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ब्रह्म क्या है, और ब्रह्म को कैसे प्राप्त करें। भाग-1


 


ब्रह्म क्या है, और ब्रह्म को कैसे प्राप्त करें।

पहले हम यह समझने की कोशिश करते हैं की ब्रह्म क्या है?

इसी प्रश्न को आधार बना कर वेदान्त दर्शन में महर्षि व्यास ने अपने वेदांत दर्शन की पटकथा को तैयार किया है, वह अपने प्रथम सूत्र का प्रारंभ ही ब्रह्म की जिज्ञासा से करते हुए कहते हैं, अथातो ब्रह्मजिज्ञासा, अर्थात उनको यह पहले से यह ज्ञात था की ब्रह्म है, और इसका ज्ञान उनको कैसे हुआ इसके लिए हम कह सकते हैं, कि वेद में व्यास से बहुत पहले सृष्टि के प्रारंभ में ही यह सिद्ध किया गया है की ब्रह्म है, जिसको सिद्ध करने के लिए बहुत से मंत्रों को प्रस्तुत किए गए हैं उदाहरण के लिए हम को कुछ प्रमाणों को देख सकते हैं, जैसे-

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: निचृद् ब्राह्मी पङ्क्तिः, स्वर: पञ्चमः

धृष्टि॑र॒स्यपा॑ऽग्नेऽअ॒ग्निमा॒मादं॑ जहि॒ निष्क्र॒व्याद॑ से॒धा दे॑व॒यजं॑ वह। ध्रु॒वम॑सि पृथि॒वीं दृ॑ह ब्रह्म॒वनि॑ त्वा क्षत्र॒वनि॑ सजात॒वन्युप॑दधामि॒ भ्रातृ॑व्यस्य व॒धाय॑ ॥१७॥

पद पाठ

धृष्टिः। अ॒सि। अप॑। अ॒ग्ने॒। अ॒ग्निम्। आ॒माद॒मित्या॑मऽअद॑म्। ज॒हि॒। निष्क्र॒व्याद॒मिति निष्क्रव्य॒ऽअद॑म्। सेध॒। आ। दे॒व॒यज॒मिति। देव॒ऽयज॑म्। व॒ह॒। ध्रु॒वम्। अ॒सि॒। पृ॒थिवी॑म्। दृ॒ह॒। ब्र॒ह्म॒वनीति ब्रह्म॒ऽवनि॑। त्वा॒। क्ष॒त्र॒वनीति॑ क्षत्र॒ऽवनि॑। स॒जा॒त॒वनीति॑ सजात॒ऽवनि॑। उप॑ऽद॒धा॒मि॒। भ्रातृ॑व्यस्य व॒धाय॑ ॥१७॥

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अग्निशब्द से किस-किस का ग्रहण किया जाता और इससे क्या क्या कार्य्य होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) परमेश्वर ! आप (धृष्टिः) प्रगल्भ अर्थात् अत्यन्त निर्भय (असि) हैं, इस कारण (निष्क्रव्यादम्) पके हुए भस्म आदि पदार्थों को छोड़ के (आमादम्) कच्चे पदार्थ जलाने और (देवयजम्) विद्वान् वा श्रेष्ठ गुणों से मिलाप करानेवाले (अग्निम्) भौतिक वा विद्युत् अर्थात् बिजुलीरूप अग्नि को आप (सेध) सिद्ध कीजिये। इस प्रकार हम लोगों के मङ्गल अर्थात् उत्तम-उत्तम सुख होने के लिये शास्त्रों की शिक्षा कर के दुःखों को (अपजहि) दूर कीजिये और आनन्द को (आवह) प्राप्त कीजिये तथा हे परमेश्वर ! आप (ध्रुवम्) निश्चल सुख देनेवाले (असि) हैं, इस से (पृथिवीम्) विस्तृतभूमि वा उसमें रहनेवाले मनुष्यों को (दृंह) उत्तम गुणों से वृद्धियुक्त कीजिये। हे अग्ने जगदीश्वर ! जिस कारण आप अत्यन्त प्रशंसनीय हैं, इससे मैं (भ्रातृव्यस्य) दुष्ट वा शत्रुओं के (वधाय) विनाश के लिये (ब्रह्मवनि) (क्षत्रवनि) (सजातवनि) ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा प्राणिमात्र के सुख वा दुःख व्यवहार के देनेवाले (त्वा) आप को (उपदधामि) हृदय में स्थापन करता हूँ ॥ यह इस मन्त्र का प्रथम अर्थ हुआ ॥ तथा हे विद्वान् यजमान ! जिस कारण यह (अग्ने) भौतिक अग्नि (धृष्टिः) अतितीक्ष्ण (असि) है तथा निकृष्ट पदार्थों को छोड़ कर उत्तम पदार्थों से (देवयजम्) विद्वान् वा दिव्य गुणों को प्राप्त करानेवाले यज्ञ को (आवह) प्राप्त कराता है, इससे तुम (निष्क्रव्यादम्) पके हुए भस्म आदि पदार्थों को छोड़ के (आमादम्) कच्चे पदार्थ जलाने और (देवयजम्) विद्वान् वा दिव्य गुणों के प्राप्त करानेवाले (अग्निम्) प्रत्यक्ष वा बिजुलीरूप अग्नि को (आवह) प्राप्त करो तथा उसके जानने की इच्छा करनेवाले लोगों को शास्त्रों की उत्तम-उत्तम शिक्षाओं के साथ उसका उपदेश (सेध) करो तथा उसके अनुष्ठान में जो दोष हों, उनको (अपजहि) विनाश करो। जिस कारण यह अग्नि सूर्य्यरूप से (ध्रुवम्) निश्चल (असि) है, इसी कारण यह आकर्षणशक्ति से (पृथिवीम्) विस्तृत भूमि वा उसमें रहनेवाले प्राणियों को (दृंह) दृढ़ करता है, इसी से मैं (त्वा) उस (ब्रह्मवनि) (क्षत्रवनि) (सजातवनि) ब्राह्मण, क्षत्रिय वा जीवमात्र के सुख दुःख को अलग-अलग करानेवाले भौतिक अग्नि को (भ्रातृव्यस्य) दुष्ट वा शत्रुओं के (वधाय) विनाश के लिये हवन करने की वेदी वा विमान आदि यानों में (उपदधामि) स्थापन करता हूँ ॥ यह दूसरा अर्थ हुआ ॥१७॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सर्वशक्तिमान् ईश्वर ने यह भौतिक अग्नि आम अर्थात् कच्चे पदार्थ जलानेवाला बनाया है, इस कारण भस्मरूप पदार्थों के जलाने को समर्थ नहीं है। जिससे कि मनुष्य कच्चे-कच्चे पदार्थों को पका कर खाते हैं [वह आमात्] तथा जिस करके सब प्राणियों का खाया हुआ अन्न आदि द्रव्य पकता है [वह जाठर] और जिस करके मनुष्य लोग मरे हुए शरीर को जलाते हैं, वह क्रव्यात् अग्नि कहाता है और जिससे दिव्य गुणों को प्राप्त करानेवाली विद्युत् बनी है तथा जिससे पृथिवी का धारण और आकर्षण करनेवाला सूर्य्य बना है और जिसे वेदविद्या के जाननेवाले ब्राह्मण वा धनुर्वेद के जाननेवाले क्षत्रिय वा सब प्राणिमात्र सेवन करते हैं तथा जो सब संसारी पदार्थों में वर्त्तमान परमेश्वर है, वही सब मनुष्यों का उपास्य देव है तथा जो क्रियाओं की सिद्धि के लिये भौतिक अग्नि है, यह भी यथायोग्य कार्य्य द्वारा सेवा करने के योग्य है ॥१७॥

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: ब्राह्मी उष्णिक्, आर्ची त्रिष्टुप्, आर्ची पङ्क्तिः, स्वर: ऋषभः

अग्ने॒ ब्रह्म॑ गृभ्णीष्व ध॒रुण॑मस्य॒न्तरि॑क्षं दृꣳह ब्रह्म॒वनि॑ त्वा क्षत्र॒वनि॑ सजात॒वन्युप॑दधामि॒ भ्रातृ॑व्यस्य व॒धाय॑। ध॒र्त्रम॑सि॒ दिवं॑ दृꣳह ब्रह्म॒वनि॑ त्वा क्षत्र॒वनि॑ सजात॒वन्युप॑दधामि॒ भ्रातृ॑व्यस्य व॒धाय॑। विश्वा॑भ्य॒स्त्वाशा॑भ्य॒ऽउप॑दधामि॒ चित॑ स्थोर्ध्व॒चितो॒ भृगू॑णा॒मङ्गि॑रसां॒ तप॑सा तप्यध्वम् ॥१८॥

पद पाठ

अग्ने॑। ब्रह्म॑। गृ॒भ्णी॒ष्व॒। ध॒रुण॑म्। अ॒सि॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। दृ॒ꣳह॒। ब्र॒ह्म॒वनीति॑ ब्रह्म॒ऽवनि॑। त्वा॒। क्ष॒त्र॒वनीति॑ क्षत्र॒ऽवनि॑। स॒जा॒त॒वनीति॑ सजात॒ऽवनि॑। उप॑। द॒धा॒मि॒। भ्रातृ॑व्यस्य। व॒धाय॑। ध॒र्त्रम्। अ॒सि॒। दिव॑म्। दृ॒ꣳह॒। ब्र॒ह्म॒वनीति॑ ब्रह्म॒ऽवनि॑। त्वा॒। क्ष॒त्र॒वनीति॑ क्षत्र॒ऽवनि॑। स॒जा॒त॒वनीति॑ सजात॒ऽवनि॑। उप॑। द॒धा॒मि॒। भ्रातृ॑व्यस्य। व॒धाय॑। विश्वा॑भ्यः। त्वा॒। आशा॑भ्यः। उप॑। द॒धा॒मि॒। चितः॑। स्थ॒। ऊ॒र्ध्व॒चित॒ इत्यू॑र्ध्व॒ऽचि॒तः॑। भृगू॑णाम्। अङ्गि॑रसाम्। तप॑सा। त॒प्य॒ध्व॒म् ॥१८॥

यजुर्वेद » अध्याय:1» मन्त्र:18 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी अग्नि शब्द से अगले मन्त्र में फिर दोनों अर्थों का प्रकाश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) परमेश्वर ! आप (धरुणम्) सब के धारण करनेवाले (असि) हैं, इससे मेरी (ब्रह्म) वेद मन्त्रों से की हुई स्तुति को (गृभ्णीष्व) ग्रहण कीजिये तथा (अन्तरिक्षम्) आत्मा में स्थित जो अक्षय ज्ञान है, उसको (दृंह) बढ़ाइये। मैं (भ्रातृव्यस्य) शत्रुओं के (वधाय) विनाश के लिये (ब्रह्मवनि) सब मनुष्यों के सुख के निमित्त वेद के शाखा-शाखान्तर द्वारा विभाग करनेवाले ब्राह्मण तथा (क्षत्रवनि) राजधर्म के प्रकाश करनेहारे (सजातवनि) जो परस्पर समान क्षत्रियों के धर्म और संसारी मूर्तिमान् पदार्थ हैं, इनका प्राणियों के लिये अलग-अलग प्रकाश करनेवाले (त्वा) आपको (उपदधामि) हृदय के बीच में धारण करता हूँ। हे सब के धारण करनेवाले परमेश्वर ! जो आप (धर्त्रम्) लोकों के धारण करनेवाले [असि] हैं, इससे कृपा करके हम लोगों में (दिवम्) अत्युत्तम ज्ञान को (दृंह) बढ़ाइये और मैं (भ्रातृव्यस्य) शत्रुओं के (वधाय) विनाश के लिये (ब्रह्मवनि) (क्षत्रवनि) (सजातवनि) उक्त वेद राज्य वा परस्पर समान विद्या वा राज्यादि व्यवहारों को यथायोग्य विभाग करनेवाले (त्वा) आपको (उपदधामि) वारंवार अपने हृदय में धारण करता हूँ। तथा मैं (त्वा) आपको सर्वव्यापक जानकर (विश्वाभ्यः) सब (आशाभ्यः) दिशाओं से सुख होने के निमित्त वारंवार (उपदधामि) अपने मन में धारण करता हूँ। हे मनुष्यो ! तुम लोग उक्त व्यवहार को अच्छी प्रकार जानकर (चितः) विज्ञानी (ऊर्ध्वचितः) उत्तम ज्ञानवाले पुरुषों की प्रेरणा से कपालों को अग्नि पर धरके तथा (भृगूणाम्) जिनसे विद्या आदि गुणों को प्राप्त होते हैं, ऐसे (अङ्गिरसाम्) प्राणों के (तपसा) प्रभाव से (तप्यध्वम्) तपो और तपाओ ॥ यह इस मन्त्र का प्रथम अर्थ हुआ ॥ अब दूसरा भी कहते हैं ॥ हे विद्वान् धर्मात्मा पुरुष ! जिस (अग्ने) भौतिक अग्नि से (धरुणम्) सब का धारण करनेवाला तेज (ब्रह्म) वेद और (अन्तरिक्षम्) आकाश में रहनेवाले पदार्थ ग्रहण वा वृद्धियुक्त किये जाते हैं, (त्वा) उसको तुम होम वा शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये (गृभ्णीष्व) ग्रहण करो (दृंह) वा विद्यायुक्त क्रियाओं से बढ़ाओ और मैं भी (भ्रातृव्यस्य) शत्रुओं के (वधाय) विनाश के लिये (त्वा) उस (ब्रह्मवनि) (क्षत्रवनि) (सजातवनि) संसारी मूर्तिमान् पदार्थों के प्रकाश करने वा राजगुणों के दृष्टान्तरूप से प्रकाश करानेवाले भौतिक अग्नि को शिल्पविद्या आदि व्यवहारों में (उपदधामि) स्थापन करता हूँ। ऐसे स्थापन किया हुआ अग्नि हमारे अनेक सुखों को धारण करता है। इसी प्रकार सब लोगों का (धर्त्रम्) धारण करनेवाला वायु (असि) है तथा (दिवम्) प्रकाशमय सूर्य्यलोक को (दृंह) दृढ़ करता है। हे मनुष्यो ! जैसे उसको मैं (भ्रातृव्यस्य) अपने शत्रुओं के (वधाय) विनाश के लिये (ब्रह्मवनि) (क्षत्रवनि) (सजातवनि) वेद राज्य वा परस्पर समान उत्तम-उत्तम शिल्पविद्याओं को यथायोग्य कार्य्यों में युक्त करनेवाले उस भौतिक अग्नि को (उपदधामि) स्थापन करता हूँ, वैसे तुम भी उत्तम-उत्तम क्रियाओं में युक्त करके विद्या के बल से (दृंह) उसको बढ़ाओ। हे विद्या चाहनेवाले पुरुष ! जो पवन, पृथिवी और सूर्य्य आदि लोकों को धारण कर रहा है उसे तुम अपने जीवन आदि सुख वा शिल्पविद्या की सिद्धि के लिये यथायोग्य कार्यों में लगाकर उसकी विद्या से (दृंह) वृद्धि करो तथा जैसे हम अपने शत्रुओं के विनाश के लिये (ब्रह्मवनि) (क्षत्रवनि) (सजातवनि) अग्नि के उक्त गुणों के समान वायु को शिल्पविद्या आदि व्यवहारों में (उपदधामि) संयुक्त करते हैं, वैसे ही तुम भी अपने अनेक दुःखों के विनाश के लिये उसको यथायोग्य कार्य्यों में संयुक्त करो। हे मनुष्यो ! जैसे मैं वायुविद्या का जाननेवाला (त्वा) उस अग्नि वा वायु को (विश्वाभ्यः) सब (आशाभ्यः) दिशाओं से सुख होने के लिये यथायोग्य शिल्पव्यवहारों में (उपदधामि) धारण करता हूँ, वैसे तुम भी धारण करो तथा शिल्पविद्या वा होम करने के लिये (चितः) (ऊर्ध्वचितः) [स्थ] पदार्थों के भरे हुए पात्र वा सवारियों में स्थापन किये हुए कलायन्त्रों को (भृगूणाम्) जिनसे पदार्थों को पकाते हैं, उन [अङ्गिरसाम्] अङ्गारों के (तपसा) ताप से (तप्यध्वम्) उक्त पदार्थों को तपाओ ॥१८॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ईश्वर का यह उपदेश है कि हे मनुष्यो ! तुम विद्वानों की उन्नति तथा मूर्खपन का नाश वा सब शत्रुओं की निवृत्ति से राज्य बढ़ने के लिये वेदविद्या को ग्रहण करो तथा वृद्धि का हेतु अग्नि वा सब का धारण करनेवाला वायु, अग्निमय सूर्य्य और ईश्वर इन्हें सब दिशाओं में व्याप्त जानकर यज्ञसिद्धि वा विमान आदि यानों की रचना धर्म के साथ करो तथा इन से इन को सिद्ध कर के दुःखों को दूर कर के शत्रुओं को जीतो ॥१८॥

