मैं क्या हूं ?
मैं क्या हूं ? क्या मैं शरीर हूं? इसमें चेतन कहां से आई ? मैं क्या वास्तव में अमर हूं ? यह कुछ समझ में नहीं आता। या क्या मैं बिल्कुल परिस्थितियों का गुलाम हूं? परिमितता के इन बन्धनों से क्या मैं कभी छूट सकता हूं? यह संसार किस लिए है ? किधर जा रहा है? मेरा इससे क्या सम्बन्ध है? कुछ नहीं समझ पाता। हमारे दर्शनों में कोई कुछ कहता है, कोई कुछ। उधर पश्चिम के दार्शनिक कुछ और वैज्ञानिक कुछ कहते हैं। मैं अपने को सब ओर से बंधा हुआ अनुभव करता हूं,संशयों से दबा हुआ, इधर-उधर भटकता फिरता हूं, पर ज्ञान- तृप्ति कहीं नहीं होती । कहते हैं कि जब ' ऋतंभरा प्रज्ञा ' का उदय होता है,तब कोई संशय नहीं रहता। उसके प्रकाश में प्रत्येक वस्तु बिल्कुल यथावत् दिखाई देती है, वहां संशय और भ्रम हो ही नहीं सकता । वह योग प्रत्यक्ष है,उसे प्रत्येक तत्व का साक्षात्कार प्रत्यक्ष हो जाता है। ओह! यदि वह 'ऋतंभरा प्रज्ञा' मुझे प्राप्त हो जाए,तो संसार की वाणियां, वेद- शास्त्र, दर्शन और विज्ञान जो कुछ कहते हैं उस सब का मतलब हल हो जाए । यह भिन्न-भिन्न वाणियां सब नव्य और पुरातन ग्रन्थ जो कुछ कहते हैं उनकी प्रतिपादित वस्तु मिल जाए। फिर यह परस्पर-विरुद्ध दीखनेवाले शास्त्रवचन मुझे बहका न सकेंगे । बस वह 'ऋतम्भरा प्रज्ञा', वही चाहिए और कुछ नहीं चाहिए। वही मेरे इस भयंकर सनिपात रोग का एकमात्र इलाज है। मुझे उसके बिना अब किसी सांसारिक ज्ञान से चैन नहीं मिल सकता। आह! ऋतंभरा प्रज्ञा ! ऋतंभरा प्रज्ञा !! उसी के लिए हैं मेरे सारे यत्न।
वैदिक मन्त्र
न वि जानामि यदिवेदमस्मि निण्य: सन्नद्धो मनसा चरामि।
यदामाग प्रथमजा ऋतस्य आदिद् वाचो अश्नुवे भागमस्या:
ऋ•१.१६४.३७ अथर्व• ९/१०/१५
वैदिक भजन ११६६ वां
राग काफी
गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर
ताल कहरवा आठ मात्रा
मैं क्या हूं क्या मैं हूं शरीर हूं ?
जन्मों का क्या राहगीर
क्या हूं अमरत्व या तो दासत्व
या परिस्थितियों का दास निवीर
मैं क्या.......
संसार है क्या? जा रहा किधर ?
इसमें मेरा है क्या सम्बन्ध?
इस बन्धन में क्या परिमितता ?
क्या है आदि क्या इसका अन्त
ब्रह्मजाल में फंसी है मन की पीर ।।
मैं क्या.......
मैं दबा रहा हूं संशय में
और भटक भटक इत उत मैं फिरूं
कहीं ज्ञान की तृप्ति मिलती नहीं
पूछूं मैं कहां ?और क्या मैं करूं?
क्या दार्शनिक वैज्ञानिकों से
पूछूं इसकी मैं सही तस्वीर ।।
मैं क्या..........
कहते हैं प्रज्ञा ऋतम्भरा से
जब हो जाता है हृदय- उदय
ना राहत संशय ना अटकल
होता प्रभूत तब हृद्य- हृदय
तब वेद-शास्त्र, विज्ञान, दर्शन
करते प्रतिपादित ज्ञान गंभीर
मैं क्या .......
अब चाहूं ऋतंभरा प्रज्ञा
और बन जाऊं मैं ज्ञानवृद्ध
संघात रोगों की है चिकित्सा
प्रज्ञा से जाने ऋत व सत्य
तुझको पाने के लिए प्रभु
हो जाऊं जीवन में विनयशील
मैं क्या.........
