोगेन प्रकाशिता विद्वांसः (भवत) अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (मृडयन्तः) आनन्दयन्तः (आ) (वः) युष्माकम् (अर्वाची) इदानीन्तनी (सुमतिः) शोभना प्रज्ञा (ववृत्यात्) वर्त्तेत। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् शपः स्थाने श्लुश्च। (अंहोः) विज्ञानवत्। अत्राहि धातोरौणादिक उः प्रत्ययः। (चित्) अपि (या) (वरिवोवित्तरा) वरिवः सेवनं विद्वद्वन्दनं वा यया सुमत्या सातिशयिता (असत्) भवतु॥1॥ अन्वयः—हे मृडयन्त आदित्यासो विद्वांसो! यूयं यो देवानां यज्ञः सुम्नं प्रत्येति तस्य प्रकाशका भवत। या वोंऽहोरर्वाची सुमतिर्ववृत्यात् सा चिदस्मभ्यं वरिवोवित्तराऽऽसद् भवतु॥1॥ भावार्थः—अस्मिञ्जगति विद्वद्भिः स्वपुरुषार्थेन याः शिल्पक्रियाः प्रत्यक्षीकृतास्ताः सर्वेभ्यो मनुष्येभ्यः प्रकाशिताः कार्या यतो बहवो मनुष्या शिल्पक्रियाः कृत्वा सुखिनः स्युः॥1॥ पदार्थः—(मृडयन्तः) हे आनन्दित करते हुए (आदित्यासः) सूर्य्य के तुल्य विद्यायोग से प्रकाश को प्राप्त विद्वानो! तुम जो (देवानाम्) विद्वानों की (यज्ञः) संगति से सिद्ध हुआ शिल्प काम (सुम्नम्) सुख की (प्रति, एति) प्रतीति कराता है, उसको प्रकट करनेहारे (भवत) होओ, (या) जो (वः) तुम लोगों को (अंहोः) विशेष ज्ञान जैसे हो, वैसे (अर्वाची) इस समय की (सुमतिः) उत्तम बुद्धि (ववृत्यात्) वर्त्ति रही है वह (चित्) भी हम लोगों के लिये (वरिवोवित्तरा) ऐसी हो कि जिससे उत्तम जनों की अच्छी प्रकार शुश्रुषा (आ, असत्) सब ओर से होवे॥1॥ भावार्थः—इस संसार में विद्वानों को चाहिये कि जो उन्होंने अपने पुरुषार्थ से शिल्पक्रिया प्रत्यक्ष कर रक्खी हैं, उनको सब मनुष्यों के लिये प्रकाशित करें कि जिससे बहुत मनुष्य शिल्पक्रियाओं को करके सुखी हों॥1॥ पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ उप॑ नो दे॒वा अव॒सा ग॑म॒न्त्वङ्गि॑रसां॒ साम॑भिः स्तू॒यमा॑नाः। इन्द्र॑ इन्द्रि॒यैर्म॒रुतो॑ म॒रुद्भि॑रादि॒त्यैर्नो॒ अदि॑तिः॒ शर्म॑ यंसत्॥2॥ उप॑। नः॒। दे॒वाः। अव॑सा। आ। ग॒म॒न्तु॒। अङ्गि॑रसाम्। साम॑ऽभिः। स्तू॒यमा॑नाः। इन्द्रः॑। इ॒न्द्रि॒यैः। म॒रुतः॑। म॒रुत्ऽभिः॑। आ॒दि॒त्यैः। नः॒। अदि॑तिः। शर्म॑। यं॒स॒त्॥2॥ पदार्थः—(उप) सामीप्ये (नः) अस्माकम् (देवाः) विद्वांसः (अवसा) रक्षणादिना (आ) सर्वतः (गमन्तु) गच्छन्तु (अङ्गिरसाम्) प्राणविद्याविदाम् (सामभिः) सामवेदस्थैर्गानैः (स्तूयमानाः) (इन्द्रः) सभाद्यध्यक्षः (इन्द्रियैः) धनैः (मरुतः) पवनाः (मरुद्भिः) विद्वद्भिः पवनैर्वा (आदित्यैः) पूर्णविद्यैर्मनुष्यैर्द्वादशभिर्मासैर्वा सह (नः) अस्मभ्यम् (अदितिः) विद्वत्पिता सूर्यदीप्तिर्वा (शर्म्म) सुखम् (यंसत्) यच्छन्तु प्रददतु। अत्र वचनव्यत्ययेन बहुवचनस्थान एकवचनम्॥2॥ अन्वयः—सामभिः स्तूयमाना आदिर्त्यैर्मरुद्भिरिन्द्रियैः सहेन्द्रो मरुतोऽदितिर्देवाश्चाङ्गिरसां नोऽस्माकमवसोपागमन्तु ते नोऽस्मभ्यं शर्म्म यंसत् प्रददतु॥2॥ भावार्थः—जिज्ञासवो येषां विदुषां विद्वांसो वा जिज्ञासूनां सामीप्यं गच्छेयुस्ते नैव विद्याधर्मसुशिक्षाव्यवहारं विहायान्यत्कर्म कदाचित्कुर्य्युः, यतो दुःखहान्या सुखं सततं सिध्येत्॥2॥ पदार्थः—(सामभिः) सामवेद के गानों से (स्तूयमानाः) स्तुति को प्राप्त होते हुए (आदित्यैः) पूर्ण विद्यायुक्त मनुष्य वा बारह महीनों (मरुद्भिः) विद्वानों वा पवनों और (इन्द्रियैः) धनों के सहित (इन्द्रः) सभाध्यक्ष (मरुतः) वा पवन (अदितिः) विद्वानों का पिता वा सूर्य्य प्रकाश और (देवाः) विद्वान् जन (अङ्गिरसाम्) प्राणविद्या के जाननेवाले (नः) हम लोगों के (अवसा) रक्षा आदि व्यवहार से (उप, आ, गमन्तु) समीप में सब प्रकार से आवें और (न) हम लोगों के लिये (शर्म) सुख (यंसत्) देवें॥2॥ भावार्थः—ज्ञानप्रचार सीखनेहारे जन जिन विद्वानों के समीप वा विद्वान् जन जिन विद्यार्थियों के समीप जावें वे विद्या, धर्म और अच्छी शिक्षा के व्यवहार को छोड़ कर और कर्म कभी न करें, जिससे दुःख की हानि होके निरन्तर सुख की सिद्धि हो॥2॥ पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ तन्न॒ इन्द्र॒स्तद्वरु॑ण॒स्तद॒ग्निस्तद॑र्य॒मा तत्स॑वि॒ता चनो॑ धात्। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौः॥3॥25॥ तत्। नः॒। इन्द्रः॑। तत्। वरु॑णः। तत्। अ॒ग्निः। तत्। अ॒र्य॒मा। तत्। स॒वि॒ता। चनः॑। धा॒त्। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः॥3॥ पदार्थः—(तत्) धनम्। अन्नम् (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्रः) विद्युत् धनाध्यक्षो वा (तत्) शारीरं सुखम् (वरुणः) जलं गुणैरुत्कृष्टो वा (तत्) आत्मसुखम् (अग्निः) प्रसिद्धो भौतिको न्यायमार्गे गमयिता विद्वान् वा (तत्) इन्द्रियसुखम् (अर्यमा) नियन्ता वायुर्न्यायकर्त्ता वा (तत्) सामाजिकं सुखम् (सविता) सूर्यो धर्मकृत्येषु प्रेरको वा (तन्नो मित्रो॰) इति पूर्ववत्॥3॥ अन्वयः—यथा मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्वा मामहन्तां तत् तथेन्द्रो नस्तद्वरुणस्तदग्निस्तदर्यमा तत् सविता तच्च नो धात्॥3॥ भावार्थः—विद्वद्भिर्यथा संसारस्थाः पृथिव्यादयः पदार्थाः सुखप्रदाः सन्ति, तथैव सुखप्रदातृभिर्भवितव्यम्॥3॥ अत्र विश्वेषां देवानां गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इति सप्तोत्तरशततमं 107 सूक्तं पञ्चविंशो 25 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—जैसे (मित्रः) मित्रजन (वरुणः) श्रेष्ठ विद्वान् (अदितिः) अखण्डित आकाश (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) भूमि (उत) और (द्यौः) सूर्य आदि का प्रकाश (नः) हम को (मामहन्ताम्) आनन्दित करते हैं (तत्) वैसे (इन्द्रः) बिजुली वा धनाढ्य जन (नः) हमारे लिये (तत्) उस धन वा अन्न को अर्थात् उनके दिये हुए धनादि पदार्थ को (वरुणः) जल वा गुणों से उत्कृष्ट (तत्) उस शरीरसुख को (अग्निः) पावक अग्नि वा न्यायमार्ग में चलानेवाला विद्वान् (तत्) उस आत्मसुख को (अर्यमा) नियमकर्त्ता पवन वा न्यायकर्त्ता सभाध्यक्ष (तत्) इन्द्रियों के सुख को (सविता) सूर्य वा धर्म कार्य्यों में प्रेरणा करनेवाला धर्मज्ञ जन (तत्) उस सामाजिक सुख और (चनः) अन्न को (धात्) धारण करता वा धारण करे॥3॥ भावार्थः—जैसे संसारस्थ पृथिवी आदि पदार्थ सुख देनेवाले हैं, वैसे ही विद्वानों को सुख देनेवाले होना चाहिये॥ इस सूक्त में समस्त विद्वानों के गुणों का वर्णन है। इनसे इस सूक्त की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये॥ यह एकसौ सातवाँ 107 सूक्त और पच्चीसवाँ 25 वर्ग समाप्त हुआ॥


अथाष्टोत्तरस्य शततमस्य त्रयोदशर्च्चस्य सूक्तस्याङ्गिरसः कुत्स ऋषिः। इन्द्राग्नी देवते। 1,8,12 निचृत् त्रिष्टुप्। 2,3,6,11 विराट् त्रिष्टुप्। 7,9,10,13 त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः। 4 भुरिक् पङ्क्तिः। 5 पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः॥ अथ युग्मयोर्गुणा उपदिश्यन्ते॥ अब एक सौ आठवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से दो-दो इकट्ठे पदार्थों वा उनके गुणों का उपदेश किया है॥ य इ॑न्द्राग्नी चि॒त्रत॑मो॒ रथो॑ वाम॒भि विश्वा॑नि॒ भु॑वनानि॒ चष्टे॑। तेना या॑तं स॒रथं॑ तस्थि॒वांसाथा॒ सोम॑स्य पिबतं सु॒तस्य॑॥1॥ यः। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। चि॒त्रऽत॑मः। रथः॑। वा॒म्। अ॒भि। विश्वा॑नि। भुव॑नानि। चष्टे॑। तेन॑। आ। या॒त॒म्। स॒ऽरथ॑म्। त॒स्थि॒ऽवांसा॑। अथ॑। सोम॑स्य। पि॒ब॒त॒म्। सु॒तस्य॑॥1॥ पदार्थः—(यः) (इन्द्राग्नी) वायुपावकौ (चित्रतमः) अतिशयेनाश्चर्य्यस्वरूपगुणक्रियायुक्तः (रथः) विमानादियानसमूहः (वाम्) एतौ (अभि) अभितः (विश्वानि) सर्वाणि (भुवनानि) भूगोलस्थानानि (चष्टे) दर्शयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (तेन) (आ) (यातम्) गच्छतो गमयतो वा (सरथम्) रथैः सह वर्त्तमानं सैन्यमुत्तमां सामग्रीं वा (तस्थिवांसा) स्थितिमन्तौ (अथ) (सोमस्य) रसवतः सोमवल्ल्यादीनां समूहस्य रसम् (पिबतम्) पिबतः (सुतस्य) ईश्वरेणोत्पादितस्य॥1॥ अन्वयः—यश्चित्रतमो रथो वामेतौ तस्थिवांसेन्द्राग्नी प्राप्य विश्वानि भुवनान्यभिचष्टेऽभितो दर्शयति। अथ येनैतौ सरथमायातं समन्ताद् गमयतः सुतस्य सोमस्य रसं पिबतं पिबतस्तेन सर्वैः शिल्पिभिः सर्वत्र गमनागमने कार्य्ये॥1॥ भावार्थः—मनुष्यैः कलासु सम्प्रयोज्य चालितैर्वाय्वग्न्यादिभिर्युक्तैविमानादिभिर्यानैराकाशसमुद्रभूमिमार्गेषु देशान्तरान् गत्वाऽऽगत्य सर्वदा स्वाभिप्रायसिद्ध्यानन्दरसो भोक्तव्यः॥1॥ पदार्थः—(यः) जो (चित्रतमः) एकीएका अद्भुत गुण और क्रिया को लिए हुए (रथः) विमान आदि यानसमूह (वाम्) इन (तस्थिवांसा) ठहरे हुए (इन्द्राग्नी) पवन और अग्नि को प्राप्त होकर (विश्वानि) सब (भुवनानि) भूगोल के स्थानों को (अभि, चष्टे) सब प्रकार से दिखाता है। (अथ) इसके अनन्तर जिससे ये दोनों अर्थात् पवन और अग्नि (सरथम्) रथ आदि सामग्री सहित सेना वा उत्तम सामग्री को (आ, यातम्) प्राप्त हुए अच्छी प्रकार अभीष्ट स्थान को पहुंचाते हैं तथा (सुतस्य) ईश्वर के उत्पन्न किये हुए (सोमस्य) सोम आदि के रस को (पिबतम्) पीते हैं (तेन) उसे समस्त शिल्पी मनुष्यों को सब जगह जाना-आना चाहिये॥1॥ भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि कलाओं में अच्छी प्रकार जोड़ के चलाये हुए वायु और अग्नि आदि पदार्थों से युक्त विमान आदि रथों से आकाश, समुद्र और भूमि मार्गों में एक देश से दूसरे देशों को जा-आकर सर्वदा अपने अभिप्राय की सिद्धि से आनन्दरस भोगें॥1॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ याव॑दि॒दं भुव॑नं॒ विश्व॒मस्त्यु॑रु॒व्यचा॑ वरि॒मता॑ गभी॒रम्। तावाँ॑ अ॒यं पात॑वे॒ सोमो॑ अ॒स्त्वर॑मिन्द्राग्नी॒ मन॑से यु॒वभ्या॑म्॥2॥ याव॑त्। इ॒दम्। भुव॑नम्। विश्व॑म्। अस्ति॑। उ॒रु॒ऽव्यचा॑। व॒रि॒मता॑। ग॒भी॒रम्। तावा॑न्। अ॒यम्। पात॑वे। सोमः॑। अ॒स्तु॒। अर॑म्। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। मन॑से। यु॒वऽभ्या॑म्॥2॥ पदार्थः—(यावत्) (इदम्) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षलक्षणम् (भुवनम्) सर्वेषामधिकरणम् (विश्वम्) जगत् (अस्ति) वर्त्तते (उरुव्यचा) बहुव्याप्त्या (वरिमता) बहुस्थूलत्वेन सह (गभीरम्) अगाधम् (तावान्) तावत्प्रमाणः (अयम्) (पातवे) पातुम् (सोमः) उत्पन्नः पदार्थसमूहः (अस्तु) भवतु (अरम्) पर्याप्तम् (इन्द्राग्नी) वायुसवितारौ (मनसे) विज्ञापयितुम् (युवभ्याम्) एताभ्याम्॥2॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यूयं यावदुरुव्यचा वरिमता सह वर्त्तमानं गभीरं भुवनमिदं विश्वमस्ति तावानयं सोमोऽस्ति मनस इन्द्राग्नी अरमतो युवभ्याम् पातवे तावन्तं बोधं पुरुषार्थं च स्वीकुरुत॥2॥ भावार्थः—विचक्षणैः सर्वैरिदमवश्यं बोध्यं यत्र यत्र मूर्त्तिमन्तो लोकाः सन्ति, तत्र तत्र वायुविद्युतौ व्यापकत्वस्वरूपेण वर्त्तेते। यावन्मनुष्याणां सामर्थ्यमस्ति तावदेतद्गुणान् विज्ञाय पुरुषार्थेनोपयोज्यालं सुखेन भवितव्यम्॥2॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! तुम (यावत्) जितना (उरुव्यचा) बहुत व्याप्ति अर्थात् पूरेपन और (वरिमता) बहुत स्थूलता के साथ वर्त्तमान (गभीरम्) गहरा (भुवनम्) सब वस्तुओं के ठहरने का स्थान (इदम्) यह प्रकट अप्रकट (विश्वम्) जगत् (अस्ति) है, (तावान्) उतना (अयम्) यह (सोमः) उत्पन्न हुआ पदार्थों का समूह है, उसका (मनसे) विज्ञान कराने को (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि (अरम्) परिपूर्ण हैं, इससे (युवभ्याम्) उन दोनों से (पातवे) रक्षा आदि के लिये उतने बोध और पदार्थ को स्वीकार करो॥2॥ भावार्थः—विचारशील पुरुषों को यह अवश्य जानना चाहिये कि जहाँ-जहाँ मूर्तिमान् लोक हैं, वहाँ-वहाँ पवन और बिजुली अपनी व्याप्ति से वर्त्तमान हैं। जितना मनुष्यों का सामर्थ्य है, उतने तक इनके गुणों को जानकर और पुरुषार्थ से उपयोग लेकर परिपूर्ण सुखी होवें॥2॥ पुनस्तौ कथंभूतावित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हैं, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥ च॒क्राथे॒ हि स॒ध्र्यङ् नाम॑ भ॒द्रं स॑ध्रीची॒ना वृ॑त्रहणा उ॒त स्थः॑। तावि॑न्द्राग्नी स॒ध्र्य॑ञ्चा नि॒षद्या॒ वृष्णः॒ सोम॑स्य वृष॒णा वृ॑षेथाम्॥3॥ च॒क्राथे॒ इति॑। हि। स॒ध्र्य॑क्। नाम॑। भ॒द्रम्। स॒ध्री॒ची॒ना। वृ॒त्र॒ऽह॒नौ॒। उ॒त। स्थः॒। तौ। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। स॒ध्र्य॑ञ्चा। नि॒ऽसद्य॑। वृष्णः॑। सोम॑स्य। वृ॒ष॒णा॒। आ। वृ॒षे॒था॒म्॥3॥ पदार्थः—(चक्राथे) कुरुतः (हि) खलु (सध्र्यक्) सहाञ्चतीति (नाम) जलम् (भद्रम्) वृष्ट्यादिद्वारा कल्याणकरम् (सध्रीचीना) सहाञ्चतः सङ्गतौ (वृत्रहणौ) वृत्रस्य मेघस्य हन्तारौ (उत) अपि (स्थः) भवतः (तौ) (इन्द्राग्नी) पूर्वोक्तौ (सध्र्यञ्चा) सहप्रशंसनीयौ (निषद्य) नित्यं स्थित्वा। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (वृष्णः) पुष्टिकारकस्य (सोमस्य) रसवतः पदार्थसमूहस्य (वृषणा) पोषकौ। अत्र सर्वत्र द्विवचनस्थाने सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (आ) (वृषेथाम्) वर्षतः। व्यत्ययेन शः प्रत्यय आत्मनेपदं च॥3॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यौ सध्रीचीना वृत्रहणौ सध्र्यञ्चा निषद्य वृष्णः सोमस्य वृषणेन्द्राग्नी भद्रं सध्र्यङ् नाम चक्राथे कुरुत उतापि कार्यसिद्धिकरौ स्थो वृषेथां सुखं वर्षतस्तौ ह्या विजानन्तु॥3॥ भावार्थः—मनुष्यैरत्यन्तमुपयोगिनाविन्द्राग्नी विदित्वा कथं नोपयोजनीयाविति॥3॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जो (सध्रीचीना) एक साथ मिलने और (वृत्रहणौ) मेघ के हननेहारे (सध्र्यञ्चा) और एक साथ बड़ाई करने योग्य (निषद्य) नित्य स्थिर होकर (वृष्णः) पुष्टि करते हुए (सोमस्य) रसवान् पदार्थसमूह की (वृषणा) पुष्टि करनेहारे (इन्द्राग्नी) पूर्व कहे हुए अर्थात् पवन और सूर्य्यमण्डल (भद्रम्) वृष्टि आदि काम से परम सुख करनेवाले (सध्र्यक्) एक संग प्रकट होते हुए (नाम) जल को (चक्राथे) करते हैं (उत) और कार्य्यसिद्धि करनेहारे (स्थः) होते (वृषेथाम्) और सुखरूपी वर्षा करते हैं (तौ) उनको (हि) ही (आ) अच्छी प्रकार जानो॥3॥ भावार्थः—मनुष्यों को अत्यन्त उपयोग करनेहारे वायु और सूर्य्यमण्डल को जान के कैसे उपयोग में न लाने चाहिये॥3॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ समि॑द्धेष्व॒ग्निष्वा॑नजा॒ना य॒तस्रु॑चा ब॒र्हिरु॑ तिस्तिरा॒णा। ती॒व्रैः सोमैः॒ परि॑षिक्तेभिर॒र्वागेन्द्रा॑ग्नी सौमन॒साय॑ यातम्॥4॥ सम्ऽइ॑द्धेषु। अ॒ग्निषु॑। आ॒न॒जा॒ना। य॒तऽस्रुचा॑। ब॒र्हिः। ऊ॒म्ऽइति॑। ति॒स्ति॒रा॒णा। ती॒व्रैः। सोमैः॑। परि॑ऽसिक्तेभिः। अ॒र्वाक्। आ। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। सौ॒म॒न॒साय॑। या॒त॒म्॥4॥ पदार्थः—(समिद्धेषु) प्रदीप्तेषु (अग्निषु) कलायन्त्रस्थेषु (आनजाना) प्रसिद्धौ प्रसिद्धिकारकौ। अत्राञ्चु धातोर्लिटः स्थाने कानच्। (यतस्रुचा) यता उद्यता स्रुचः स्रुग्वत्कलादयो ययोस्तौ। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुगिति द्विवचनस्थान आकारादेशः। (बर्हिः) अन्तरिक्षे (उ) (तिस्तिराणा) यन्त्रकलाभिराच्छादितौ (तीव्रैः) तीक्ष्णवेगादिगुणैः (सोमैः) रसभूतैर्जलैः (परिषिक्तेभिः) सर्वथा कृतसिञ्चनैः सहितौ (अर्वाक्) पश्चात् (आ) समन्तात् (इन्द्राग्नी) वायुविद्युतौ (सौमनसाय) अनुत्तमसुखाय (यातम्) गमयतः॥4॥ अन्वयः—हे मनुष्या! यूयं यौ यतस्रुचा तिस्तिराणानजानेन्द्राग्नी तीव्रैः सोमैः परिषिक्तेभिः समिद्धेष्वग्निषु सत्स्वर्वाग् बर्हिर्यातमु सौमनसायायातं गमयतस्तौ सम्यक् परीक्ष्य कार्य्यसिद्धये प्रयोज्यौ॥4॥ भावार्थः—यदा शिल्पिभिः पवनस्सौदामिनी च कार्यसिद्ध्यर्थं संप्रयुज्येते तदैते सर्वसुखलाभाय प्रभवन्ति॥4॥ पदार्थः—हे मनुष्यो! जो तुम (यतस्रुचा) जिनमें स्रुच् अर्थात् होम करने के काम में जो स्रुचा होती है, उनके समान कलाघर विद्यमान (तिस्तिराणा) वा जो यन्त्रकलादिकों से ढांपे हुए होते हैं (आनजाना) वे आप प्रसिद्ध और प्रसिद्धि करनेवाले (इन्द्राग्नी) वायु और विद्युत् अर्थात् पवन और बिजुली (तीव्रैः) तीक्ष्ण और वेगादिगुणयुक्त (सोमैः) रसरूप जलों से (परिषिक्तेभिः) सब प्रकार की, की हुई सिंचाइयों के सहित (समिद्धेषु) अच्छी प्रकार जलते हुए (अग्निषु) कलाघरों की अग्नियों के होते (अर्वाक्) पीछे (बर्हिः) अन्तरिक्ष में (यातम्) पहुँचाते हैं (उ) और (सौमनसाय) उत्तम से उत्तम सुख के लिये (आ) अच्छे प्रकार आते भी हैं, उनकी अच्छी शिक्षा कर कार्यसिद्धि के लिये कलाओं में लगाने चाहिये॥4॥ भावार्थः—जब शिल्पियों से पवन और बिजुली कार्यसिद्धि के अर्थ कलायन्त्रों की क्रियाओं से युक्त किये जाते हैं, तब ये सर्वसुखों के लाभ के लिये समर्थ होते हैं॥4॥ अथैश्वर्ययुक्तस्य स्वामिनः शिल्पविद्याक्रियाकुशलस्य शिल्पिनश्च कर्माण्युपदिश्यन्ते॥ अब ऐश्वर्य्ययुक्त स्वामी और शिल्पविद्या की क्रियाओं में कुशल शिल्पीजन के कामों को अगले मन्त्र में कहा है॥ यानी॑न्द्राग्नी च॒क्रथु॑वीर्॒र्या॑णि यानि॑ रू॒पाण्यु॒त वृष्ण्या॑नि। या वां॑ प्र॒त्नानि॑ स॒ख्या शि॒वानि॒ तेभिः॒ सोम॑स्य पिबतं सु॒तस्य॑॥5॥26॥ यानि॒। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। च॒क्रथुः॑। वी॒र्या॑णि। यानि॑। रू॒पाणि॑। उ॒त। वृष्ण्या॑नि। या। वा॒म्। प्र॒त्नानि॑। स॒ख्या। शि॒वानि॑। तेभिः॑। सोम॑स्य। पि॒ब॒त॒म्। सु॒तस्य॑॥5॥ पदार्थः—(यानि) (इन्द्राग्नी) स्वामिभृत्यौ (चक्रथुः) कुर्य्यातम् (वीर्याणि) पराक्रमयुक्तानि कर्माणि (यानि) (रूपाणि) शिल्पसिद्धानि चित्ररूपाणि यानादीनि वस्तूनि (उत) अपि (वृष्ण्यानि) पुरुषार्थयुक्तानि कर्माणि (या) यानि (वाम्) युवयोः (प्रत्नानि) प्राक्तनानि (सख्या) सख्यानि सख्युः कर्माणि (शिवानि) मङ्गलमयानि (तेभिः) तैः (सोमस्य) संसारस्थपदार्थसमूहस्य रसम् (पिबतम्) (सुतस्य) निष्पादितस्य॥5॥ अन्वयः—हे इन्द्राग्नी! यो वां यानि वीर्याणि यानि रूपाणि वृष्ण्यानि कर्माणि या प्रत्नानि शिवानि सख्या सन्ति तेभिस्तैः सुतस्य सोमस्य रसं पिबतमुतास्मभ्यं सुखं चक्रथुः कुर्यातम्॥5॥ भावार्थः—अत्रेन्द्रशब्देन धनाढ्योऽग्निशब्देन विद्यावान् शिल्पी गृह्यते, नहि विद्यापुरुषार्थाभ्यां विना कार्यसिद्धिः कदापि जायते न च मित्रभावेन विना सर्वदा व्यवहारः सिद्धो भवितुं शक्यस्तस्मादेतत् सर्वदाऽनुष्ठेयम्॥5॥ पदार्थः—हे (इन्द्राग्नी) स्वामी और सेवक! (वाम्) तुम्हारे (यानि) जो (वीर्याणि) पराक्रमयुक्त काम (यानि) जो (रूपाणि) शिल्पविद्या से सिद्ध, चित्र, विचित्र, अद्भुत जिनका रूप वे विमान आदि यान और (वृष्ण्यानि) पुरुषार्थयुक्त काम (या) वा जो तुम दोनों के (प्रत्नानि) प्राचीन (शिवानि) मङ्गलयुक्त (सख्या) मित्रों के काम हैं (तेभिः) उनसे (सुतस्य) निकाले हुए (सोमस्य) संसारी वस्तुओं के रस को (पिबतम्) पिओ (उत) और हम लोगों के लिये (चक्रथुः) उनसे सुख करो॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में इन्द्र शब्द से धनाढ्य और अग्नि शब्द से विद्यावान् शिल्पी का ग्रहण किया जाता है, विद्या और पुरुषार्थ के विना कामों की सिद्धि कभी नहीं होती और न मित्रभाव के विना सर्वदा व्यवहार सिद्ध हो सकता है, इससे उक्त काम सर्वदा करने योग्य हैं॥5॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ फिर वे दोनों कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ यदब्र॑वं प्रथ॒मं वां॑ वृणा॒नो॒ऽयं सोमो॒ असु॑रैर्नो वि॒हव्यः॑। तां स॒त्यां श्र॒द्धाम॒भ्या हि या॒तमथा॒ सोम॑स्य पिबतं सु॒तस्य॑॥6॥ यत्। अब्र॑वम्। प्र॒थ॒मम्। वा॒म्। वृ॒णा॒नः। अ॒यम्। सोमः॑। असु॑रैः। नः॒। वि॒ऽहव्यः॑। ताम्। स॒त्याम्। श्र॒द्धाम्। अ॒भि। आ। हि। या॒तम्। अथ॑। सोम॑स्य। पि॒ब॒त॒म्। सु॒तस्य॑॥6॥ पदार्थः—(यत्) वचः (अब्रवम्) उक्तवानस्मि (प्रथमम्) (वाम्) युवाभ्यां युवयोर्वा (वृणानः) स्तूयमानः (अयम्) प्रत्यक्षः (सोमः) उत्पन्नः पदार्थसमूहः (असुरैः) विद्याहीनैर्मनुष्यैः (नः) अस्माकम् (विहव्यः) विविधतया ग्रहीतुं योग्यः (ताम्) (सत्याम्) (श्रद्धाम्) (अभि) (आ) (हि) किल (यातम्) आगच्छतम् (अथ) आनन्तर्ये। (सोमस्य) इति पूर्ववत्॥6॥ अन्वयः—हे स्वामिशिल्पनौ! वां प्रथमं यदहमब्रवमसुरैर्वृणानो विहव्योऽयं सोमो युवयोरस्ति तेन नोऽस्माकं तां सत्यां श्रद्धामभ्यायातमथ हि किल सुतस्य सोमस्य रसं पिबतम्॥