देवता: ब्रह्मणस्पतिर्देवता ऋषि: सप्तधृतिर्वारुणिर्ऋषिः छन्द: निचृद् गायत्री स्वर: षड्जः

मा नः॒ शꣳसो॒ऽअर॑रुषो धू॒र्तिः प्रण॒ङ् मर्त्य॑स्य। रक्षा॑ णो ब्रह्मणस्पते ॥३०॥

पद पाठ

मा। नः॒। शꣳसः॑। अर॑रुषः। धू॒र्तिः। प्रण॑क्। मर्त्य॑स्य। रक्ष॑। नः॒। ब्र॒ह्म॒णः॒। प॒ते॒ ॥३०॥

यजुर्वेद » अध्याय:3» मन्त्र:30 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उस परमेश्वर की प्रार्थना किसलिये करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (ब्रह्मणस्पते) जगदीश्वर ! आपकी कृपा से (नः) हमारी वेदविद्या (मा, प्रणक्) कभी नष्ट मत हो और जो (अररुषः) दान आदि धर्मरहित परधन ग्रहण करनेवाले (मर्त्यस्य) मनुष्य की (धूर्तिः) हिंसा अर्थात् द्रोह है, उस से (नः) हम लोगों की निरन्तर (रक्ष) रक्षा कीजिये ॥३०॥

भावार्थभाषाः -मनुष्यों को सदा उत्तम-उत्तम काम करना और बुरे-बुरे काम छोड़ना तथा किसी के साथ द्रोह वा दुष्टों का सङ्ग भी न करना और धर्म की रक्षा वा परमेश्वर की उपासना स्तुति और प्रार्थना निरन्तर करनी चाहिये ॥३०॥

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: आङ्गिरस ऋषयः छन्द: स्वराड् ब्राह्मी अनुष्टुब् आर्षी उष्णिक् स्वर: गान्धारः, ऋषभः

व्र॒तं कृ॑णुता॒ग्निर्ब्रह्मा॒ग्निर्य॒ज्ञो वन॒स्पति॑र्य॒ज्ञियः॑। दैवीं॒ धियं॑ मनामहे सुमृडी॒काम॒भिष्ट॑ये वर्चो॒धां य॒ज्ञवा॑हसꣳ सुती॒र्था नो॑ऽअस॒द्वशे॑। ये दे॒वा मनो॑जाता मनो॒युजो॒ दक्ष॑क्रतव॒स्ते नो॒ऽवन्तु॒ ते नः॑ पान्तु॒ तेभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥११॥

पद पाठ

व्रतम्। कृ॒णु॒त॒। अ॒ग्निः। ब्रह्म॑। अ॒ग्निः। य॒ज्ञः। वन॒स्पतिः॑। य॒ज्ञियः॑। दैवी॑म्। धिय॑म्। म॒ना॒म॒हे॒। सु॒मृ॒डी॒कामिति॑ सुऽमृडी॒काम्। अ॒भिष्ट॑ये। व॒र्चो॒धामिति॑ वर्चः॒ऽधाम्। य॒ज्ञवा॑हस॒मिति॑ य॒ज्ञऽवा॑हसम्। सु॒ती॒र्थेति॑ सु॒ऽती॒र्था। नः॒। अ॒स॒त्। वशे॑। ये। दे॒वाः। मनो॑जाता॒ इति॒ मनः॑ऽजाताः। म॒नो॒यु॒ज॒ इति॑ मनः॒ऽयुजः॑। दक्ष॑ऽक्रतव॒ इति॒ दक्ष॑ऽक्रतवः। ते। नः॒। अ॒व॒न्तु॒। ते। नः॒। पा॒न्तु॒। तेभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥११॥

यजुर्वेद » अध्याय:4» मन्त्र:11 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अनेक अर्थवाले अग्नि को जानकर उससे क्या-क्या उपकार लेना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हम लोग जो (ब्रह्म) ब्रह्मपदवाच्य (अग्निः) अग्नि नाम से प्रसिद्ध (असत्) है, जो (यज्ञः) अग्निसंज्ञक और जो (वनस्पतिः) वनों का पालन करनेवाला यज्ञ (अग्निः) अग्नि नामक है, उसकी उपासना कर वा उससे उपकार लेकर (अभिष्टये) इष्टसिद्धि के लिये जो (सुतीर्था) जिससे अत्युत्तम दुःखों से तारनेवाले वेदाध्ययनादि तीर्थ प्राप्त होते हैं, उस (सुमृडीकाम्) उत्तम सुखयुक्त (वर्चोधाम्) विद्या वा दीप्ति को धारण करने तथा (दैवीम्) दिव्यगुणसम्पन्न (धियम्) बुद्धि वा क्रिया को (मनामहे) जानें, (ये) जो (दक्षक्रतवः) शरीर, आत्मा के बल, प्रज्ञा वा कर्म से युक्त (मनोजाताः) विज्ञान से उत्पन्न हुए (मनोयुजः) सत्-असत् के ज्ञान से युक्त (देवाः) विद्वान् लोग (वशे) प्रकाशयुक्त कर्म में वर्त्तमान हैं, वा जिनसे (स्वाहा) विद्यायुक्त वाणी प्राप्त होती है, (तेभ्यः) उनसे पूर्वोक्त प्रज्ञा की (मनामहे) याचना करते हैं, (ते) वे (नः) हम लोगों को (अवन्तु) विद्या, उत्तम क्रिया, तथा शिक्षा आदिकों में प्रवेश [करायें] और (नः) हम लोगों की निरन्तर (पान्तु) रक्षा करें ॥११॥

भावार्थभाषाः -मनुष्यों को जिसकी अग्नि संज्ञा है, उस ब्रह्म को जान और उसकी उपासना करके उत्तम बुद्धि को प्राप्त करना चाहिये। विद्वान् लोग जिस बुद्धि से यज्ञ को सिद्ध करते हैं, उससे शिल्पविद्याकारक यज्ञों को सिद्ध करके विद्वानों के सङ्ग से विद्या को प्राप्त होके स्वतन्त्र व्यवहार में सदा रहना चाहिये, क्योंकि बुद्धि के विना कोई भी मनुष्य सुख को नहीं बढ़ा सकता। इससे विद्वान् मनुष्यों को उचित है कि सब मनुष्यों के लिये ब्रह्मविद्या और पदार्थविद्या और बुद्धि की शिक्षा करके निरन्तर रक्षा करें और वे रक्षा को प्राप्त हुए मनुष्य परमेश्वर वा विद्वानों के उत्तम-उत्तम प्रिय कर्मों का आचरण किया करें ॥११॥

देवता: सूर्य्यविद्वांसौ देवते ऋषि: वत्स ऋषिः छन्द: निचृद् आर्षी गायत्री, याजुषी जगती स्वर: षड्जः, निषादः

उस्रा॒वेतं॑ धूर्षाहौ यु॒ज्येथा॑मन॒श्रूऽअवी॑रहणौ ब्रह्म॒चोद॑नौ। स्व॒स्ति यज॑मानस्य गृ॒हान् ग॑च्छतम् ॥३३॥

पद पाठ

उस्रौ॑। आ। इ॒त॒म्। धू॒र्षा॒हौ॒। धूः॒स॒हा॒विति॑ धूःऽसहौ। यु॒ज्येथा॑म्। अ॒न॒श्रूऽइत्य॑न॒श्रू। अवी॑रहणौ। अवी॑रहनावित्यवी॑रऽहनौ। ब्र॒ह्म॒चोद॑ना॒विति॑ ब्रह्म॒ऽचोद॑नौ। स्व॒स्ति। यज॑मानस्य। गृ॒हान्। ग॒च्छ॒त॒म् ॥३३॥

यजुर्वेद » अध्याय:4» मन्त्र:33 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सूर्य्य और विद्वान् कैसे हैं, और उनसे शिल्पविद्या के जाननेवाले क्या करें, सो अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे विद्या और शिल्पक्रिया को प्राप्त होने की इच्छा करनेवाले (ब्रह्मचोदनौ) अन्न और विज्ञान प्राप्ति के हेतु (अनश्रू) अव्यापी (अवीरहणौ) वीरों का रक्षण करने (उस्रौ) ज्योतियुक्त और निवास के हेतु (धूर्षाहौ) पृथिवी और धर्म के भार को धारण करनेवाले विद्वान् (आ इतम्) सूर्य्य और वायु को प्राप्त होते वा (युज्येथाम्) युक्त करते और (यजमानस्य) धार्मिक यजमान के (गृहान्) घरों को (स्वस्ति) सुख से (गच्छतम्) गमन करते हैं, वैसे तुम भी उनको युक्ति से संयुक्त कर के कार्यों को सिद्ध किया करो ॥३३॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे सूर्य्य और विद्वान् सब पदार्थों को धारण करनेहारे, सहनयुक्त और प्राप्त होकर सुखों को प्राप्त कराते हैं, वैसे ही शिल्पविद्या के जाननेवाले विद्वान् से यानों में युक्ति से सेवन किये हुए अग्नि और जल सवारियों को चला के सर्वत्र सुखपूर्वक गमन कराते हैं ॥३३॥

देवता: वाग्देवता ऋषि: गोतम ऋषिः छन्द: भुरिग् ब्राह्मी पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः

सि॒ꣳह्य᳖सि॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्य॒स्यादित्य॒वनिः॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्य᳖सि ब्रह्म॒वनिः॑ क्षत्र॒वनिः॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्य᳖सि सुप्रजा॒वनी॑ रायस्पोष॒वनिः॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्य᳖स्याव॑ह देवान् यज॑मानाय॒ स्वाहा॑ भू॒तेभ्य॑स्त्वा ॥१२॥

पद पाठ

सि॒ꣳही। अ॒सि॒। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। आ॒दित्य॒वनि॒रित्या॑दित्य॒ऽवनिः॑। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। ब्र॒ह्म॒वनि॒रिति॑ ब्रह्म॒ऽवनिः॑। क्ष॒त्र॒वनि॒रिति॑ क्षत्र॒ऽवनिः॑। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। सु॒प्र॒जा॒वनि॒रिति॑ सुप्रजा॒ऽवनिः॑। रा॒य॒स्पो॒ष॒वनि॒रिति॑ रायस्पोष॒ऽवनिः॑। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। आ। वह॒। दे॒वान्। यज॑मानाय। स्वाहा॑। भू॒तेभ्यः॑। त्वा॒ ॥१२॥

यजुर्वेद » अध्याय:5» मन्त्र:12 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -मैं जो (आदित्यवनिः) मासों का सेवन और (सिंही) क्रूरत्व आदि दोषों को नाश करनेवाली (स्वाहा) ज्योतिःशास्त्र से संस्कारयुक्त वाणी (असि) है, जो (ब्रह्मवनिः) परमात्मा, वेद और वेद के जाननेवाले मनुष्यों के सेवन और (सिंही) बल के जाड्यपन को दूर करनेवाली (स्वाहा) पढ़ने-पढ़ाने व्यवहारयुक्त वाणी (असि) है, जो (क्षत्रवनिः) राज्य, धनुर्विद्या और शूरवीरों का सेवन और (सिंही) चोर, डाकू अन्याय को नाश करनेवाली (स्वाहा) राज्य-व्यवहार में कुशल वाणी (असि) है, जो (रायस्पोषवनिः) विद्या धन की पुष्टि का सेवन और (सिंही) अविद्या को दूर करनेवाली (स्वाहा) वाणी (असि) है, जो (सुप्रजावनिः) उत्तम प्रजा का सेवन और (सिंही) सब दुःखों का नाश और (स्वाहा) व्यवहार से धन को प्राप्त करानेवाली वाणी (असि) है और जो (यजमानाय) विद्वानों के पूजन करनेवाले यजमान के लिये (स्वाहा) दिव्य विद्या सम्पन्न वाणी (देवान्) विद्वान् दिव्यगुण वा भोगों को (आवह) प्राप्त करती है (त्वा) उसको (भूतेभ्यः) सब प्राणियों के लिये (यज्ञात्) यज्ञ से (निःसृजामि) सम्पादन करता हूँ ॥१२॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (यज्ञात्) (निः) (सृजामि) इन तीनों पदों की अनुवृत्ति है। मनुष्यों को उचित है कि पढ़ना-पढ़ाना आदि से इस प्रकार लक्षणयुक्त वाणी प्राप्त कर, इसे सब मनुष्यों को पढ़ा कर सदा आनन्द में रहें ॥१२॥

