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ब्रह्म क्या है और ब्रह्म को कैसे प्राप्त करें भाग-2


 



ब्रह्म क्या है और ब्रह्म को कैसे प्राप्त करें भाग-2

देवता: प्रजापतिर्देवता ऋषि: शङ्ख ऋषिः छन्द: भुरिगतिजगती स्वर: निषादः

अन्ना॑त् परि॒स्रुतो॒ रसं॒ ब्रह्म॑णा॒ व्य᳖पिबत् क्ष॒त्रं पयः॒ सोमं॑ प्र॒जाप॑तिः। ऋ॒तेन॑ स॒त्यमि॑न्द्रि॒यं वि॒पानंꣳ शु॒क्रमन्ध॑स॒ऽइन्द्र॑स्येन्द्रि॒यमि॒दं पयो॒ऽमृतं॒ मधु॑ ॥७५ ॥

पद पाठ

अन्ना॑त्। प॒रि॒स्रुत॒ इति॑ परि॒ऽस्रुतः॑। रस॑म्। ब्रह्म॑णा। वि। अ॒पि॒ब॒त्। क्ष॒त्रम्। पयः॑। सोम॑म्। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। ऋ॒तेन॑। स॒त्यम्। इ॒न्द्रि॒यम्। वि॒पान॒मिति॑ वि॒ऽपान॑म्। शु॒क्रम्। अन्ध॑सः। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒यम्। इ॒दम्। पयः॑। अ॒मृत॑म्। मधु॑ ॥७५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:75 उपलब्ध भाष्य

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कैसे राज्य की उन्नति करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -जो (ब्रह्मणा) चारों वेद पढ़े हुए विद्वान् के साथ (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक सभाध्यक्ष राजा (परिस्रुतः) सब ओर से पके हुए (अन्नात्) जौ आदि अन्न से निकले (पयः) दुग्ध के तुल्य (सोमम्) ऐश्वर्ययुक्त (रसम्) साररूप रस और (क्षत्रम्) क्षत्रियकुल को (व्यपिबत्) ग्रहण करे, सो (ऋतेन) विद्या तथा विनय से युक्त न्याय से (अन्धसः) अन्धकाररूप अन्याय के निवारक (शुक्रम्) पराक्रम करनेहारे (विपानम्) विविध रक्षण के हेतु (सत्यम्) सत्य व्यवहारों में उत्तम (इन्द्रियम्) इन्द्र नामक परमात्मा ने दिये हुए (इन्द्रस्य) समग्र ऐश्वर्य के देनेहारे राज्य की प्राप्ति करानेहारे (इदम्) इस प्रत्यक्ष (पयः) पीने के योग्य (अमृतम्) अमृत के तुल्य सुखदायक रस और (मधु) मधुरादि गुणयुक्त (इन्द्रियम्) राजादि पुरुषों ने सेवे हुए न्यायाचरण को प्राप्त होवे, यह सदा सुखी होवे ॥७५ ॥

भावार्थभाषाः -जो विद्वानों की अनुमति से राज्य को बढ़ाने की इच्छा करते हैं, वे अन्याय की निवृत्ति करने और राज्य को बढ़ाने में समर्थ होते हैं ॥७५ ॥

देवता: सभेशो देवता ऋषि: अश्विनावृषी छन्द: निचृदतिधृतिः स्वर: षड्जः

दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। अ॒श्विनो॒र्भैष॑ज्येन॒ तेज॑से ब्रह्मवर्च॒साया॒भि षि॑ञ्चामि॒ सर॑स्वत्यै॒ भैष॑ज्येन वी॒र्या᳖या॒न्नाद्याया॒भि षि॑ञ्चा॒मीन्द्र॑स्येन्द्रि॒येण॒ बला॑य श्रि॒यै यश॑से॒ऽभि षि॑ञ्चामि ॥३ ॥

 

पद पाठ

दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। अ॒श्विनोः॑। भैष॑ज्येन। तेज॑से। ब्र॒ह्म॒व॒र्च॒सायेति॑ ब्रह्मऽवर्च॒साय॑। अ॒भि। सि॒ञ्चा॒मि॒। सर॑स्वत्यै। भैष॑ज्येन। वी॒र्या᳖य। अ॒न्नाद्या॒येत्य॒न्नऽअद्या॑य। अ॒भि। सि॒ञ्चा॒मि॒। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒येण॑। बला॑य। श्रि॒यै। यश॑से। अ॒भि। सि॒ञ्चा॒मि॒ ॥३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:3 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे शुभ लक्षणों से युक्त पुरुष ! (सवितुः) सकल ऐश्वर्य के अधिष्ठाता (देवस्य) सब ओर से प्रकाशमान जगदीश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए जगत् में (अश्विनोः) सम्पूर्ण विद्या में व्याप्त अध्यापक और उपदेशक के (बाहुभ्याम्) बल और पराक्रम से (पूष्णः) पूर्ण बलवाले वायुवत् वर्त्तमान पुरुष के (हस्ताभ्याम्) उत्साह और पुरुषार्थ से (अश्विनोः) वैद्यक विद्या में व्याप्त पढ़ाने और ओषधि करनेहारे के (भैषज्येन) वैद्यकपन से (तेजसे) प्रगल्भता के लिये (ब्रह्मवर्चसाय) वेदों के पढ़ने के लिये (त्वा) तुझ को राज प्रजाजन मैं (अभि, षिञ्चामि) अभिषेक करता हूँ (भैषज्येन) ओषधियों के भाव से (सरस्वत्यै) अच्छे प्रकार शिक्षा की हुई वाणी (वीर्याय) पराक्रम और (अन्नाद्याय) अन्नादि की प्राप्ति के लिये (अभि, षिञ्चामि) अभिषेक करता हूँ (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्य्यवाले के (इन्द्रियेण) धन से (बलाय) पुष्ट होने (श्रियै) सुशोभायुक्त राजलक्ष्मी और (यशसे) पुण्य कीर्ति के लिये (अभि, षिञ्चामि) अभिषेक करता हूँ ॥३ ॥

भावार्थभाषाः -सब मनुष्यों को योग्य है कि इस जगत् में धर्मयुक्त कर्मों का प्रकाश करने के लिये शुभ गुण, कर्म और स्वभाववाले जन को राज्य पालन करने के लिये अधिकार देवें ॥३ ॥

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: अश्वतराश्विर्ऋषिः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

यत्र॒ ब्रह्म॑ च क्ष॒त्रं च॑ स॒म्यञ्चौ॒ चर॑तः स॒ह। तं लो॒कं पुण्यं॒ प्रज्ञे॑षं॒ यत्र॑ दे॒वाः स॒हाग्निना॑ ॥२५ ॥

पद पाठ

यत्र॑। ब्रह्म॑। च॒। क्ष॒त्रम्। च॒। स॒म्यञ्चौ॑। चर॑तः। स॒ह। तम्। लो॒कम्। पुण्य॑म्। प्र। ज्ञे॒ष॒म्। यत्र॑। दे॒वाः। स॒ह। अ॒ग्निना॑ ॥२५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:25 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे मैं (यत्र) जिस परमात्मा में (ब्रह्म) ब्राह्मण अर्थात् विद्वानों का कुल (च) और (क्षत्रम्) विद्या, शौर्यादि गुणयुक्त क्षत्रियकुल ये दोनों (सह) साथ (सम्यञ्चौ) अच्छे प्रकार प्रीतियुक्त (च) तथा वैश्य आदि के कुल (चरतः) मिलकर व्यवहार करते हैं और (यत्र) जिस ब्रह्म में (देवाः) दिव्यगुणवाले पृथिव्यादि लोक वा विद्वान् जन (अग्निना) बिजुली रूप अग्नि के (सह) साथ वर्तते हैं, (तम्) उस (लोकम्) देखने के योग्य (पुण्यम्) सुखस्वरूप निष्पाप परमात्मा को (प्र, ज्ञेषम्) जानूँ, वैसे तुम लोग भी इस को जानो ॥२५ ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो ब्रह्म एक चेतनमात्र स्वरूप, सब का अधिकारी, पापरहित, ज्ञान से देखने योग्य, सर्वत्र व्याप्त, सब के साथ वर्त्तमान है, वही सब मनुष्यों का उपास्य देव है ॥२५ ॥

देवता: इन्द्रो देवता ऋषि: मधुच्छन्दा ऋषिः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

इन्द्राया॑हि धि॒येषि॒तो विप्र॑जूतः सु॒ताव॑तः। उप॒ ब्रह्मा॑णि वा॒घतः॑ ॥८८ ॥

पद पाठ

इन्द्र॑। आ। या॒हि॒। धि॒या। इ॒षि॒तः। विप्र॑जूत॒ इति॒ विप्र॑ऽजूतः। सु॒ताव॑तः। सु॒तव॑त॒ इति॑ सु॒तऽव॑तः। उप॑। ब्रह्मा॑णि। वा॒घतः॑ ॥८८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:88 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वद्विषय अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य से युक्त (इषितः) प्रेरित और (विप्रजूतः) बुद्धिमानों से शिक्षा पाके वेगयुक्त (वाघतः) शिक्षा पाई हुई वाणी से जाननेहारा तू (धिया) सम्यक् बुद्धि से (सुतावतः) सिद्ध किये (ब्रह्माणि) अन्न और धनों को (उप, आ याहि) सब प्रकार से समीप प्राप्त हो ॥८८ ॥

भावार्थभाषाः -विद्वान् लोग जिज्ञासावाले पुरुषों से मिलके उन में विद्या के निधि को स्थापित करें ॥८८ ॥

देवता: इन्द्रो देवता ऋषि: मधुच्छन्दा ऋषिः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