6॥ भावार्थः—जन्मसमये सर्वेऽविद्वांसो भवन्ति पुनर्विद्याभ्यासं कृत्वा विद्वांसश्च तस्माद्विद्याहीना मूर्खा ज्येष्ठा विद्यावन्तश्च कनिष्ठा गण्यन्ते कोऽपि भवेत् परन्तु तं प्रति सत्यमेव वाच्यं न कञ्चित् प्रत्यसत्यम्॥6॥ पदार्थः—हे स्वामी और शिल्पी जनो! (वाम्) तुम्हारे लिये (प्रथमम्) पहिले (यत्) जो मैंने (अब्रवम्) कहा वा (असुरैः) विद्याहीन मनुष्यों की (वृणानः) बड़ाई किई हुई (विहव्यः) अनेकों प्रकार से ग्रहण करने योग्य (अयम्) यह प्रत्यक्ष (सोमः) उत्पन्न हुआ पदार्थों का समूह [तुम दोनों का] है, उससे (नः) हम लोगों की (ताम्) उस (सत्याम्) सत्य (श्रद्धाम्) प्रीति को (अभि, आ, यातम्) अच्छी प्रकार प्राप्त होओ (अथ) इसके पीछे (हि) एक निश्चय के साथ (सुतस्य) निकाले हुए (सोमस्य) संसारी वस्तुओं के रस को (पिबतम्) पिओ॥6॥ भावार्थः—जन्म के समय में सब मूर्ख होते हैं और फिर विद्या का अभ्यास करके विद्वान् भी हो जाते हैं, इससे विद्याहीन मूर्ख जन ज्येष्ठ और विद्वान् जन कनिष्ठ गिने जाते हैं। सबको यही चाहिये कि कोई हो परन्तु उसके प्रति सांची (सत्य) ही कहें, किन्तु किसी के प्रति असत्य न कहें॥6॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ यदि॑न्द्राग्नी॒ मद॑थः॒ स्वे दु॑रो॒णे यद् ब्र॒ह्मणि॒ राज॑नि वा यजत्रा। अतः॒ परि॑ वृषणा॒वा हि या॒तमथा॒ सोम॑स्य पिबतं सु॒तस्य॑॥7॥ यत्। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। मद॑थः। स्वे। दु॒रो॒णे। यत्। ब्र॒ह्मणि॑। राज॑नि। वा॒। य॒ज॒त्रा॒। अतः॑। परि॑। वृ॒ष॒णौ॒ आ। हि। या॒तम्। अथ॑। सोम॑स्य। पि॒ब॒त॒म्। सु॒तस्य॑॥7॥ पदार्थः—(यत्) यतः (इन्द्राग्नी) (मदथः) हर्षथः (स्वे) स्वकीये (दुरोणे) गृहे (यत्) यतः (ब्रह्मणि) ब्राह्मणसभायाम् (राजनि) राजसभायाम् (वा) अन्यत्र (यजत्रा) सङ्गम्य सत्कर्त्तव्यौ (अतः) कारणात् (परि) (वृषणौ) सुखानां वर्षयितारौ। अन्यत्पूर्ववत्॥7॥ अन्वयः—हे वृषणौ यजत्रा इन्द्राग्नी! युवां यद्यतः स्वे दुरोणे यद् यस्मिन् ब्रह्मणि राजनि वा मदथोऽतः कारणात् पर्य्यायातमथ हि खलु सुतस्य सोमस्य पिबतम्॥7॥ भावार्थः—यत्र यत्र स्वामिशिल्पिनावध्यापकाध्येतारौ राजप्रजापुरुषौ वा गच्छेतां खल्वागच्छेतां वा तत्र तत्र सभ्यतया स्थित्वा विद्याशान्तियुक्तं वचः संभाष्य सुशीलतया सत्यं वदतां सत्यं शृणुतां च॥7॥ पदार्थः—हे (वृषणौ) सुखरूपी वर्षा के करनेहारे (यजत्रा) अच्छी प्रकार मिल कर सत्कार करने के योग्य (इन्द्राग्नी) स्वामी सेवको! तुम दोनों (यत्) जिस कारण (स्वे) अपने (दुरोणे) घर में वा (यत्) जिस कारण (ब्रह्मणि) ब्राह्मणों की सभा और (राजनि) राजजनों की सभा (वा) वा और सभा में (मदथः) आनन्दित होते हो (अतः) इस कारण से (परि, आ, यातम्) सब प्रकार से आओ (अथ, हि,) इसके अनन्तर एक निश्चय के साथ (सुतस्य) उत्पन्न हुए (सोमस्य) संसारी पदार्थों के रस को (पिबतम्) पिओ॥7॥ भावार्थः—जहाँ-जहाँ स्वामि और शिल्पि वा पढ़ाने और पढ़नेवाले वा राजा और प्रजाजन जायें वा आवें वहाँ-वहाँ सभ्यता से स्थित हों, विद्या और शान्तियुक्त वचन को कह और अच्छे शील का ग्रहण कर सत्य कहें और सुनें॥7॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ यदि॑न्द्राग्नी॒ यदु॑षु तु॒र्वशे॑षु॒ यद्द्रुह्युष्वनु॑षु पू॒रुषु॒ स्थः। अतः॒ परि॑ वृषणा॒वा हि या॒तमथा॒ सोम॑स्य पिबतं सु॒तस्य॑॥8॥ यत्। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। यदु॑षु। तु॒र्वशे॑षु। यत्। द्रु॒ह्युषु॑। अनु॑षु। पू॒रुषु॑। स्थः। अतः॑। परि॑। वृ॒ष॒णौ॒। आ। हि। या॒तम्। अथ॑। सोम॑स्य। पि॒ब॒त॒म्। सु॒तस्य॑॥8॥ पदार्थः—(यत्) यतः (इन्द्राग्नी) पूर्वोक्तौ (यदुषु) प्रयत्नकारिषु मनुष्येषु (तुर्वशेषु) तूर्वन्तीति तुरस्तेषां वशा वशं कर्तारो मनुष्यास्तेषु (यत्) यतः (द्रुह्युषु) द्रोहकारिषु (अनुषु) प्राणप्रदेषु (पूरुषु) परिपूर्णसद्गुणविद्याकर्मसु मनुष्येषु। यदव इत्यादि पञ्चविंशतिर्मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं॰2.3) (स्थः) (अतः) (परि॰) इति पूर्ववत्॥8॥ अन्वयः—हे इन्द्राग्नी! युवां यद् यदुषु तुर्वशेषु यद्द्रुह्युष्वनुषु पूरुषु यथोचितव्यवहारवर्त्तिनौ स्थोऽतः कारणात् सर्वेषु वृषणौ सन्तावायातं हि खल्वथ सुतस्य सोमस्य रसं परि पिबतम्॥8॥ भावार्थः—यौ न्यायसेनाधिकृतौ मनुष्येषु यथायोग्यं वर्त्तेते, तावेव तत्कर्मसु सर्वैर्मनुष्यैः स्थापयित्वा कार्यसिद्धिः सम्पादनीयाः॥8॥ पदार्थः—हे (इन्द्राग्नी) स्वामि शिल्पिजनो! तुम दोनों (यत्) जिस कारण (यदुषु) उत्तम यत्न करनेवाले मनुष्यों में वा (तुर्वषु) जो हिंसक मनुष्यों को वश में करें उनमें वा (यत्) जिस कारण (द्रुह्युषु) द्रोही जनों में वा (अनुषु) प्राण अर्थात् जीवन सुख देनेवालों में तथा (पुरुषु) जो अच्छे गुण, विद्या वा कामों में परिपूर्ण हैं, उनमें यथोचित अर्थात् जिससे जैसा चाहिये वैसा वर्त्तनेवाले (स्थः) हो (अतः) इस कारण से सब मनुष्यों में (वृषणौ) सुखरूपी वर्षा करते हुए (आ, यातम्) अच्छे प्रकार आओ (हि) एक निश्चय के साथ, (अथ) इसके अनन्तर (सुतस्य) निकाले हुए (सोमस्य) जगत् के पदार्थों के रस को (परि, पिबतम्) अच्छी प्रकार पिओ॥8॥ भावार्थः—जो न्याय और सेना के अधिकार को प्राप्त हुए मनुष्यों में यथायोग्य वर्त्तमान हैं, सब मनुष्यों को चाहिये कि उनको ही उन कामों में स्थापन अर्थात् मानकर कामों की सिद्धि करें॥8॥ पुनरेतौ भौतिकौ च कीदृशावित्युपदिश्यते॥ फिर वे और भौतिक इन्द्र और अग्नि कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ यदि॑न्द्राग्नी अव॒मस्यां॑ पृथि॒व्यां म॑ध्य॒मस्यां॑ पर॒मस्या॑मु॒त स्थः। अतः॒ परि॑ वृषणा॒वा हि या॒तमथा॒ सोम॑स्य पिबतं सु॒तस्य॑॥9॥ यत्। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। अ॒व॒मस्या॑म्। पृ॒थि॒व्याम्। म॒ध्य॒मस्या॑म्। प॒र॒मस्या॑म्। उ॒त। स्थः। अतः॑। परि॑। वृ॒ष॒णौ॒। आ। हि। या॒तम्। अथ॑। सोम॑स्य। पि॒ब॒त॒म्। सु॒तस्य॑॥9॥ पदार्थः—(यत्) यौ (इन्द्राग्नी) न्यायसेनाध्यक्षौ वायुविद्युतौ वा (अवमस्याम्) अनुत्कृष्टगुणायाम् (पृथिव्याम्) स्वराज्यभूमौ (मध्यमस्याम्) मध्यमगुणायाम् (परमस्याम्) उत्कृष्टगुणायाम् (उत्) अपि (स्थः) भवथो भवतो वा (अतः॰) इति पूर्ववत्॥9॥ अन्वयः—हे इन्द्राग्नी! यद् युवामवमस्यां मध्यमस्यामुतापि परमस्यां पृथिव्यां स्वराज्यभूमावधिकृतौ स्थस्तौ सर्वदा सर्वे रक्षणीयौ स्तः। अतोऽत्र परिवृषणौ भूत्वाऽऽयातं हि खल्वथ तत्रस्थं सुतस्य सोमस्य रसं पिबतमित्येकः॥1॥9॥ यद् याविमाविन्द्राग्नी अवमस्यां मध्यमस्यामुतापि परमस्यां पृथिव्यां स्थोऽतोऽत्र परिवृषणौ भूत्वाऽऽयातमागच्छतो हि खल्वथ यौ सुतस्य सोमस्य रसं पिबतं पिबतस्तौ कार्यसिद्धये प्रयुज्य मनुष्यैर्महालाभः सम्पादनीयः॥2॥9॥ भावार्थः—अत्र श्लेषालङ्कारः उत्तममध्यमनिकृष्टगुणकर्मस्वभावभेदेन यद्यद्राज्यमस्ति तत्र तत्रोत्तममध्यमनिकृष्टगुणकर्मस्वभावान् मनुष्यान् संस्थाप्य चक्रवर्त्तिराज्यं कृत्वाऽऽनन्दः सर्वैर्भोक्तव्यः। एवमेतत्सृष्टिस्थौ सर्वलोकेष्ववस्थितौ पवनविद्युतौ विज्ञाय संप्रयुज्य कार्यसिद्धिं सम्पाद्य दारिद्र्यादिदुःखं सर्वैर्विनाशनीयम्॥9॥ पदार्थः—हे (इन्द्राग्नी) न्यायाधीश और सेनाधीश! (यत्) जो तुम दोनों (अवमस्याम्) निकृष्ट (मध्यमस्याम्) मध्यम (उत) और (परमस्याम्) उत्तम गुणवाली (पृथिव्याम्) अपनी राज्यभूमि में अधिकार पाए हुए (स्थः) हो वे सब कभी सबकी रक्षा करने योग्य हो (अतः) इस कारण इस उक्त राज्य में (परि, वृषणौ) सब प्रकार सुखरूपी वर्षा करनेहारे होकर (आ, यातम्) आओ (हि) एक निश्चय के साथ (अथ) इसके उपरान्त उस राज्यभूमि में (सुतस्य) उत्पन्न हुए (सोमस्य) संसारी पदार्थों के रस को (पिबतम्) पिओ, यह एक अर्थ हुआ॥1॥9॥ (यत्) जो ये (इन्द्राग्नी) पवन और बिजुली (अवमस्याम्) निकृष्ट (मध्यमस्याम्) मध्यम (उत) वा (परमस्याम्) उत्तम गुणवाली (पृथिव्याम्) पृथिवी में (स्थः) हैं (अतः) इससे यहाँ (परि, वृषणौ) सब प्रकार से सुखरूपी वर्षा करनेवाले होकर (आ, यातम्) आते और (अथ) इसके उपरान्त (हि) एक निश्चय के साथ जो (सुतस्य) निकाले हुए (सोमस्य) पदार्थों के रस को (पिबतम्) पीते हैं, उनको काम सिद्धि के लिये कलाओं में संयुक्त करके महान् लाभ सिद्ध करना चाहिये॥2॥9॥ भावार्थः—इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। उत्तम, मध्यम और निकृष्ट गुण, कर्म और स्वभाव के भेद से जो-जो राज्य हैं, वहाँ-वहाँ वैसे ही उत्तम, मध्यम, गुण, कर्म और स्वभाव के मनुष्यों को स्थापन कर और चक्रवर्त्ती राज्य करके सबको आनन्द भोगना-भोगवाना चाहिये। ऐसे ही इस सृष्टि में ठहरे और सब लोकों में प्राप्त होते हुए पवन और बिजुली को जान और उनका अच्छे प्रकार प्रयोग कर तथा कार्य्यों की सिद्धि करके दारिद्र्य दोष सबको नाश करना चाहिये॥9॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ यदि॑न्द्राग्नी पर॒मस्यां॑ पृथि॒व्यां म॑ध्य॒मस्या॑मव॒मस्या॑मु॒त स्थः। अतः॒ परि॑ वृषणा॒वा हि या॒तमथा॒ सोम॑स्य पिबतं सु॒तस्य॑॥10॥ यत्। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। प॒र॒मस्या॑म्। पृ॒थि॒व्याम्। म॒ध्य॒मस्या॑म्। अ॒व॒मस्या॑म्। उ॒त। स्थः। अतः॑। परि॑। वृ॒ष॒णौ॒। आ। हि। या॒तम्। अथ॑। सोम॑स्य। पि॒ब॒त॒म्। सु॒तस्य॑॥10॥ पदार्थः—(यत्) यौ (इन्द्राग्नी) (परमस्याम्) (पृथिव्याम्) (मध्यमस्याम्) (अवमस्याम्) (उत) (स्थः) पूर्ववदर्थः (अतः॰) इत्यापि पूर्ववत्॥10॥ अन्वयः—अन्वयोऽपि पूर्ववद्विज्ञेयः॥10॥ भावार्थः—द्विविधाविन्द्राग्नी स्तः। एकावुत्तमगुणकर्मस्वभावेषु स्थितौ पवित्रभूमौ वा तावुत्तमौ यावपवित्रगुणकर्मस्वभावेष्वशुद्धभूम्यादिपदार्थैषु वा तिष्ठतस्ताववरौ इमौ द्विधा पवनाग्नी उपरिष्टादधोऽधस्तादुपर्य्यागच्छतस्तस्मादुभाभ्यां मन्त्राभ्यामवमपरमशब्दाभ्यां पूर्वप्रयुक्ताभ्यां विज्ञापितोऽयमर्थ इति वेद्यम्॥10॥ पदार्थः—इस मन्त्र का अर्थ पिछले मन्त्र के समान जानना चाहिये॥10॥ भावार्थः—इन्द्र और अग्नि दो प्रकार के हैं। एक तो वे कि जो उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव में स्थिर वा पवित्र भूमि में स्थिर हैं, वे उत्तम और जो अपवित्र गुण, कर्म, स्वभाव में वा अपवित्र भूमि आदि पदार्थों में स्थिर होते हैं वे निकृष्ट; ये दोनों प्रकार के पवन और अग्नि ऊपर-नीचे सर्वत्र चलते हैं। इससे दोनों मन्त्रों से (अवम) और (परम) शब्द जो पहिले प्रयोग किये हुए हैं, उनसे दो प्रकार के (इन्द्र) और (अग्नि) के अर्थ को समझाया है, ऐसा जानना चाहिये॥10॥ अथ भौतिकाविन्द्राग्नी क्व क्व वर्त्तेते इत्युपदिश्यते॥ अब भौतिक इन्द्र और अग्नि कहाँ-कहाँ रहते हैं, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥ यदि॑न्द्राग्नी दि॒वि ष्ठो यत्पृ॑थि॒व्यां यत्पर्व॑ते॒ष्वोष॑धीष्व॒प्सु। अतः॒ परि॑ वृषणा॒वा हि या॒तमथा॒ सोम॑स्य पिबतं सु॒तस्य॑॥11॥ यत्। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। दि॒वि। स्थः। यत्। पृ॒थि॒व्याम्। यत्। पर्व॑तेषु। ओष॑धीषु। अ॒प्ऽसु। अतः॑। परि॑। वृ॒ष॒णौ॒। आ। हि। या॒तम्। अथ॑। सोम॑स्य। पि॒ब॒त॒म्। सु॒तस्य॑॥11॥ पदार्थः—(यत्) यतः (इन्द्राग्नी) पवनविद्युतौ (दिवि) प्रकाशमान आकाशे सूर्य्यलोके वा (स्थः) वर्त्तेते (यत्) यतः (पृथिव्याम्) भूमौ (यत्) यतः (पर्वतेषु) (अप्सु) (अतः॰) इति पूर्ववत्॥11॥ अन्वयः—यदिन्द्राग्नी दिवि यत् पृथिव्यां यत् पर्वतेष्वप्स्वोषधीषु स्थो वर्त्तेते। अतः परिवृषणौ तौ ह्यायातमागच्छतोऽथ सुतस्य सोमस्य रसं पिबतम्॥11॥ भावार्थः—यौ धनञ्जयवायुकारणाख्यावग्नी सर्वपदार्थस्थौ विद्येते, तौ यथावद्विदितौ संप्रयोजितौ च बहूनि कार्य्याणि साधयतः॥11॥ पदार्थः—(यत्) जिस कारण (इन्द्राग्नी) पवन और बिजुली (दिवि) प्रकाशमान आकाश में (यत्) जिस कारण (पृथिव्याम्) पृथिवी में (यत्) वा जिस कारण (पर्वतेषु) पर्वतों (अप्सु) जलों में और (ओषधीषु) ओषधियों में (स्थः) वर्त्तमान हैं (अतः) इस कारण (परि, वृषणौ) सब प्रकार से सुख की वर्षा करनेवाले वे (हि) निश्चय से (आ, यातम्) प्राप्त होते (अथ) इसके अनन्तर (सुतस्य) निकाले हुए (सोमस्य) जगत् के पदार्थों के रस को (पिबतम्) पीते हैं॥11॥ भावार्थः—जो धनञ्जय पवन और कारणरूप अग्नि सब पदार्थों में विद्यमान हैं, वे जैसे के वैसे जाने और क्रियाओं में जोड़े हुए बहुत कामों को सिद्ध करते हैं॥11॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ यदि॑न्द्राग्नी॒ उदि॑ता॒ सूर्य॑स्य॒ मध्ये॑ दि॒वः स्व॒धया॑ मा॒दये॑थे। अतः॒ परि॑ वृषणा॒वा हि या॒तमथा॒ सोम॑स्य पिबतं सु॒तस्य॑॥12॥ यत्। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। उत्ऽइ॑ता। सूर्य॑स्य। मध्ये॑। दि॒वः। स्व॒धया॑। मा॒दये॑थे॒ इति॑। अतः॑। परि॑। वृ॒ष॒णौ॒। आ। हि। या॒तम्। अथ॑। सोम॑स्य। पि॒ब॒त॒म्। सु॒तस्य॑॥12॥ पदार्थः—(यत्) यतः (इन्द्राग्नी) पूर्वोक्तौ (उदिता) उदित्तौ प्राप्तोदयौ (सूर्य्यस्य) सवितृमण्डलस्य (मध्ये) (दिवः) अन्तरिक्षस्य (स्वधया) उदकेनान्नेन वा सह वर्त्तमानौ (मादयेथे) हर्षयतः (अतः, परि॰) इति पूर्ववत्॥12॥ अन्वयः—यत् याविन्द्राग्नी उदिता सूर्यस्य दिवो मध्ये स्वधया सर्वान् मादयेथे हर्षयतोऽतो वृषणौ पर्य्यायातं परितो बाह्याभ्यन्तरत आगच्छतो हि खल्वथ सुतस्य सोमस्य रसं पिबतं पिबतः॥12॥ भावार्थः—नहि पवनविद्युद्भ्यां विना कस्यापि लोकस्य प्राणिनो वा रक्षा जीवनं च संभवति तस्मादेतौ जगत्पालने मुख्यौ स्तः॥12॥ पदार्थः—(यत्) जिस कारण (इन्द्राग्नी) पवन और बिजुली (उदिता) उदय को प्राप्त हुए (सूर्य्यस्य) सूर्य्यमण्डल के वा (दिवः) अन्तरिक्ष के (मध्ये) बीच में (स्वधया) अन्न और जल से सबको (मादयेथे) हर्ष देते हैं (अतः) इससे (वृषणा) सुख की वर्षा करनेवाले (परि) सब प्रकार से (आ, यातम्) आते अर्थात् बाहर और भीतर से प्राप्त होते और (हि) निश्चय है कि (अथ) इसके अनन्तर (सुतस्य) निकाले हुए (सोमस्य) जगत् के पदार्थों के रस को (पिबतम्) पीते हैं॥12॥ भावार्थः—पवन और बिजुली के विना किसी लोक वा प्राणी की रक्षा और जीवन नहीं होते हैं, इससे संसार की पालना में ये ही मुख्य हैं॥12॥ पुनर्धनपतिसेनाध्यक्षौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ अब धनपति और सेनापति कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ ए॒वेन्द्रा॑ग्नी पपि॒वांसा॑ सु॒तस्य॒ विश्वा॒स्मभ्यं॒ सं ज॑यतं॒ धना॑नि। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौः॥13॥27॥ ए॒व। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। प॒पि॒ऽवांसा॑। सु॒तस्य॑। विश्वा॑। अ॒स्मभ्य॑म्। सम्। ज॒य॒त॒म्। धना॑नि। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः॥13॥ पदार्थः—(एव) अवधारणे (इन्द्राग्नी) परमधनाढ्यो युद्धविद्याप्रवीणश्च (पपिवांसा) पीतवन्तौ (सुतस्य) निष्पन्नस्य (विश्वा) अखिलानि (अस्मभ्यम्) (सम्) (जयतम्) (धनानि) (तन्नो, मित्रो॰) इति पूर्ववत्॥13॥ अन्वयः—मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्यानि नोऽस्मभ्यं मामहन्तां तत् तान्येव विश्वा धनानि सुतस्य निष्पन्नस्य रसं पपिवांसा इन्द्राग्नी संजयतं सम्यक् साधयतः॥13॥ भावार्थः—नहि विद्वद्भ्यां बलिष्ठाभ्यां धार्मिकाभ्यां कोशसेनाध्यक्षाभ्यां विनोत्तमपुरुषार्थिनां विद्यादिधनानि वर्धितुं शक्यानि तथा मित्रादयः स्वमित्रेभ्यः सुखानि प्रयच्छन्ति, तथैव कोशसेनाध्यक्षादयः प्रजास्थेभ्यः प्राणिभ्यः सुखानि ददति तस्मात्सर्वैरेतौ सदा सम्पालनीयौ॥3॥ अत्र पवनविद्युदादिगुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इत्यष्टोत्तरशततमं 108 सूक्तं सप्तविंशो 27 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—(मित्रः) मित्र (वरुणः) श्रेष्ठ गुणयुक्त (अदितिः) उत्तम विद्वान् (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) सूर्य का प्रकाश जिनको (नः) हम लोगों के लिये (मामहन्ताम्) बढ़ावें (तत्, एव) उन्हीं (विश्वा) समस्त (धनानि) धनों को (सुतस्य) पदार्थों के निकाले हुए रस को (पपिवांसा) पिये हुए (इन्द्राग्नी) अति धनी वा युद्धविद्या में कुशल वीरजन (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (संजयताम्) अच्छी प्रकार जीतें अर्थात् सिद्ध करें॥13॥ भावार्थः—विद्वान्, बलिष्ठ, धार्मिक, कोशस्वामी और सेनाध्यक्ष और उत्तम पुरुषार्थ करनेवालों के विना विद्या आदि धन नहीं बढ़ सकते हैं। जैसे मित्र आदि अपने मित्रों के लिये सुख देते हैं, वैसे ही कोशस्वामी और सेनाध्यक्ष आदि प्रजाजनों के लिये सुख देते हैं। इससे सबको चाहिये कि इनकी सदा पालना करें॥13॥ इस सूक्त में पवन और बिजुली आदि गुणों के वर्णन से उसके अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये॥ यह एकसौ आठवाँ 108 सूक्त और सत्ताईसवाँ 27 वर्ग पूरा हुआ॥


अथ नवोत्तरशततमस्याष्टर्च्चस्य सूक्तस्याङ्गिरसः कुत्स ऋषिः। इन्द्राग्नी देवते। 1,3,4,6,8 निचृत्त्रिष्टुप्। 2,5 त्रिष्टुप्। 7 विराट् त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः॥ पुनस्तौ विद्युत्प्रसिद्धाग्नी कीदृशावित्युपदिश्यते॥ अब एकसौ नववें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से फिर वे भौतिक अग्नि और बिजुली कैसे हैं, यह उपदेश किया है॥ वि ह्यख्यं॒ मन॑सा॒ वस्य॑ इ॒च्छन्निन्द्रा॑ग्नी ज्ञा॒स उ॒त वा॑ सजा॒तान् नान्या यु॒वत्प्रम॑तिरस्ति॒ मह्यं॒ स वां॒ धियं॑ वाज॒यन्ती॑मतक्षम्॥1॥ वि। हि। अख्य॑म्। मन॑सा॒। वस्यः॑। इ॒च्छन्। इन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑। ज्ञा॒सः। उ॒त। वा॒। स॒ऽजा॒तान्। न। अ॒न्या। यु॒वत्। प्रऽम॑तिः। अ॒स्ति॒। मह्य॑म्। सः। वा॒म्। धिय॑म्। वा॒ज॒ऽयन्ती॑म्। अ॒त॒क्ष॒म्॥1॥ पदार्थः—(वि) विविधार्थे (हि) खलु (अख्यम्) अन्यान् प्रति कथयेयम् (मनसा) विज्ञानेन (वस्यः) वसुषु साधेु। छान्दसो वर्णलोपो वेत्युकारलोपः। (इच्छन्) (इन्द्राग्नी) विद्युद्भौतिकावग्नी (ज्ञासः) जानन्ति ये तान् विदुषः सृष्टिस्थान् ज्ञातव्यान् पदार्थान् वा (उत) अपि (वा) विद्यार्थिनां ज्ञापकानां समुच्चये वा (सजातान्) सहोत्पन्नान् (न) नहि (अन्या) भिन्ना (युवत्) मिश्रयित्रमिश्रकौ वा (प्रमतिः) प्रकृष्टा चासौ मतिश्च प्रमतिः (अस्ति) (मह्यम्) (सः) (वाम्) युवाभ्याम् (धियम्) उत्तमां प्रज्ञाम् (वाजयन्तीम्) सबलानां विद्यानां प्रज्ञापिकाम् (अतक्षम्) तनूकुर्य्याम्॥1॥ अन्वयः—यथेन्द्राग्नी इच्छन् वस्योऽहं ज्ञासः सजातानुत वा मनसा ज्ञातुमिच्छन् युवदहमेतान् हि खलु व्यख्यं तथा यूयमपि विख्यात या मम प्रमतिरस्ति सा युष्मभ्यमप्यस्तु नान्या यथाहं वामध्यापकाध्येतृभ्यां वाजयन्तीं धियमतक्षं तथा सोऽध्यापकोऽध्येता चैनां मह्यं तक्षतु॥1॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्याणां योग्यतास्ति सत्प्रीतिपुरुषार्थाभ्यां सद्विद्यादिबोधयन्तोऽत्युत्तमां बुद्धिं जनयित्वा व्यवहारपरमार्थसिद्धिकराणि कार्याण्यवश्यं साध्नुवन्तु॥1॥ पदार्थः—जैसे (इन्द्राग्नी) बिजुली और जो दृष्टिगोचर अग्नि हैं, उनको (इच्छन्) चाहता हुआ (वस्यः) जिन्होंने चौबीस वर्ष पर्य्यन्त ब्रह्मचर्य्य किया है, उनमें प्रशंसनीय मैं तथा (ज्ञासः) जो ज्ञाताजन हैं उनको वा जानने योग्य पदार्थों को (सजातान्) वा एक संग हुए पदार्थों को (उत) और (वा) विद्यार्थी वा समझानेवालों को (मनसा) विशेष ज्ञान से जानने की इच्छा करता हुआ (युवत्) सब वस्तुओं को यथायोग्य कार्य्य में लगवानेहारा मैं इनको (हि) निश्चय से (वि, अख्यम्) औरों के प्रति उत्तमता के साथ कहूं, वैसे तुम लोग भी कहो, जो मेरी (प्रमतिः) प्रबल मति (अस्ति) है, वह तुम लोगों को भी हो, (न, अन्या) और न हो। जैसे मैं (वाम्) तुम दोनों पढ़ाने-पढ़नेवालों से (वाजयन्तीम्) समस्त विद्याओं को जतानेवाली (धियम्) उत्तम बुद्धि को (अतक्षम्) सूक्ष्म करूं अर्थात् बहुत कठिन विषयों को सुगमता से जानूं, वैसे (सः) वह पढ़ाने और पढ़नेवाला इसको (मह्यम्) मेरे लिये सूक्ष्म करे॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में दो लुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों की योग्यता यह है कि अच्छी प्रीति और पुरुषार्थ से श्रेष्ठ विद्या आदि का बोध कराते हुए अति उत्तम बुद्धि उत्पन्न कराकर व्यवहार और परमार्थ की सिद्धि करानेवाले कामों को अवश्य सिद्ध करें॥1॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ अश्र॑वं॒ हि भू॑रि॒दाव॑त्तरा वां॒ विजा॑मातुरु॒त वा॑ घा स्या॒लात्। अथा॒ सोम॑स्य॒ प्रय॑ती यु॒वभ्या॒मिन्द्रा॑ग्नी॒ स्तोमं॑ जनयामि॒ नव्य॑म्॥2॥ अश्र॑वम्। हि। भू॒रि॒दाव॑त्ऽतरा। वा॒म्। विऽजा॑मातुः। उ॒त। वा॒। घ॒। स्या॒लात्। अथ॑। सोम॑स्य। प्रऽय॑ती। यु॒वऽभ्या॑म्। इन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑। स्तोम॑म्। ज॒न॒या॒मि॒। नव्य॑म्॥2॥ पदार्थः—(अश्रवम्) शृणोमि (हि) किल (भूरिदावत्तरा) अतिशयेन बहुधनदानप्राप्तिनिमित्तौ (वाम्) एतौ (विजामातुः) विगतो विरुद्धश्च जामाता च तस्मात् (उत) अपि (वा) (घ) एव। अत्र ऋचि तु॰ इति दीर्घः। (स्यालात्) स्वस्त्रीभ्रातुः (अथ) निपातस्य चेति दीर्घः। (सोमस्य) ऐश्वर्य्यप्रापकस्य व्यवहारस्य (प्रयती) प्रयत्यै प्रदानाय। अत्र प्रपूर्वाद्यमधातोः क्तिन् तस्माच्चतुर्थ्येकवचने सुपां सुलुगितीकारादेशः। (युवभ्याम्) एताभ्याम् (इन्द्राग्नी) पूर्वोक्तौ (स्तोमम्) गुणप्रकाशम् (जनयामि) प्रकटयामि (नव्यम्) नवीनम्॥2॥ अन्वयः—यौ वामेतौ भूरिदावत्तरेन्द्राग्नी वर्त्तेते यौ विजामातुः स्यालादुतापि वा धान्येभ्यश्चैव धनानि दापयत इत्यहमश्रवं अथ हि युवभ्यामेताभ्यां सोमस्य प्रयती ऐश्वर्य्यप्रदानाय नव्यं स्तोममहं जनयामि॥1॥ भावार्थः—सर्वेषां मनुष्याणां विद्युदादिपदार्थानां गुणज्ञानसंप्रयोगाभ्यां नूतनं कार्य्यसिद्धिकरं कलायन्त्रादिकं विधायानेकानि कार्य्याणि निर्वृत्य धर्मार्थकामसिद्धिः सम्पादनीयेति॥2॥ पदार्थः—जो (वाम्) ये (भूरिदावत्तरा) अतीव बहुत से धन की प्राप्ति करानेहारे (इन्द्राग्नी) बिजुली और भौतिक अग्नि हैं वा जो उक्त इन्द्राग्नी (विजामातुः) विरोधी जमाई (स्यालात्) साले से (उत, वा) अथवा और (घ) अन्यों जनों से धनों को दिलाते हैं, यह मैं (अश्रवम्) सुन चुका हूं (अथ, हि) अभि (युवभ्याम्) इनसे (सोमस्य) ऐश्वर्य्य अर्थात् धनादि पदार्थों की प्राप्ति करनेवाले व्यवहार के (प्रयती) अच्छे प्रकार देने के लिये (नव्यम्) नवीन (स्तोमम्) गुण के प्रकाश को मैं (जनयामि) प्रकट करता हूं॥2॥ भावार्थः—सब मनुष्यों को बिजुली आदि पदार्थों के गुणों का ज्ञान और उनके अच्छे प्रकार कार्य में युक्त करने से नवीन-नवीन कार्य्य की सिद्धि करनेवाले कलायन्त्र आदि का विधान कर अनेक कामों को बना कर धर्म, अर्थ और अपनी कामना की सिद्धि करनी चाहिये॥2॥ पुनरेताभ्यां किन्न कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते॥ फिर उनको क्या न करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ मा छे॑द्म र॒श्मीँरिति॒ नाध॑मानाः पितॄ॒णां श॒क्तीर॑नु॒यच्छ॑मानाः। इ॒न्द्रा॒ग्निभ्यां॒ कं वृष॑णो मदन्ति॒ ता ह्यद्री॑ धि॒षणा॑या उ॒पस्थे॑॥3॥ मा। छे॒द्म॒। र॒श्मीन्। इति॑। नाध॑मानाः। पि॒तॄ॒णाम्। श॒क्तीः। अ॒नु॒ऽयच्छ॑मानाः। इ॒न्द्रा॒ग्निऽभ्या॑म्। कम्। वृष॑णः। म॒द॒न्ति॒। ता। हि। अद्री॒ इति॑। धि॒षणा॑याः। उ॒पऽस्थे॑॥3॥ पदार्थः—(मा) निषेधे (छेद्म) छिन्द्याम (रश्मीन्) विद्याविज्ञानतेजांसि (इति) प्रकारार्थे (नाधमानाः) ऐश्वर्य्येणाप्तिमिच्छुकाः (पितॄणाम्) पालकानां विज्ञानवतां विदुषां रक्षानुयुक्तानामृतूनां वा (शक्तीः) सामर्थ्यानि (अनुयच्छमानाः) आनुकूल्येन नियन्तारः। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (इन्द्राग्निभ्याम्) पूर्वोक्ताभ्याम् (कम्) सुखम् (वृषणः) बलवन्तः (मदन्ति) मदन्ते कामयन्ते। अत्र वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति नुमभावो व्यत्ययेन परस्मैपदं च। (ता) तौ (हि) खलु (अद्री) यौ न द्रवतो विनश्यतः कदाचित्तौ (धिषणायाः) प्रज्ञायाः (उपस्थे) समीपे स्थापयितव्ये व्यवहारे। अत्र घञर्थे कविधानमिति कः प्रत्ययः॥3॥ अन्वयः—यथा वृषणो यावद्री वर्त्तेते ता सम्यग्विज्ञायैताभ्यामिन्द्राग्निभ्यां धिषणाया उपस्थे कं प्राप्य मदन्ति तथा पितॄणां रश्मीन् नाधमानाः शक्तीरनुयच्छमाना वयं मदेमहीति विज्ञायैतदादिविद्यानां मूलं मा छेद्म॥3॥ भावार्थः—ऐश्वर्यकामैर्मनुष्यैर्न कदाचिद्विदुषां सेवासङ्गौ त्यक्त्वा वसन्तादीनामृतूनां यथायोग्ये विज्ञानसेवने च विहाय वर्त्तितव्यम्। विद्याबुद्ध्युन्नतिर्व्यवहारस्य सिद्धिश्च प्रयत्नेन कार्या॥3॥ पदार्थः—जैसे (वृषणः) बलवान् जन जो (अद्री) कभी विनाश को न प्राप्त होनेवाले हैं (ता) उन इन्द्र और अग्नियों को अच्छी प्रकार जान (इन्द्राग्निभ्याम्) इनसे (धिषणायाः) अति विचारयुक्त बुद्धि के (उपस्थे) समीप में स्थिर करने योग्य अर्थात् उस बुद्धि के साथ में लाने योग्य व्यवहार में (कम्) सुख को पाकर (मदन्ति) आनन्दित होते हैं वा उस सुख की चाहना करते हैं, वैसे (पितॄणाम्) रक्षा करनेवाले ज्ञानी विद्वानों वा रक्षा से अनुयोग को प्राप्त हुए वसन्त आदि ऋतुओं के (रश्मीन्) विद्यायुक्त ज्ञानप्रकाशों को (नाधमानाः) ऐश्वर्य के साथ चाहते (शक्तीः) वा सामर्थ्यों को (अनु यच्छमानाः) अनुकूलता के साथ नियम में लाते हुए हम लोग आनन्दित होते (हि) ही हैं और (इति) ऐसा जानके इन विद्याओं की जड़ को हम लोग (मा छेद्म) न काटें॥3॥ भावार्थः—ऐश्वर्य्य की कामना करते हुए हम लोगों को कभी विद्वानों का संग और उनकी सेवा को छोड़ तथा वसन्त आदि ऋतुओं का यथायोग्य अच्छी प्रकार ज्ञान और सेवन का न त्यागकर अपना वर्त्ताव रखना चाहिये और विद्या तथा बुद्धि की उन्नति और व्यवहार सिद्धि उत्तम प्रयत्न के साथ करना चाहिये॥3॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ यु॒वाभ्यां॑ दे॒वी धि॒षणा॒ मदा॒येन्द्रा॑ग्नी॒ सोम॑मुश॒ती सु॑नोति। ताव॑श्विना भद्रहस्ता सुपाणी॒ आ धा॑वतं॒ मधु॑ना पृ॒ङ्क्तम॒प्सु॥4॥ यु॒वाभ्या॑म्। दे॒वी। धि॒षणा॑। मदा॑य। इन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑। सोम॑म्। उ॒श॒ती। सु॒नो॒ति॒। तौ। अ॒श्वि॒ना॒। भ॒द्र॒ऽह॒स्ता॒। सु॒पा॒णी॒ इति॑ सुऽपाणी। आ। धा॒व॒त॒म्। मधु॑ना। पृ॒ङ्क्तम्। अ॒प्ऽसु॥4॥ पदार्थः—(युवाभ्याम्) (देवी) दिव्यशिक्षाशास्त्रविद्याभिर्देदीप्यमाना (धिषणा) प्रज्ञा (मदाय) हर्षाय (इन्द्राग्नी) पूर्वोक्तौ (सोमम्) ऐश्वर्यम् (उशती) कामयमाना (सुनोति) निष्पादयति (तौ) (अश्विना) व्याप्तिशीलौ (भद्रहस्ता) भद्रकरणहस्ताविव गुणा ययोस्तौ (सुपाणी) शोभनाः पाण्यो व्यवहारा ययोस्तौ (आ) समन्तात् (धावतम्) धावयतः (मधुना) जलेन (पृङ्क्तम्) सम्पृङ्क्त (अप्सु) कलास्थेषु जलाशयेषु वर्त्तमानौ॥4॥ अन्वयः—या सोममुशती देवी धिषणा मदाय युवाभ्यां कार्य्याणि सुनोति तया याविन्द्राग्नी अप्सु मधुना पृङ्क्तं भद्रहस्ता सुपाणी अश्विना स्तस्ताविन्द्राग्नी यानेषु संप्रयुक्तौ सन्तवाधावतं समन्तात् यानानि धावयतम्॥4॥ भावार्थः—मनुष्या यावत् सुशिक्षासुविद्याक्रियाकौशलयुक्ताधियो न सम्पादयन्ति तावद्विद्युदादिभ्यः पदार्थेभ्य उपकारं ग्रहीतुं न शक्नुवन्ति तस्मादेतत् प्रयत्नेन साधनीयम्॥4॥ पदार्थः—जो (सोमम्) ऐश्वर्य की (उशती) कान्ति करानेवाली (देवी) अच्छी-अच्छी शिक्षा और शास्त्रविद्या आदि से प्रकाशमान (धिषणा) बुद्धि (मदाय) आनन्द के लिये (युवाभ्याम्) जिनसे कामों को (सुनोति) सिद्ध करती है, उस बुद्धि से जो (इन्द्राग्नी) बिजुली और भौतिक अग्नि (अप्सु) कलाघरों के जल के स्थानों में (मधुना) जल से (पृङ्क्तम्) सम्पर्क अर्थात् संबन्ध करते हैं वा (भद्रहस्ता) जिनके उत्तम सुख के करनेवाले हाथों के तुल्य गुण (सुपाणी) और अच्छे-अच्छे व्यवहार वा (अश्विना) जो सब में व्याप्त होनेवाले हैं (तौ) वे बिजुली और भौतिक अग्नि रथों में अच्छी प्रकार लगाये हुए उनको (आ, धावतम्) चलाते हैं॥4॥ भावार्थः—मनुष्य जब तक अच्छी शिक्षा, उत्तम विद्या और क्रियाकौशलयुक्त बुद्धियों को न सिद्ध करते हैं, तब तक बिजुली आदि पदार्थों से उपकार को नहीं ले सकते। इससे इस काम को अच्छे यत्न से सिद्ध करना चाहिये॥4॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ फिर वे दोनों कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ यु॒वामि॑न्द्राग्नी॒ वसु॑नो विभा॒गे त॒वस्त॑मा शुश्रव वृत्र॒हत्ये॑। तावा॒सद्या॑ ब॒र्हिषि॑ य॒ज्ञे अ॒स्मिन् प्र च॑र्षणी मादयेथां सु॒तस्य॑॥5॥28॥ यु॒वाम्। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। वसु॑नः। वि॒ऽभा॒गे। तवः॒ऽत॑मा। शु॒श्र॒व॒। वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑। तौ। आ॒ऽसद्य॑। ब॒र्हिषि॑। य॒ज्ञे। अ॒स्मिन्। प्र। च॒र्ष॒णी॒ इति॑। मा॒द॒ये॒था॒म्। सु॒तस्य॑॥5॥ पदार्थः—(युवाम्) एतौ द्वौ (इन्द्राग्नी) पूर्वोक्तौ (वसुनः) धनस्य (विभागे) सेवनव्यवहारे (तवस्तमा) अतिशयेन बलयुक्तौ बलप्रदौ वा (शुश्रव) शृणोमि (वृत्रहत्ये) वृत्रस्य शत्रूसमूहस्य मेघस्य वा हत्या हननं येन तस्मिन् सङ्ग्रामे (तौ) (आसद्य) प्राप्य वा। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (बर्हिषि) उपवर्धयितव्ये (यज्ञे) सङ्गमनीये शिल्पव्यवहारे (अस्मिन्) (प्र, चर्षणी) सम्यक् सुखप्रापकौ। चर्षणिरिति पदनामसु पठितम्। (निघं॰4.2) (मादयेथाम्) मादयेते हर्षयतः (सुतस्य) निष्पादितस्य। कर्मणि षष्ठी॥5॥ अन्वयः—अहं वसुनो विभागे वृत्रहत्ये वा युवामिन्द्राग्नी तवस्तमा स्त इति शुश्रव शृणोमि। अतस्तौ प्रचर्षणी अस्मिन् बर्हिषि यज्ञे सुतस्य निष्पादितं यानमासद्य मादयेथाम्॥5॥ भावार्थः—मनुष्या याभ्यां धनानि विभजन्ति वा शत्रून् विजित्य सार्वभौमं राज्यं कर्त्तुं शक्नुवन्ति, तौ कार्यसिद्धये कथं न संप्रयुञ्जीरन्॥5॥ पदार्थः—मैं (वसुनः) धन के (विभागे) सेवन व्यवहार में (वृत्रहत्ये) वा जिसमें शत्रुओं और मेघों का हनन हो उस संग्राम में (युवाम्) ये दोनों (इन्द्राग्नी) बिजुली और साधारण अग्नि (तवस्तमा) अतीव बलवान् और बल के देनेहारे हैं, यह (शुश्रव) सुनता हूं, इससे (तौ) वे दोनों (प्रचर्षणी) अच्छे सुख को प्राप्त करानेहारे (अस्मिन्) इस (बर्हिषि) समीप में बढ़नेहारे (यज्ञे) शिल्पव्यवहार के निमित्त (सुतस्य) उत्पन्न किये विमान आदि रथ को (आसद्य) प्राप्त होकर (मादयेथाम्) आनन्द देते हैं॥5॥ भावार्थः—मनुष्य जिससे धनों का विभाग करते हैं वा शत्रुओं को जीत के समस्त पृथिवी पर राज्य कर सकते हैं, उनको कार्य की सिद्धि के लिये कैसे न यथायोग्य कामों में युक्त करें॥5॥ अथ वायुविद्युतौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ अब पवन और बिजुली कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ प्र च॑र्ष॒णिभ्यः॑ पृतना॒हवे॑षु॒ प्र पृ॑थि॒व्या रि॑रिचाथे दि॒वश्च॑। प्र सिन्धु॑भ्यः॒ प्र गि॒रिभ्यो॑ महि॒त्वा प्रेन्द्रा॑ग्नी॒ विश्वा॒ भुव॒नात्य॒न्या॥6॥ प्र। च॒र्ष॒णिऽभ्यः॑। पृ॒त॒ना॒ऽहवे॑षु। प्र। पृ॒थि॒व्याः। रि॒रि॒चा॒थे॒ इति॑। दि॒वः। च॒। प्र। सिन्धु॑ऽभ्यः। प्र। गि॒रिऽभ्यः॑। म॒हि॒त्वा। प्र। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। विश्वा॑। भुव॑ना। अति॑ अ॒न्या॥6॥ पदार्थः—(प्र) प्रकृष्टार्थे (चर्षणिभ्यः) मनुष्येभ्यः (पृतनाहवेषु) सेनाभिः प्रवृत्तेषु युद्धेषु (प्र) (पृथिव्याः) भूमेः (रिरिचाथे) अतिरिक्तौ भवतः (दिवः) सूर्यात् (च) अन्येभ्योऽपि लोकेभ्यः (प्र) (सिन्धुभ्यः) समुद्रेभ्यः (प्र) (गिरिभ्यः) शैलेभ्यः (महित्वा) प्रशंसय्य (प्र) (इन्द्राग्नी) वायुविद्युतौ (विश्वा) अखिला (भुवना) भुवनानि लोकान् (अति) (अन्या) अन्यानि॥6॥ अन्वयः—इन्द्राग्नी अन्या विश्वा भुवना अन्यान् सवार्ँल्लोकान् महित्वा पृतनाहवेषु चर्षणिभ्यः प्रपृथिव्या प्रसिन्धुभ्यः प्रगिरिभ्यः प्रदिवश्च प्रातिरिरिचाथे प्रातिरिक्तौ भवतः॥6॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि वायुविद्युद्भ्यां सदृशो महान् कश्चिदपि लोको भवितुमर्हति कुत एतौ सवार्ँल्लोकानभिव्याप्य स्थितावतः॥6॥ पदार्थः—(इन्द्राग्नी) वायु और बिजुली (अन्या) (विश्वा) (भुवना) और समस्त लोकों को (महित्वा) प्रशंसित करा के (पृतनाहवेषु) सेनाओं से प्रवृत्त होते हुए युद्धों में (चर्षणिभ्यः) मनुष्यों से (प्र, पृथिव्याः) अच्छे प्रकार पृथिवी वा (प्र, सिन्धुभ्यः) अच्छे प्रकार समुद्रों वा (प्र गिरिभ्यः) अच्छे प्रकार पर्वतों वा (प्र दिवश्च) और अच्छे प्रकार सूर्य्य से (प्र, अति रिरिचाथे) अत्यन्त बढ़ कर प्रतीत होते अर्थात् कलायन्त्रों के सहाय से बढ़कर काम देते हैं॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। पवन और बिजुली के समान बड़ा कोई लोक नहीं होने योग्य है, क्योंकि ये दोनों सब लोकों को व्याप्त होकर ठहरे हुए हैं॥6॥ अथाध्यापकाध्येतारौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ अब पढ़ाने और पढ़नेवाले कैसे होते हैं, यह उपदेश अगले मन्त्र में इन्द्र और अग्नि नाम से किया है॥ आ भ॑रतं॒ शिक्ष॑तं वज्रबाहू अ॒स्माँ इ॑न्द्राग्नी अवतं॒ शची॑भिः। इ॒मे नु ते र॒श्मयः॒ सूर्य॑स्य॒ येभिः॑ सपि॒त्वं पि॒तरो॑ न॒ आस॑न्॥7॥ आ। भ॒र॒त॒म्। शिक्ष॑तम्। व॒ज्र॒बा॒हू॒ इति॑ वज्रऽबाहू। अ॒स्मान्। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। अ॒व॒त॒म्। श॒ची॑भिः। इ॒मे। नु। ते। र॒श्मयः॑। सूर्य॑स्य। येभिः॑। स॒ऽपि॒त्वम्। पि॒तरः॑। नः॒। आस॑न्॥7॥ पदार्थः—(आ) (भरतम्) धारयतम् (शिक्षतम्) विद्योपादानं कारयतम् (वज्रबाहू) वज्रौ बलवीर्य्ये बाहू ययोस्तौ (अस्मान्) (इन्द्राग्नी) अध्येत्रध्यापकौ (अवतम्) रक्षणादिकं कुरुतम् (शचीभिः) कर्मभिः प्रज्ञाभिर्वा (इमे) प्रत्यक्षाः (नु) शीघ्रम् (ते) (रश्मयः) किरणाः (सूर्य्यस्य) मार्त्तण्डमण्डलस्य (येभिः) (सपित्वम्) समानं च तत् पित्वं प्रापणं वा विज्ञानं च तत्। अत्र पिगतावित्यस्माद् धातोरौणादिकस्त्वन् प्रत्ययः। (पितरः) यथा जनकाः (नः) अस्मभ्यम् (आसन्) भवन्ति॥7॥ अन्वयः—हे वज्रबाहू इन्द्राग्नी! युवां य इमे सूर्यस्य रश्मयः सन्ति ते रक्षणादिकं च कुर्वन्ति यथा च पितरो येभिर्यैः कर्मभिर्नोऽस्मभ्यं सपित्वं प्रदायोपकारका आसन् तथा शचीभिरस्मान्नाभरतं शिक्षतं सततं न्ववतं च॥7॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या! यः सुशिक्षया मनुष्येषु सूर्यवद्विद्याप्रकाशको मातापितृवत्कृपया रक्षकोऽध्यापकस्तथा सूर्यवत् प्रकाशितप्रज्ञोध्येता चास्ति तौ नित्यं सत्कुरुत नह्येतेन कर्मणा विना कदाचिद्विद्योन्नतिः सम्भवति॥7॥ पदार्थः—(वज्रबाहू) जिनके वज्र के तुल्य बल और वीर्य हैं, वे (इन्द्राग्नी) हे पढ़ने और पढ़ानेवालो! तुम दोनों जैसे (इमे) ये (सूर्यस्य) सूर्य की (रश्मयः) किरणें हैं और (ते) रक्षा आदि करते हैं और जैसे (पितरः) पितृजन (येभिः) जिन कामों से (नः) हम लोगों के लिये (सपित्वम्) समान व्यवहारों की प्राप्ति करने वा विज्ञान को देकर उपकार के करनेवाले (आसान्) होते हैं, वैसे (शचीभिः) अच्छे काम वा उत्तम बुद्धियों से (अस्मान्) हम लोगों को (आ, भरतम्) स्वीकार करो, (शिक्षतम्) शिक्षा देओ और (नु) शीघ्र (अवतम्) पालो॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जो अच्छी शिक्षा से मनुष्यों में सूर्य के समान विद्या का प्रकाशकर्ता और माता-पिता के तुल्य कृपा से रक्षा करने वा पढ़ानेवाला तथा सूर्य के तुल्य प्रकाशित बुद्धि को प्राप्त और दूसरा पढ़नेवाला है, उन दोनों का नित्य सत्कार करो। इस काम के विना कभी विद्या की उन्नति होने का संभव नहीं है॥7॥ पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥ फिर वे दोनों कैसे हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ पुरं॑दरा॒ शिक्ष॑तं वज्रहस्ता॒ऽस्माँ इ॑न्द्राग्नी अवतं॒ भरे॑षु। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौः॥8॥29॥ पुर॑म्ऽदरा। शिक्ष॑तम्। व॒ज्र॒ऽह॒स्ता॒। अ॒स्मान्। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑। अ॒व॒त॒म्। भरे॑षु। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः॥8॥ पदार्थः—(पुरन्दरा) यौ शत्रूणां पुराणि दारयतस्तौ (शिक्षतम्) (वज्रहस्ता) वज्रहस्तौ वज्रं विद्यारूपं वीर्यं हस्त इव ययोस्तौ। वज्रो वै वीर्यम्। (शत॰7.4.2.24) अत्रोभयत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (अस्मान्) (इन्द्राग्नी) उपदेश्योपदेष्टारौ (अवतम्) रक्षादिकं कुरुतम् (भरेषु) (तन्नो मित्रो॰) इति पूर्ववत्॥8॥ अन्वयः—हे पुरन्दरा वज्रहस्तेन्द्राग्नी! युवां यथा मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्नो मामहन्तां तथाऽस्मान् तद्विज्ञानं शिक्षतं भरेष्ववतञ्च॥8॥ भावार्थः—अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा मित्रादयः स्वमित्रादीन् रक्षित्वा वर्धयन्त्यानुकूल्ये वर्त्तन्ते तथोपदेश्योपदेष्टारौ परस्परं विद्यां वर्धयित्वा संप्रीत्या सखित्वे वर्त्तेयाताम्॥8॥ अत्रेन्द्राग्निशब्दार्थवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इति नवोत्तरशततमं 109 सूक्तमेकोनत्रिंशो 29 वर्गश्च समाप्तः॥ पदार्थः—जो (पुरन्दरा) शत्रुओं के पुरों को विध्वंस करनेवाले वा (वज्रहस्ता) जिनका विद्यारूपी वज्र हाथ के समान है, वे (इन्द्राग्नी) उपदेश के सुनने वा करनेवाले तुम जैसे (मित्रः) सुहृज्जन (वरुणः) उत्तम गुणयुक्त (अदितिः) अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) सूर्य का प्रकाश (नः) हम लोगों को (मामहन्ताम्) उन्नति देता है, वैसे (अस्मान्) हम लोगों को (तत्) उन उक्त पदार्थों के विशेष ज्ञान की (शिक्षतम्) शिक्षा देओ और (भरेषु) संग्राम आदि व्यवहारों में (अवतम्) रक्षा आदि करो॥8॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मित्र आदि जन अपने मित्रादिकों की रक्षा कर और उन्नति करते वा एक-दूसरे की अनुकूलता में रहते हैं, वैसे उपदेश के सुनने और सुनाने वाले परस्पर विद्या की वृद्धि कर प्रीति के साथ मित्रपन में वर्त्ताव रक्खें॥8॥ इस सूक्त में इन्द्र और अग्नि शब्द के अर्थ का वर्णन है। इससे इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये॥ यह एकसौ नववाँ 109 सूक्त और उनतीसवाँ 29 वर्ग पूरा हुआ॥


अथ दशोत्तरशततमस्य नवर्च्चस्य सूक्तस्याङ्गिरसः कुत्स ऋषिः। ऋभवो देवताः। 1,4 जगती। 2,3,7 विराड्जगती। 6,8 निचृज्जगती छन्दः। निषादः स्वरः। 5 निचृत् त्रिष्टुप्। 9 त्रिष्टुप् छन्दः। धैवतः स्वरः। अथ विद्वांसो मनुष्याः कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते। अब 110 एकसौ दशवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से विद्वान् मनुष्य कैसे अपना वर्ताव रक्खें, यह उपदेश किया है॥ त॒तं मे॒ अप॒स्तदु॑ तायते॒ पुनः॒ स्वादि॑ष्ठा धी॒तिरु॒चथा॑य शस्यते। अ॒यं स॑मु॒द्र इ॒ह वि॒श्वदे॑व्यः॒ स्वाहा॑कृतस्य॒ समु॑ तृप्णुत ऋभवः॥1॥ त॒तम्। मे॒। अपः॑। तत्। ऊ॒म् इति॑। ता॒य॒ते॒। पुन॒रिति॑। स्वादि॑ष्ठा। धी॒तिः। उ॒चथा॑य। श॒स्य॒ते॒। अ॒यम्। स॒मु॒द्रः। इ॒ह। वि॒श्वऽदे॑व्यः। स्वाहा॑ऽकृतस्य। सम्। ऊ॒म् इति॑। तृ॒प्णु॒त॒। ऋ॒भ॒वः॒॥1॥ पदार्थः—(ततम्) विस्तृतम् (मे) मम (अपः) कर्म (तत्) तथा (उ) वितर्के (तायते) पालयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (पुनः) (स्वादिष्ठा) अतिशयेन स्वाद्वी (धीतिः) धीः (उचथाय) प्रवचनायाध्यापनाय (शस्यते) (अयम्) (समुद्रः) सागरः (इह) अस्मिँल्लोके (विश्वदेव्यः) विश्वान् समग्रान् देवान् दिव्यगुणानर्हति (स्वाहाकृतस्य) सत्यवाङ् निष्पन्नस्य धर्मस्य (सम्) (उ) (तृप्णुत) सुखयत (ऋभवः) मेधाविनः। ऋभुरिति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं॰3.15) अत्राह निरुक्ताकारः—ऋभव उरु भान्तीति वा। ऋतेन भान्तीति वा। ऋतेन भवन्तीति वा। (निरु॰11.15)॥1॥ अन्वयः—हे ऋभवो मेधाविनो विद्वांसो! यथेहायं विश्वदेव्यः समुद्रो यथा च युष्माभिः स्वाहाकृतस्योचथाय स्वादिष्ठा धीतिः शस्यते यथो मे ततमपस्तायते तदु पुनरस्मान् येयं संतृप्णुत॥1॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। यथा समस्तरत्नैर्युक्तः सागरो दिव्यगुणो वर्त्तते, तथैव धार्मिकैरध्यापकैर्मनुष्येषु सत्यकर्मप्रज्ञे प्रचार्य्य दिव्यगुणाः प्रसिद्धाः कार्य्याः॥1॥ पदार्थः—हे (ऋभवः) बुद्धिमान् विद्वानो! तुम लोग जैसे (इह) इस लोक में (अयम्) यह (विश्वदेव्यः) समस्त अच्छे गुणों के योग्य (समुद्रः) समुद्र है और जैसे तुम लोगों में (स्वाहाकृतस्य) सत्य वाणी से उत्पन्न हुए धर्म के (उचथाय) कहने के लिये (स्वादिष्ठा) अतीव मधुर गुणवाली (धीतिः) बुद्धि (शस्यते) प्रशंसनीय होती है (उ) वा जैसे (मे) मेरा (ततम्) बहुत फैला हुआ अर्थात् सबको विदित (अपः) काम (तायते) पालना करता है (तत् उ पुनः) वैसे फिर तो हम लोगों को (सम् तृप्णुत) अच्छा तृप्त करो॥1॥ भावार्थः—इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे समस्त रत्नों से भरा हुआ समुद्र दिव्य गुणयुक्त है, वैसे ही धार्मिक पढ़ानेवालों को चाहिये कि मनुष्यों में सत्य काम और अच्छी बुद्धि का प्रचार कर दिव्य गुणों की प्रसिद्धि करें॥1॥ पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ आ॒भो॒गयं॒ प्र यदि॒च्छन्त॒ ऐत॒नापा॑काः॒ प्राञ्चो॒ मम॒ के चि॑दा॒पयः॑। सौध॑न्वनासश्चरि॒तस्य॑ भू॒मनाग॑च्छत सवि॒तुर्दा॒शुषो॑ गृ॒हम्॥2॥ आ॒ऽभो॒गय॑म्। प्र। यत्। इ॒च्छन्तः॑। ऐत॑न। अपा॑काः। प्राञ्चः॑। मम॑। के। चि॒त्। आ॒पयः॑। सौध॑न्वनासः। च॒रि॒तस्य॑। भू॒मना॑। अग॑च्छत। स॒वि॒तुः। दा॒शुषः॑। गृ॒हम्॥2॥ पदार्थः—(आभोगयम्) आसमन्ताद्भोगेषु साधुं व्यवहारम्। अत्रोभयसंज्ञान्यपि छन्दांसि दृश्यन्त इति भसंज्ञा निषेधादल्लोपाभावः। (प्र) (यत्) यम् (इच्छन्तः) (ऐतन) प्राप्नुत (अपाकाः) वर्जितपाकयज्ञा यतयः (प्राञ्चः) प्राचीनाः (मम) (के) (चित्) (आपयः) विद्याव्याप्तुकामाः (सौधन्वनासः) शोभनानि धन्वानि धनूंषि येषु ते सुधन्वानस्तेषु कुशला सौधन्वनाः (चरितस्य) अनुष्ठितस्य कर्मणः (भूमना) बहुत्वेन। अत्रोभयसंज्ञान्यपीति भसंज्ञाऽभावादल्लोपाभावः। (आगच्छत) (सवितुः) ऐश्वर्य्ययुक्तस्य (दाशुषः) दानशीलस्य (गृहम्) निवासस्थानम्॥2॥ अन्वयः—हे प्राञ्चोऽपाका यतयो! यूयं ये केचिन्ममापयो यद्ययमाभोगयमिच्छन्तो वर्त्तन्ते, तान् तं प्रैतन। हे सौधन्वनासो! यदा यूयं भूमना चरितस्य सवितुर्दाशुषो गृहमगच्छत खल्वागच्छत तदा जिज्ञासून् प्रति सत्यधर्मग्रहणमुपदिशत॥2॥ भावार्थः—हे गृहस्थादयो मनुष्या! यूयं परिव्राजां सकाशात् सत्या विद्याः प्राप्य क्वचिद्दानशीलस्य सभां गत्वा तत्र युक्त्या स्थित्वा निरभिमानत्वेन वर्त्तित्वा विद्याविनयौ प्रचारयत॥2॥ पदार्थः—हे (प्राञ्चः) प्राचीन (अपाकाः) रोटी आदि का स्वयं पाक तथा यज्ञादि कर्म न करनेहारे संन्यासी जनो! आप जो (के, चित्) कोई जन (मम) मेरे (आपयः) विद्या में अच्छी प्रकार व्याप्त होने की कामना किए (यत्) जिस (आ भोगयम्) अच्छे प्रकार भोगने के पदार्थों में प्रशंसित भोग की (इच्छन्तः) चाह कर रहे हैं, उनको उसी भोग को (प्र, ऐतन) प्राप्त करो। हे (सौधन्वनासः) धनुष बाण के बांधनेवालों में अतीव चतुरो! जब तुम (भूमना) बहुत (चरितस्य) किये हुए काम के (सवितुः) ऐश्वर्य से युक्त (दाशुषः) दान करनेवाले के (गृहम्) घर को (आगच्छत) आओ तब जिज्ञासुओं अर्थात् उपदेश सुननेवालों के प्रति सांचे धर्म के ग्रहण करने का उपदेश करो॥2॥ भावार्थः—हे गृहस्थ आदि मनुष्यो! तुम संन्यासियों से सत्य विद्या को पाकर, कहीं दान करनेवालों की सभा में जाकर, वहाँ युक्ति से बैठ और निरभिमानता से वर्त्तकर विद्या और विनय का प्रचार करो॥2॥ पुनस्ते कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे वर्ते, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ तत्स॑वि॒ता वो॑ऽमृत॒त्वमासु॑व॒दगो॑ह्यं॒ यच्छ्र॒वय॑न्त॒ ऐत॑न। त्यं चि॑च्चम॒समसु॑रस्य॒ भक्ष॑ण॒मेकं॒ सन्त॑मकृणुता॒ चतु॑र्वयम्॥3॥ तत्। स॒वि॒ता। वः॒। अ॒मृ॒त॒ऽत्वम्। आ। अ॒सु॒व॒त्। अगो॑ह्यम्। यत्। श्र॒वय॑न्तः। ऐत॑न। त्यम्। चि॒त्। च॒म॒सम्। असु॑रस्य। भक्ष॑णम्। एक॑म्। सन्त॑म्। अ॒कृ॒णु॒त॒। चतुः॑ऽवयम्॥3॥ पदार्थः—(तत्) (सविता) ऐश्वर्यप्रदो विद्वान् (वः) युष्मभ्यम् (अमृतत्वम्) मोक्षभावम् (आ) (असुवत्) ऐश्वर्ययोगं कुर्यात् (अगोह्यम्) गोप्तुमनर्हम् (यत्) (श्रवयन्तः) श्रावयन्तः (ऐतन) विज्ञापयत (त्यम्) अमुम् (चित्) इव (चमसम्) चमन्त्यस्मिन् मेघे (असुरस्य) असुषु प्राणेषु रतस्य। असुरताः। (निरु॰3.8) (भक्षणम्) सूर्य्यप्रकाशस्याभ्यवहरणम् (एकम्) असहायम् (सन्तम्) वर्त्तमानम् (अकृणुत) कुरुत। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (चतुर्वयम्) चत्वारो धर्मार्थाकाममोक्षा वया व्याप्तव्या येन तम्॥3॥ अन्वयः—हे बुद्धिमन्तो! यूयं यः सविता वो यदमृतत्वमासुवत् तदगोह्यं श्रवयन्तः सकला विद्या ऐतन विज्ञापयत। असुरस्य चमसं त्यं भक्षणं चिदिव चतुर्वयमेकं सन्तमकृणुत॥3॥ भावार्थः—हे विद्वांसो! यथा मेघः प्राणपोषकान्नजलादिपदार्थप्रदो भूत्वा सुखयति, तथैव यूयं विद्यादातारो भूत्वा विद्यार्थिनो विदुषः सम्पाद्य सूपकारान् कुरुत॥3॥ पदार्थः—हे बुद्धिमानो! तुम जो (सविता) ऐश्वर्य्य का देनेवाला विद्वान् (वः) तुम्हारे लिये (यत्) जिस (अमृतत्वम्) मोक्षभाव के (आ, असुवत्) अच्छे प्रकार ऐश्वर्य्य का योग करे (तत्) उसको (अगोह्यम्) प्रकट (श्रवयन्तः) सुनाते हुए सब विद्याओं को (ऐतन) समझाओ, (असुरस्य) जो प्राणों में रम रहा है, उस मेघ के (चमसम्) जिसमें सब भोजन करते हैं अर्थात् जिससे उत्पन्न हुए अन्न को सब खाते हैं (त्यम्) उस (भक्षणम्) सूर्य के प्रकाश को निगल जाने के (चित्) समान (चतुर्वयम्) जिसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं ऐसे (एकम्) एक (सन्तम्) अपने वर्त्ताव को (अकृणुत) करो॥3॥ भावार्थः—हे विद्वानो! जैसे मेघ प्राण की पुष्टि करनेवाले अन्न आदि पदार्थों को देनेवाला होकर सुखी करता है वैसे ही आप लोग विद्या के दान करनेवाले होकर विद्यार्थियों को विद्वान् कर सुन्दर उपकार करो॥3॥ पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ वि॒ष्ट्वी शमी॑ तरणि॒त्वेन॑ वा॒घतो॒ मर्ता॑सः॒ सन्तो॑ऽअमृत॒त्वमा॑नशुः। सौ॒ध॒न्व॒ना ऋ॒भवः॒ सूर॑चक्षसः संवत्स॒रे सम॑पृच्यन्त धी॒तिभिः॑॥4॥ वि॒ष्ट्वी। शमी॑। त॒र॒णि॒ऽत्वेन॑। वा॒घतः॑। मर्ता॑सः। सन्तः॑। अ॒मृ॒त॒ऽत्वम्। आ॒न॒शुः॒। सौ॒ध॒न्व॒नाः। ऋ॒भवः॑। सूर॑ऽचक्षसः। सं॒व॒त्स॒रे। सम्। अ॒पृ॒च्य॒न्त॒। धी॒तिऽभिः॑॥4॥ पदार्थः—(विष्ट्वी) व्यापनशीलानि (शमी) कर्माणि। विष्ट्वी शमीत्येतद्द्वयं कर्मनामसु पठितम्। (निघं॰2.1) (तरणित्वेन) शीघ्रत्वेन (वाघतः) वाग्विद्यायुक्ताः (मर्त्तासः) मरणधर्माणः (सन्तः) (अमृतत्वम्) मोक्षभावम् (आनशुः) अश्नुवन्ति (सौधन्वनाः) शोभनविज्ञानाः (ऋभवः) मेधाविनः (सूरचक्षसः) सूरप्रज्ञानाः (संवत्सरे) वर्षे (सम्) (अपृच्यन्त) पृच्यन्ति (धीतिभिः) कर्मभिः। इमं मन्त्रं निरुक्तकार एवं समाचष्टे- कृत्वा कर्माणि क्षिप्रत्वेन वोढारो मेधाविनो वा, मर्त्तासः सन्तोऽमृतत्वमानशिरे, सौधन्वना ऋभवः सूरख्याना वा सूरप्रज्ञा वा, संवत्सरे समपृच्यन्त धीतिभिः कर्मभिः, ऋभुर्विभ्वा वाज इति। (निरु॰11.16)॥4॥ अन्वयः—ये सौधन्वनाः सूरचक्षसो वाघतो मर्त्तास ऋभवः संवत्सरे धीतिभिः सततं पुरुषार्थयुक्तैः कर्मभिः कार्यसिद्धिं समपृच्यन्त सम्यक् पृञ्चन्ति ते तरणित्वेन विष्ट्वी शमी कुर्वन्तः सन्तोऽमृतत्वं मोक्षभाव- मानशुरश्नुवन्ति॥4॥ भावार्थः—ये मनुष्याः प्रतिक्षणं सुपुरुषार्थान् कुर्वन्ति ते मोक्षपर्यन्तान् पदार्थान् प्राप्य सुखयन्ति, न खल्वलसा मनुष्याः कदाचित् सुखानि प्राप्तुमर्हन्ति॥4॥ पदार्थः—जो (सौधन्वनाः) अच्छे ज्ञानवाले (सूरचक्षसः) अर्थात् जिनका प्रबल ज्ञान है (वाघतः) वा वाणी को अच्छे कहने, सुनने (मर्त्तासः) मरने और जीनेहारे (ऋभवः) बुद्धिमान् जन (संवत्सरे) वर्ष में (धीतिभिः) निरन्तर पुरुषार्थयुक्त कामों से कार्यसिद्धि का (समपृच्यन्त) संबन्ध रखते अर्थात् काम का ढंग रखते हैं वे (तरणित्वेन) शीघ्रता से (विष्ट्वी) व्याप्त होने वाले (शमी) कामों को करते (सन्तः) हुए (अमृतत्वम्) मोक्षभाव को (आनशुः) प्राप्त होते हैं॥4॥ भावार्थः—जो मनुष्य प्रत्येक क्षण अच्छे-अच्छे पुरुषार्थ करते हैं, वे संसार से ले के मोक्ष पर्यन्त पदार्थों को प्राप्त होकर सुखी होते हैं, किन्तु आलसी मनुष्य कभी सुखों को नहीं प्राप्त हो सकते॥4॥ पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ फिर वे कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ क्षेत्र॑मिव॒ वि म॑मु॒स्तेज॑नेनँ॒ एकं॒ पात्र॑मृ॒भवो॒ जेह॑मानम्। उप॑स्तुता उप॒मं नाध॑माना॒ अम॑र्त्येषु॒ श्रव॑ इ॒च्छमा॑नाः॥5॥30॥ क्षेत्र॑म्ऽइव। वि। म॒मुः॒। तेज॑नेन। एक॑म्। पात्र॑म्। ऋ॒भवः॑। जेह॑मानम्। उप॑ऽस्तुताः। उ॒प॒ऽमम्। नाध॑मानाः। अम॑र्त्येषु। श्रवः॑। इ॒च्छमा॑नाः॥5॥ पदार्थः—(क्षेत्रमिव) यथा क्षेत्रं तथा (वि) (ममुः) मानं कुर्वन्ति (तेजनेन) तीव्रेण कर्मणा (एकम्) (पात्रम्) पत्राणां ज्ञानानां समूहम् (ऋभवः) (जेहमानम्) प्रयत्नसाधकम् (उपस्तुताः) उपगतेन स्तुताः (उपमम्) उपमानम् (नाधमानाः) याचमानाः (अमर्त्येषु) मरणधर्मरहितेषु पदार्थेषु (श्रवः) अन्नम् (इच्छमानाः) इच्छन्तः। व्यत्ययेनात्रात्मनेपदम्॥5॥ अन्वयः—ये उपस्तुता नाधमाना अमर्त्येषु श्रव इच्छमाना ऋभवो मेधाविनस्तेजनेन क्षेत्रमिव जेहमानमेकमुपमं पात्रं विममुर्विविधं मान्ति ते सुखं प्राप्नुवन्ति॥5॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथा जनाः क्षेत्रं कर्षित्वा उप्त्वा संरक्ष्य ततोऽन्नादिकं प्राप्य भुक्त्वाऽऽनन्दन्ति तथा वेदोक्तकलाकौशलेन प्रशस्तानि यानानि रचित्वा तत्र स्थित्वा संचाल्य देशान्तरं गत्वा व्यवहारेण राज्येन वा धनं प्राप्य सुखयन्ति॥5॥ पदार्थः—जो (उपस्तुताः) तीर आनेवालों से प्रशंसा को प्राप्त हुए (नाधमानाः) और लोगों से अपने प्रयोजन से याचे हुए (अमर्त्येषु) अविनाशी पदार्थों में (श्रवः) अन्न को (इच्छमानाः) चाहते हुए (ऋभवः) बुद्धिमान् जन (तेजनेन) अपनी उत्तेजना से (क्षेत्रमिव) खेत के समान (जेहमानम्) प्रयत्नों को सिद्ध करानेहारे (एकम्) एक (उपमम्) उपमा रूप अर्थात् अति श्रेष्ठ (पात्रम्) ज्ञानों के समूह का (वि, ममुः) विशेष मान करते हैं, वे सुख पाते हैं॥5॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य खेत को जोत, बोय और सम्यक् रक्षा कर उससे अन्न आदि को पाके उसका भोजन कर आनन्दित होते हैं, वैसे वेद में कहे हुए कलाकौशल से प्रशंसित यानों को रचकर उनमें बैठ और उन्हें चला और एक देश से दूसरे देश में जाकर व्यवहार वा राज्य से धन को पाकर सुखी होते हैं॥5॥ अथ सूर्य्यकिरणाः कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ अब सूर्य्य की किरणें कैसी हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ आ म॑नी॒षाम॒न्तरि॑क्षस्य॒ नृभ्यः॑ स्रु॒चेव॑ घृ॒तं जु॑हवाम वि॒द्मना॑। त॒र॒णि॒त्वा ये पि॒तुर॑स्य सश्चि॒र ऋ॒भवो॒ वाज॑मरुहन्दि॒वो रजः॑॥6॥ आ। म॒नी॒षाम्। अ॒न्तरि॑क्षस्य। नृऽभ्यः॑। स्रु॒चाऽइ॑व। घृ॒तम्। जु॒ह॒वा॒म॒। वि॒द्मना॑। त॒र॒णि॒ऽत्वा। ये। पि॒तुः। अ॒स्य॒। स॒श्चि॒रे। ऋ॒भवः॑। वाज॑म्। अ॒रु॒ह॒न्। दि॒वः। रजः॑॥