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दारा सिंह की आत्मकथा- अध्याय-2

दारा सिंह की आत्मकथा- अध्याय-2 - मेरा जन्म। मेरा जन्म 19 नवंबर 1928 का है कि 17 नवंबर 1928 का है, ये फैसला अब तक नहीं हो सका है। क्योंकि अमृतसर के रजिस्ट्रार के रजिस्टर में लिखा है 17-11-1928 और एक ज्योतिषी पंडित के पास जाकर मां ने संवत विक्रमी बताकर, और यह बताकर कि दिन इतवार का था और तड़के के सूरज की लाली ऊपर आ रही थी जब मेरा जन्म हुआ था, पंडित से मेरी जन्मतिथि पूछी तो उसने 19 नवंबर बताई थी।

यह सारी गड़बड़ इसलिए हुई क्योंकि जब मैं हिंदुस्तान का कुश्तियों का चैंपियन बन गया तो अखबार वालों ने मुझसे पूछा कि पहलवान, तेरी उम्र कितनी ह ै? मैंने उन्हें अंदाज़न अपनी उम्र बताई तो उन्होंने मेरा मज़ाक उड़ाया। उसी दिन मैंने ये गांठ बांध ली थी कि अपनी सही उम्र का पता ज़रूर करूंगा। क्योंकि ये ज़रूरी है। पासपोर्ट बनवाते वक्त भी अंदाज़न ही उम्र बताई थी। पासपोर्ट का फॉर्म भरने वाला पढ़ा-लिखा आदमी था। उसने कहा था कि अंदाज़े से उम्र बताओगे तो पासपोर्ट नहीं बनेगा। मैंने उसे अपनी मजबूरी बताई कि मुझे अपनी सही उम्र पता नहीं है, मैं क्या करूं? उसने कहा कि पासपोर्ट 18 साल की उम्र के लोगों का बनता है। तुम कहते हो कि तुम्हारी उम्र 18-19 साल है। हम कम से कम 20 साल उम्र लिखेंगे। यही बेहतर होगा। मैंने उससे कहा कि ये तो झूठ बोलना होगा। उसने कहा कि तुम्हें ये झूठ ज़ुबानी नहीं बोलना होगा। मैं फॉर्म भर देता हूं। तुम दस्तखत कर दो। पासपोर्ट तुम्हारे घर पहुंच जाएगा। मैंने सुख की सांस ली और फॉर्म पर दस्तखत कर दिए। 

ये उपरोक्त किस्सा सिंगापुर के एक गुरुद्वारे में हुआ था। 1947 में जब देश आज़ाद हुआ था तब सिंगापुर आए हुए मुझे एक महीना ही हुआ था। 1948 में सिंगापुर में ऐलान हुआ कि सभी हिंदुस्तानी अपना पासपोर्ट बनवा लो। ताकि कल को जब अपने देश वापस जाओ तो कोई परेशानी ना हो। क्योंकि हम तो मद्रास शहर से एक परमिट लेकर सिंगापुर आ गए थे। उस समय पासपोर्ट की ज़रूरत ही नहीं होती थी। तब हिंदुस्तान और सिंगापुर, दोनों जगह अंग्रेजों का राज था। 
जिस दिन भारत सरकार द्वारा बनाए गए पासपोर्ट लोगों को मिले, लोग खुशी के मारे झूम उठे। मानों नया जन्म हुआ हो। कुछ लोग तो कई दिनों तक अपने पासपोर्ट जेबों में डाले घूमते रहे। उस समय मुझे आज़ादी और गुलामी की ज़्यादा जानकारी नहीं थी। मैं तो इसलिए खुश था कि पासपोर्ट बनने के बाद अब मुझे हिंदुस्तान वापस अपने घर जाने में कोई परेशानी नहीं होगी।

वैसे, पासपोर्ट बनवाने का फायदा मुझे अगले साल ही मिल गया, जब अचानक ही मुझे कुश्ती लड़ने इंडोनेशिया जाना पड़ा। वो सारा प्रोग्राम इतनी जल्दी बना था कि अगर मेरे पास पासपोर्ट ना होता तो मैं इंडोनेशिया के बतावी और बांडूप जैसे शहर ना देख पाता। कुश्तियों का कॉन्ट्रैक्ट साइन करने का वो मेरा पहला मौका था। कॉन्ट्रैक्ट अंग्रेजी में था। लेकिन मैंने उस पर पंजाबी में दस्तखत किए। मुझे जो बताया गया था तब उस पर भरोसा करके मैंने साइन तो कर दिए थे। लेकिन फैसला कर लिया था कि इतनी अंग्रेजी तो ज़रूर सीखनी है कि कॉन्ट्रैक्ट पढ़ना आ सके।

मैं और मेरे गुरू हरनाम सिंह जब कुश्ती लड़ने इंडोनेशिया गए थे तब उस ज़माने का सिंगापुर का मशहूर बॉक्सर जगरी सिंह भी हमारे साथ ही गया था। उसका वहां कोई बॉक्सिंग मैच था। हम तीनों एक ही होटल में ठहरे थे। सुबह की कसरत के बाद मैं नियम से अंग्रेजी पढ़ने बैठ जाता था। गुरूमुखी में लिखे अंग्रेजी के कायदे से मैं जल्दी ही ए बी सी से जेड तक पहुंच गया। एकदिन सिंगापुर से ठेकेदार की अंग्रेजी में लिखी एक चिट्ठी आई। जगरी सिंह ने मुझे उस चिट्ठी का मतलब तो समझा दिया था। लेकिन मुझे ज़रा भी तसल्ली नहीं हुई थी। वो चिट्ठी मैंने उस वक्त तक अपने पास संभाल कर रखी जब तक कि मैं खुद भी थोड़ी-बहुत अंग्रेजी लिखना-पढ़ना नहीं सीख चुका था। 