17.11.2023
19.25 रात्रि
शब्दार्थ:-
राहगीर= पथिक, यात्री
दासत्व= गुलामी
निवीर= प्रभुताहीन
परिमितता= सीमा, माप, परिमाण
पीर= पीड़ा
प्रज्ञा=बुद्धि
ऋतंभरा=सदा एक रस से रहने वाली सात्विक बुद्धि
प्रभूत= उत्पन्न ,निकला हुआ
हृद्य= पुलकित, विस्मित
प्रतिपादित= निश्चित
ज्ञानवृद्ध= अत्यंत ज्ञानी
संघात= आघात, टक्कर
🕉🧘♂️प्रथम श्रृंखला का १५९ वां वैदिक भजन
अबतक का ११६६ वां वैदिक भजन
सभी वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं 🙏🎧
vaidik bhajan 1166 vaan
raag kaafi
gaayan samay raatri ka doosara prahar
taal kaharava 8 beats
Vaidik mantra
Na vi jaanaami yadivedamasmi ninyah sannaddho manasaa charaami l
Yadaamaag prathamaja ritasya aadidvaacho ashnuve bhaagamasyaahaa
Rig. 1.64.38 Ath.9/10/15
Vaidik bhajan👇
main kyaa hoon kyaa main shareer hoon ?
janmon kaa kyaa raahageer
kyaa hoon amaratva ya to daasatva
yaa paristhitiyon kaa daas niveer
main kya.......
sansaar hai kya? jaa raha kidhar ?
isamen mera hai kya sambandh?
is bandhan mein kya parimitata ?
kyaa hai aadi kyaa isaka ant
brahmajaal mein phansee hai man kee peer ..
main kyaa.......
main dabaa rahaa hoon sanshay mein
aur bhatak bhatak iit-ut main phiroon
kaheen gyaan kee tripti milatee nahin
poochhoon main kahaan ?aur kyaa main karoon?
kyaa daarshanik vaigyaanikon se
poochhoon isakee main sahee tasveer ..
main kya..........
kahate hain pragyaa ritambharaa se
jab ho jaataa hai hriday- uday
naa raahat sanshay na atakal
hota prabhoot tab hridy- hriday
tab ved-shaastra, vigyaan, darshan
karate pratipaadit gyaan gambheer
main kya .......
ab chaahoon ritambhara pragyaa
aur ban jaoon main gyaanavriddh
sanghaat rogon kee hai chikitsa
pragyaa se jaane rit va satya
tujhako paane ke lie prabhu
ho jaoon jeevan mein vinayasheel
main kya.........
17.11.2023
19.25 raatri
Vedic Mantra
Na vi janaami yadivedmasmi ninayah sannadho manasa charami.
Yadamag prathamajā ritasya aadid vaacho ashnuve bhagamasya:
R•1.164.37 Atharva• 9/10/15
Vedic Hymn 1166th
Raag Kaafi
Singing Time Second quarter of the night
Tala Kaharva Eight measure
What am I? Am I the body?
Am I a traveller of births?
Am I immortality? Either slavery
Or a slave of circumstances, Niwar
What am I..
What is the world? Where am I going?
What is my relation with it?
What is the finiteness in this bondage?
What is its beginning? Is its end?
The pain of the mind is trapped in the web of Brahma. What am I......
I am suppressing myself in doubt
And wandering here and there
I do not find the satisfaction of knowledge anywhere
Should I ask where? And what should I do?
Should I ask the philosophers and scientists
about its true picture.
What am I..........
They say wisdom from the Ritambara
When the heart rises
No relief, no doubt, no guess
Then the heart becomes full of wisdom
Then the Vedas, scriptures, science, philosophy
Propound the deep knowledge
What am I........
Now I want Ritambara wisdom
And I become a wise person
Will know the truth and the truth
To attain you, O Lord
I will become humble in life
What am I........
17.11.2023
19.25 night
Meaning of words:-
Raahgeer = traveller, traveller
Dasatva = slavery
Niveer = without authority
parimitataa= limit, measure, quantity
Peer = pain
Pragya = intelligence
Ritambara = Satvik intelligence that always lives with one emotion
Prabhoot = born, came out
Hridya = thrilled, astonished
Pratipaadit = certain
Gyanvriddh = extremely knowledgeable
Sanghaat = blow, collision
🕉🧘♂️159th Vedic Bhajan of the first series
1166th Vedic Bhajan till now
Hearty greetings to all Vedic listeners 🙏🎧
What am I?
What am I? Am I the body? Where did consciousness come from in it? Am I really immortal? I cannot understand this. Or am I a slave of circumstances? Can I ever be free from these bonds of finitude? What is this world for? Where is it going? What is my relation with it? I cannot understand anything. In our philosophy, some say one thing, some another. On the other hand, the philosophers of the West say something and the scientists say something else. I feel bound from all sides, burdened with doubts, I wander here and there, but there is no knowledge-satisfaction anywhere. It is said that when 'Ritambhara Prajna' arises, then there is no doubt. In its light, every object appears exactly as it is, there can be no doubt and confusion there. That yoga is direct, he gets the realization of every element. Oh! If I get that 'Ritambhara Prajna', then the meaning of all the world's sayings, Vedas, scriptures, philosophy and science will be solved. Whatever these different sayings, all the new and old scriptures say, I will get the meaning of them. Then these seemingly contradictory sayings of the scriptures will not be able to mislead me. That 'Ritambhara Prajna' is all I need and nothing else. That is the only cure for this terrible disease of mine. Without that, I cannot get peace from any worldly knowledge. Ah! Ritambhara Prajna! Ritambhara Prajna!! All my efforts are for that.
🕉🧎♂️singer, inst.player, and lyrics writer:-
Lalit mohan sahani
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