इन्द्राया॑हि॒ तूतु॑जान॒ऽउप॒ ब्रह्मा॑णि हरिवः। सु॒ते द॑धिष्व न॒श्चनः॑ ॥८९ ॥

पद पाठ

इन्द्र॑। आ। या॒हि॒। तूतु॑जानः। उप॑। ब्रह्मा॑णि। ह॒रि॒व॒ इति॑ हरिऽवः। सु॒ते। द॒धि॒ष्व॒। नः॒॑। चनः॑ ॥८९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:89 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (हरिवः) अच्छे उत्तम घोड़ोंवाले (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य के बढ़ानेहारे विद्वन् ! आप (उपायाहि) निकट आइये (तूतुजानः) शीघ्र कार्य्यकारी होके (नः) हमारे लिये (सुते) उत्पन्न हुए व्यवहार में (ब्रह्माणि) धर्मयुक्त कर्म से प्राप्त होने योग्य धन और (चनः) भोग के योग्य अन्न को (दधिष्व) धारण कीजिये ॥८९ ॥

भावार्थभाषाः -विद्या और धर्म बढ़ाने के लिए किसी को आलस्य न करना चाहिये ॥८९ ॥

देवता: वरुणो देवता ऋषि: शुनःशेप ऋषिः छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

तत्त्वा॑ यामि॒ ब्रह्म॑णा॒ वन्द॑मान॒स्तदाशा॑स्ते॒ यज॑मानो ह॒विर्भिः॑। अहे॑डमानो वरुणे॒ह बो॒ध्युरु॑शꣳस॒ मा न॒ऽआयुः॒ प्र मो॑षीः ॥२ ॥

पद पाठ

तत्। त्वा॒। या॒मि॒। ब्रह्म॑णा। वन्द॑मानः। तत्। आ। शा॒स्ते॒। यज॑मानः। ह॒विर्भि॒रिति॑ ह॒विःऽभिः॑। अहे॑डमानः। व॒रु॒ण॒। इ॒ह। बो॒धि॒। उरु॑शꣳसेत्युरु॑ऽशꣳस। मा। नः॒। आयुः॑। प्र। मो॒षीः॒ ॥२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:2 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (वरुण) अति उत्तम विद्वान् पुरुष ! जैसे (यजमानः) यजमान (हविर्भिः) देने योग्य पदार्थों से (तत्) उस की (आ, शास्ते) इच्छा करता है वैसे (ब्रह्मणा) वेद के विज्ञान से (वन्दमानः) स्तुति करता हुआ मैं (तत्) उस (त्वा) तुझ को (यासि) प्राप्त होता हूँ। हे (उरुशंस) बहुत लोगों से प्रशंसा किये हुए जन ! मुझ से (अहेडमानः) सत्कार को प्राप्त होता हुआ तू (इह) इस संसार में (नः) हमारे (आयुः) जीवन वा विज्ञान को (मा) मत (प्र, मोषीः) चुरा लेवे और शास्त्र का (बोधि) बोध कराया कर ॥२ ॥

भावार्थभाषाः -इस में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य जिससे विद्या को प्राप्त हो, वह उसको प्रथम नमस्कार करे। जो जिस का पढ़ानेवाला हो, वह उसको विद्या देने के लिए कपट न करे, कदापि किसी को आचार्य का अपमान न करना चाहिए ॥२ ॥

देवता: विश्वेदेवा देवताः ऋषि: प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: जगती स्वर: निषादः

स्व॒गा त्वा॑ दे॒वेभ्यः॑ प्र॒जाप॑तये॒ ब्रह्म॒न्नश्वं॑ भ॒न्त्स्यामि॑ दे॒वेभ्यः॑ प्र॒जाप॑तये॒ तेन॑ राध्यासम्। तं ब॑धान दे॒वेभ्यः॑ प्र॒जाप॑तये॒ तेन॑ राध्नुहि ॥४ ॥

पद पाठ

स्व॒गेति॑ स्व॒ऽगा। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑। प्र॒जाप॑तय॒ इति॑ प्र॒जाऽप॑तये। ब्रह्म॑न्। अश्व॑म्। भ॒न्त्स्यामि॑। दे॒वेभ्यः॑। प्र॒जाप॑तय॒ इति॑ प्र॒जाऽप॑तये। तेन॑। रा॒ध्या॒स॒म्। तम्। ब॒धा॒न॒। दे॒वेभ्यः॑। प्र॒जाप॑तय॒ इति॑ प्र॒जाऽप॑तये। तेन॑। रा॒ध्नु॒हि॒ ॥४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:22» मन्त्र:4 उपलब्ध भाष्य

 

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (ब्रह्मन्) विद्या से वृद्धि को प्राप्त ! मैं (त्वा) तुझे (स्वगा) आप जानेवाला करता हूँ (देवेभ्यः) विद्वानों और (प्रजापतये) सन्तानों की रक्षा करने हारे गृहस्थ के लिये (अश्वम्) बड़े सर्वव्यापी उत्तम गुण को (भन्त्स्यामि) बाँधूँगा (तेन) उससे (देवेभ्यः) दिव्य गुणों और (प्रजापतये) सन्तानों को पालनेहारे गृहस्थ के लिये (राध्यासम्) अच्छे प्रकार सिद्ध होऊँ (तम्) उस को तू (बधान) बाँध (तेन) उससे (देवेभ्यः) दिव्य गुण, कर्म और स्वभाववालों तथा (प्रजापतये) प्रजा पालनेवाले के लिये (राध्नुहि) अच्छे प्रकार सिद्ध होओ ॥४ ॥

भावार्थभाषाः -सब मनुष्यों को चाहिये कि विद्या, अच्छी शिक्षा, ब्रह्मचर्य और अच्छे सङ्ग से शरीर और आत्मा के अत्यन्त बल को सिद्ध कर दिव्य गुणों को ग्रहण और विद्वानों के लिये सुख देकर अपनी और पराई वृद्धि करें ॥४ ॥

देवता: लिङ्गोक्ता देवताः ऋषि: प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: स्वराडुत्कृतिः स्वर: षड्जः

आ ब्रह्म॑न् ब्राह्म॒णो ब्र॑ह्मवर्च॒सी जा॑यता॒मा रा॒ष्ट्रे रा॑ज॒न्यः᳕ शूर॑ऽइष॒व्यो᳖ऽतिव्या॒धी म॑हार॒थो जा॑यतां॒ दोग्ध्री॑ धे॒नुर्वोढा॑न॒ड्वाना॒शुः सप्तिः॒ पुर॑न्धि॒र्योषा॑ जि॒ष्णू र॑थे॒ष्ठाः स॒भेयो॒ युवास्य यज॑मानस्य वी॒रो जा॑यतां निका॒मे नि॑कामे नः प॒र्जन्यो॑ वर्षतु॒ फल॑वत्यो न॒ऽओष॑धयः पच्यन्तां योगक्षे॒मो नः॑ कल्पताम् ॥२२ ॥

पद पाठ

आ। ब्रह्म॑न्। ब्रा॒ह्म॒णः। ब्र॒ह्म॒व॒र्च॒सीति॑ ब्रह्मऽवर्च॒सी। जा॒य॒ता॒म्। आ। रा॒ष्ट्रे। रा॒ज॒न्यः᳕। शूरः॑। इ॒ष॒व्यः᳖। अ॒ति॒व्या॒धीत्य॑तिऽव्या॒धी। म॒हा॒र॒थ इति॑ महाऽर॒थः। जा॒य॒ता॒म्। दोग्ध्री॑। धे॒नुः। वोढा॑। अ॒न॒ड्वान्। आ॒शुः। सप्तिः॑। पुर॑न्धि॒रिति॒ पुर॑म्ऽधिः। योषा॑। जि॒ष्णुः। र॒थे॒ष्ठाः। र॒थे॒स्था इति॑ रथे॒ऽस्थाः। स॒भेयः॑। युवा॑। आ। अ॒स्य। यज॑मानस्य। वी॒रः। जा॒य॒ता॒म्। नि॒का॒मे-नि॑काम॒ इति॑ निका॒मेऽनि॑कामे। नः॒। प॒र्जन्यः॑। व॒र्ष॒तु॒। फल॑वत्य॒ इति॒ फल॑ऽवत्यः। नः॒। ओष॑धयः। प॒च्य॒न्ता॒म्। यो॒ग॒क्षे॒म इति॑ योगऽक्षे॒मः। नः॒। क॒ल्प॒ता॒म् ॥२२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:22» मन्त्र:22 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को किस की इच्छा करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (ब्रह्मन्) विद्यादिगुणों करके सब से बड़े परमेश्वर ! जैसे हमारे (राष्ट्रे) राज्य में (ब्रह्मवर्चसी) वेदविद्या से प्रकाश को प्राप्त (ब्राह्मणः) वेद और ईश्वर को अच्छा जाननेवाला ब्राह्मण (आ, जायताम्) सब प्रकार से उत्पन्न हो (इषव्यः) बाण चलाने में उत्तम गुणवान् (अतिव्याधी) अतीव शत्रुओं को व्यधने अर्थात् ताड़ना देने का स्वभाव रखनेवाला (महारथः) कि जिसके बड़े-बड़े रथ और अत्यन्त बली वीर हैं, ऐसा (शूरः) निर्भय (राजन्यः) राजपुत्र (आ, जायताम्) सब प्रकार से उत्पन्न हो (दोग्ध्री) कामना वा दूध से पूर्ण करनेवाली (धेनुः) वाणी वा गौ (वोढा) भार ले जाने में समर्थ (अनड्वान्) बड़ा बलवान् बैल (आशुः) शीघ्र चलने हारा (सप्तिः) घोड़ा (पुरन्धिः) जो बहुत व्यवहारों को धारण करती है, वह (योषा) स्त्री (रथेष्ठाः) तथा रथ पर स्थिर होने और (जिष्णुः) शत्रुओं को जीतनेवाला (सभेयः) सभा में उत्तम सभ्य (युवा) जवान पुरुष (आ, जायताम्) उत्पन्न हो (अस्य, यजमानस्य) जो यह विद्वानों का सत्कार करता वा सुखों की सङ्गति करता वा सुखों को देता है, इस राजा के राज्य में (वीरः) विशेष ज्ञानवान् शत्रुओं को हटानेवाला पुरुष उत्पन्न हो (नः) हम लोगों के (निकामे निकामे) निश्चययुक्त काम-काम में अर्थात् जिस-जिस काम के लिये प्रयत्न करें, उस-उस काम में (पर्जन्यः) मेघ (वर्षतु) वर्षे (ओषधयः) ओषधि (फलवत्यः) बहुत उत्तम फलवाली (नः) हमारे लिये (पच्यन्ताम्) पकें (नः) हमारा (योगक्षेमः) अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति करानेवाले योग की रक्षा अर्थात् हमारे निर्वाह के योग्य पदार्थों की प्राप्ति (कल्पताम्) समर्थ हो, वैसा विधान करो अर्थात् वैसे व्यवहार को प्रगट कराइये ॥२२ ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वानों को ईश्वर की प्रार्थनासहित ऐसा अनुष्ठान करना चाहिये कि जिससे पूर्णविद्यावाले शूरवीर मनुष्य तथा वैसे ही गुणवाली स्त्री, सुख देनेहारे पशु, सभ्य मनुष्य, चाही हुई वर्षा, मीठे फलों से युक्त अन्न और औषधि हों तथा कामना पूर्ण हो ॥२२ ॥