मेरे गुरू हरनाम सिंह जी को तो पंजाबी तक भी लिखनी-पढ़नी नहीं आती थी। उनकी चिट्ठियां भी मुझे ही लिखनी-पढ़नी पड़ती थी। वो मेरी अंग्रेजी की पढ़ाई का बड़ा मज़ाक उड़ाते थे। कहते थे कि इसे पढ़कर कौन सा जेलदार बनना है। मैं उनसे कहता कि गुरूजी, मुहावरा तो पटवारी का है। आपने जेलदार बना दिया। वो कहते, तूने मुझे जड़ी-बूटियों के साथ मिला दिया। मैं तो अमरीका और अफ्रीका भी घूम आया हूं। कभी-कभी गुरूजी अपने एक और शिष्य सौदागर सिंह से मज़ाक में कहते थे- आखिर इन धूतियों ने कौन सी दुनिया देखी...

सौदागर सिंह उनका शिष्य ज़रूर था। लेकिन कभी-कभी वो दोस्तों की तरह सलूक कर लिया करता था। माझे वालों को खब्बल कहना और मलवाईयों की तारीफ करना उसका रोज़ का शौक था। धूते और खब्बल शब्द सिंगापुर में रहने वाले पंजाबी लोगों के लिए नए नहीं थे। लेकिन आपको शायद समझ में ना आएं इसलिए इनका खुलासा करना ज़रूरी है। खब्बल और धूते, दोनों का मतलब ही मूर्ख होता है। माझे वालों का मालवे वाले बड़े प्यार से खब्बल कहते थे। और माझे वाले भी पूरी इज्ज़त के साथ मलवाइयों को धूते कहते थे। वैसे तो सबका एक सांझा गुरुद्वारा सिंगापुर में है। लेकिन इन लोगों ने अलग-अलग गुरूद्वारे भी बनाए हुए थे। उन्हें देखा देख दुआबियों(दुआबा वाले) ने भी अपना गुरूद्वारा बना लिया।

अरे अरे... मैं तो सिंगापुर की कहानी ही आपको पहले सुनाने लगा। ये तो आगे बतानी ही है। इसलिए पहले जन्म की बात कर लेते हैं। तारीख कौन सी थी वो बाद में तय हो जाएगा। सुनै है मेरे जन्म के वक्त घरवालों ने बड़ी खुशियां मनाई थी। मेरे ननिहाल वालों ने रिवाज से बढ़कर खर्च किया था। कपड़े-लत्तों के अलावा मेरे मामाओं ने मेरे कानों में नत्तियां(बालियां) भी पहनाई थी। उनके निशान आज भी मेरे कानों पर मौजूद हैं। उस दौर में आदमी भी औरतों की तरह कानों में कुछ ना कुछ पहनते थे। कबीलों के ज़माने से देश की आज़ादी तक ये रिवाज़ चलता आया था। लेकिन बाद के पढ़े-लिखों ने उस रिवाज़ का नामोनिशान ही मिटा दिया। अब तो कभी-कभार ये शौक फिल्मों के हीरो अपनी फिल्मों के ज़रिए पूरा करते हैं। 

मेरी मां कहती थी कि उन नत्तियों की वजह से मेरे कान सूज गए थे। मैं बहुत रोता था। चुप कराने से भी चुप नहीं होता था। एक रात तो मैं इतना रोया कि बापू ने मां से कहा,"इसे परनाले से बाहर फेंक दे।" बाहर बारिश का शोर था और अंदर मेरे रोने का। बेचारा मेरा बापू दुखी हो गया होगा। कई दिनों बाद ननहिला वालों की रज़ामंदी से जब मेरे कानों से नत्तियां उतारी गई तो मैंने घरवालों को चैन से सोने दिया था। 

उन दिनों गाव के बच्चों का नाम रजिस्ट्रार के पास दर्ज कराने की ज़िम्मेदारी रपटों की होती थी। हमारे गांव में जो रपटा था उसका नाम था बरवाला। जब तक दस-बारह बच्चों के जन्म की खबर उसे नहीं मिल जाती थी तब तक वो बच्चों के नाम दर्ज कराने शहर में जाता ही नहीं था। लड़कों के नाम तो फिर भी देर-सबेर लिखवा आता था। लेकिन लड़कियों के नाम तो उसने काकी ही रख दिए थे। और इसकी जानकारी हमें तब लगी थी जब एक दिन हमने खुद अपना व गांव के दूसरे लड़के-लड़कियों का नाम रजिस्टर में देखा था।

नोट- दारा सिंह जी की आत्मकथा का यह दूसरा अध्याय था। अगले यानि तीसरे अध्याय का नाम है मेरा बचपन। जल्द ही वो अध्याय भी साझा किया जाएगा। कमेंट बॉक्स में पहले अध्याय का लिंक मिल जाएगा। जिस किसी भाई-बहन को दारा सिंह जी की कहानी का पहला अध्याय पढ़ना हो वो वहां से पढ़ सकते हैं। क्योंकि कहानी तो वहीं से शुरू होती है। #DaraSingh #darasinghbiography #meriatmakatha

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