6॥ पदार्थः—(आ) (मनीषाम्) प्रज्ञाम् (अन्तरिक्षस्य) आकाशस्य मध्ये (नृभ्यः) मनुष्येभ्यः (स्रुचेव) यथा होमोपकरणेन तथा (घृतम्) उदकमाज्यं वा (जुहवाम) आदद्याम (विद्मना) वेत्ति येन तेन विज्ञानेन (तरणित्वा) शीघ्रत्वेन (ये) (पितुः) अन्नम् (अस्य) (सश्चिरे) सज्जन्ति प्राप्नुवन्ति प्रापयन्ति वा (ऋभवः) किरणाः। आदित्यरश्मयोऽप्यृभव उच्यन्ते। (निरु॰11.16) (वाजम्) पृथिव्यादिकमन्नम् (अरुहन्) रोहन्ति (दिवः) प्रकाशितस्याकाशस्य मध्ये (रजः) लोकसमूहम्॥6॥ अन्वयः—ये ऋभवो तरणित्वा वाजमरुहन् दिवो रजः सश्चिरे, अस्यान्तरिक्षस्य मध्ये वर्त्तमाना नृभ्यः स्रुचेव घृतं पितुरन्नं च सश्चिरे, तेभ्यो वयं विद्मना मनीषामा जुहवाम॥6॥ भावार्थः—अत्रोपमालङ्कारः। यथेम आदित्यरश्मयो लोकलोकान्तरानारुह्य सद्यो जलं वर्षयित्वौषधीरुत्पाद्य सर्वान् प्राणिनः सुखयन्ति तथा राजादयो जनाः प्रजाः सुखयन्तु॥6॥ पदार्थः—(ये) जो (ऋभवः) सूर्य्य की किरणें (तरणित्वा) शीघ्रता से (वाजम्) पृथिवी आदि अन्न पर (अरुहन्) चढ़तीं और (दिवः) प्रकाशयुक्त आकाश के बीच (रजः) लोकसमूह को (सश्चिरे) प्राप्त होती हैं। और (अस्य) इस (अन्तरिक्षस्य) आकाश के बीच वर्त्तमान हुई (नृभ्यः) मनुष्यों के लिये (स्रुचेव) जैसे होम करने के पात्र से घृत को छोड़े वैसे (घृतम्) जल तथा (पितुः) अन्न को प्राप्त कराती हैं, उनके सकाश से हम लोग (विद्मना) जिससे विद्वान् सत्-असत् का विचार करता है, उस ज्ञान से (मनीषाम्) विचारवाली बुद्धि को (आ, जुहवाम) ग्रहण करें॥6॥ भावार्थः—इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे ये सूर्य की किरणें लोक-लोकान्तरों को चढ़ कर शीघ्र जल वर्षा और उसने ओषधियों को उत्पन्न कर सब प्राणियों को सुखी करती हैं, वैसे राजादि जन प्रजाओं को सुखी करें॥6॥ पुनर्विद्वानस्मदर्थं केन किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥ फिर श्रेष्ठ विद्वान् हमारे लिये किससे क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ ऋ॒भुर्न॒ इन्द्रः॒ शव॑सा॒ नवी॑यानृ॒भुर्वाजे॑भि॒र्वसु॑र्द॒दिः। यु॒ष्माकं॑ देवा॒ अव॒साह॑नि प्रि॒ये॒ऽभि ति॑ष्ठेम पृत्सु॒तीरसु॑न्वताम्॥7॥ ऋ॒भुः। नः॒। इन्द्रः॑। शव॑सा। नवी॑यान्। ऋ॒भुः। वाजे॑भिः। वसु॑ऽभिः। वसुः॑। द॒दिः। यु॒ष्माक॑म्। दे॒वाः॒। अव॑सा। अह॑नि। प्रि॒ये। अ॒भि। ति॒ष्ठे॒म॒। पृ॒त्सु॒तीः। असु॑न्वताम्॥7॥ पदार्थः—(ऋभुः) बहुविद्याप्रकाशको विद्वान् (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्रः) यथा सूर्यः स्वस्य प्रकाशाकर्षणाभ्यां सर्वानाह्लादयति तथा (शवसा) विद्यासुशिक्षाबलेन (नवीयान्) अतिशयेन नवः (ऋभुः) मेधाव्याऽऽयुःसभ्यताप्रकाशकः (वाजेभिः) विज्ञानैरन्नैः संग्रामैर्वा (वसुभिः) चक्रवर्त्यादिराज्यश्रीभिः सह (वसुः) सुखेषु वस्ता (ददिः) सुखानां दाता (युष्माकम्) (देवाः) विद्यासुशिक्षे जिज्ञासवः (अवसा) रक्षणादिना सह वर्त्तमानाः (अहनि) दिने (प्रिये) प्रसन्नताकारके (अभि) आभिमुख्ये (तिष्ठेम) (पृत्सुतीः) याः सम्पर्ककारकाणां सुतय ऐश्वर्यप्रापिकाः सेनास्ताः। अत्र पृची धातोः क्विपि वर्णव्यत्ययेन तकारः। तदुपपदादैश्वर्यार्थात् सुधातोः संज्ञायां क्तिच् प्रत्ययः। (असुन्वताम्) स्वैश्वर्यविरोधिनां शत्रूणाम्॥7॥ अन्वयः—यो नवीयानृभुर्यथेन्द्रस्तथा शवसा नोऽस्मभ्यं सुखं प्रयच्छेदृभुर्वाजेभिर्वसुभिर्वसुर्ददिस्तेन स्वराज्यसेनानामवसा सह देवा वयं प्रियेऽहन्यसुन्वतां युष्माकं शत्रूणां पृत्सुतीः सेना अभितिष्ठेमाभिभवेम सदा तिरस्कुर्याम॥7॥ भावार्थः—अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। यथा सविता स्वप्रकाशेन तेजस्वी सर्वान् चराचरान् पदार्थान् जीवननिमित्ततयाऽऽह्लादयति तथा विद्वच्छूरवीरविद्वत्कुशलसहाययुक्ता वयं सुशिक्षिताभिर्हृष्टपुष्टाभिः स्वसेनाभिः ससेनान् शत्रूंस्तिरस्कृत्य धार्मिकाः प्रजाः सम्पाल्य चक्रवर्त्तिराज्यं सततं सेवेमहि॥7॥ पदार्थः—जो (नवीयान्) अतीव नवीन (ऋभुः) बहुत विद्याओं का प्रकाश करनेवाला विद्वान् जैसे (इन्द्रः) सूर्य्य अपने प्रकाश और आकर्षण से सबको आनन्द देता है, वैसे (शवसा) विद्या और उत्तम शिक्षा के बल से (नः) हमको सुख देवे वा जो (ऋभुः) धीरबुद्धि आयुर्दा और सभ्यता का प्रकाश करनेवाला (वाजेभिः) विज्ञान, अन्न और संग्रामों से वा (वसुभिः) चक्रवर्त्ती राज्य आदि के धनों से (वसुः) आप सुख में वसने और (ददिः) दूसरों को सुखों का देनेवाला होता है, उससे अपने राज्य के और सेनाजनों के (अवसा) रक्षा आदि व्यवहार के साथ वर्त्तमान (देवाः) विद्या और अच्छी शिक्षा को चाहते हुए हम विद्वान् लोग (प्रिये) उत्पन्न करनेवाले (अहनि) दिन में (असुन्वताम्) अच्छे ऐश्वर्य के विरोधी (युष्माकम्) तुम शत्रुजनों की (पृत्सुतीः) उन सेनाओं के जो कि संबन्ध करानेवालों को ऐश्वर्य पहुंचानेवाली हैं (अभि) सम्मुख (तिष्ठेम) स्थित होवें अर्थात् उनका तिरस्कार करें॥7॥ भावार्थः—इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य अपने प्रकाश से तेजस्वी समस्त चर और अचर जीवों और समस्त पदार्थों के जीवन कराने से आनन्दित करता है, वैसे विद्वान्, शूरवीर और विद्वानों में अच्छे विद्वान् के सहायों से युक्त हम लोग अच्छी शिक्षा की हुई, प्रसन्न और पुष्ट अपनी सेनाओं से जो सेना को लिए हुए हैं, उन शत्रुओं का तिरस्कार कर धार्मिक प्रजाजनों को पाल चक्रवर्त्ति राज्य को निरन्तर सेवें॥7॥ पुनस्ते विद्वांसः किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते॥ फिर वे विद्वान् क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ निश्चर्म॑ण ऋभवो॒ गाम॑पिंशत॒ स व॒त्सेना॑सृजता मा॒तरं॒ पुनः॑। सौध॑न्वनासः स्वप॒स्यया॑ नरो॒ जिव्री॒ युवा॑ना पि॒तरा॑कृणोतन॥8॥ निः। चर्म॑णः। ऋ॒भ॒वः॒। गाम्। अ॒पिं॒श॒त॒। सम्। व॒त्सेन॑। अ॒सृ॒ज॒त॒। मा॒तर॑म्। पुन॒रिति॑। सौध॑न्वनासः। सु॒ऽअ॒प॒स्यया॑। न॒रः॒। जिव्री॒ इति॑। युवा॑ना। पि॒तरा॑। अ॒कृ॒णो॒त॒न॒॥8॥ पदार्थः—(निः) नितराम् (चर्मणः) (ऋभवः) मेधाविनः (गाम्) (अपिंशत) अवयवीकुरुत (सम्) (वत्सेन) तद्बालेन सह (असृजत) अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (मातरम्) (पुनः) (सौधन्वनासः) शोभनेषु धन्वसु धनुर्विद्यास्विमे कुशलाः (स्वपस्यया) शोभनान्यपांसि कर्माणि यस्यां तया (नरः) नायका विद्वांसः (जिव्री) सुजीवनयुक्तौ (युवाना) युवानौ युवसदृशौ (पितरा) मातापितरौ (अकृणोतन) कुरुत॥8॥ अन्वयः—हे ऋभवो मेधाविनो मनुष्या! यूयं चर्मणो गां निरपिंशत पुनर्वत्सेन मातरं समसृजत। हे सौधन्वनासो नरो! यूयं स्वपस्यया जिव्री वृद्धौ पितरा युवानाऽकृणोतन॥8॥ भावार्थः—नहि पूर्वोक्तेन कर्मणा विना केचिद्राज्यं कर्त्तुं शक्नुवन्ति तस्मादेतन्मनुष्यैः सदाऽनुष्ठेयम्॥8॥ पदार्थः—हे (ऋभवः) बुद्धिमान् मनुष्यो! तुम (चर्मणः) चाम से (गाम्) गौ को (निरपिंशत) निरन्तर अवयवी करो अर्थात् उसके चाम आदि को खिलाने-पिलाने से पुष्ट करो (पुनः) फिर (वत्सेन) उसके बछड़े के साथ (मातरम्) उस माता गौ को (समसृजत) युक्त करो। हे (सौधन्वनासः) धनुर्वेदविद्याकुशल (नरः) और व्यवहारों को यथायोग्य वर्त्तानेवाले विद्वानो! तुम (स्वपस्यया) सुन्दर जिसमें काम बने उस चतुराई से (जिव्री) अच्छे जीवनयुक्त बुड्ढे (पितरा) अपने माँ-बाप को (युवाना) युवावस्थावालों के सदृश (अकृणोतन) निरन्तर करो॥8॥ भावार्थः—पिछले कहे हुए काम के विना कोई भी राज्य नहीं कर सकते, इससे मनुष्यों को चाहिये कि उन कामों का सदा अनुष्ठान किया करें॥8॥ अथ सेनाध्यक्षः कीदृशा इत्युपदिश्यते॥ अब सेनाध्यक्ष कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥ वाजे॑भिर्नो॒ वाज॑सातावविड्ढ्यृभु॒माँ इ॑न्द्र चि॒त्रमा द॑र्षि॒ राधः॑। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वी उ॒त द्यौः॥9॥31॥ वाजे॑भिः। नः॒। वाज॑ऽसातौ। अ॒वि॒ड्ढि॒। ऋ॒भु॒ऽमान्। इ॒न्द्र॒। चि॒त्रम्। आ। द॒र्षि॒। राधः॑। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः॥9॥ पदार्थः—(वाजेभिः) वाजैरन्नादिसामग्रीभिः सह (नः) (वाजसातौ) संग्रामे (अविड्ढि) व्याप्नुहि। अत्र विष्लृधातोः शपो लुकि लोटि मध्यमैकवचने हेर्धिः ष्टुत्वं जश्त्वं च छन्दस्यपि दृश्यत इत्यडागमः। (ऋभुमान्) प्रशस्ता ऋभवो मेधाविनो विद्यन्ते यस्य सः (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त सेनाध्यक्ष (चित्रम्) आश्चर्य्यगुणयुक्तम् (आ) (दर्षि) द्रियस्वादरं कुरु। अत्र दृङ् आदर इत्यस्माल्लोटि मध्यमैकवचने वाच्छन्दसीति तिपः पित्वाद् गुणः। (राधः) धनम्। (तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्ताम्) इति पूर्ववत्॥9॥ अन्वयः—हे इन्द्र ऋभुमाँस्त्वं नो यद्राधो मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्मामहन्तां तच्चित्रं राधोऽविड्ढि नोऽस्माँश्च वाजेभिर्वाजसातावादर्षि समन्तादादरयुक्तान् कुरु॥9॥ भावार्थः—नहि कश्चित्सेनाध्यक्षो बुद्धिमतां सहायेन विना शत्रून् विजेतुं शक्नोतीति॥9॥ अत्र मेधाविनां कर्मगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इत्येकत्रिंशो 31 वर्गो दशोत्तरं शततमं 110 सूक्तं च समाप्तम्॥ पदार्थः—हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त सेनाध्यक्ष! (ऋभुमान्) जिनके प्रशंसित बुद्धिमान् जन विद्यमान हैं, वे आप (नः) हमारे लिये जिस (राधः) धन को (मित्रः) सुहृत् जन (वरुणः) श्रेष्ठ गुणयुक्त (अदितिः) अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) सूर्य्य का प्रकाश (मामहन्ताम्) बढ़ावें (तत्) उस (चित्रम्) अद्भुत धन को (अविड्ढि) व्याप्त हूजिये अर्थात् सब प्रकार समझिये और (नः) हम लोगों को (वाजेभिः) अन्नादि सामग्रियों से (वाजसातौ) संग्राम में (आदर्षि) आदरयुक्त कीजिये॥9॥ भावार्थः—कोई सेनाध्यक्ष बुद्धिमानों के सहाय के विना शत्रुओं को जीत नहीं सकता॥9॥ इस सूक्त में बुद्धिमानों के काम और गुणों का वर्णन है। इससे इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये॥ यह एकतीसवाँ 31 वर्ग और एकसौ दशवां 110 सूक्त पूरा हुआ॥

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