देवता: यज्ञो देवता ऋषि: औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः छन्द: ब्राह्मी जगती स्वर: निषादः

उद्दिव॑ꣳ स्तभा॒नान्तरि॑क्षं पृण॒ दृꣳह॑स्व पृथि॒व्यां द्यु॑ता॒नस्त्वा॑ मारु॒तो मि॑नोतु मि॒त्रावरु॑णौ ध्रु॒वेण॒ धर्म॑णा। ब्र॒ह्म॒वनि॑ क्षत्र॒वनि॑ रायस्पोष॒वनि॒ पर्यू॑हामि। ब्रह्म॑ दृꣳह क्ष॒त्रं दृ॒ꣳहायु॑र्दृꣳह प्र॒जां दृ॑ꣳह ॥२७॥

पद पाठ

उत्। दिव॑म्। स्त॒भा॒न॒। आ। अ॒न्तरि॑क्षम्। पृ॒ण॒। दृꣳह॑स्व। पृ॒थि॒व्याम्। द्यु॒ता॒नः। त्वा॒। मा॒रु॒तः। मि॒नो॒तु॒। मि॒त्राव॑रुणौ। ध्रु॒वेण॑। धर्म॑णा। ब्र॒ह्म॒वनीति॑ ब्रह्म॒ऽवनि॑। त्वा॒। क्ष॒त्र॒वनीति॑ क्षत्र॒ऽवनि॑। रा॒य॒स्पो॒ष॒वनीति॑ रायस्पोष॒ऽवनि॑। परि॑। ऊ॒हा॒मि॒। ब्रह्म॑। दृ॒ꣳह॒। क्ष॒त्रम्। दृ॒ꣳह॒। आयुः॑। दृ॒ꣳह॒। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। दृ॒ꣳह॒॑ ॥२७॥

यजुर्वेद » अध्याय:5» मन्त्र:27 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अच्छे प्रकार सेवन किया हुआ सभापति और अनुष्ठान किया हुआ यज्ञ क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे परम विद्वन् ! जैसे (त्वा) आपको (मारुतः) वायु (ध्रुवेण) निश्चल (धर्मणा) धर्म से (मिनोतु) प्रयुक्त करे (मित्रावरुणौ) प्राण और अपान भी धर्म से प्रयुक्त करते हैं, वैसे आप कृपा करके हम लोगों के लिये (दिवम्) विद्या गुणों के प्रकाश को (उत्तभान) अज्ञान से उघाड़ देओ तथा (अन्तरिक्षम्) सब पदार्थों के अवकाश को (पृण) परिपूर्ण कीजिये (पृथिव्याम्) भूमि पर (द्युतानः) सद्विद्या के गुणों का विस्तार करते हुए आप सुखों को (दृंहस्व) बढ़ाइये (ब्रह्म) वेदविद्या को (दृंह) बढ़ाइये (क्षत्रम्) राज्य को बढ़ाइये (आयुः) अवस्था को (दृंह) बढ़ाइये और (प्रजाम्) उत्पन्न हुई प्रजा को (दृंह) वृद्धियुक्त कीजिये। इसलिये मैं (ब्रह्मवनि) ब्रह्मविद्या को सेवन करने वा कराने (क्षत्रवनि) राज्य को सेवन करने-कराने (रायस्पोषवनि) और धनसमूह की पुष्टि को सेवने वा सेवन करानेवाले आप को (पर्यूहामि) सब प्रकार के तर्कों से निश्चय करता हूँ, वैसे आप मुझ को सर्वथा सुखदायक हूजिये और आप को सब मनुष्य तर्कों से जानें ॥२७॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! आप लोग जैसे जगदीश्वर सत्य भाव से प्रार्थित और सेवन किया हुआ अत्युत्तम विद्वान् सब को सुख देता है, वैसे यह यज्ञ भी विद्या गुण को बढ़ाकर सब जीवों को सुख देता है, यह जानो ॥२७॥

देवता: विष्णुर्देवता ऋषि: दीर्घतमा ऋषिः छन्द: आर्ची उष्णिक्, साम्नी त्रिष्टुप्, स्वराट् प्राजापत्या जगती स्वर: ऋषभ, मध्यमः

या ते॒ धामा॑न्यु॒श्मसि॒ गम॑ध्यै॒ यत्र॒ गावो॒ भूरि॑शृङ्गाऽअ॒यासः॑। अत्राह॒ तदु॑रुगा॒यस्य॒ विष्णोः॑ प॒र॒मं प॒दमव॑भारि॒ भूरि॑। ब्र॒ह्म॒वनि॑ त्वा क्षत्र॒वनि॑ रायस्पोष॒वनि॒ पर्यू॑हामि। ब्रह्म॑ दृꣳह क्ष॒त्रं दृ॒ꣳहायु॑र्दृꣳह प्र॒जां दृ॑ꣳह ॥३॥

पद पाठ

या। ते॒। धामा॑नि। उ॒श्मसि॑। गम॑ध्यै। यत्र॑। गावः॑। भूरि॑शृङ्गा॒ इति॒ भूरि॑शृङ्गाः। अ॒यासः॑। अत्र॑। अह॑। तत्। उ॒रु॒गा॒यस्येत्यु॑रुऽगा॒यस्य॑। विष्णोः॑। प॒र॒मम्। प॒दम्। अव॑। भा॒रि॒। भूरि॑। ब्र॒ह्म॒वनीति॑ ब्रह्म॒ऽवनि॑। त्वा॒। क्ष॒त्र॒वनीति॑ क्षत्र॒ऽवनि॑। रा॒य॒स्पो॒ष॒वनीति॑ रायस्पोष॒ऽवनि॑। परि॑। ऊ॒हा॒मि॒। ब्रह्म॑। दृ॒ꣳह॒। क्ष॒त्रम्। दृ॒ꣳह॒। आयुः॑। दृ॒ꣳह॒। प्र॒जामिति॑ प्र॒जाम्। दृ॒ꣳह॒ ॥३॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:3 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह वाणिज्य कर्म करनेवाले मनुष्य उसको कैसा जानकर आश्रय करते हैं, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे सभाध्यक्ष ! (या) जिन में (ते) तेरे (धामानि) धाम अर्थात् जिनमें प्राणी सुख पाते हों, उन स्थानों को हम (गमध्यै) प्राप्त होने की (उश्मसि) इच्छा करते हैं, वे स्थान कैसे हैं कि जैसे सूर्य्य का प्रकाश है, वैसे (यत्र) जिन में (उरुगायस्य) स्तुति करने के योग्य (विष्णोः) सर्वव्यापक परमेश्वर की (भूरिशृङ्गाः) अत्यन्त प्रकाशित (गावः) किरणें चैतन्यकला (अयासः) फैली हैं (अत्र) (अह) इन्हीं में (तत्) उस परमेश्वर का (परमम्) सब प्रकार उत्तम (पदम्) और प्राप्त होने योग्य परमपद विद्वानों ने (भूरि) (अव) (भारि) बहुधा अवधारण किया है, इस कारण (त्वा) तुझे (ब्रह्मवनि) परमेश्वर वा वेद का विज्ञान (क्षत्रवनि) राज्य और वीरों की चाहना (रायस्पोषवनि) धन की पुष्टि के विभाग करनेवाले आप को मैं (पर्यूहामि) विविध तर्कों से समझता हूँ कि तू (ब्रह्म) परमात्मा और वेद को (दृंह) दृढ़ कर अर्थात् अपने चित्त में स्थिर कर बढ़ (क्षत्रम्) राज्य और धनुर्वेदवेत्ता क्षत्रियों को (दृंह) उन्नति दे (आयुः) अपनी अवस्था को (दृंह) बढ़ा अर्थात् ब्रह्मचर्य्य और राजधर्म से दृढ़ कर तथा (प्रजाम्) अपने सन्तान वा रक्षा करने योग्य प्रजाजनों को (दृंह) उन्नति दे ॥३॥

भावार्थभाषाः -सभाध्यक्ष के रक्षा किये हुए स्थानों की कामना के विना कोई भी पुरुष सुख नहीं पा सकता, न कोई जन परमेश्वर का अनादर करके चक्रवर्ती राज्य भोगने के योग्य होता है, न ही कोई भी जन विज्ञान सेना और जीवन अर्थात् अवस्था सन्तान और प्रजा की रक्षा के विना अच्छी उन्नति कर सकता है ॥३॥

देवता: सोमो देवता ऋषि: वत्सार काश्यप ऋषिः छन्द: स्वराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप्, याजुषी जगती स्वर: धैवतः, निषादः

सोमः॑ पवते॒ सोमः॑ पवते॒ऽस्मै ब्रह्म॑णे॒ऽस्मै क्ष॒त्राया॒स्मै सु॑न्व॒ते यज॑मानाय पवतऽइ॒षऽऊ॒र्जे प॑वते॒ऽद्भ्यऽओष॑धीभ्यः पवते॒ द्यावा॑पृथि॒वाभ्यां॑ पवते सुभू॒ताय॑ पवते॒ विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्य॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒र्विश्वे॑भ्यस्त्वा दे॒वेभ्यः॑ ॥२१॥

पद पाठ

सोमः॑। प॒व॒ते॒। सोमः॑। प॒व॒ते॒। अ॒स्मै। ब्रह्म॑णे। अ॒स्मै। क्ष॒त्राय॑। अ॒स्मै। सु॒न्व॒ते। यज॑मानाय। प॒व॒ते॒। इ॒षे। ऊ॒र्ज्जे। प॒व॒ते॒। अ॒द्भ्यऽइत्य॒त्ऽभ्यः। ओष॑धीभ्यः। प॒व॒ते॒। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म्। प॒व॒ते॒। सु॒भूतायेति॑ सुऽभू॒ताय॑। प॒व॒ते॒। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। विश्वे॑भ्यः। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑ ॥२१॥

यजुर्वेद » अध्याय:7» मन्त्र:21 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजा का कर्म्म अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वान् लोगो ! जैसे यह (सोमः) सोम्यगुण सम्पन्न राजा (अस्मै) इस (ब्रह्मणे) परमेश्वर वा वेद को जानने के लिये (पवते) पवित्र होता है, (अस्मै) इस (क्षत्राय) क्षत्रिय धर्म के लिये (पवते) ज्ञानवान् होता है, (अस्मै) इस (सुन्वते) समस्त विद्या के सिद्धान्त को निष्पादन (यजमानाय) और उत्तम सङ्ग करने हारे विद्वान् के लिये (पवते) निर्मल होता है, (इषे) अन्न के गुण और (ऊर्ज्जे) पराक्रम के लिये (पवते) शुद्ध होता है, (अद्भ्यः) जल और प्राण वा (ओषधीभ्यः) सोम आदि ओषधियों को (पवते) जानता है, (द्यावापृथिवाभ्यीम्) सूर्य्य और पृथिवी के लिये (पवते) शुद्ध होता है, (सुभूताय) अच्छे व्यवहार के लिये (पवते) बुरे कामों से बचता है, वैसे (सोमः) सभाजन वा प्रजाजन सबको यथोक्त जाने-माने और आप भी वैसा पवित्र रहे। हे राजन् सभ्यजन वा प्रजाजन ! जिस (ते) आप का (एषः) यह राजधर्म्म (योनिः) घर है, उस (त्वा) आप को (विश्वेभ्यः) समस्त (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये तथा (त्वा) आप को (विश्वेभ्यः) सम्पूर्ण दिव्यगुणों के लिये हम लोग स्वीकार करते हैं ॥२१॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे इन्द्रलोक सब जगत् के लिये हितकारी होता है और जैसे राजा सभा के जन और प्रजाजनों के साथ उनके उपकार के लिये धर्म्म के अनुकूल व्यवहार का आचरण करता है, वैसे ही सभ्य पुरुष और प्रजाजन राजा के साथ वर्त्तें। जो उत्तम व्यवहार, गुण और कर्म का अनुष्ठान करनेवाला होता है, वही राजा और सभा-पुरुष न्यायकारी हो सकता है तथा जो धर्मात्मा जन है, वही प्रजा में अग्रगण्य समझा जाता है। इस प्रकार ये तीनों परस्पर प्रीति के साथ पुरुषार्थ से विद्या आदि गुण और पृथिवी आदि पदार्थों से अखिल सुख को प्राप्त हो सकते हैं ॥२१॥

देवता: गृहपतिर्देवता ऋषि: अत्रिर्ऋषिः छन्द: भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

समि॑न्द्र णो॒ मन॑सा नेषि॒ गोभिः॒ सꣳ सू॒रिभि॑र्मघव॒न्त्सꣳ स्व॒स्त्या। सं ब्रह्म॑णा दे॒वकृ॑तं॒ यदस्ति॒ सं दे॒वाना॑ सुम॒तौ य॒ज्ञिया॑ना॒ स्वाहा॑ ॥१५॥

