"अध्याय 1- मेरा गांव और मेरे बड़े बूढ़े।" मेरा गांव धरमूचक्क अमृतसर से बाईस मील दूर है। अमृतसर से हरगोबिन्दपुर जाने वाली सड़क पर मेरा गांव मौजूद है। मेन सड़क से उतरकर दो मील का एक पक्का टुकड़ा मेरे गांव तक जाने के लिए बना है। ये अलग बात है कि उस टुकड़े में अब इतने गड्ढे हो चुके हैं कि अब ना तो उसे कच्चा रास्ता कहा जा सकता है और ना ही पक्की सड़क बोला जा सकता है। छोटी सी उस सड़क के बनने की भी एक कहानी है। वो कहानी आगे बताऊंगा। पहले ज़रा पूर्वजों का वर्णन कर लेते हैं।
इस गांव को बसे लगभग पांच सौ साल हो चुके होंगे। धरमू नाम का हमारा एक पूर्वज था। यहां से दो मील दूर कुहाटविंड नाम का एक गांव था, वो वहां से आया था। धरमू ने अपना एक अलग गांव बसा लिया। या कह लीजिए कि घरवालों से झगड़ा कर लिया होगा उसने। सास-बहू का झगड़ा तो तब भी होता होगा। वजह चाहे जो भी रही हो, पर धरमू ने अपना अलग गांव बसाया और उस गांव का नाम रख दिया धरमूचक्क।
इस गांव को पांच सौ साल पुराना मैं इसलिए बता रहा हूं क्योंकि हमारे गोत्र के, यानि रंधावों के कई गांव इस इलाके में थे। और बाबा बूढ़ा रंधावा भी इसी गांव के थे जो एक दिन जानवरों को चराते हुए गुरू नानकदेव से मिले और उनके सेवक बन गए। उसी ज़माने में धरमू और उसके दूसरे भाईयों ने और कई गांव बसा लिए थे। जैसे धरमूचक्क, चन्ननके, भोलेवाला और सैदपुर। पिछली 17-18 पीढ़ियों से धरमू रंधावे की औलादें इस गांव में हैं। धरमू रंधावे के परिवार की सारी पीढ़ियों का वर्णन विस्तार से करूंगा तो बहुत वक्त लग जाएगा। मैं एक लड़ी को पिरोता हुआ अपने जन्मदिन तक आता हूं।
धरमू का बेटा चढ़त, और चढ़त का खोखर, खोखर का बेटा पठान और पठान का सांदारण, सांदारण का ढींगा और ढींगे का नंदा, नंदे का बेटा गुरदास और गुरदास का बेटा पलात, पलात का बेटा देवा और देवे का बेटा दसौंदा सिंह, दसौंदा सिंह का उत्तम सिंह और उत्तम सिंह का रूपा सिंह, रूपा सिंह का गुरदित्त सिंह और गुरदित्त सिंह का बूड़सिंह। बूड़ सिंह का सूरत सिंह और सूरत सिंह का मैं दारा सिंह और मेरा छोटा भाई सरदारा सिंह रंधावा।
हम दोनों भाईयों का जन्म तब हुआ था जब हमारे पिता सूरत सिंह के पास ना के बराबर ज़मीन थी। पांच सौ सालों में धरमू का परिवार बढ़ा गांव में और कई घर बन गए। किसी ने कोई दूसरा गांव बसाने की कोशिश नहीं की। हमारे परदादा रूपा सिंह ने तो दूसरे गांव के अपने रिश्देारों से लड़कर अपने कुछ कट्ठे उनके नाम कर दिए थे। उन्होंने सोचा था कि वो रिश्देार ज़मीन का लगान भरते रहेंगे। लेकिन लगान वसूली वाले आए तो उनका लगान सुनकर हमारे लोगों ने शोर मचा दिया कि हम तो इतना लगान हर साल देते हैं। इस दफा ज़्यादा लगान क्यों लिया जा रहा है? लगान वसूलने वालों ने बताया कि आपके नाम पर ज़मीन बढ़ गई है। इसलिए ज़्यादा लगान लगा है। उन बेचारों को ज़्यादा लगान देना ही पड़ा। और अगला साल आने से पहले बड़े लड़ाई-झगड़े करके अपने नाम से ज़मीन हटवाई। उस ज़माने में ये थे ज़मीनों के हाल।