देवता: भूमिसूर्य्यौ देवते ऋषि: प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

मा॒ता च॒ ते पि॒ता च॒ तेऽ ग्रे॑ वृ॒क्षस्य॑ क्रीडतः। विव॑क्षतऽइव ते॒ मुखं॒ ब्रह्म॒न्मा त्वं व॑दो ब॒हु ॥२५ ॥

पद पाठ

मा॒ता। च॒। ते॒। पि॒ता। च॒। ते॒। अग्रे॑। वृ॒क्षस्य॑। क्री॒ड॒तः॒। विव॑क्षतऽइ॒वेति॑ विव॑क्षतःऽइव। ते॒। मुख॑म्। ब्रह्म॑न्। मा। त्वम्। व॒दः॒। ब॒हु ॥२५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:23» मन्त्र:25 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर माता-पिता कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः -हे (ब्रह्मन्) चारों वेदों के जाननेवाले सज्जन ! जिन (ते) सूर्य के समान तेजस्वी आपकी (माता) पृथिवी के समान माता (च) और जिन (ते) आपका (पिता) पिता (च) भी (वृक्षस्य) संसाररूप राज्य के बीच (अग्रे) विद्या और राज्य की शोभा में (क्रीडतः) रमते हैं, उन (ते) आपका (विवक्षत इव) बहुत कहा चाहते हुए मनुष्य के मुख के समान (मुखम्) मुख है, उससे (त्वम्) तू (बहु) बहुत (मा) मत (वदः) कहा कर ॥२५ ॥

भावार्थभाषाः -जो माता-पिता, सुशील, धर्मात्मा, लक्ष्मीवान्, कुलीन हों, उन्होंने सिखाया हुआ ही पुत्र प्रमाणयुक्त थोड़ा बोलनेवाला होकर कीर्ति को प्राप्त होता है ॥२५ ॥

देवता: ब्रह्मादयो देवताः ऋषि: प्रजापतिर्ऋषिः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

ब्रह्म॒ सूर्य॑समं॒ ज्योति॒र्द्यौः स॑मु॒द्रस॑म॒ꣳसरः॑। इन्द्रः॑ पृथि॒व्यै वर्षी॑या॒न् गोस्तु मात्रा॒ न वि॑द्यते ॥४८ ॥

पद पाठ

ब्रह्म॑। सूर्य्य॑सम॒मिति॒ सूर्य्य॑ऽसमम्। ज्योतिः॑। द्यौः। स॒मु॒द्रस॑म॒मिति॑ समु॒द्रऽस॑मम्। सरः॑। इन्द्रः॑। पृ॒थि॒व्यै। वर्षी॑यान्। गोः। तु। मात्रा॑। न। वि॒द्य॒ते॒ ॥४८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:23» मन्त्र:48 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब उक्त प्रश्नों के उत्तरों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे ज्ञान चाहनेवाले जन ! तू (सूर्य्यसमम्) सूर्य के समान (ज्योतिः) स्वप्रकाशस्वरूप (ब्रह्म) सब से बड़े अनन्त परमेश्वर (समुद्रसमम्) समुद्र के समान (सरः) ताल (द्यौः) अन्तरिक्ष (पृथिव्यै) पृथिवी से (वर्षीयान्) बड़ा (इन्द्रः) सूर्य और (गोः) वाणी का (तु) तो (मात्रा) मान परिमाण (न) नहीं (विद्यते) विद्यमान है, इसको जान ॥४८ ॥

भावार्थभाषाः -कोई भी, आप प्रकाशमान जो ब्रह्म है उसके समान ज्योति विद्यमान नहीं वा सूर्य के प्रकाश से युक्त मेघ के समान जल के ठहरने का स्थान वा सूर्यमण्डल के तुल्य लोकेश वा वाणी के तुल्य व्यवहार का सिद्ध करनेहारा कोई भी पदार्थ नहीं होता, इसका निश्चय सब करें ॥४८ ॥

देवता: यज्ञो देवता ऋषि: गोतम ऋषिः छन्द: भुरिक्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

यत्ते॑ सा॒दे मह॑सा॒ शूकृ॑तस्य॒ पार्ष्ण्या॑ वा॒ कश॑या वा तु॒तोद॑। स्रु॒चेव॒ ता ह॒विषो॑ऽअध्व॒रेषु॒ सर्वा॒ ता ते॒ ब्रह्म॑णा सूदयामि ॥४० ॥

पद पाठ

यत्। ते॒। सा॒दे। मह॑सा। शूकृ॑तस्य। पार्ष्ण्या॑। वा॒। कश॑या। वा॒। तु॒तोद॑। स्रु॒चेवे॑ति सु॒चाऽइ॑व। ता। ह॒विषः॒। अ॒ध्व॒रेषु॑। सर्वा॑। ता। ते॒। ब्रह्म॑णा। सू॒द॒या॒मि॒ ॥४० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:25» मन्त्र:40 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

 

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वन् ! (ते) आप के (सादे) बैठने के स्थान में (महसा) बड़प्पन से (वा) अथवा (शूकृतस्य) जल्दी सिखाये हुए घोड़े के (कशया) कोड़े से (यत्) जिस कारण (पार्ष्ण्या) पसुली आदि स्थान (वा) वा कक्षाओं में जो उत्तम ताड़ना आदि काम वा (तुतोद) साधारण ताड़ना देना (ता) उन सब को (अध्वरेषु) यज्ञों में (हविषः) होमने योग्य पदार्थ सम्बन्धी (स्रुचेव) जैसे स्रुचा प्रेरणा देती वैसे करते हो (ता) वे (सर्वा) सब काम (ते) तेरे लिये (ब्रह्मणा) धन से (सूदयामि) प्राप्त करता हूँ ॥४० ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे यज्ञ के साधनों से होमने योग्य पदार्थों को अग्नि में प्रेरणा देते हैं, वैसे ही घोड़े आदि पशुओं को अच्छी सिखावट की रीति से प्रेरणा देवें ॥४० ॥

देवता: परमेश्वरो देवता ऋषि: नारायण ऋषिः छन्द: स्वराडतिशक्वरी स्वर: पञ्चमः

ब्रह्म॑णे ब्राह्म॒णं क्ष॒त्राय॑ राज॒न्यं᳖ म॒रुद्भ्यो॒ वैश्यं॒ तप॑से॒ शू॒द्रं तम॑से॒ तस्क॑रं नार॒काय॑ वीर॒हणं॑ पा॒प्मने॑ क्ली॒बमा॑क्र॒याया॑ऽअयो॒गूं कामा॑य पुँश्च॒लूमति॑क्रुष्टाय माग॒धम् ॥५ ॥

पद पाठ

ब्रह्म॒णे। ब्रा॒ह्म॒णम्। क्ष॒त्राय॑। रा॒ज॒न्य᳖म्। म॒रुद्भ्य॒ इति॑ म॒रुद्ऽभ्यः॑। वैश्य॑म्। तप॑से। शू॒द्रम्। तम॑से। तस्क॑रम्। ना॒र॒काय॑। वी॒र॒हणाम्। वी॒र॒हन॒मिति॑ वीर॒ऽहन॑म्। पा॒प्मने॑। क्ली॒बम्। आ॒क्र॒याया॒ इत्या॑ऽऽक्र॒यायै॑। अ॒यो॒गूम्। कामा॑य। पुं॒श्च॒लूम्। अति॑क्रुष्टा॒येत्यति॑ऽक्रुष्टाय। मा॒ग॒धम् ॥५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:30» मन्त्र:5 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

ईश्वर के तुल्य राजा को भी करना चाहिए, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे परमेश्वर वा राजन् ! आप इस जगत् में (ब्रह्मणे) वेद और ईश्वर के ज्ञान के प्रचार के अर्थ (ब्राह्मणम्) वेद ईश्वर के जाननेवाले को (क्षत्राय) राज्य की रक्षा के लिए (राजन्यम्) राजपूत को (मरुद्भ्यः) पशु आदि प्रजा के लिए (वैश्यम्) प्रजाओं में प्रसिद्ध जन को (तपसे) दुःख से उत्पन्न होनेवाले सेवन के अर्थ (शूद्रम्) प्रीति से सेवा करने तथा शुद्धि करनेहारे शूद्र को सब ओर से उत्पन्न कीजिए (तमसे) अन्धकार के लिए प्रवृत्त हुए (तस्करम्) चोर को (नारकाय) दुःख बन्धन में हुए कारागार के लिए (वीरहणम्) वीरों को मारनेहारे जन को (पाप्मने) पापाचरण के लिए प्रवृत्त हुए (क्लीबम्) नपुंसक को (आक्रयायै) प्राणियों की जिसमें भागाभूगी होती, उस हिंसा के अर्थ प्रवृत्त (अयोगूम्) लोहे के हथियार विशेष के साथ चलनेहारे जन को (कामाय) विषय सेवन के लिए प्रवृत्त हुई (पुंश्चलूम्) पुरुषों के साथ जिसका चित्त चलायमान उस व्यभिचारिणी स्त्री को और (अतिक्रुष्टाय) अत्यन्त निन्दा करने के लिए प्रवृत्त हुए (मागधम्) भाट को दूर पहुँचाइये ॥५ ॥