पद पाठ

सम्। इ॒न्द्र॒। नः॒। मन॑सा। ने॒षि॒। गोभिः॑। सम्। सू॒रिभि॒रिति॑ सू॒रिऽभिः॑। म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। सम्। स्व॒स्त्या। सम्। ब्रह्म॑णा। दे॒वकृ॑त॒मिति॑ दे॒वऽकृ॑तम्। यत्। अस्ति॑। सम्। दे॒वाना॑म्। सु॒म॒ताविति॑ सुऽम॒तौ। य॒ज्ञियाना॑म्। स्वाहा॑ ॥१५॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:15 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मित्र का कृत्य अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (मघवन्) पूज्य धनयुक्त (इन्द्र) सत्यविद्यादि ऐश्वर्य्य सहित (सम्) सम्यक् पढ़ाने और उपदेश करनेहारे ! आप जिससे (सम्) (मनसा) उत्तम अन्तःकरण से (सम्) अच्छे मार्ग (गोभिः) गोओं वा (सम्) (स्वस्त्या) अच्छे-अच्छे वचनयुक्त सुखरूप व्यवहारों से (सूरिभिः) विद्वानों के साथ (ब्रह्मणा) वेद के विज्ञान वा धन से विद्या और (यत्) जो (यज्ञियानाम्) यज्ञ के पालन करनेवाले को करने योग्य (देवानाम्) विद्वानों की (स्वाहा) सत्य वाणीयुक्त (सुमतौ) श्रेष्ठ बुद्धि में (देवकृतम्) विद्वानों के किये कर्म्म हैं, उसको (स्वाहा) सत्य वाणी से (नः) हम लोगों को (संनेषि) सम्यक् प्रकार से प्राप्त करते हो, इसी से आप हमारे पूज्य हो ॥१५॥

भावार्थभाषाः -गृहस्थ जनों के द्वारा विद्वान् लोग इसलिये सत्कार करने योग्य हैं कि वे बालकों को अपनी शिक्षा से गुणवान् और राजा तथा प्रजा के जनों को ऐश्वर्य्ययुक्त करते हैं ॥१५॥

देवता: गृहपतयो देवताः ऋषि: गोतम ऋषिः छन्द: आर्षी अनुष्टुप्, आर्षी उष्णिक् स्वर: गान्धारः, ऋषभः

आति॑ष्ठ वृत्रह॒न् रथं॑ यु॒क्ता ते॒ ब्रह्म॑णा॒ हरी॑। अ॒र्वा॒चीन॒ꣳ सु ते॒ मनो॒ ग्रावा॑ कृणोतु व॒ग्नुना॑। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिन॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिने॑ ॥३३॥

पद पाठ

आ। ति॒ष्ठ॒। वृ॒त्र॒ह॒न्निति॑ वृत्रऽहन्। रथ॑म्। यु॒क्ता। ते॒। ब्रह्म॑णा। हरी॒ऽइति॒ हरी॑। अ॒र्वा॒चीन॑म्। सु। ते॒। मनः॑। ग्रावा॑। कृ॒णो॒तु॒। व॒ग्नुना॑। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। षो॒ड॒शिने॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। षो॒ड॒शिने॑ ॥३३॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:33 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब प्रकारान्तर से गृहस्थ का धर्म्म अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (वृत्रहन्) शत्रुओं को मारनेवाले गृहाश्रमी ! तू (ग्रावा) मेघ के तुल्य सुख बरसानेवाला है, (ते) तेरे जिस रमणीय विद्या प्रकाशमय गृहाश्रम वा रथ में (ब्रह्मणा) जल वा धन से (हरी) धारण और आकर्षण अर्थात् खींचने के समान घोड़े (युक्ता) युक्त किये जाते हैं, उस गृहाश्रम करने की (आतिष्ठ) प्रतिज्ञा कर, इस गृहाश्रम में (ते) तेरा जो (मनः) मन (अर्वाचीनम्) मन्दपन को पहुँचता है, उसको (वग्नुना) वेदवाणी से शान्त भलीप्रकार कर, जिससे तू (उपयामगृहीतः) गृहाश्रम करने की सामग्री ग्रहण किये हुए (असि) है, इस कारण (षोडशिने) सोलह कलाओं से परिपूर्ण (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य के लिये (त्वा) तुझ को उपदेश करता हूँ, कि जो (एषः) यह (ते) तेरा (योनिः) घर है, इस (षोडशिने) सोलह कलाओं से परिपूर्ण (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य देनेवाले गृहाश्रम करने के लिये (त्वा) तुझ को आज्ञा देता हूँ ॥३३॥

भावार्थभाषाः -गृहाश्रम के आधीन सब आश्रम हैं और वेदोक्त श्रेष्ठ व्यवहार से जिस गृहाश्रम की सेवा की जाय, उससे इस लोक और परलोक का सुख होने से परमैश्वर्य्य पाने के लिये गृहाश्रम ही सेवना उचित है ॥३३॥

देवता: यजमानो देवता ऋषि: वरुण ऋषिः छन्द: विराड् आर्षी पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः

अवे॑ष्टा दन्द॒शूकाः॒ प्राची॒मारो॑ह गाय॒त्री त्वा॑वतु रथन्त॒रꣳ साम॑ त्रि॒वृत् स्तोमो॑ वस॒न्तऽऋ॒तुर्ब्रह्म॒ द्रवि॑णम् ॥१०॥

पद पाठ

अवे॑ष्टा॒ इत्यव॑ऽइष्टाः। द॒न्द॒शूकाः॑। प्राची॑म्। आ। रो॒ह॒। गा॒य॒त्री। त्वा॒। अ॒व॒तु॒। र॒थ॒न्त॒रमिति॑ रथम्ऽत॒रम्। साम॑। त्रि॒वृदिति॑ त्रि॒ऽवृत्। स्तोमः॑। व॒स॒न्तः। ऋ॒तुः। ब्रह्म॑। द्रवि॑णम् ॥१०॥

यजुर्वेद » अध्याय:10» मन्त्र:10 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करके किस-किस को प्राप्त हों, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! जो आप (अवेष्टाः) विरोधी का सङ्ग करनेवाले (दन्दशूकाः) दूसरों को दुःख देने के लिये काट खानेवाले हैं, उनको जीत के (प्राचीम्) पूर्व दिशा में (आरोह) प्रसिद्ध हों, उस (त्वा) आप को (गायत्री) पढ़ा हुआ गायत्री छन्द (रथन्तरम्) रथों से जिसके पार हों, ऐसा वन (साम) सामवेद (त्रिवृत्) तीन मन, वाणी और शरीर के बलों का बोध करानेवाला (स्तोमः) स्तुति के योग्य (वसन्तः) वसन्त (ऋतुः) ऋतु (ब्रह्म) वेद, ईश्वर और ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मणकुलरूप (द्रविणम्) धन (अवतु) प्राप्त होवे ॥१०॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य विद्याओं में प्रसिद्ध होते हैं, वे शत्रुओं को जीत के ऐश्वर्य्य को प्राप्त हो सकते हैं ॥१०॥

देवता: यजमानो देवता ऋषि: शुनःशेप ऋषिः छन्द: विराड् धृतिः स्वर: ऋषभः

अ॒भि॒भूर॑स्ये॒तास्ते॒ पञ्च॒ दिशः॑ कल्पन्तां॒ ब्रह्मँ॒स्त्वं ब्र॒ह्मासि॑ सवि॒तासि॑ स॒त्यप्र॑सवो॒ वरु॑णो॑ऽसि स॒त्यौजा॒ऽइन्द्रो॑ऽसि॒ विशौ॑जा रु॒द्रो᳖ऽसि सु॒शेवः॑। बहु॑कार॒ श्रेय॑स्कर॒ भूय॑स्क॒रेन्द्र॑स्य॒ वज्रो॑ऽसि॒ तेन॑ मे रध्य ॥२८॥

पद पाठ

अ॒भि॒भुरित्य॑भि॒ऽभूः। अ॒सि॒। ए॒ताः। ते। पञ्च॒। दि॒शः॑। क॒ल्प॒न्ता॒म्। ब्रह्म॑न्। त्वम्। ब्र॒ह्मा। अ॒सि॒। स॒वि॒ता। अ॒सि॒। स॒त्य॑प्रसव॒ इति॑ स॒त्यऽप्र॑सवः। वरु॑णः। अ॒सि॒। स॒त्यौजा॒ इति॑ स॒त्यऽओ॑जाः। इन्द्रः॑। अ॒सि॒। विशौ॑जाः। रु॒द्रः। अ॒सि॒। सु॒शेव॒ इति॑ सु॒ऽशेवः॑। बहु॑का॒रेति॒ बहु॑ऽकार। श्रेय॑स्कर। श्रेयः॑क॒रेति॒ श्रेयः॑ऽकर। भूय॑स्कर। भूयः॑क॒रेति॒ भूयः॑ऽकर। इन्द्र॑स्य। वज्रः॑। अ॒सि॒। तेन॑। मे॒। र॒ध्य॒ ॥२८॥

यजुर्वेद » अध्याय:10» मन्त्र:28 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा कैसा होके किसके लिये क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे (बहुकार) बहुत सुखों (श्रेयस्कर) कल्याण और (भूयस्कर) बार-बार अनुष्ठान करनेवाले (ब्रह्मन्) आत्मविद्या को प्राप्त हुए जैसे जिस (ते) आपके (एताः) ये (पञ्च) पूर्व आदि चार और ऊपर नीचे एक पाँच (दिशः) दिशा सामर्थ्ययुक्त हों, वैसे मेरे लिये आपकी पत्नी की कीर्ति से भी (कल्पन्ताम्) सुखयुक्त होवें। जैसे आप (अभिभूः) दुष्टों का तिरस्कार करनेवाले (असि) हैं, (सविता) ऐश्वर्य के उत्पन्न करनेहारे (असि) हैं, (सत्यप्रसवः) सत्य कर्म के साथ ऐश्वर्य है जिसका ऐसे (वरुणः) उत्तम स्वभाववाले (असि) हैं (सत्यौजाः) सत्य बल से युक्त (इन्द्रः) सुखों के धारण करनेहारे (असि) हैं (विशौजाः) प्रजाओं की बीच पराक्रमवाले (सुशेवः) सुन्दर सुखयुक्त (रुद्रः) शत्रु और दुष्टों को रुलानेवाले (असि) हैं, (इन्द्रस्य) ऐश्वर्य के (वज्रः) प्राप्त करनेहारे (असि) हैं, वैसे मैं भी होऊँ, जैसे मैं आप के वास्ते ऋद्धि-सिद्धि करूँ, वैसे (तेन) उससे (मे) मेरे लिये (रध्य) कार्य्य करने का सामर्थ्य कीजिये ॥२८॥

भावार्थभाषाः -सब मनुष्यों को चाहिये कि जैसा पुरुष सब दिशाओं में कीर्तियुक्त, वेदों को जानने, धनुर्वेद और अर्थवेद की विद्या में प्रवीण, सत्य करने और सब को सुख देनेवाला, धर्मात्मा पुरुष होवे, उसकी स्त्री भी वैसे ही होवे। उनको राजधर्म में स्थापन करके बहुत सुख और बहुत सी शोभा को प्राप्त हों ॥२८॥

देवता: सवित्रादिमन्त्रोक्ता देवताः ऋषि: शुनःशेप ऋषिः छन्द: स्वराड् आर्षी जगती स्वर: धैवतः

स॒वि॒त्रा प्र॑सवि॒त्रा सर॑स्वत्या वा॒चा त्वष्ट्रा॑ रू॒पैः पू॒ष्णा प॒शुभि॒रिन्द्रे॑णा॒स्मे बृह॒स्पति॑ना॒ ब्रह्म॑णा॒ वरु॑णे॒नौज॑सा॒ऽग्निना॒ तेज॑सा॒ सोमे॑न॒ राज्ञा॒ विष्णु॑ना दश॒म्या दे॒वत॑या॒ प्रसू॑तः प्रस॑र्पामि ॥३०॥

पद पाठ

स॒वि॒त्रा। प्र॒स॒वि॒त्रेति॑ प्रऽसवि॒त्रा। सर॑स्वत्या। वा॒चा। त्वष्ट्रा॑। रू॒पैः। पू॒ष्णा। प॒शुभि॒रिति॑ प॒शुऽभिः॑। इन्द्रे॑ण। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। बृह॒स्पति॑ना। ब्रह्म॑णा। वरु॑णेन। ओज॑सा। अ॒ग्निना॑। तेज॑सा। सोमे॑न। राज्ञा॑। विष्णु॑ना। द॒श॒म्या। दे॒वत॑या। प्रसू॑त॒ इति॒ प्रऽसू॑तः। प्र। स॒र्पा॒मि॒ ॥३०॥

यजुर्वेद » अध्याय:10» मन्त्र:30 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजा वा राणी को कैसे गुणों से युक्त होना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे प्रजा और राजपुरुषो ! जैसे मैं (प्रसवित्रा) प्रेरणा करनेवाले वायु (सवित्रा) सम्पूर्ण चेष्टा उत्पन्न करानेहारे के समान शुभ कर्म (सरस्वत्या) प्रशंसित विज्ञान और क्रिया से युक्त (वाचा) वेदवाणी के समान सत्यभाषण (त्वष्ट्रा) छेदक और प्रतापयुक्त सूर्य के समान न्याय (रूपैः) सुखरूपों (पूष्णा) पृथिवी (पशुभिः) गौ आदि पशुओं के समान प्रजा के पालन (इन्द्रेण) बिजुली (अस्मे) हम (बृहस्पतिना) बड़ों के रक्षक चार वेदों के जाननेहारे विद्वान् के समान विद्या और सुन्दर शिक्षा के प्रचार (ओजसा) बल (वरुणेन) जल के समुदाय (तेजसा) तीक्ष्ण ज्योति के समान शत्रुओं के चलाने (अग्निना) अग्नि (राज्ञा) प्रकाशमान आनन्द के होने (सोमेन) चन्द्रमा (दशम्या) दशसंख्या को पूर्ण करनेवाली (देवतया) प्रकाशमान और (विष्णुना) व्यापक ईश्वर के समान शुभ गुण, कर्म और स्वभाव से (प्रसूतः) प्रेरणा किया हुआ मैं (प्रसर्पामि) अच्छे प्रकार चलता हूँ, वैसे तुम लोग भी चलो ॥३०॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य सूर्य्यादि गुणों से युक्त पिता के समान रक्षा करनेहारा हो, वह राजा होने के योग्य है, और जो पुत्र के समान वर्त्ताव करे, वह प्रजा होने योग्य है ॥३०॥

देवता: सविता देवता ऋषि: प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: भुरिक्पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः

यु॒जे वां॒ ब्रह्म॑ पू॒र्व्यं नमो॑भि॒र्वि श्लोक॑ऽएतु प॒थ्ये᳖व सू॒रेः। शृ॒ण्वन्तु॒ विश्वे॑ऽअ॒मृत॑स्य पु॒त्राऽआ ये धामा॑नि दि॒व्यानि॑ त॒स्थुः ॥५ ॥

पद पाठ

यु॒जे। वा॒म्। ब्रह्म॑। पू॒र्व्यम्। नमो॑भि॒रिति॒ नमः॑ऽभिः। वि। श्लोकः॑। ए॒तु॒। प॒थ्ये᳖वेति॑ प॒थ्या᳖ऽइव। सू॒रेः। शृ॒ण्वन्तु॑। विश्वे॑। अ॒मृत॑स्य। पु॒त्राः। आ। ये। धामा॑नि। दि॒व्यानि॑। त॒स्थुः ॥५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:5 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य लोग ईश्वर की प्राप्ति कैसे करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे योगशास्त्र के ज्ञान की इच्छा करनेवाले मनुष्यो ! आप लोग जैसे (श्लोकः) सत्य वाणी से संयुक्त मैं (नमोभिः) सत्कारों से जिस (पूर्व्यम्) पूर्व के योगियों ने प्रत्यक्ष किये (ब्रह्म) सब से बड़े व्यापक ईश्वर को (युजे) अपने आत्मा में युक्त करता हूँ, वह ईश्वर (वाम्) तुम योग के अनुष्ठान और उपदेश करने हारे दोनों को (सूरेः) विद्वान् का (पथ्येव) उत्तम गति के अर्थ मार्ग प्राप्त होता है, वैसे (व्येतु) विविध प्रकार से प्राप्त होवे। जैसे (विश्वे) सब (पुत्राः) अच्छे सन्तानों के तुल्य आज्ञाकारी मोक्ष को प्राप्त हुए विद्वान् लोग (अमृतस्य) अविनाशी ईश्वर के योग से (दिव्यानि) सुख के प्रकाश में होनेवाले (धामानि) स्थानों को (आतस्थुः) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हैं, वैसे मैं भी उनको प्राप्त होऊँ ॥५ ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। योगाभ्यास के ज्ञान को चाहनेवाले मनुष्यों को चाहिये कि योग में कुशल विद्वानों का सङ्ग करें। उन के सङ्ग से योग की विधि को जान के ब्रह्मज्ञान का अभ्यास करें। जैसे विद्वान् का प्रकाशित किया हुआ धर्म मार्ग सब को सुख से प्राप्त होता है, वैसे ही योगाभ्यासियों के सङ्ग से योगविधि सहज में प्राप्त होती है। कोई भी जीवात्मा इस सङ्ग और ब्रह्मज्ञान के अभ्यास के विना पवित्र होकर सब सुखों को प्राप्त नहीं हो सकता, इसीलिये उस योगविधि के साथ ही सब मनुष्य परब्रह्म की उपासना करें ॥५ ॥

देवता: पुरोहितयजमानौ देवते ऋषि: नाभानेदिष्ठ ऋषिः छन्द: निचृदार्षी पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः

सꣳशि॑तं मे॒ ब्रह्म॒ सꣳशि॑तं वी॒र्यं᳕ बल॑म्। सꣳशि॑तं क्ष॒त्रं जि॒ष्णु यस्या॒हमस्मि॑ पु॒रोहि॑तः ॥८१ ॥

पद पाठ

सꣳशि॑त॒मिति॒ सम्ऽशि॑तम्। मे॒। ब्रह्म॑। सꣳशि॑त॒मिति॒ सम्ऽशि॑तम्। वी॒र्य᳕म्। बल॑म्। सꣳशि॑त॒मिति॒ सम्ऽशि॑तम्। क्ष॒त्रम्। जि॒ष्णु। यस्य॑। अ॒हम्। अस्मि॑। पु॒रोहि॑त॒ इति॑ पु॒रःऽहि॑तः ॥८१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:81 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पुरोहित यजमान आदि से किस-किस पदार्थ की इच्छा करे और क्या-क्या करे ॥

पदार्थान्वयभाषाः -(अहम्) मैं (यस्य) जिस यजमान पुरुष का (पुरोहितः) प्रथम धारण करने हारा (अस्मि) हूँ, उसका और (मे) मेरा (संशितम्) प्रशंसा के योग्य (ब्रह्म) वेद का विज्ञान और उस यजमान का (संशितम्) प्रशंसा के योग्य (वीर्य्यम्) पराक्रम प्रशंसित (बलम्) बल (संशितम्) और प्रशंसा के योग्य (जिष्णु) जय का स्वभाववाला (क्षत्रम्) क्षत्रियकुल होवे ॥८१ ॥

भावार्थभाषाः -जो जिसका पुरोहित और जो जिस का यजमान होवे, दोनों आपस में जिस विद्या, योगबल और धर्माचरण से आत्मा की उन्नति और ब्रह्मचर्य्य, जितेन्द्रियता तथा आरोग्यता से शरीर का बल बढ़े, वही कर्म निरन्तर किया करें ॥८१ ॥

देवता: सभापतिर्यजमानो देवता ऋषि: नाभानेदिष्ठ ऋषिः छन्द: विराडनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

उदे॑षां बा॒हूऽअ॑तिर॒मुद्वर्चो॒ऽअथो॒ बल॑म्। क्षि॒णोमि॒ ब्रह्म॑णा॒मित्रा॒नुन्न॑यामि॒ स्वाँ२अ॒हम् ॥८२ ॥

पद पाठ

उत्। ए॒षा॒म्। बा॒हूऽइति॑ बा॒हू। अ॒ति॒र॒म्। उत्। वर्चः॑। अथो॒ऽइत्यथो॑। बल॑म्। क्षि॒णोमि॑। ब्रह्म॑णा। अ॒मित्रा॑न्। उत्। न॒या॒मि॒। स्वान्। अ॒हम् ॥८२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:82 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर यजमान पुरोहित के साथ कैसे वर्त्ते, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -(अहम्) मैं यजमान वा पुरोहित (ब्रह्मणा) वेद और ईश्वर के ज्ञान देने से (एषाम्) इन पूर्वोक्त चोर आदि दुष्टों के (बाहू) बल और पराक्रम को (उदतिरम्) अच्छे प्रकार उल्लङ्घन करूँ (वर्चः) तेज तथा (बलम्) सामर्थ्य को और (अमित्रान्) शत्रुओं को (उत्क्षिणोमि) मारता हूँ (अथो) इस के पश्चात् (स्वान्) अपने मित्रों के तेज और सामर्थ्य को (उन्नयामि) वृद्धि के साथ प्राप्त करूँ ॥८२ ॥

भावार्थभाषाः -राजा आदि यजमान तथा पुरोहितों को चाहिये कि पापियों के सब पदार्थों का नाश और धर्मात्माओं के सब पदार्थों की वृद्धि सदैव सब प्रकार से किया करें ॥८२ ॥

देवता: आदित्यो देवता ऋषि: वत्सार ऋषिः छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

ब्रह्म॑ जज्ञा॒नं प्र॑थ॒मं पु॒रस्ता॒द्वि सी॑म॒तः सु॒रुचो॑ वे॒नऽआ॑वः। स बु॒ध्न्या᳖ऽ उप॒माऽ अ॑स्य वि॒ष्ठाः स॒तश्च॒ योनि॒मस॑तश्च॒ वि वः॑ ॥३ ॥

पद पाठ

ब्रह्म॑। ज॒ज्ञा॒नम्। प्र॒थ॒मम्। पु॒रस्ता॑त्। वि। सी॒म॒तः। सु॒रुच॒ इति॑ सु॒ऽरुचः॑। वे॒नः। आ॒व॒रित्या॑वः। सः। बु॒ध्न्याः᳖। उ॒प॒मा इत्यु॑प॒ऽमाः। अ॒स्य॒। वि॒ष्ठाः। वि॒स्था इति॑ वि॒ऽस्थाः। स॒तः। च॒। योनि॑म्। अस॑तः। च॒। वि। व॒रिति॑ वः ॥३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:3 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को किस स्वरूपवाला ब्रह्म उपासना के योग्य है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -जो (पुरस्तात्) सृष्टि की आदि में (जज्ञानम्) सब का उत्पादक और ज्ञाता (प्रथमम्) विस्तारयुक्त और विस्तारकर्ता (ब्रह्म) सब से बड़ा जो (सुरुचः) सुन्दर प्रकाशयुक्त और सुन्दर रुचि का विषय (वेनः) ग्रहण के योग्य जिस (अस्य) इस के (बुध्न्याः) जल सम्बन्धी आकाश में वर्तमान सूर्य, चन्द्रमा, पृथिवी और नक्षत्र आदि (विष्ठाः) विविध स्थलों में स्थित (उपमाः) ईश्वर ज्ञान के दृष्टान्त लोक हैं, उन सब को (सः) वह (आवः) अपनी व्याप्ति से आच्छादन करता है, वह ईश्वर (विसीमतः) मर्य्यादा से (सतः) विद्यमान देखने योग्य (च) और (असतः) अव्यक्त (च) और कारण के (योनिम्) आकाशरूप स्थान को (विवः) ग्रहण करता है, उसी ब्रह्म की उपासना सब लोगों को नित्य अवश्य करनी चाहिये ॥३ ॥

भावार्थभाषाः -जिस ब्रह्म के जानने के लिये प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध सब लोक दृष्टान्त हैं, जो सर्वत्र व्याप्त हुआ सब का आवरण और सभी को प्रकाश करता है और सुन्दर नियम के साथ अपनी-अपनी कक्षा में सब लोकों को रखता है, वही अन्तर्य्यामी परमात्मा सब मनुष्यों के निरन्तर उपासना के योग्य है, इससे अन्य कोई पदार्थ सेवने योग्य नहीं ॥३ ॥

देवता: अश्विनौ देवते ऋषि: उशना ऋषिः छन्द: निचृद्ब्राह्मी बृहती स्वर: मध्यमः

कु॒ला॒यिनी॑ घृ॒तव॑ती॒ पुर॑न्धिः स्यो॒ने सी॑द॒ सद॑ने पृथि॒व्याः। अ॒भि त्वा॑ रु॒द्रा वस॑वो गृणन्त्वि॒मा ब्रह्म॑ पीपिहि॒ सौभ॑गाया॒श्विना॑ध्व॒र्यू सा॑दयतामि॒ह त्वा॑ ॥२ ॥

पद पाठ

कु॒ला॒यिनी॑। घृ॒तव॒तीति॑ घृ॒तऽव॑ती। पुर॑न्धि॒रिति॒ पुर॑म्ऽधिः। स्यो॒ने। सी॒द॒। सद॑ने। पृ॒थि॒व्याः। अ॒भि। त्वा॒। रु॒द्राः। वस॑वः। गृ॒ण॒न्तु॒। इ॒मा। ब्रह्म॑। पी॒पि॒हि॒। सौभ॑गाय। अ॒श्विना॑। अ॒ध्व॒र्यूऽइत्य॑ध्व॒र्यू। सा॒द॒य॒ता॒म्। इ॒ह। त्वा॒ ॥२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:14» मन्त्र:2 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर पूर्वोक्त विषय का अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (स्योने) सुख करने हारी ! जिस (त्वा) तुझ को (वसवः) प्रथम कोटि के विद्वान् और (रुद्राः) मध्य कक्षा के विद्वान् (इमा) इन (ब्रह्म) विद्याधनों के देनेवाले गृहस्थों की (अभि) अभिमुख होकर (गृणन्तु) प्रशंसा करें, सो तू (सौभगाय) सुन्दर संपत्ति होने के लिये इन विद्याधन को (पीपिहि) अच्छे प्रकार प्राप्त हो, (घृतवती) बहुत जल और (पुरन्धिः) बहुत सुख धारण करनेवाली (कुलायिनी) प्रशंसित कुल की प्राप्ति से युक्त हुई (पृथिव्याः) अपनी भूमि के (सदने) घर में (सीद) स्थित हो, (अध्वर्यू) अपने लिये रक्षणीय गृहाश्रम आदि यज्ञ चाहनेवाले (अश्विना) सब विद्याओं में व्यापक और उपदेशक पुरुष (त्वा) तुझको (इह) इस गृहाश्रम में (सादयताम्) स्थापित करें ॥२ ॥

भावार्थभाषाः -स्त्रियों को योग्य है कि साङ्गोपाङ्ग पूर्ण विद्या और धन ऐश्वर्य का सुख भोगने के लिये अपने सदृश पतियों से विवाह करके विद्या और सुवर्ण आदि धन को पाके सब ऋतुओं में सुख देने हारे घरों में निवास करें तथा विद्वानों का सङ्ग और शास्त्रों का अभ्यास निरन्तर किया करें ॥२ ॥

देवता: मेधाविनो देवताः ऋषि: विश्वदेव ऋषिः छन्द: भुरिग्विकृतिः स्वर: मध्यमः

अ॒ग्नेर्भा॒गो᳖ऽसि दी॒क्षाया॒ऽ आधि॑पत्यं॒ ब्रह्म॑ स्पृ॒तं त्रि॒वृत्स्तोम॑ऽ इन्द्र॑स्य भा॒गो᳖ऽसि॒ विष्णो॒राधि॑पत्यं क्ष॒त्रꣳ स्पृ॒तं प॑ञ्चद॒श स्तोमो॑ नृ॒चक्ष॑सां भा॒गो᳖ऽसि धा॒तुराधि॑पत्यं ज॒नित्र॑ꣳ स्पृ॒तꣳ स॑प्तद॒श स्तोमो॑ मि॒त्रस्य॑ भा॒गो᳖ऽसि॒ वरु॑ण॒स्याधि॑पत्यं दि॒वो वृष्टि॒र्वात॑ स्पृ॒तऽ ए॑कवि॒ꣳश स्तोमः॑ ॥२४ ॥