एक दफा गांव की हद को लेकर पड़ोस के एक आदमी से हमारे पूर्वजों का झगड़ा हो गया। ज़मीन की कमी तो हमारे पूर्वजों को भी तब तक महसूस होने लगी थी। पर चूंकि वो धर्म पर बहुत विश्वास करते थे तो जिससे लड़ाई हुई थी उससे कहा कि गाय की सौगंध लेकर तुम जहां से भी निकल जाओगे वहीं गांव की सीमा बना दी जाएगी। उस आदमी ने ना आव देखा ना ताव और गाय की कसम लेकर वो तो धरमूचक्क की तरफ दौड़ा। कहते हैं कि एक बूढ़ी औरत गांव के पीछे बैठी थी। उसने एक ईट उठाकर उस आदमी को मारी तो उसने पीछे मुड़कर देखा। नहीं तो वो धरमूचक्क वालों के लिए जंगल-पानी जाने लायक ज़मीनें भी ना छोड़ता।
ज़मीन की कमी की वजह से हमारे दादा बूड़ सिंह ने पास के एक गांव में ज़मीन खरीदी थी। दादा चार भाई थे- लाल सिंह, बंगा सिंह, मल्ला सिंह और बूड़ सिंह। वो लोग रोज़ उस गांव जाकर ज़मीन जोतते और जानवरों के लिए चारा भी सिर पर ढोकर लाते। वो कुल 120 बीघा ज़मीन थी जो उन्होंने 120 रुपए देकर खरीदी थी। उस ज़मीन से होने वाली कमाई से ही अपने परिवार का गुज़ारा चलाया था। मगर जब कागज़ के नोट शुरू हुए तो रुपए की कीमत घट गई। जिन लोगों ने पड़दादा और उनके भाईयों को ज़मीन बेची थी उन्होंने छह बीघा ज़मीन गिरवी रखकर 120 रुपए कर्ज़ लिया और हमारे बुज़ुर्गों को देकर वो ज़मीनें वापस ले ली। गांव की ज़मीन बंटती-बंटती इतनी कम हो चुकी थी कि हमारे दादा के हिस्से में सिर्फ पांच बीघा ही आई।
सीमित परिवार का नारा भी तब किसी नेता ने नहीं लगाया था। अंग्रेज तो ज़्यादा बच्चे पैदा करने वालों को ईनाम देते थे। किसी तरह परिवार का गुज़ारा हो रहा था तब। उस वक्त हमारे दादा को अपने दादा रूपा सिंह द्वारा अपनी ज़मीन लड़कर दूसरों के नाम करने वाली बात पर बड़ा दुख होता था। वो हाल सिर्फ हमारे दादा का नहीं था। बाकी रिश्तेदारों का भी था। कई लोग तो कमाने के लिए गांव के बाहर जाकर भी हाथ-पैर मारना शुरू कर चुके थे।
धरमू के छोटे पौत्र की पीढ़ियों के कुछ लोग पैसा कमाने हॉन्ग कॉन्ग चले गए। हमारी तरफ के दो भाई भी उनके पास पहुंच गए। लेकिन वो बेचारे परदेश जाकर इतना दुखी हुए कि बीमार हो गए। साथियों ने सलाह दी कि वापस हिंदुस्तान लौट जाओ। उन बेचारों ने कहा कि हमें बटारी स्टेशन तक छोड़ दो तो हम अपने गांव पहुंच जाएंगे। उन बेचारे भोलों की उस बात का कई सालों तक गांव में मज़ाक बनाया गया। लेकिन उन बेचारों को बटारी स्टेशन से आगे के रास्ते के बारे में कुछ पता ही नहीं था। बटारी स्टेशन धरमूचक्क से सात-आठ मील दूर था। वे बेचारे क्या करते। उनके लिए तो बटारी से आगे सब परदेस था। चाहे दिल्ली हो या लंदन, सिंगापुर हो या हॉन्ग कॉन्ग। किसी तरह एक आदमी के साथ वो वापस लौटकर आए और चैन की सांस लेकर कसम खाई की अब कभी भी गांव के बाहर नहीं जाएंगे।