भावार्थभाषाः -हे राजन् ! जैसे जगदीश्वर जगत् में परोपकार के लिए पदार्थों को उत्पन्न करता और दोषों को निवृत्त करता है, वैसे आप राज्य में सज्जनों की उन्नति कीजिए, दुष्टों को निकालिए, दण्ड और ताड़ना भी दीजिए, जिससे शुभ गुणों की प्रवृत्ति और दुष्ट व्यसनों की निवृत्ति होवे ॥५ ॥

देवता: परमात्मा देवता ऋषि: स्वयम्भु ब्रह्म ऋषिः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

तदे॒वाग्निस्तदा॑दि॒त्यस्तद्वा॒युस्तदु॑ च॒न्द्रमाः॑। तदे॒व शु॒क्रं तद् ब्रह्म॒ ताऽआपः॒ स प्र॒जाप॑तिः ॥१ ॥

पद पाठ

तत्। ए॒व। अ॒ग्निः। तत्। आ॒दि॒त्यः। तत्। वा॒युः। तत्। ऊँ॒ इत्यूँ॑। च॒न्द्रमाः॑ ॥ तत्। ए॒व। शु॒क्रम्। तत्। ब्रह्म॑। ताः। आपः॑। सः। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः ॥१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:32» मन्त्र:1 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब परमेश्वर कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! (तत्) वह सर्वज्ञ, सर्वव्यापि, सनातन, अनादि, सच्चिदानन्दस्वरूप, नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव, न्यायकारी, दयालु, जगत् का स्रष्टा, धारणकर्त्ता और सबका अन्तर्यामी (एव) ही (अग्निः) ज्ञानस्वरूप और स्वयं प्रकाशित होने से अग्नि (तत्) वह (आदित्यः) प्रलय समय सबको ग्रहण करने से आदित्य (तत्) वह (वायुः) अनन्त बलवान् और सबका धर्ता होने से वायु (तत्) वह (चन्द्रमाः) आनन्द स्वरूप और आनन्दकारक होने से चन्द्रमा (तत्, एव) वही (शुक्रम्) शीघ्रकारी वा शुद्ध भाव से शुक्र (तत्) वह (ब्रह्म) महान् होने से ब्रह्म (ताः) वह (आपः) सर्वत्र व्यापक होने से आप (उ) और (सः) वह (प्रजापतिः) सब प्रजा का स्वामी होने से प्रजापति है, ऐसा तुम लोग जानो ॥१ ॥

भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे ईश्वर के ये अग्नि आदि गौण नाम हैं, वैसे और भी इन्द्रादि नाम हैं, उसी की उपासना फलवाली है, ऐसा जानो ॥१ ॥

देवता: विद्वद्राजानौ देवते ऋषि: श्रीकाम ऋषिः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

इ॒दं मे॒ ब्रह्म॑ च क्ष॒त्रं चो॒भे श्रिय॑मश्नुताम्। मयि॑ दे॒वा द॑धतु॒ श्रिय॒मुत्त॑मां॒ तस्यै॑ ते॒ स्वाहा॑ ॥१६ ॥

पद पाठ

इ॒दम्। मे॒। ब्रह्म॑। च॒। क्ष॒त्रम्। च॒। उ॒भेऽइत्यु॒भे। श्रिय॑म्। अ॒श्नु॒ताम्। मयि॑। दे॒वाः। द॒ध॒तु॒। श्रिय॑म्। उत्त॑मा॒मित्युत्ऽत॑माम्। तस्यै॑। ते॒। स्वाहा॑ ॥१६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:32» मन्त्र:16 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे परमेश्वर ! आपकी कृपा और हे विद्वन् ! तेरे पुरुषार्थ से (स्वाहा) सत्याचरणरूप क्रिया से (मे) मेरे (इदम्) ये (ब्रह्म) वेद, ईश्वर का विज्ञान वा इनका ज्ञाता पुरुष (च) और (क्षत्रम्) राज्य, धनुर्वेदविद्या और क्षत्रिय कुल (च) भी ये (उभे) दोनों (श्रियम्) राज्य की लक्ष्मी को (अश्नुताम्) प्राप्त हों, जैसे (देवाः) विद्वान् लोग (मयि) मेरे निमित्त (उत्तमाम्) अतिश्रेष्ठ (श्रियम्) शोभा वा लक्ष्मी को (दधतु) धारण करें, हे जिज्ञासु जन ! (ते) तेरे लिये भी (तस्यै) उस श्री के अर्थ हम लोग प्रयत्न करें ॥१६ ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य परमेश्वर की आज्ञापालन और विद्वानों की सेवा-सत्कार से सब मनुष्यों के बीच से ब्राह्मण, क्षत्रिय को सुन्दर शिक्षा, विद्यादि सद्गुणों से संयुक्त और सबकी उन्नति का विधान कर अपने आत्मा के तुल्य सबमें वर्त्तें, वे सब को पूजने योग्य होवें ॥१६ ॥ इस अध्याय में परमेश्वर, विद्वान् और बुद्धि तथा धन की प्राप्ति के उपायों का वर्णन होने से इस अध्याय में कहे अर्थ की पूर्व अध्याय में कहे अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीयुतपरमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये द्वात्रिंशोऽध्यायः पूर्तिमगात् ॥३२॥

देवता: विश्वेदेवा देवताः ऋषि: वत्सार ऋषिः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः

इ॒न्द्रा॒ग्नी मि॒त्रावरु॒णादि॑ति॒ꣳ स्वः᳖ पृथि॒वीं द्यां म॒रुतः॒ पर्व॑ताँ२ऽअ॒पः। हु॒वे विष्णुं॑ पू॒षणं॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिं॒ भगं॒ नु शꣳस॑ꣳ सवि॒तार॑मू॒तये॑ ॥४९ ॥

पद पाठ

इ॒न्द्रा॒ग्रीऽइती॑न्द्रा॒ग्नी। मि॒त्रावरु॑णा। अदि॑तिम्। स्व᳖रिति॒ स्वः᳖। पृ॒थि॒वीम्। द्याम्। म॒रुतः॑। पर्व॑तान्। अ॒पः ॥ हु॒वे। विष्णु॑म्। पू॒षण॑म्। ब्रह्म॑णः। पति॑म्। भग॑म्। नु। शꣳस॑म्। स॒वि॒तार॑म्। ऊ॒तये॑ ॥४९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:49 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अध्यापक और अध्येता लोग क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे मैं (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (इन्द्राग्नी) संयुक्त बिजुली और अग्नि (मित्रावरुणा) मिले हुए प्राण उदान (अदितिम्) अन्तरिक्ष (पृथिवीम्) भूमि (द्याम्) सूर्य (मरुतः) विचारशील मनुष्यों (पर्वतान्) मेघों वा पहाड़ों (अपः) जलों (विष्णुम्) व्यापक ईश्वर (पूषणम्) पुष्टिकर्त्ता (ब्रह्मणस्पतिम्) ब्रह्माण्ड वा वेद के पालक ईश्वर (भगम्) ऐश्वर्य (शंसम्) प्रशंसा के योग्य (सवितारम्) ऐश्वर्यकारक राजा और (स्वः) सुख की (नु) शीघ्र (हुवे) स्तुति करूँ, वैसे उनकी तुम भी प्रशंसा करो ॥४९ ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। अध्यापक और अध्येता को चाहिये कि प्रकृति से लेकर पृथिवी पर्य्यन्त पदार्थों को रक्षा आदि के लिये जानें ॥४९ ॥

देवता: इन्द्रामरुतौ देवते ऋषि: अगस्त्य ऋषिः छन्द: विराट्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

ब्रह्मा॑णि मे म॒तयः॒ शꣳसु॒तासः॒ शुष्म॑ऽइयर्त्ति॒ प्रभृ॑तो मे॒ऽअद्रिः॑। आ शा॑सते॒ प्रति॑ हर्य्यन्त्यु॒क्थेमा हरी॑ वहत॒स्ता नो॒ऽअच्छ॑ ॥७८ ॥

पद पाठ

ब्रह्मा॑णि। मे॒। म॒तयः॑। शम्। सु॒तासः॑। शुष्मः॑। इ॒य॒र्त्ति॒। प्रभृ॑त॒ इति॒ प्रभृ॑तः। मे॒। अद्रिः॑ ॥ आ। शा॒स॒ते॒। प्रति॑। ह॒र्य्य॒न्ति॒। उ॒क्था। इ॒मा। हरी॒ऽइति॒ हरी॑। व॒ह॒तः॒। ता। नः॒। अच्छ॑ ॥७८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:78 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् लोग क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -(सुतासः) विद्या और सुन्दर शिक्षा से युक्त ऐश्वर्यवाले (मतयः) बुद्धिमान् लोग (मे) मेरे लिये जिन (ब्रह्माणि) धनों की (प्रति, हर्यन्ति) प्रतीति से कामना करते और (इमा) इन (उक्था) प्रशंसा के योग्य वेदवचनों की (आ, शासते) अभिलाषा करते हैं और (शुष्मः) बलकारी (प्रभृतः) अच्छे प्रकार हवनादि से पुष्ट किया (अद्रिः) मेघ (मे) मेरे लिये जिस (शम्) सुख को (इयर्त्ति) पहुँचाता (ता) उनको (नः) हमारे लिये (हरी) हरणशील अध्यापक और अध्येता (अच्छा, वहतः) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हैं ॥७८ ॥