पद पाठ

अ॒ग्नेः। भा॒गः। अ॒सि॒। दी॒क्षायाः॑। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। ब्रह्म॑। स्पृ॒तम्। त्रि॒वृदिति॑ त्रि॒ऽवृत्। स्तोमः॑। इन्द्र॑स्य। भा॒गः। अ॒सि॒। विष्णोः॑। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। क्ष॒त्रम्। स्पृ॒तम्। प॒ञ्च॒द॒श इति॑ पञ्चऽद॒शः। स्तोमः॑। नृ॒चक्ष॑सा॒मिति॑ नृ॒ऽचक्ष॑साम्। भा॒गः। अ॒सि॒। धा॒तुः। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। ज॒नित्र॑म्। स्पृ॒तम्। स॒प्त॒ऽद॒श इति॑ सप्तऽद॒शः। स्तो॑मः। मि॒त्रस्य॑। भा॒गः। अ॒सि॒। वरु॑णस्य। आधि॑पत्य॒मित्याधि॑ऽपत्यम्। दि॒वः। वृष्टिः॑। वातः॑। स्पृ॒तः। ए॒क॒वि॒ꣳश इत्ये॑कऽवि॒ꣳशः। स्तोमः॑ ॥२४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:14» मन्त्र:24 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब मनुष्य किस प्रकार विद्या पढ़ के कैसा आचरण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वान् पुरुष ! जो तू (अग्नेः) सूर्य्य का (भागः) विभाग के योग्य संवत्सर के तुल्य (असि) है, सो तू (दीक्षायाः) ब्रह्मचर्य्य आदि की दीक्षा का (स्पृतम्) प्रीति से सेवन किये हुए (आधिपत्यम्) (ब्रह्म) ब्रह्मज्ञ कुल के अधिकार को प्राप्त हो, जो (त्रिवृत्) शरीर, वाणी और मानस साधनों से शुद्ध वर्त्तमान (स्तोमः) स्तुति के योग्य (इन्द्रस्य) बिजुली वा उत्तम ऐश्वर्य के (भागः) विभाग के तुल्य (असि) है, सो तू (विष्णोः) व्यापक ईश्वर के (स्पृतम्) प्रीति से सेवने योग्य (क्षत्रम्) क्षत्रियों के धर्म के अनुकूल राजकुल के (आधिपत्यम्) अधिकार को प्राप्त हो, जो तू (पञ्चदशः) पन्द्रह का पूरक (स्तोमः) स्तुतिकर्त्ता (नृचक्षसाम्) मनुष्यों से कहने योग्य पदार्थों के (भागः) विभाग के तुल्य (असि) है, सो तू (धातुः) धारणकर्त्ता के (स्पृतम्) ईप्सित (जनित्रम्) जन्म और (आधिपत्यम्) अधिकार को प्राप्त हो, जो तू (सप्तदशः) सत्रह संख्या का पूरक (स्तोमः) स्तुति के योग्य (मित्रस्य) प्राण का (भागः) विभाग के समान (असि) है, सो तू (वरुणस्य) श्रेष्ठ जलों के (आधिपत्यम्) स्वामीपन को प्राप्त हो, जो तू (वातः स्पृतः) सेवित पवन और (एकविंशः) इक्कीस संख्या का पूरक (स्तोमः) स्तुति के साधन के समान (असि) है, सो तू (दिवः) प्रकाशरूप सूर्य्य से (वृष्टिः) वर्षा होने का हवन आदि उपाय कर ॥२४ ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो पुरुष बाल्यावस्था से लेकर सज्जनों ने उपदेश की हुई विद्याओं के ग्रहण के लिये प्रयत्न कर के अधिकारी होते हैं, वे स्तुति के योग्य कर्मों को कर और उत्तम हो के विधान के सहित काल को जान के दूसरों को जनावें ॥२४ ॥

देवता: ईश्वरो देवता ऋषि: विश्वदेव ऋषिः छन्द: निचृद्विकृतिः स्वर: मध्यमः

एक॑यास्तुवत प्र॒जाऽ अ॑धीयन्त प्र॒जाप॑ति॒रधि॑पतिरासीत्। ति॒सृभि॑रस्तुवत॒ ब्रह्मा॑सृज्यत॒ ब्रह्म॑ण॒स्पति॒रधि॑पतिरासीत्। प॒ञ्चभि॑रस्तुवत भू॒तान्य॑सृज्यन्त भू॒तानां॒ पति॒रधि॑पतिरासीत्। स॒प्तभि॑रस्तुवत सप्तऽ ऋ॒षयो॑ऽसृज्यन्त धा॒ताधि॑पतिरासीत् ॥२८ ॥

पद पाठ

एक॑या। अ॒स्तु॒व॒त॒। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। अ॒धी॒य॒न्त॒। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। आ॒सी॒त्। ति॒सृभि॒रिति॑ ति॒सृऽभिः॑। अ॒स्तु॒व॒त॒। ब्रह्म॑। अ॒सृ॒ज्य॒त॒। ब्रह्म॑णः। पतिः॑। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। आ॒सी॒त्। प॒ञ्चभि॒रिति॑ प॒ञ्चऽभिः॑। अ॒स्तु॒व॒त॒। भू॒तानि॑। अ॒सृ॒ज्य॒न्त॒। भू॒ताना॑म्। पतिः॑। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। आ॒सी॒त्। स॒प्तभि॒रिति॑ स॒प्तऽभिः॑। अ॒स्तु॒व॒त॒। स॒प्त॒ऋ॒षय॒ इति॑ सप्तऋ॒षयः॑। अ॒सृ॒ज्य॒न्त॒। धा॒ता। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। आ॒सी॒त् ॥२८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:14» मन्त्र:28 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब यह ऋतुओं का चक्र किसने रचा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जो (प्रजापतिः) प्रजा का पालक (अधिपतिः) सब का अध्यक्ष परमेश्वर (आसीत्) है, उस की (एकया) एक वाणी से (अस्तुवत) स्तुति करो और जिस से सब (प्रजाः) प्रजा के लोगों को वेद द्वारा (अधीयन्त) विद्यायुक्त किये हैं, जो (ब्रह्मणस्पतिः) वेद का रक्षक (अधिपतिः) सब का स्वामी परमात्मा (आसीत्) है, जिस ने यह (ब्रह्म) सकल विद्यायुक्त वेद को (असृज्यत) रचा है, उस की (तिसृभिः) प्राण, उदान और व्यान वायु की गति से (अस्तुवत) स्तुति करो, जिसने (भूतानि) पृथिवी आदि भूतों को (असृज्यन्त) रचा है, जो (भूतानाम्) सब भूतों का (पतिः) रक्षक (अधिपतिः) रक्षकों का भी रक्षक (आसीत्) है, उस की सब मनुष्य (पञ्चभिः) समान वायु, चित्त, बुद्धि, अहंकार और मन से (अस्तुवत) स्तुति करें, जिस ने (सप्त ऋषयः) पाँच मुख्य प्राण, महत्तत्व समष्टि और अहंकार सात पदार्थ (असृज्यन्त) रचे हैं, जो (धाता) धारण वा पोषणकर्त्ता (अधिपतिः) सब का स्वामी (आसीत्) है, उस की (सप्तभिः) नाग, कूर्म्म, कृकल, देवदत्त धनञ्जय, और इच्छा तथा प्रयत्नों से (अस्तुवत) स्तुति करो ॥२८ ॥

भावार्थभाषाः -सब मनुष्यों को योग्य है कि सब जगत् के उत्पादक न्यायकर्त्ता परमात्मा की स्तुति कर, सुनें विचारें और अनुभव करें। जैसे हेमन्त ऋतु में सब पदार्थ शीतल होते हैं, वैसे ही परमेश्वर की उपासना करके शान्तिशील होवें ॥२८ ॥

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: परमेष्ठी ऋषिः छन्द: आर्ष्युष्णिक् स्वर: गान्धारः

स दु॑द्रव॒त् स्वा᳖हुतः स दु॑द्रव॒त् स्वा᳖हुतः। सु॒ब्रह्मा॑ य॒ज्ञः सु॒शमी॒ वसू॑नां दे॒वꣳराधो॒ जना॑नाम् ॥३४ ॥

पद पाठ

सः। दु॒द्र॒व॒त्। स्वा᳖हुत॒ इति॒ सुऽआ॑हुतः। सः। दु॒द्र॒व॒त्। स्वा᳖हुत॒ इति॒ सुऽआ॑हुतः। सु॒ब्र॒ह्मेति॑ सु॒ऽब्रह्मा॑। य॒ज्ञः। सु॒शमीति॑ सु॒ऽशमी॑। वसू॑नाम्। दे॒वम्। राधः॑। जना॑नाम् ॥३४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:34 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! (सः) वह अग्नि (स्वाहुतः) अच्छे प्रकार बुलाये हुए मित्र के समान (दुद्रवत्) चलता है तथा (सः) वह (स्वाहुतः) अच्छे प्रकार निमन्त्रण किये विद्वान् के तुल्य (दुद्रवत्) जाता है, (सुब्रह्मा) अच्छे प्रकार चारों वेदों के ज्ञाता (यज्ञः) समागम के योग्य (सुशमी) अच्छे शान्तिशील पुरुष के समान जो (वसूनाम्) पृथिवी आदि वसुओं और (जनानाम्) मनुष्यों का (देवम्) अभीप्सित (राधः) धनरूप है, उस अग्नि को तुम लोग उपयोग में लाओ ॥३४ ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो वेगवान्, अन्य पदार्थों को वेग देनेवाला, शान्तिकारक, पृथिव्यादि पदार्थों का प्रकाशक अग्नि है, उसका विचार क्यों न करना चाहिये ॥३४ ॥

देवता: प्राणो देवता ऋषि: लोपामुद्रा ऋषिः छन्द: आर्षी जगती स्वर: निषादः

ये दे॒वा दे॒वेष्वधि॑ देव॒त्वमाय॒न् ये ब्रह्म॑णः पुरऽए॒तारो॑ऽअ॒स्य। येभ्यो॒ नऽऋ॒ते पव॑ते॒ धाम॒ किञ्च॒न न ते दि॒वो न पृ॑थि॒व्याऽअधि॒ स्नुषु॑ ॥१४ ॥

पद पाठ

ये। दे॒वाः। दे॒वेषु॑। अधि॑। दे॒व॒त्वमिति॑ देव॒ऽत्वम्। आय॑न्। ये। ब्रह्म॑णः। पु॒र॒ऽए॒तार॒ इति॑ पुरःऽए॒तारः॑। अ॒स्य। येभ्यः॑। न। ऋ॒ते। पव॑ते। धाम॑। किम्। च॒न। न। ते। दि॒वः। न। पृ॒थि॒व्याः। अधि॑। स्नुषु॑ ॥१४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:14 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब उत्तम विद्वान् लोग कैसे होते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -(ये) जो (देवाः) पूर्ण विद्वान् (देवेषु, अधि) विद्वानों में सब से उत्तम कक्षा में विराजमान (देवत्वम्) अपने गुण, कर्म और स्वभाव को (आयन्) प्राप्त होते हैं और (ये) जो (अस्य) इस (ब्रह्मणः) परमेश्वर को (पुरएतारः) पहिले प्राप्त होनेवाले हैं, (येभ्यः) जिनके (ऋते) विना (किम्) (चन) कोई भी (धाम) सुख का स्थान (न) नहीं (पवते) पवित्र होता (ते) वे विद्वान् लोग (न) न (दिवः) सूर्य्यलोक के प्रदेशों और (न) न (पृथिव्याः) पृथिवी के (अधि, स्नुषु) किसी भाग में अधिक वसते हैं ॥१४ ॥

भावार्थभाषाः -जो इस जगत् में उत्तम विद्वान् योगीराज यथार्थता से परमेश्वर को जानते हैं, वे सम्पूर्ण प्राणियों को शुद्ध करने और जीवन्मुक्तिदशा में परोपकार करते हुए विदेहमुक्ति अवस्था में न सूर्य्यलोक और न पृथिवी पर नियम से वसते हैं, किन्तु ईश्वर में स्थिर हो के अव्याहतगति से सर्वत्र विचरा करते हैं ॥१४ ॥

देवता: इषुर्देवता ऋषि: अप्रतिरथ ऋषिः छन्द: आर्ष्यनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

अव॑सृष्टा॒ परा॑ पत॒ शर॑व्ये॒ ब्रह्म॑सꣳशिते। गच्छा॒मित्रा॒न् प्र प॑द्यस्व॒ मामीषां॒ कञ्च॒नोच्छि॑षः ॥४५ ॥

पद पाठ

अव॑सृ॒ष्टेत्यव॑ऽसृष्टा। परा॑। प॒त॒। शर॑व्ये। ब्रह्म॑सꣳशित॒ इति॒ ब्रह्म॑ऽसꣳशिते। गच्छ॑। अ॒मित्रा॑न्। प्र। प॒द्य॒स्व॒। मा। अ॒मीषा॑म्। कम्। च॒न। उत्। शि॒षः॒ ॥४५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:45 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (शरव्ये) बाणविद्या में कुशल (ब्रह्मसंशिते) वेदवेत्ता विद्वान् से प्रशंसा और शिक्षा पाये हुए सेनाधिपति की स्त्री ! तू (अवसृष्टा) प्रेरणा को प्राप्त हुई (परा, पत) दूर जा (अमित्रान्) शत्रुओं को (गच्छ) प्राप्त हो और उनके मारने से विजय को (प्र, पद्यस्व) प्राप्त हो, (अमीषाम्) उन दूर देश में ठहरे हुए शत्रुओं में से मारने के विना (कम्, चन) किसी को (मा) (उच्छिषः) मत छोड़ ॥४५ ॥

भावार्थभाषाः -सभापति आदि को चाहिये कि जैसे युद्धविद्या से पुरुषों को शिक्षा करें, वैसे स्त्रियों को भी शिक्षा करें। जैसे वीरपुरुष युद्ध करें, वैसे स्त्री भी करे। जो युद्ध में मारे जावें, उनसे शेष अर्थात् बचे हुए कातरों को निरन्तर कारागार में स्थापन करें ॥४५ ॥

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: अप्रतिरथ ऋषिः छन्द: निचृदार्ष्यनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

यस्य॑ कु॒र्मो गृ॒हे ह॒विस्तम॑ग्ने वर्द्धया॒ त्वम्। तस्मै॑ दे॒वाऽअधि॑ब्रुवन्न॒यं च॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑ ॥५२ ॥