अंग्रेजों के दौर में लोग रेल के ज़रिए ही शहर जाया करते थे। इसलिए तब रेलवे स्टेशनों के पास बसे गांव के लोग अपने आपको बड़ा तीसमार खां समझते थे। ये मैं इसलिए कह रहा हूं कि मेरे नाना का घर बटारी स्टेशन से अगले गांव रतनगढ़ में था। जब कभी बचपन में हम ननिहाल जाते थे तो बिजली के ऊंचे-ऊंचे खंभों को देखकर बड़े हैरान होते थे। हम सोचते थे कि यहां रहने वालों के तो बड़े मज़े हैं। रेलगाड़ी देखकर बड़ा मज़ा आता था। कभी अगर हवाई जहाज़ गांव के ऊपर से गुज़रता था तो पूरा गांव जमा हो जाता था। कोई कहता कि यहां से देखने में छोटा लग रहा है। लेकिन है बहुत बड़ा। गड्ढे जितना बड़ा है। कई दफा हवाई जहाज़ को लेकर बहस हो जाती तो गांव के फौजी चाचा से सही गलत पूछा जाता था।
मेरा जन्म 19 नवंबर 1928 को हुआ था। और मैं जो रेल व हवाई जहाज़ वाली बात बता रहा हूं वो 1933-34 के आस-पास की होगी। बाबा बूढ़ सिंह के पांचों बेटों में सबसे बड़े थे मेरे पिता सूरत सिंह। कमाई कम होने की वजह से उस ज़माने में बहुत से लोग कुंवारे ही रह जाते थे। इसलिए तो कुंवारों पर इतने लोकगीत बने हैं। हमारे दादा को अपने बेटों की फिक्र हुई। वो नहीं चाहते थे कि उनका कोई बेटा कुंवारा रहे। हमारी मां की बुआ हमारे दादा के बड़े भाई बंगा सिंह के घर ब्याही थी। उन्होंने ही हमारे माता-पिता का रिश्ता कराया था। हमारे नाना के पास ज़्यादा ज़मीनें थी। उनका घर खुशहाल था।
शादी में खर्च तो होता ही है। इसलिए दादा ने कर्ज़ा लेकर हमारे पिता की शादी करा दी। ब्याह बड़ी शान से हुआ था। लेकिन जल्दी ही कर्ज़ उतारने की चिंता भी आ गई। पिता जी बड़े थे तो उन पर ज़्यादा ज़िम्मेदारी थी। फैसला हुआ कि खेती के भरोसे कर्ज़ नहीं उतर सकेगा। बाहर जाकर ही किस्मत आज़माई जाएगी। हमारे पिता के नाना के परिवार की तरफ का कोई आदमी सिंगापुर में काम करता था। उसके ज़रिए हमारे पिता सिंगापुर चले गए। वहां कई काम किए। लेकिन कुछ खास आदमनी ना हुई। दुखी होकर दादा ने पिता जी को वापस बुला लिया।
गांव लौटकर भी कर्ज़ की चिंता बनी रही। ये नुकसान और हो गया कि रिश्तेदारों को भी पता चल गया कि ज़मीन गिरवी रखकर शादी के लिए कर्ज़ लिया था। मजबूरी में मां के गहने बेचकर ही साहूकार को उसका कर्ज़ा चुकाया गया। कर्ज़ा उतरा तो पिता जी की चिंता खत्म हुई। वो फिर से सिंगापुर चले गए। अपने तीन छोटे भाईयों को भी साथ ले गए। जबकी उनके एक भाई फौज में भर्ती हो गए। खेती करने के लिए हमारे दादा अकेले ही काफी थे। जब धरमू ने धरमूचक्क बसाया था तब गांव की ज़मीन 900 बीघा थी। मगर हमारे दादा तक आते-आते हर घर के पास 5-10 बीघा ज़मीन ही रह गई। बेचारे धरमूचक्क वाले गांव छोड़कर दूर-दराज जाना शुरू हो गए। और फिर तो धरमूचक्क में खूब मनीआर्डर आने लगे।
नोट- ये कहानी दारा सिंह की ऑटोबायोग्राफी मेरी आत्मकथा से ली गई है। ये उस किताब का पहला अध्याय है। समय-समय पर दारा सिंह जी की आत्मकथा के अन्य अध्याय भी क्रमबद्ध तरीके से प्रस्तुत किए जाते रहेंगे। जैसे अगला अध्याय है "मेरा जन्म।" #DaraSingh #meriaatmkatha
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