भावार्थभाषाः -हे विद्वानों ! जिस कर्म से विद्या और मेघ की उन्नति हो उसकी क्रिया करो। जो लोग तुमसे विद्या और सुशिक्षा चाहते हैं, उनको प्रीति से देओ और जो आपसे अधिक विद्यावाले हों, उनसे तुम विद्या ग्रहण करो ॥७८ ॥

देवता: विश्वेदेवा देवताः ऋषि: कण्व ऋषिः छन्द: भुरिगनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

प्रैतु॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॒ प्र दे॒व्ये᳖तु सू॒नृता॑। अच्छा॑ वी॒रं नर्य्यं॑ प॒ङ्क्तिरा॑धसं दे॒वा यज्ञं॒ न॑यन्तु नः ॥८९ ॥

पद पाठ

प्र। ए॒तु॒। ब्रह्म॑णः। पतिः॑। प्र। दे॒वी। ए॒तु॒। सू॒नृता॑ ॥ अच्छ॑। वी॒रम्। नर्य्य॑म्। प॒ङ्क्तिरा॑धस॒मिति॑ प॒ङ्क्तिऽरा॑धसम्। दे॒वाः। य॒ज्ञम्। न॒य॒न्तु॒। नः॒ ॥८९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:89 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! तुम लोग जैसे (नः) हमको (ब्रह्मणस्पतिः) धन वा वेद का रक्षक अधिष्ठाता विद्वान् (प्र, एतु) प्राप्त होवे (सूनृता) सत्य लक्षणों से उज्ज्वल (देवी) शुभ गुणों से प्रकाशमान वाणी (प्र, एतु) प्राप्त हो (नर्य्यम्) मनुष्यों में उत्तम (पङ्क्तिराधसम्) समूह की सिद्धि करनेहारे (यज्ञम्) सङ्गत धर्मयुक्त व्यवहारकर्त्ता (वीरम्) शूरवीर पुरुष को (देवाः) विद्वान् लोग (अच्छ, नयन्तु) अच्छे प्रकार प्राप्त करें, वैसे हमको प्राप्त होओ ॥८९ ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग विद्वानों, सत्यवाणी और सर्वोपकारी वीर पुरुषों को प्राप्त हों, वे सम्यक् सुख की उन्नति करें ॥८९ ॥

देवता: इन्द्रो देवता ऋषि: नृमेध ऋषिः छन्द: निचृद्बृहती स्वर: मध्यमः

प्र व॒ऽइन्द्रा॑य बृह॒ते मरु॑तो॒ ब्रह्मा॑र्चत। वृ॒त्रꣳ ह॑नति वृत्र॒हा श॒तक्र॑तु॒र्वज्रे॑ण श॒तप॑र्वणा ॥९६ ॥

पद पाठ

प्र। वः॒। इन्द्रा॑य। बृ॒ह॒ते। मरु॑तः। ब्रह्म॑। अ॒र्च॒त॒ ॥ वृ॒त्रम्। ह॒न॒ति॒। वृ॒त्र॒हेति॑ वृत्र॒ऽहा। श॒तक्र॑तु॒रिति॑ श॒तऽक्र॑तुः। वज्रे॑ण। श॒तप॑र्व॒णेति॑ श॒तऽप॑र्वणा ॥९६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:96 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (मरुतः) मनुष्यो ! जो (शतक्रतुः) असंख्य प्रकार की बुद्धि वा कर्मोंवाला सेनापति (शतपर्वणा) जिससे असंख्य जीवों का पालन हो ऐसे (वज्रेण) शस्त्र-अस्त्र से (वृत्रहा) जैसे मेघहन्ता सूर्य (वृत्रम्) मेघ को वैसे (बृहते) बड़े (इन्द्राय) परमैश्वर्य के लिये शत्रुओं को (हनति) मारता और (वः) तुम्हारे लिये (ब्रह्म) धन वा अन्न को प्राप्त करता है, उसका तुम लोग (प्र, अर्चत) सत्कार करो ॥९६ ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो लोग मेघ को सूर्य के तुल्य शत्रुओं को मार के तुम्हारे लिये ऐश्वर्य की उन्नति करते हैं, उनका सत्कार तुम करो। सदा कृतज्ञ हो के कृतघ्नता को छोड़ के प्राज्ञ हुए महान् ऐश्वर्य को प्राप्त होओ ॥९६ ॥

देवता: अग्न्यादयो लिङ्गोक्ता देवताः ऋषि: वसिष्ठ ऋषिः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः

प्रा॒तर॒ग्निं प्रा॒तरिन्द्र॑ꣳ हवामहे प्रा॒तर्मि॒त्रावरु॑णा प्रा॒तर॒श्विना॑। प्रा॒तर्भगं॑ पू॒षणं॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिं॑ प्रा॒तः सोम॑मु॒त रु॒द्रꣳ हु॑वेम ॥३४ ॥

पद पाठ

प्रा॒तः। अ॒ग्निम्। प्रा॒तः। इन्द्र॑म्। ह॒वा॒म॒हे॒। प्रा॒तः। मि॒त्रावरु॑णा। प्रा॒तः। अ॒श्विना॑ ॥ प्रा॒तः। भग॑म्। पू॒षण॑म्। ब्रह्म॑णः। पति॑म्। प्रा॒तरिति॑ प्रा॒तः। सोम॑म्। उ॒त। रु॒द्रम्। हु॒वे॒म॒ ॥३४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:34» मन्त्र:34 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (प्रातः) प्रातःकाल (अग्निम्) पवित्र वा स्वयं प्रकाशस्वरूप परमात्मा वा अग्नि को (प्रातः) प्रातःसमय (इन्द्रम्) उत्तम ऐश्वर्य को (प्रातः) प्रभात समय (मित्रावरुणा) प्राण उदान को और (प्रातः) प्रभात समय (अश्विना) अध्यापक तथा उपदेशक को (हवामहे) ग्रहण करें वा बुलावें (प्रातः) प्रातःसमय (भगम्) सेवन करने योग्य भाग (पूषणम्) पुष्टिकारक भोग (ब्रह्मणस्पतिम्) धन को वा वेद के रक्षक को (प्रातः) प्रभात समय (सोमम्) सोमादि ओषधिगण (उत) और (रुद्रम्) जीव को (हुवेम) ग्रहण वा स्वीकृत करें, वैसे तुम लोग भी आचरण करो ॥३४ ॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य प्रातःकाल परमेश्वर की उपासना, अग्निहोत्र, ऐश्वर्य की उन्नति का उपाय, प्राण और अपान की पुष्टि करना, अध्यापक, उपदेशक, विद्वानों तथा ओषधि का सेवन और जीवात्मा को प्राप्त होने वा जानने को प्रयत्न करते हैं, वे सब सुखों से सुशोभित होते हैं ॥३४ ॥

देवता: ब्रह्मणस्पतिर्देवता ऋषि: कण्व ऋषिः छन्द: निचृद्बृहती स्वर: मध्यमः

उत्ति॑ष्ठ ब्रह्मणस्पते देव॒यन्त॑स्त्वेमहे। उप॒ प्र य॑न्तु म॒रुतः॑ सु॒दान॑व॒ऽइन्द्र॑ प्रा॒शूर्भ॑वा॒ सचा॑ ॥५६ ॥

पद पाठ

उत्। ति॒ष्ठ॒। ब्र॒ह्म॒णः॒। प॒ते॒। दे॒व॒यन्त॒ इति॑ देव॒ऽयन्तः॑। त्वा॒। ई॒म॒हे॒ ॥ उप॑। प्र। य॒न्तु॒। म॒रुतः॑। सु॒दा॑नव॒ इति॑ सु॒ऽदान॑वः। इन्द्र॑। प्रा॒शूः। भ॒व॒। सचा॑ ॥५६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:34» मन्त्र:56 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

विद्वान् पुरुष क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (ब्रह्मणः) धन के (पते) रक्षक (इन्द्र) ऐश्वर्यकारक विद्वन् ! (देवयन्तः) दिव्य विद्वानों की कामना करते हुए हम लोग जिस (त्वा) आपकी (ईमहे) याचना करते हैं, जिस आपको (सुदानवः) सुन्दर दान देनेवाले (मरुतः) मनुष्य (उप, प्र, यन्तु) समीप से प्रयत्न के साथ प्राप्त हों सो आप (उत्, तिष्ठ) उठिये और (सचा) सत्य के सम्बन्ध से (प्राशूः) उत्तम भोग करनेहारे (भव) हूजिये ॥५६ ॥

भावार्थभाषाः -हे विद्वन् ! जो लोग विद्या की कामना करते हुए आपका आश्रय लेवें, उनके अर्थ विद्या देने के लिये आप उद्यत हूजिये ॥५६ ॥

देवता: ब्रह्मणस्पतिर्देवता ऋषि: कण्व ऋषिः छन्द: विराड्बृहती स्वर: मध्यमः

प्र नू॒नं ब्रह्म॑ण॒स्पति॒र्मन्त्रं॑ वदत्युक्थ्य᳖म्। यस्मि॒न्निन्द्रो॒ वरु॑णो मि॒त्रोऽअ॑र्य॒मा दे॒वाऽओका॑सि चक्रि॒रे ॥५७ ॥