पद पाठ

यस्य॑। कु॒र्मः। गृ॒हे। ह॒विः। तम्। अ॒ग्ने॒। व॒र्द्ध॒य॒। त्वम्। तस्मै॑। दे॒वाः। अधि॑। ब्रु॒व॒न्। अ॒यम्। च॒। ब्रह्म॑णः। पतिः॑ ॥५२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:52 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पुरोहित ऋत्विज् और यजमान के कृत्य को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) विद्वान् पुरोहित ! हम लोग (यस्य) जिस राजा के (गृहे) घर में (हविः) होम (कुर्मः) करें, (तम्) उसको (त्वम्) तू (वर्द्धय) बढ़ा अर्थात् उत्साह दे तथा (देवाः) दिव्य गुणवाले ऋत्विज् लोग (तस्मै) उसको (अधि, ब्रुवन्) अधिक उपदेश करें (च) और (अयम्) यह (ब्रह्मणः) वेदों का (पतिः) पालन करनेहारा यजमान भी उन को शिक्षा देवे ॥५२ ॥

भावार्थभाषाः -पुरोहित का वह काम है कि जिससे यजमान की उन्नति हो और जो, जिसका, जितना, जैसा काम करे, उसको उसी ढंग उतना ही नियम किया हुआ मासिक धन देना चाहिये। सब विद्वान् जन सब के प्रति सत्य का उपदेश करें और राजा भी सत्योपदेश करे ॥५२ ॥

देवता: इन्द्राग्नी देवते ऋषि: विधृतिर्ऋषिः छन्द: आर्ष्यनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

उ॒द्ग्रा॒भं च॑ निग्रा॒भं च॒ ब्रह्म॑ दे॒वाऽअ॑वीवृधन्। अधा॑ स॒पत्ना॑निन्द्रा॒ग्नी मे॑ विषू॒चीना॒न् व्य᳖स्यताम् ॥६४ ॥

पद पाठ

उ॒द्ग्रा॒भमित्यु॑त्ऽग्रा॒भम्। च॒। नि॒ग्रा॒भमिति॑ निऽग्रा॒भम्। च॒। ब्रह्म॑। दे॒वाः। अ॒वी॒वृ॒ध॒न्। अध॑। स॒पत्ना॒निति॑ स॒ऽपत्ना॑न्। इ॒न्द्रा॒ग्नीऽइती॑न्द्रा॒ग्नी। मे॒। वि॒षू॒चीना॑न्। वि। अ॒स्य॒ता॒म् ॥६४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:64 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अगले मन्त्र में राजधर्म का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -(देवाः) विद्वान् जन (उद्ग्राभम्) अत्यन्त उत्साह से ग्रहण (च) और (निग्राभम्, च) त्याग भी करके (ब्रह्म) धन को (अवीवृधन्) बढ़ावें (अध) इसके अनन्तर (इन्द्राग्नी) बिजुली और आग के समान दो सेनापति (मे) मेरे (विषूचीनान्) विरोधभाव को वर्त्तनेवाले (सपत्नान्) वैरियों को (व्यस्यताम्) अच्छे प्रकार उठा-उठा के पटकें ॥६४ ॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य सज्जनों का सत्कार और दुष्टों को पीट, मार, धन को बढ़ा निष्कण्टक राज्य का सम्पादन करते हैं, वे ही प्रशंसित होते हैं। जो राजा राज्य में वसनेहारे सज्जनों का सत्कार और दुष्टों का निरादर करके अपना तथा प्रजा के ऐश्वर्य्य को बढ़ाता है, उसी के सभा और सेना की रक्षा करनेवाले जन शत्रुओं नाश कर सकें ॥६४ ॥

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: वामदेव ऋषिः छन्द: विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

व॒यं नाम॒ प्रं ब्र॑वामा घृ॒तस्या॒स्मिन् य॒ज्ञे धा॑रयामा॒ नमो॑भिः। उप॑ ब्रह्मा॒ शृ॑णवच्छ॒स्यमा॑नं॒ चतुः॑शृङ्गोऽवमीद् गौ॒रऽए॒तत् ॥९० ॥

पद पाठ

व॒यम्। नाम॑। प्र। ब्र॒वा॒म॒। घृ॒तस्य॑। अ॒स्मिन्। य॒ज्ञे। धा॒र॒या॒म॒। नमो॑भिरिति॒ नमः॑ऽभिः। उप॑। ब्र॒ह्मा। शृ॒ण॒व॒त्। श॒स्यमा॑नम्। चतुः॑शृङ्ग॒ इति॒ चतुः॑ऽशृङ्गः। अ॒व॒मी॒त्। गौ॒रः। ए॒तत् ॥९० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:90 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -जिसको (चतुःशृङ्गः) जिसके चारों वेद सींगों के समान उत्तम हैं, वह (गौरः) वेदवाणी में रमण करने वा वेदवाणी को देने और (ब्रह्मा) चारों वेदों को जाननेवाला विद्वान् (अवमीत्) उपदेश करे वा (उप, शृणवत्) समीप में सुने, वह (घृतस्य) घी वा जल का (शस्यमानम्) प्रशंसित हुआ गुप्त (नाम) नाम है, (एतत्) इसको (वयम्) हम लोग औरों के प्रति (प्र, ब्रवाम) उपदेश करें और (अस्मिन्) इस (यज्ञे) गृहाश्रम व्यवहार में (नमोभिः) अन्न आदि पदार्थों के साथ (धारयाम) धारण करें ॥९० ॥

भावार्थभाषाः -मनुष्य लोग मनुष्य देह को पाकर सब पदार्थों के नाम और अर्थों को पढ़ानेवालों से सुनकर औरों के लिये कहें और इस सृष्टि में स्थित पदार्थों से समस्त कामों की सिद्धि करावें ॥९० ॥

देवता: ऋतुविद्याविद्विद्वान् देवता ऋषि: देवा ऋषयः छन्द: विराडार्षी स्वर: धैवतः

ऋ॒ता॒षाडृ॒तधा॑मा॒ग्निर्ग॑न्ध॒र्वस्तस्यौष॑धयोऽप्स॒रसो॒ मुदो॒ नाम॑। स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥३८ ॥

पद पाठ

ऋ॒ता॒षा॒ट्। ऋ॒तधा॒मेत्यृ॒तऽधा॑मा। अ॒ग्निः। ग॒न्ध॒र्वः। तस्य॑। ओष॑धयः। अ॒प्स॒रसः॑। मुदः॑। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥३८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:38 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जो (ऋताषाट्) सत्य व्यवहार को सहनेवाला (ऋतधामा) जिसके ठहरने के लिये ठीक-ठीक स्थान है, वह (गन्धर्वः) पृथिवी को धारण करनेहारा (अग्निः) आग के समान है, वह (तस्य) उसकी (ओषधयः) ओषधि (अप्सरसः) जो कि जलों में दौड़ती हैं, वे (मुदः) जिनमें आनन्द होता है, ऐसे (नाम) नामवाली हैं (सः) वह (नः) हम लोगों के (इदम्) इस (ब्रह्म) ब्रह्म को जाननेवालों के कुल और (क्षत्रम्) राज्य वा क्षत्रियों के कुल की (पातु) रक्षा करे, (तस्मै) उसके लिये (स्वाहा) सत्य वाणी (वाट्) जिससे कि व्यवहारों को यथायोग्य वर्त्ताव में लाता है और (ताभ्यः) उक्त उन ओषधियों के लिये (स्वाहा) सत्य क्रिया हो ॥३८ ॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य अग्नि के समान दुष्ट शत्रुओं के कुल को दुःखरूपी अग्नि में जलानेवाला और ओषधियों के समान आनन्द का करनेवाला हो, वही समस्त राज्य की रक्षा कर सकता है ॥३८ ॥

देवता: सूर्यो देवता ऋषि: देवा ऋषयः छन्द: भुरिगार्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

स॒ꣳहि॒तो वि॒श्वसा॑मा॒ सूर्यो॑ गन्ध॒र्वस्तस्य॒ मरी॑चयोऽप्स॒रस॑ऽआ॒युवो॒ नाम॑। स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥३९ ॥

पद पाठ

स॒ꣳहि॒त इति॑ सम्ऽहि॒तः। वि॒श्वसा॒मेति॑ वि॒श्वऽसा॑मा। सूर्यः॑। ग॒न्धर्वः॒। तस्य॑। मरी॑चयः। अ॒प्स॒रसः॑। आ॒युवः॑। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥३९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:39 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वन् ! आप जो (संहितः) सब मूर्तिमान् वस्तु वा सत्पुरुषों के साथ मिला हुआ (सूर्यः) सूर्य (गन्धर्वः) पृथिवी को धारण करनेवाला है (तस्य) उसकी (मरीचयः) किरणें (अप्सरसः) जो अन्तरिक्ष में जाती हैं, वे (आयुवः) सब और से संयोग और वियोग करनेवाली (नाम) प्रसिद्ध हैं अर्थात् जल आदि पदार्थों का संयोग करती और छोड़ती हैं (ताभ्यः) उन अन्तरिक्ष में जाने-आनेवाली किरणों के लिये (विश्वसामा) जिसके समीप सामवेद विद्यमान वह आप (स्वाहा) उत्तम क्रिया से कार्य सिद्धि करो, जिससे वे यथायोग्य काम में आवें, जो आप (तस्मै) उस सूर्य के लिये (स्वाहा) सत्य क्रिया को अच्छे प्रकार युक्त करते हो, (सः) वह आप (नः) हमारे (इदम्) इस (ब्रह्म) विद्वानों और (क्षत्रम्) शूरवीरों के कुल तथा (वाट्) कामों के निर्वाह करने की (पातु) रक्षा करो ॥३९ ॥

भावार्थभाषाः -मनुष्य सूर्य की किरणों का युक्ति के साथ सेवन कर, विद्या और शूरवीरता को बढ़ा के अपने प्रयोजन को सिद्ध करें ॥३९ ॥

देवता: चन्द्रमा देवता ऋषि: देवा ऋषयः छन्द: निचृदार्षी जगती स्वर: निषादः

सु॒षु॒म्णः सूर्य॑रश्मिश्च॒न्द्रमा॑ गन्ध॒र्वस्तस्य॒ नक्ष॑त्राण्यप्स॒रसो॑ भे॒कुर॑यो॒ नाम॑। स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॑ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥४० ॥

पद पाठ

सु॒षु॒म्णः। सु॒सु॒म्न इति॑ सुऽसु॒म्नः। सूर्य॑रश्मि॒रिति॒ सूर्य॑ऽरश्मिः। च॒न्द्रमाः॑। ग॒न्ध॒र्वः। तस्य॑। नक्ष॑त्राणि। अ॒प्स॒रसः॑। भे॒कुर॑यः। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥४० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:40 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को चन्द्र आदि लोकों से उपकार लेना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जो (सूर्य्यरश्मिः) सूर्य की किरणोंवाला (सुषुम्णः) जिससे उत्तम सुख होता और (गन्धर्वः) जो सूर्य की किरणों को धारण किये है, वह (चन्द्रमाः) सब को आनन्दयुक्त करनेवाला चन्द्रलोक है (तस्य) उसके जो (नक्षत्राणि) अश्विनी आदि नक्षत्र और (अप्सरसः) आकाश में विद्यमान किरणें (भेकुरयः) प्रकाश को करनेवाली (नाम) प्रसिद्ध हैं, वे चन्द्र की अप्सरा हैं (सः) वह जैसे (नः) हम लोगों के (इदम्) इस (ब्रह्म) पढ़ानेवाले ब्राह्मण और (क्षत्रम्) दुष्टों के नाश करनेहारे क्षत्रियकुल की (पातु) रक्षा करे (तस्मै) उक्त उस प्रकार के चन्द्रलोक के लिये (वाट्) कार्यनिर्वाहपूर्वक (स्वाहा) उत्तम क्रिया और (ताभ्यः) उन किरणों के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया तुम लोगों को प्रयुक्त करनी चाहिये ॥४० ॥

भावार्थभाषाः -मनुष्यों को चन्द्र आदि लोकों से भी उनकी विद्या से सुख सिद्ध करना चाहिये ॥४० ॥

देवता: वातो देवता ऋषि: देवा ऋषयः छन्द: ब्राह्म्युष्णिक् स्वर: ऋषभः

इ॒षि॒रो वि॒श्वव्य॑चा॒ वातो॑ गन्ध॒र्वस्तस्यापो॑ऽअप्स॒रस॒ऽऊर्जो॒ नाम॑। स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥४१ ॥

पद पाठ

इ॒षि॒रः। वि॒श्वव्य॑चाः। वातः॑। ग॒न्ध॒र्वः। तस्य॑। आपः॑। अ॒प्स॒रसः॑। ऊर्जः॑। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥४१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:41 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को पवन आदि से उपकार लेने चाहियें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जो (इषिरः) जिससे इच्छा करते वा (विश्वव्यचाः) जिसकी सब संसार में व्याप्ति है, वह (गन्धर्वः) पृथिवी और किरणों को धारण करता (वातः) सब जगह भ्रमण करनेवाला पवन है (तस्य) उसके जो (आपः) जल और प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान आदि भाग हैं, वे (अप्सरसः) अन्तरिक्ष जल में जाने-आने और (ऊर्जः) बल-पराक्रम के देनेवाले (नाम) प्रसिद्ध हैं, जैसे (सः) वह (नः) हम लोगों के लिये (इदम्) इस (ब्रह्म) सत्य के उपदेश से सब की वृद्धि करनेवाले ब्राह्मणकुल तथा (क्षत्रम्) विद्या के बढ़ानेवाले राजकुल की (पातु) रक्षा करे, वैसे तुम लोग भी आचरण करो और (तस्मै) उक्त पवन के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया की (वाट्) प्राप्ति तथा (ताभ्यः) उन जल आदि के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया वा उत्तम वाणी को युक्त करो ॥४१ ॥

भावार्थभाषाः -शरीर में जितनी चेष्टा और बल-पराक्रम उत्पन्न होते हैं, वे सब पवन से होते हैं और पवन ही प्राणरूप और जल गन्धर्व अर्थात् सबको धारण करनेवाले हैं, यह मनुष्यों को जानना चाहिये ॥४१ ॥

देवता: यज्ञो देवता ऋषि: देवा ऋषयः छन्द: विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