पद पाठ

प्र। नू॒नम्। ब्रह्म॑णः। पतिः॑। मन्त्र॑म्। व॒द॒ति॒। उ॒क्थ्य᳖म् ॥ यस्मि॑न्। इन्द्रः॑। वरु॑णः। मित्रः॒। अ॒र्य्य॒मा। दे॒वाः। ओका॑सि। च॒क्रि॒रे॒ ॥५७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:34» मन्त्र:57 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वर के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! (यस्मिन्) जिस परमात्मा में (इन्द्रः) बिजुली वा सूर्य्य (वरुणः) जल वा चन्द्रमा (मित्रः) प्राण वा अन्य अपानादि वायु (अर्य्यमा) सूत्रात्मा वायु (देवाः) ये सब उत्तम गुणवाले (ओकांसि) निवासों को (चक्रिरे) किये हुए हैं, वह (ब्रह्मणः) वेदविद्या का (पतिः) रक्षक जगदीश्वर (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय पदार्थों में श्रेष्ठ (मन्त्रम्) वेदरूप मन्त्रभाग को (नूनम्) निश्चय कर (प्र, वदति) अच्छे प्रकार कहता है, ऐसा तुम जानो ॥५७ ॥

भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! जिस परमात्मा में कार्यकारणरूप सब जगत् और जीव वसते हैं तथा जिसने सब जीवों के हितसाधक वेद का उपदेश किया है, उसी की तुम लोग भक्ति, सेवा, उपासना करो ॥५७ ॥

देवता: ब्रह्मणस्पतिर्देवता ऋषि: गृत्समद ऋषिः छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

ब्रह्म॑णस्पते॒ त्वम॒स्य य॒न्ता सू॒क्तस्य॑ बोधि॒ तन॑यं च जिन्व। विश्वं॒ तद्भ॒द्रं यदव॑न्ति दे॒वा बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑। य इ॒मा विश्वा॑। वि॒श्वक॑र्म्मा। यो नः॑ पि॒ता। अन्न॑प॒तेऽन्न॑स्य नो देहि ॥५८ ॥

पद पाठ

ब्रह्म॑णः। प॒ते॒। त्वम्। अ॒स्य। य॒न्ता। सू॒क्तस्येति॑ सुऽउ॒क्तस्य॑। बो॒धि॒। तन॑यम्। च॒। जि॒न्व ॥ विश्व॑म्। तत्। भ॒द्रम्। यत्। अव॑न्ति। दे॒वाः। बृ॒हत्। व॒दे॒म॒। वि॒दथे॑। सु॒वीरा॒ इति॑ सु॒ऽवीराः॑ ॥५८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:34» मन्त्र:58 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (ब्रह्मणः) ब्रह्माण्ड के (पते) रक्षक ईश्वर ! (देवाः) विद्वान् लोग (विदथे) प्रकट करने योग्य व्यवहार में (यत्) जिसकी (अवन्ति) रक्षा वा उपदेश करते हैं और जिसको (सुवीराः) सुन्दर उत्तम वीर पुरुष हम लोग (बृहत्) बड़ा श्रेष्ठ (वदेम) कहें, उस (अस्य) इस (सूक्तस्य) अच्छे प्रकार कहने योग्य वचन के (त्वम्) आप (यन्ता) नियमकर्त्ता हूजिये (च) और (तनयम्) विद्या का शुद्ध विचार करनेहारे पुत्रवत् प्रियपुरुष को (बोधि) बोध कराइये तथा (तत्) उस (भद्रम्) कल्याणकारी (विश्वम्) सब जीवमात्र को (जिन्व) तृप्त कीजिए ॥५८ ॥

भावार्थभाषाः -हे जगदीश्वर ! आप हमारी विद्या और सत्य व्यवहार के नियम करनेवाले हूजिये, हमारे सन्तानों को विद्यायुक्त कीजिये, सब जगत् की यथावत् रक्षा, न्याययुक्त धर्म, उत्तम शिक्षा और परस्पर प्रीति उत्पन्न कीजिये ॥५८ ॥ इस अध्याय में मन का लक्षण, शिक्षा, विद्या की इच्छा, विद्वानों का सङ्ग, कन्याओं का प्रबोध, चेतनता, विद्वानों का लक्षण, रक्षा की प्रार्थना, बल ऐश्वर्य की इच्छा, सोम ओषधि का लक्षण, शुभ कर्म की इच्छा, परमेश्वर और सूर्य्य का वर्णन, अपनी रक्षा, प्रातःकाल का उठना, पुरुषार्थ से ऋद्धि और सिद्धि पाना, ईश्वर के जगत् का रचना, महाराजाओं का वर्णन, अश्वि के गुणों का कथन, अवस्था का बढ़ाना, विद्वान् और प्राणों का लक्षण और ईश्वर का कर्त्तव्य कहा है, इससे इस अध्याय के अर्थ की पूर्व अध्याय में कहे अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीयुतपरमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये चतुस्त्रिंशोऽध्यायः समाप्तिमगमत् ॥३४॥

देवता: ईश्वरो देवता ऋषि: दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः छन्द: भुरिक्छक्वरी स्वर: धैवतः

द्यौः शान्ति॑र॒न्तरि॑क्ष॒ꣳ शान्तिः॑ पृथि॒वी शान्ति॒रापः॒ शान्ति॒रोषध॑यः॒ शान्तिः॑। वन॒स्पत॑यः॒ शान्ति॒र्विश्वे॑ दे॒वाः शान्ति॒र्ब्रह्म॒ शान्तिः॒ सर्व॒ꣳ शान्तिः॒ शान्ति॑रे॒व शान्तिः॒ सा मा॒ शान्ति॑रेधि ॥१७ ॥

पद पाठ

द्यौः। शान्तिः॑। अ॒न्तरि॑क्षम्। शान्तिः॑। पृ॒थि॒वी। शान्तिः॑। आपः॑। शान्तिः॑। ओष॑धयः। शान्तिः॑ ॥ वन॒स्पत॑यः। शान्तिः॑। विश्वे॑। दे॒वाः। शान्तिः॑। ब्रह्म॑। शान्तिः॑। सर्व॑म्। शान्तिः॑। शान्तिः॑। ए॒व। शान्तिः॑। सा। मा॒। शान्तिः॑। ए॒धि॒ ॥१७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:36» मन्त्र:17 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को कैसे प्रयत्न करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जो (द्यौः, शान्तिः) प्रकाशयुक्त पदार्थ शान्तिकारक (अन्तरिक्षम्) दोनों लोक के बीच का आकाश (शान्तिः) शान्तिकारी (पृथिवी) भूमि (शान्तिः) सुखकारी निरुपद्रव (आपः) जल वा प्राण (शान्तिः) शान्तिदायी (ओषधयः) सोमलता आदि ओषधियाँ (शान्तिः) सुखदायी (वनस्पतयः) वट आदि वनस्पति (शान्तिः) शान्तिकारक (विश्वे, देवाः) सब विद्वान् लोग (शान्तिः) उपद्रवनिवारक (ब्रह्म) परमेश्वर वा वेद (शान्तिः) सुखदायी (सर्वम्) सम्पूर्ण वस्तु (शान्तिः) शान्तिकारक (शान्तिरेव) शान्ति ही (शान्तिः) शान्ति (मा) मुझको (एधि) प्राप्त होवे (सा) वह (शान्तिः) शान्ति तुम लोगों के लिये भी प्राप्त होवे ॥१७ ॥

भावार्थभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे प्रकाश आदि पदार्थ शान्ति करनेवाले होवें, वैसे तुम लोग प्रयत्न करो ॥१७ ॥

देवता: ईश्वरो देवता ऋषि: कण्व ऋषिः छन्द: निचृदष्टिः स्वर: मध्यमः

प्रैतु॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॒ प्र दे॒व्ये᳖तु सू॒नृता॑। अच्छा॑ वी॒रं नर्यं॑ प॒ङ्क्तिरा॑धसं दे॒वा य॒ज्ञं न॑यन्तु नः। म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे। म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे। म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे ॥७ ॥

पद पाठ

प्र। ए॒तु॒। ब्रह्म॑णः। पतिः॑। प्र। दे॒वी। ए॒तु॒। सू॒नृता॑। अच्छ॑। वी॒रम्। नर्य्य॑म्। प॒ङ्क्तिरा॑धस॒मिति॑ प॒ङ्क्तिऽरा॑धसम्। दे॒वाः। य॒ज्ञम्। न॒य॒न्तु॒। नः॒ ॥ म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे। म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒ शी॒र्ष्णे। म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒ शी॒र्ष्णे ॥७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:37» मन्त्र:7 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

स्त्री-पुरुष कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे विद्वन् ! जिस (वीरम्) सब दुःखों को हटानेवाले (नर्य्यम्) मनुष्यों में उत्तम (पङ्क्तिराधसम्) समुदायों को सिद्ध करनेवाले (यज्ञम्) सुखप्राप्ति के हेतु जन को (देवाः) विद्वान् लोग (नः) हमको (नयन्तु) प्राप्त करें (ब्रह्मणः, पतिः) धन का रक्षक जन (प्र, एतु) प्रकर्षता से प्राप्त हो (सूनृता) सत्य बोलना आदि सुशीलतावाली (देवी) विदुषी स्त्री (अच्छ) (प्र, एतु) अच्छे प्रकार प्राप्त होवे उस (त्वा) तुझको (मखाय) विद्यावृद्धि के लिये (मखस्य) सुख रक्षा के (शीर्ष्णे) उत्तम अवयव के लिये (त्वा) आपको (मखाय) धर्माचरण निमित्त के लिये (त्वा) आपके (मखस्य) धर्मरक्षा के (शीर्ष्णे) उत्तम अवयव के लिये (त्वा) आपको (मखाय) सब सुख करनेवाले के लिये (त्वा) आपको (मखस्य) सब सुख बढ़ानेवाले के सम्बन्धी (शीर्ष्णे) उत्तम सुखदायी जन के लिये (त्वा) आपका आश्रय करें ॥७ ॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य और जो स्त्रियाँ स्वयं विद्यादि गुणों को पाकर अन्यों को प्राप्त कराके विद्या, सुख और धर्म की वृद्धि के लिये अधिक सुशिक्षित जनों को विद्वान् करते हैं, वे पुरुष और स्त्रियाँ निरन्तर आनन्दित होते हैं ॥७ ॥

देवता: द्यावापृथिवी देवते ऋषि: दीर्घतमा ऋषिः छन्द: अतिशक्वरी स्वर: पञ्चमः

इ॒षे पि॑न्वस्वो॒र्जे पि॑न्वस्व॒ ब्रह्म॑णे पिन्वस्व क्ष॒त्राय॑ पिन्वस्व॒ द्यावा॑पृथिवी॒भ्यां॑ पिन्वस्व। धर्मा॑सि सु॒धर्मामे॑न्य॒स्मे नृ॒म्णानि॑ धारय॒ ब्र॒ह्म॑ धारय क्ष॒त्रं धा॑रय॒ विशं॑ धारय ॥१४ ॥

पद पाठ

इ॒षे। पि॒न्व॒स्व॒। ऊ॒र्जे। पि॒न्व॒स्व॒। ब्रह्म॑णे। पि॒न्व॒स्व॒। क्ष॒त्राय॑। पि॒न्व॒स्व॒। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म्। पि॒न्व॒स्व॒ ॥ धर्म॑। अ॒सि॒। सु॒धर्मेति॑ सु॒ऽधर्म॑। अमे॑नि। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। नृ॒म्णानि॑। धा॒र॒य॒। ब्रह्म॑। धा॒र॒य॒। क्ष॒त्रम्। धा॒र॒य॒। विश॑म्। धा॒र॒य॒ ॥१४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:38» मन्त्र:14 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे (धर्म) सत्य के धारक (सुधर्म) सुन्दर धर्मयुक्त पुरुष वा स्त्री ! तू (अमेनि) हिंसा धर्म से रहित (असि) है, जिससे (अस्मे) हमारे लिये (नृम्णानि) धनों को (धारय) धारण कर (ब्रह्म) वेद वा ब्राह्मण को (धारय) धारण कर (क्षत्रम्) वा राज्य को (धारय) धारण कर (विशम्) प्रजा को (धारय) धारण कर, उससे (इषे) अन्नादि के लिये (पिन्वस्व) सेवन कर (ऊर्जे) बल आदि के लिये (पिन्वस्व) सेवन कर (ब्रह्मणे) वेद विज्ञान परमेश्वर वा वेदज्ञ ब्राह्मण के लिये (पिन्वस्व) सेवन कर (क्षत्राय) राज्य के लिये (पिन्वस्व) सेवन कर और (द्यावापृथिवीभ्याम्) भूमि और सूर्य के लिये (पिन्वस्व) सेवन कर ॥१४ ॥

भावार्थभाषाः -जो स्त्री-पुरुष अहिंसक धर्मात्मा हुए आप ही धन, विद्या, राज्य और प्रजा को धारण करें, वे अन्न, बल, विद्या और राज्य को पाकर भूमि और सूर्य के तुल्य प्रत्यक्ष सुखवाले होवें ॥१४ ॥

देवता: यज्ञो देवता ऋषि: दीर्घतमा ऋषिः छन्द: निचृदुपरिष्टाद्बृहती स्वर: मध्यमः

क्ष॒त्रस्य॑ त्वा प॒रस्पा॑य॒ ब्रह्म॑णस्त॒न्वं᳖ पाहि। विश॑स्त्वा॒ धर्म॑णा व॒यमनु॑ क्रामाम सुवि॒ताय॒ नव्य॑से ॥१९ ॥

पद पाठ

क्ष॒त्रस्य॑ त्वा॒। प॒रस्पा॑य। प॒रःपा॒येति॑ प॒रःऽपा॑य। ब्रह्म॑णः। त॒न्व᳖म्। पा॒हि ॥ विशः॑। त्वा॒। धर्म॑णा। व॒यम्। अनु॑। क्रा॒मा॒म। सु॒वि॒ताय॑। नव्य॑से ॥१९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:38» मन्त्र:19 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजा और प्रजा क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! वा राणी ! आप (परस्पाय) जिस कर्म से दूसरों की रक्षा हो, उस के लिये (क्षत्रस्य) क्षत्रिय कुल वा राज्य के तथा (ब्रह्मणः) वेदवित् ब्राह्मणकुल के सम्बन्धी (त्वा) आपके (तन्वम्) शरीर की (पाहि) रक्षा कीजिये, जैसे (वयम्) हम लोग (नव्यसे) नवीन (सुविताय) ऐश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये (धर्मणा) धर्म के साथ (अनुक्रामाम) अनुकूल चलें, वैसे ही धर्म के साथ वर्त्तमान (त्वा) आपके अनुकूल (विशः) प्रजाजन चलें ॥१९ ॥

भावार्थभाषाः -राजा और राजपुरुषों को योग्य है कि धर्म के साथ विद्वानों और प्रजाजनों की रक्षा करें। वैसे ही प्रजा और राजपुरुषों को चाहिये कि राजा की सदैव रक्षा करें। इस प्रकार न्याय तथा विनय के साथ वर्त्तकर राजा और प्रजा नवीन ऐश्वर्य की उन्नति किया करें ॥१९ ॥

देवता: यज्ञो देवता ऋषि: दीर्घतमा ऋषिः छन्द: पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः

मयि॒ त्यदि॑न्द्रि॒यं बृ॒हन्मयि॒ दक्षो॒ मयि॒ क्रतुः॑। घ॒र्मस्त्रि॒शुग्वि रा॑जति वि॒राजा॒ ज्योति॑षा स॒ह ब्रह्म॑णा॒ तेज॑सा स॒ह ॥२७ ॥

पद पाठ

मयि॑। त्यत्। इ॒न्द्रि॒यम्। बृ॒हत्। मयि॑। दक्षः॑। मयि॑। क्रतुः॑ ॥ घ॒र्मः। त्रि॒शुगिति॑ त्रि॒ऽशुक्। वि। रा॒ज॒ति॒। वि॒राजेति॑ वि॒ऽराजा॑। ज्योति॑षा। स॒ह। ब्रह्म॑णा। तेज॑सा। स॒ह ॥२७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:38» मन्त्र:27 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब मनुष्यों को क्या वस्तु सुख देता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे (विराजा) विशेषकर प्रकाशक (ज्योतिषा) प्रदीप्त ज्योति के (सह) साथ और (ब्रह्मणा, तेजसा) तीक्ष्ण कार्यसाधक धन के (सह) साथ (त्रिशुक्) कोमल, मध्यम और तीव्र दीप्तियोंवाला (घर्मः) प्रताप (विराजति) विशेष प्रकाशित होता है, वैसे (मयि) मुझ जीवात्मा में (बृहत्) बड़े (त्यत्) उस (इन्द्रियम्) मन आदि इन्द्रिय (मयि) मुझ में (दक्षः) बल और (मयि) मुझ में (क्रतुः) बुद्धि वा कर्म विशेषकर प्रकाशित होता है, वैसे तुम लोगों के बीच भी यह विशेषकर प्रकाशित होवे ॥२७ ॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे अग्नि, विद्युत् और सूर्यरूप से तीन प्रकार का प्रकाश जगत् को प्रकाशित करता है, वैसे उत्तम बल, कर्म, बुद्धि, धर्म से संचित धन, जीता गया इन्द्रिय महान् सुख को देता है ॥२७ ॥

देवता: अग्निर्देवता ऋषि: दीर्घतमा ऋषिः छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

य॒माय॒ स्वाहाऽन्त॑काय॒ स्वाहा॑ मृ॒त्यवे॒ स्वाहा॒ ब्रह्म॑णे॒ स्वाहा॑ ब्रह्मह॒त्यायै॒ स्वाहा॑ विश्वे॑भ्यो दे॒वेभ्यः॒ स्वाहा॒ द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॒स्वाहा॑ ॥१३ ॥

पद पाठ

य॒माय॑। स्वाहा॑। अन्त॑काय। स्वाहा॑। मृ॒त्यवे॑। स्वाहा॑। ब्रह्म॑णे। स्वाहा॑। ब्र॒ह्म॒ह॒त्याया॒ इति॑ ब्रह्मऽह॒त्यायै॑। स्वाहा॑। विश्वे॑भ्यः। दे॒वेभ्यः॑। स्वाहा॑। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म्। स्वाहा॑ ॥१३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:39» मन्त्र:13 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! तुम लोग (यमाय) नियन्ता न्यायाधीश वा वायु के लिये (स्वाहा) इस शब्द का (अन्तकाय) नाशकर्त्ता काल के लिये (स्वाहा) (मृत्यवे) प्राणत्याग करानेवाले समय के लिये (स्वाहा) (ब्रह्मणे) बृहत्तम अति बड़े परमात्मा के लिये वा ब्राह्मण विद्वान् के लिये (स्वाहा) (ब्रह्महत्यायै) ब्रह्म वेद वा ईश्वर वा विद्वान् की हत्या के निवारण के लिये (स्वाहा) (विश्वेभ्यः) सब (देवेभ्यः) दिव्य गुणों से युक्त विद्वानों वा जलादि के लिये (स्वाहा) और (द्यावापृथिवीभ्याम्) सूर्य्यभूमि के शोधने के लिये (स्वाहा) इस शब्द का प्रयोग करो ॥१३ ॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य न्यायव्यवस्था का पालन कर अल्पमृत्यु को निवारण कर ईश्वर और विद्वानों का सेवन कर ब्रह्महत्यादि दोषों को छुड़ा के सृष्टिविद्या को जान के अन्त्येष्टिकर्म विधि करते हैं, वे सब के मङ्गल देनेवाले होते हैं। सब काल में इस प्रकार मृतशरीर को जला के सब के सुख की उन्नति करनी चाहिये ॥१३ ॥ इस अध्याय में अन्त्येष्टि कर्म का वर्णन होने से इस अध्याय में कहे अर्थ की पूर्व अध्याय के अर्थ के साथ संगति है, ऐसा जानना चाहिये ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीविरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते यजुर्वेदभाष्ये संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्त एकोनचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः पूर्त्तिमगमत् ॥३९॥