भु॒ज्युः सु॑प॒र्णो य॒ज्ञो ग॑न्ध॒र्वस्तस्य॒ दक्षि॑णाऽअप्स॒रस॑ स्ता॒वा नाम॑। स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥४२ ॥

पद पाठ

भु॒ज्युः। सु॒प॒र्ण इति॑ सुऽपर्णः॒। य॒ज्ञः। ग॒न्ध॒र्वः। तस्य॑। दक्षि॑णाः। अ॒प्स॒रसः॑। स्ता॒वाः। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥४२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:42 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य लोग यज्ञ का अनुष्ठान करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जो (भुज्युः) सुखों के भोगने और (सुपर्णः) उत्तम-उत्तम पालना का हेतु (गन्धर्वः) वाणी को धारण करनेवाला (यज्ञः) सङ्गति करने योग्य यज्ञकर्म है (तस्य) उसकी (दक्षिणाः) जो सुपात्र अच्छे-अच्छे धर्मात्मा विद्वानों को दक्षिणा दी जाती हैं, वे (अप्सरसः) प्राणों में पहुँचनेवाली (स्तावाः) जिनकी प्रशंसा की जाती है, ऐसी (नाम) प्रसिद्ध हैं, (सः) वह जैसे (नः) हमारे लिये (इदम्) इस (ब्रह्म) विद्वान्, ब्राह्मण और (क्षत्रम्) चक्रवर्ती राजा की (पातु) रक्षा करे, वैसा तुम लोग भी अनुष्ठान करो। (तस्मै) उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया की (वाट्) प्राप्ति (ताभ्यः) उक्त दक्षिणाओं के लिये (स्वाहा) उत्तम रीति से उत्तम क्रिया को संयुक्त करो ॥४२ ॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य अग्निहोत्र आदि यज्ञों को प्रतिदिन करते हैं, वे समस्त संसार के सुखों को बढ़ाते हैं, यह जानना चाहिये ॥४२ ॥

देवता: विश्वकर्मा देवता ऋषि: देवा ऋषयः छन्द: विराडार्षी जगती स्वर: निषादः

प्र॒जाप॑तिर्वि॒श्वक॑र्मा॒ मनो॑ गन्ध॒र्वस्तस्य॑ऽऋ॒क्सा॒मान्य॑प्स॒रस॒ऽएष्ट॑यो॒ नाम॑। स न॑ऽइ॒दं ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं पा॑तु॒ तस्मै॒ स्वाहा॒ वाट् ताभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥४३ ॥

पद पाठ

प्र॒जाप॑ति॒रिति॒ प्र॒जाऽप॑तिः। वि॒श्वक॒र्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्म्मा। मनः॑। ग॒न्ध॒र्वः। तस्य॑। ऋ॒क्सा॒मानीत्यृ॑क्ऽसा॒मानि॑। अ॒प्स॒रसः॑। एष्ट॑य॒ इत्याऽइ॑ष्टयः। नाम॑। सः। नः॒। इ॒दम्। ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। पा॒तु॒। तस्मै॑। स्वाहा॑। वाट्। ताभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥४३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:43 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! तुम जो (विश्वकर्मा) समस्त कामों का हेतु और (प्रजापतिः) जो प्रजा का पालनेवाला स्वामी मनुष्य है, (तस्य) उसके (गन्धर्वः) जिससे वाणी आदि को धारण करता है (मनः) ज्ञान की सिद्धि करनेहारा मन (ऋक्सामानि) ऋग्वेद और सामवेद के मन्त्र (अप्सरसः) हृदयाकाश में व्याप्त प्राण आदि पदार्थों में जाती हुई क्रिया (एष्टयः) जिनसे विद्वानों का सत्कार, सत्य का सङ्ग और विद्या का दान होता है, ये सब (नाम) प्रसिद्ध हैं, जैसे (सः) वह (नः) हम लोगों के लिये (इदम्) इस (ब्रह्म) वेद और (क्षत्रम्) धनुर्वेद की (पातु) रक्षा करे, वैसे (तस्मै) उसके लिये (स्वाहा) सत्य वाणी (वाट्) धर्म की प्राप्ति और (ताभ्यः) उन उक्त पदार्थों के लिये (स्वाहा) सत्य क्रिया से उपकार को करो ॥४३ ॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य पुरुषार्थी, विचारशील, वेदविद्या के जाननेवाले होते हैं, वे ही संसार के भूषण होते हैं ॥४३ ॥

देवता: प्रजापतिर्देवता ऋषि: देवा ऋषयः छन्द: भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः

स नो॑ भुवनस्य पते प्रजापते॒ यस्य॑ तऽउ॒परि॑ गृ॒हा यस्य॑ वे॒ह। अ॒स्मै ब्रह्म॑णे॒ऽस्मै क्ष॒त्राय॒ महि॒ शर्म॑ यच्छ॒ स्वाहा॑ ॥४४ ॥

पद पाठ

सः। नः॒। भु॒व॒न॒स्य॒। प॒ते॒। प्र॒जा॒प॒त॒ इति॑ प्रजाऽपते। यस्य॑। ते॒। उ॒परि॑। गृ॒हा। यस्य॑। वा॒। इ॒ह। अ॒स्मै। ब्रह्म॑णे। अ॒स्मै। क्ष॒त्राय॑। महि॑। शर्म॑। य॒च्छ॒। स्वाहा॑ ॥४४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:44 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (भुवनस्य) घर के (पते) स्वामी (प्रजापते) प्रजा की रक्षा करनेवाले पुरुष ! (इह) इस संसार में (यस्य) जिस (ते) तेरे (उपरि) अति उच्चता को देनेहारे उत्तम व्यवहार में (गृहाः) पदार्थों के ग्रहण करनेहारे गृहस्थ मनुष्य आदि (वा) वा (यस्य) जिसकी सब उत्तम क्रिया हैं (सः) सो तू (नः) हमारे (अस्मै) इस (ब्रह्मणे) वेद और ईश्वर के जाननेहारे मनुष्य तथा (अस्मै) इस (क्षत्राय) राजधर्म में निरन्तर स्थित क्षत्रिय के लिये (स्वाहा) सत्य क्रिया से (महि) बहुत (शर्म) घर और सुख को (यच्छ) दे ॥४४ ॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य विद्वानों और क्षत्रियों के कुल को नित्य बढ़ाते हैं, वे अत्यन्त सुख को प्राप्त होते हैं ॥४४ ॥

देवता: बृहस्पतिर्देवता ऋषि: शुनःशेप ऋषिः छन्द: निचृच्छक्वरी त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

तत्त्वा॑ यामि॒ ब्रह्म॑णा॒ वन्द॑मान॒स्तदा शा॑स्ते॒ यज॑मानो ह॒विर्भिः॑। अहे॑डमानो वरुणे॒ह बो॒ध्युरु॑शꣳस॒ मा न॒ऽआयुः॒ प्रमो॑षीः ॥४९ ॥

पद पाठ

तत्। त्वा॒। या॒मि। ब्रह्म॑णा। वन्द॑मानः। तत्। आ। शा॒स्ते॒। यज॑मानः। ह॒विर्भि॒रिति ह॒विःऽभिः॑। अहे॑डमानः। व॒रु॒ण॒। इ॒ह। बो॒धि॒। उरु॑श॒ꣳसेत्युरु॑ऽशꣳस। मा। नः॒। आयुः॑। प्र। मो॒षीः॒ ॥४९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:49 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को विद्वानों के तुल्य आचरण करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (उरुशंस) बहुतों की प्रशंसा करनेहारे (वरुण) श्रेष्ठ विद्वन् ! (ब्रह्मणा) वेद से (वन्दमानः) स्तुति करता हुआ (यजमानः) यज्ञ करनेवाला (अहेडमानः) सत्कार को प्राप्त हुआ पुरुष (हविर्भिः) होम करने के योग्य अच्छे बनाये हुए पदार्थों से जो (आ, शास्ते) आशा करते हैं, (तत्) उसको मैं (यामि) प्राप्त होऊँ तथा जिस उत्तम (आयुः) सौ वर्ष की आयुर्दा को (त्वा) तेरा आश्रय करके मैं प्राप्त होऊँ (तत्) उस को तू भी प्राप्त हो, तू (इह) इस संसार में उक्त आयुर्दा को (बोधि) जान और तू (नः) हमारी उस आयुर्दा को (मा, प्र, मोषीः) मत चोर ॥४९ ॥

भावार्थभाषाः -सत्यवादी, शास्त्रवेत्ता, सज्जन, विद्वान् जो चाहे वही चाहना मनुष्यों को भी करनी चाहिये। किसी को किन्हीं विद्वानों का अनादर न करना चाहिये तथा स्त्री पुरुषों को ब्रह्मचर्यत्याग, अयोग्य आहार-विहार, व्यभिचार, अत्यन्त विषयासक्ति आदि खोटे कामों से आयुर्दा का नाश कभी न करना चाहिये ॥४९ ॥

देवता: सोमो देवता ऋषि: आभूतिर्ऋषिः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः

ब्रह्म॑ क्ष॒त्रं प॑वते॒ तेज॑ऽइन्द्रि॒यꣳ सुर॑या॒ सोमः॑ सु॒तऽआसु॑तो॒ मदा॑य। शु॒क्रेण॑ देव दे॒वताः॑ पिपृग्धि॒ रसे॒नान्नं॒ यज॑मानाय धेहि ॥५ ॥

पद पाठ

ब्रह्म॑। क्ष॒त्रम्। प॒व॒ते॒। तेजः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। सुर॑या। सोमः॑। सु॒तः। आसु॑त॒ इत्याऽसु॑तः। मदा॑य। शु॒क्रेण। दे॒व॒। दे॒वताः॑। पि॒पृ॒ग्धि॒। रसे॑न। अन्न॑म्। यज॑मानाय। धे॒हि॒ ॥५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:5 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (देव) सुखदाता विद्वान् ! जो (शुक्रेण) शीघ्र शुद्ध करनेहारे व्यवहार से (मदाय) आनन्द के लिये (सुरया) उत्पन्न होती हुई क्रिया से (सुतः) उत्पादित (आसुतः) अच्छे प्रकार रोगनिवारण के निमित्त सेवित (सोमः) ओषधियों का रस (तेजः) प्रगल्भता (इन्द्रियम्) मन आदि इन्द्रियगण (ब्रह्म) ब्रह्मवित् कुल और (क्षत्रम्) न्यायकारी क्षत्रिय-कुल को (पवते) पवित्र करता है, उस (रसेन) रस से युक्त (अन्नम्) अन्न को (यजमानाय) धर्मात्मा जन के लिये (धेहि) धारण कर (देवताः) विद्वानों को (पिपृग्धि) प्रसन्न कर ॥५ ॥

भावार्थभाषाः -इस जगत् में किसी मनुष्य को योग्य नहीं है कि जो श्रेष्ठ रस के विना अन्न खावे, सदा विद्या शूरवीरता, बल और बुद्धि की वृद्धि के लिये महौषधियों के सारों को सेवन करना चाहिये ॥५ ॥

देवता: यज्ञो देवता ऋषि: हैमवर्चिर्ऋषिः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

ए॒ताव॑द् रू॒पं य॒ज्ञस्य॒ यद्दे॒वैर्ब्रह्म॑णा कृ॒तम्। तदे॒तत्सर्व॑माप्नोति य॒ज्ञे सौ॑त्राम॒णी सु॒ते ॥३१ ॥

पद पाठ

ए॒ताव॑त्। रू॒पम्। य॒ज्ञस्य॑। यत्। दे॒वैः। ब्रह्म॑णा। कृ॒तम्। तत्। ए॒तत्। सर्व॑म्। आ॒प्नो॒ति॒। य॒ज्ञे। सौ॒त्रा॒म॒णी। सु॒ते ॥३१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:31 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -जो मनुष्य (यत्) जिस (देवैः) विद्वानों और (ब्रह्मणा) परमेश्वर वा चार वेदों ने (यज्ञस्य) यज्ञ के (एतावत्) इतने (रूपम्) स्वरूप को (कृतम्) सिद्ध किया वा प्रकाशित किया है, (तत्) उस (एतत्) इस (सर्वम्) समस्त को (सौत्रामणी) जिसमें यज्ञोपवीतादि ग्रन्थियुक्त सूत्र धारण किये जाते हैं, उस (सुते) सिद्ध किये हुए (यज्ञे) यज्ञ में (आप्नोति) प्राप्त होता है, वह द्विज होने का आरम्भ करता है ॥३१ ॥

भावार्थभाषाः -विद्वान् मनुष्यों को योग्य है कि जितना यज्ञ के अनुष्ठान का अनुसन्धान किया जाता है, उतना ही अनुष्ठान करके बड़े उत्तम यज्ञ के फल को प्राप्त होवें ॥३१ ॥

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: वैखानस ऋषिः छन्द: निचृद्गायत्री स्वर: षड्जः

यत्ते॑ प॒वित्र॑म॒र्चिष्यग्ने॒ वित॑तमन्त॒रा। ब्रह्म॒ तेन॑ पुनातु मा ॥४१ ॥

पद पाठ

यत्। ते॒। प॒वित्र॑म्। अ॒र्चिषि॑। अग्ने॑। वित॑त॒मिति॒ विऽतत॑म्। अ॒न्त॒रा। ब्रह्म॑। तेन॑। पु॒ना॒तु॒। मा॒ ॥४१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:41 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को कैसे शुद्ध होना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (अग्ने) स्वप्रकाशस्वरूप जगदीश्वर (ते) तेरे (अर्चिषि) सत्कार करने योग्य शुद्ध तेजःस्वरूप में (अन्तरा) सब से भिन्न (यत्) जो (विततम्) विस्तृत सब में व्याप्त (पवित्रम्) शुद्धस्वरूप (ब्रह्म) उत्तम वेद विद्या है, (तेन) उससे (मा) मुझ को आप (पुनातु) पवित्र कीजिये ॥४१ ॥

भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! तुम लोग जो देवों का देव, पवित्रों का पवित्र, व्याप्तों में व्याप्त अन्तर्यामी ईश्वर और उसकी विद्या वेद है, उसके अनुकूल आचरण से निरन्तर पवित्र हूजिये ॥४१ ॥

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