देवता: आत्मा देवता ऋषि: दीर्घतमा ऋषिः छन्द: अनुष्टुप् स्वर: गान्धारः

हि॒र॒ण्मये॑न॒ पात्रे॑ण स॒त्यस्यापि॑हितं॒ मुखम्। यो॒ऽसावा॑दि॒त्ये पु॑रुषः॒ सो᳕ऽसाव॒हम्। ओ३म् खं ब्रह्म॑ ॥१७ ॥

पद पाठ

हि॒र॒ण्मये॑न॒। पात्रे॑ण। स॒त्यस्य॑। अपि॑हित॒मित्यपि॑ऽहितम्। मुख॑म् ॥ यः। अ॒सौ। आ॒दि॒त्ये। पुरु॑षः। सः। अ॒सौ। अ॒हम्। ओ३म्। खम्। ब्रह्म॑ ॥१७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:40» मन्त्र:17 उपलब्ध भाष्य

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अन्त में मनुष्यों को ईश्वर उपदेश करता है ॥

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जिस (हिरण्मयेन) ज्योतिःस्वरूप (पात्रेण) रक्षक मुझसे (सत्यस्य) अविनाशी यथार्थ कारण के (अपिहितम्) आच्छादित (मुखम्) मुख के तुल्य उत्तम अङ्ग का प्रकाश किया जाता (यः) जो (असौ) वह (आदित्ये) प्राण वा सूर्य्यमण्डल में (पुरुषः) पूर्ण परमात्मा है (सः) वह (असौ) परोक्षरूप (अहम्) मैं (खम्) आकाश के तुल्य व्यापक (ब्रह्म) सबसे गुण, कर्म और स्वरूप करके अधिक हूँ (ओ३म्) सबका रक्षक जो मैं उसका ओ३म्ऐसा नाम जानो ॥१७ ॥

भावार्थभाषाः -सब मनुष्यों के प्रति ईश्वर उपदेश करता है कि हे मनुष्यो ! जो मैं यहाँ हूँ, वही अन्यत्र सूर्य्यादि लोक में, जो अन्यस्थान सूर्य्यादि लोक में हूँ वही यहाँ हूँ, सर्वत्र परिपूर्ण आकाश के तुल्य व्यापक मुझसे भिन्न कोई बड़ा नहीं, मैं ही सबसे बड़ा हूँ। मेरे सुलक्षणों के युक्त पुत्र के तुल्य प्राणों से प्यारा मेरा निज नाम ओ३म्यह है। जो मेरा प्रेम और सत्याचरण भाव से शरण लेता, उसकी अन्तर्यामीरूप से मैं अविद्या का विनाश, उसके आत्मा को प्रकाशित करके शुभ, गुण, कर्म, स्वभाववाला कर सत्यस्वरूप का आवरण स्थिर कर योग से हुए शुद्ध विज्ञान को दे और सब दुःखों से अलग करके मोक्षसुख को प्राप्त कराता हूँ। इति ॥१७ ॥ इस अध्याय में ईश्वर के गुणों का वर्णन, अधर्मत्याग का उपदेश, सब काल में सत्कर्म के अनुष्ठान की आवश्यकता, अधर्माचरण की निन्दा, परमेश्वर के अतिसूक्ष्म स्वरूप का वर्णन, विद्वान् को जानने योग्य का होना, अविद्वान् को अज्ञेयपन का होना, सर्वत्र आत्मा जान के अहिंसाधर्म की रक्षा, उससे मोह शोकादि का त्याग, ईश्वर का जन्मादि दोषरहित होना, वेदविद्या का उपदेश, कार्य्यकारणरूप जड़ जगत् की उपासना का निषेध, उन कार्य्य-कारणों से मृत्यु का निवारण करके मोक्षादि सिद्धि करना, जड़ वस्तु की उपासना का निषेध, चेतन की उपासना की विधि, उन जड़-चेतन दोनों के स्वरूप के जानने की आवश्यकता, शरीर के स्वभाव का वर्णन, समाधि से परमेश्वर को अपने आत्मा में धर के शरीर त्यागना, दाह के पश्चात् अन्य क्रिया के अनुष्ठान का निषेध, अधर्म के त्याग और धर्म के बढ़ाने के लिये परमेश्वर की प्रार्थना, ईश्वर के स्वरूप का वर्णन और सब नामों से ओ३म्इस नाम की उत्तमता का प्रतिपादन किया है, इससे इस अध्याय में कहे अर्थ की पूर्वाध्याय में कहे अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीपरमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना निर्मिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः समाप्तः ॥४०॥

ब्रह्म (संस्कृत : ब्रह्मन्) हिन्दू (वेद परम्परा, वेदान्त और उपनिषद) दर्शन में इस सारे विश्व का परम सत्य है और जगत का सार है। वो दुनिया की आत्मा है। वो विश्व का कारण है, जिससे विश्व की उत्पत्ति होती है , जिस पर विश्व आधारित होता है और अन्त में जिसमें विलीन हो जाता है। वो एक और अद्वितीय है। वो स्वयं ही परमज्ञान है, और प्रकाश-स्रोत की तरह रोशन है। वो निराकार, अनन्त, नित्य और शाश्वत है। ब्रह्म सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है।

मनुष्य का जन्म होता है तो जन्म क्षण में ही उसके हृदय में चैतन्य मन से होते हुए अवचेतन मन से होते हुए अंतर्मन से होते हुए मन से होते हुए मस्तिष्क में चेतना प्रवेश करती हैं वही आत्मा है और ये आत्मा किसी मनुष्य की मृत्यु हुई थी तो उसकी चेतना अर्थात आत्मा अपने मन से होते हुए अंतर्मन से होते हुए अवचेतन मन से होते हुए चैतन्य मन से होते हुए दूसरे शरीर में अवचेतन मन से होते हुए अंतर्मन से होते हुए मन से होते हुए मस्तिष्क में पहुँचती है यही क्रम हर जन्म में होता है ।

जब मनुष्य जागता है तो उसके हृदय से ऊर्जाओं का विखण्डन होते जाता है सबसे पहले हृदय में प्राण शक्ति जिसे ब्रह्म कहते है उसे अव्याकृत ब्रह्म अर्थात सचेता ऊर्जा बनती है वह सचेता ऊर्जा से नादब्रह्म बनता है अर्थात अंतर्मन का निर्माण होता है जिसे ध्वनि उत्पन्न होती है फिर उसे व्याकृत ब्रह्म बनता है मस्तिष्क में चेतना उत्पन्न हो जाती है फिर उस चेतना से पंचमहाभूत बनते है जिसे ज्योति स्वरूप ब्रह्म कहते है सम्पूर्ण शरीर के होने का एहसास होता है फिर मनुष्य कर्म क्रिया प्रतिक्रिया करता है संसार में। अगर सोता है तो मनुष्य ज्योति स्वरूप ब्रह्मचेतना अर्थात व्याकृत ब्रह्म मे समा जाता है फिर वह नादब्रह्म में समा जाता है फिर वह नादब्रह्म अव्याकृत ब्रह्म समा जाता है वह अव्याकृत ब्रह्म प्राण ऊर्जा अर्थात ब्रह्म में समा जाता है इसलिए मनुष्य ही ब्रह्म है ।

ब्रह्म को मन से जानने की कोशिश करने पर मनुष्य योग माया वश उसे परम् ब्रह्म की परिकल्पना करता है और संसार में खोजता है तो अपर ब्रह्म जो प्राचीन प्रार्थना स्थल की मूर्ति है उसे माया वश ब्रह्म समझ लेता है अगर कहा जाऐ तो ब्रह्म को जानने की कोशिश करने पर मनुष्य माया वश उसे परमात्मा समझ लेता है ।

ब्रह्म जब मनुष्य गहरी निद्रा में रहता है तो वह निर्गुण व निराकार ब्रह्म में समाए रहता है और जब जागता है तो वह सगुण साकार ब्रह्म में होता है अर्थात यह विश्व ही सगुण साकार ब्रह्म है ।

ब्रह्म मनुष्य है सभी मनुष्य उस ब्रह्म के प्रतिबिम्ब अर्थात आत्मा है सम्पूर्ण विश्व ही ब्रह्म है जो शून्य है वह ब्रह्म है मनुष्य इस विश्व की जितना कल्पना करता है वह ब्रह्म है । ब्रह्म स्वयं की भाव इच्छा सोच विचार है । ब्रह्म सब कुछ है और जो नहीं है वह ब्रह्म है ।

परब्रह्म

परब्रह्म या परम-ब्रह्म ब्रह्म का वो रूप है, जो निर्गुण और अनन्त गुणों वाला भी है। "नेति-नेति" करके इसके गुणों का खण्डन किया गया है, पर ये असल में अनन्त सत्य, अनन्त चित और अनन्त आनन्द है। अद्वैत वेदान्त में उसे ही परमात्मा कहा गया है, ब्रह्म ही सत्य है, बाकि सब मिथ्या है। वह ब्रह्म ही जगत का नियन्ता है। परन्तु अद्वैत वेदांत का एक मत है इसी प्रकार वेदांत के अनेक मत है जिनमें आपसी विरोधाभास है परंतु अन्य पांच दर्शन शास्त्रों में कोई विरोधाभास नहीं | वहीं अद्वैत मत जिसका एक प्रचलित श्लोक नीचे दिया गया है-

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रम्हैव नापरः

(ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या (सच-झूठ से परे) है।)

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